भारतीय राजनीति और सरकार UNIT 9 SEMESTER 2 THEORY NOTES भारतीय राज्य की परिवर्तित प्रकृति 1. विकासात्मक और कल्याणकारी आयाम 2. उत्पीड़क आयाम DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakजनवरी 02, 2025
विकासात्मक और कल्याणकारी आयाम
प्रस्तावना
उपनिवेशी शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक रूप से चुनौतियों से घिरा हुआ था। विभाजन, गरीबी, और असमानता जैसे मुद्दों ने देश को जकड़ रखा था। बावजूद इसके, हमारे नेताओं ने एक मजबूत संविधान का निर्माण किया, जिसने लोकतंत्र, समाजवाद, और संघीय संरचना पर आधारित शासन प्रणाली को स्थापित किया। नेहरूवादी योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था, इंदिरा गांधी की गरीबी हटाओ नीति, और 1990 के दशक के उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण जैसे सुधार भारत की राजनीतिक और आर्थिक नीतियों को आकार देते रहे। अंतर्राष्ट्रीय घटनाएँ, जैसे सोवियत संघ का विघटन और शीत युद्ध, तथा पड़ोसी देशों के साथ युद्धों ने भारत की नीतियों को प्रभावित किया। भारत ने तकनीकी प्रगति और मानव संसाधन विकास के माध्यम से इन चुनौतियों का सामना किया और वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी स्थिति मजबूत की।
भारत का विकासात्मक आयाम (Developmental Dimension of India)
भूमि सुधार और कृषि: भारत की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी, इसलिए भूमि सुधारों पर जोर दिया गया। हालांकि, ये सुधार केवल कुछ राज्यों (जम्मू-कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा) में प्रभावी रहे।
औद्योगिकीकरण और नियोजन: नेहरू और सुभाष चंद्र बोस ने औद्योगिक विकास के लिए "सम्पूर्ण भारत औद्योगिक योजना" शुरू की। राष्ट्रीय योजना समिति ने नीति निर्माण में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया। गांधीजी ने मशीनीकरण का विरोध किया, पर उनके विचारों का सम्मान रखा गया।
स्वतंत्रता और विकास का संबंध: 1940 के दशक में विदेशी शासन को भारत के विकास में सबसे बड़ा अवरोध माना गया। स्वराज को आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए अनिवार्य शर्त के रूप में देखा गया।
स्वतंत्रता पश्चात विकास की दिशा: 1947-1969 में "कांग्रेस व्यवस्था" के तहत भारत ने सोवियत शैली की नियोजन प्रक्रिया अपनाई। हरित क्रांति के जरिए कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी हुई। 1962 और 1965 के युद्धों तथा खाद्य संकट ने औद्योगिक प्रगति को बाधित किया।
इंदिरा गांधी और समाजवादी नीतियाँ: "गरीबी हटाओ" जैसे नारों के माध्यम से इंदिरा गांधी ने विशेष योजनाएँ शुरू कीं। अनुसूचित जाति, जनजाति, महिलाओं, और अल्पसंख्यकों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रम लागू किए गए।
गठबंधन राजनीति और आर्थिक सुधार: 1980 के दशक में राजीव गांधी ने प्रौद्योगिकी और संचार में सुधार पर ध्यान दिया। 1991 में पी. वी. नरसिम्हा राव ने आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण को लागू किया।
विकास की प्राथमिकताएँ: चक्रवर्ती के अनुसार, भारत के नियोजन का मुख्य उद्देश्य संचय और वैधीकरण के बीच संतुलन बनाना था। इन दोनों को विकास के प्रमुख लक्ष्य माना गया।
भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था (India's Political Economy)
राजनीतिक अर्थव्यवस्था की परिभाषा: राजनीतिक अर्थव्यवस्था में आर्थिक नीतियों और राजनीतिक ढाँचे का आपसी संबंध होता है। यह बाजार अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र की भूमिका को समझने का प्रयास करती है।
प्रारंभिक चरण: उपनिवेशी शासन के प्रभाव के कारण व्यापार उदारीकरण का विरोध किया गया और घरेलू उत्पादों को संरक्षण दिया गया। लघु उद्योगों और तकनीकी सहायता के लिए राज्य हस्तक्षेप को आवश्यक माना गया।
नियोजन और हरित क्रांति: नेहरू ने नियोजन और राज्य हस्तक्षेप को प्राथमिकता दी। हरित क्रांति से कृषि उत्पादन बढ़ा, लेकिन इसका लाभ केवल पंजाब, हरियाणा, और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धनी किसानों तक सीमित रहा।
इंदिरा गांधी का दौर: इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाने के उद्देश्य से राष्ट्रीयकरण की नीतियाँ अपनाईं, लेकिन सामाजिक असमानता और राजनीतिक विरोध बढ़ा। आपातकाल के दौरान असंतोष चरम पर पहुँचा।
लाइसेंस राज और औद्योगिकीकरण: लाइसेंस राज के कारण औद्योगिक प्रगति धीमी रही। राजीव गांधी ने औद्योगिक नियंत्रण में कमी की और तकनीकी प्रगति को प्रोत्साहित किया।
कृषि और ग्रामीण क्षेत्र: 1980 के दशक में कृषि विकास दर 3.4% रही। किसान संगठनों ने सरकार पर मूल्य और सब्सिडी से संबंधित दबाव बनाया।
1991 के आर्थिक सुधार: राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक समस्याओं के कारण 1991 में उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण की शुरुआत हुई।
तकनीकी और सूचना प्रौद्योगिकी का विकास: 1980 के दशक में सूचना प्रौद्योगिकी में तेजी आई। सॉफ्टवेयर आयात, अंग्रेजी शिक्षा, और इंजीनियरिंग कॉलेजों की वृद्धि ने इस क्षेत्र को आगे बढ़ाया।
उत्तर-उदारवाद और भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक परिवर्तन
1980 के दशक से शुरुआत: 1980 के दशक से भारतीय अर्थव्यवस्था में बदलाव दिखने लगे थे, जो 1991 में व्यवस्थित सुधारों के रूप में स्पष्ट हुए। वैश्विक कूटनीति के अनुरूप नियामक नीतियों में बदलाव ने तकनीकी और आर्थिक रणनीतियों को प्रभावित किया।
उदारवाद का आगमन: उदारवाद के तहत राज्य का हस्तक्षेप कम हुआ और संरचनात्मक सुधार लागू किए गए। इससे भारत की आर्थिक क्षमता और विकास दर में वृद्धि हुई।
1991 का आर्थिक संकट: 1991 में वित्तीय घाटा 9% तक पहुँच गया और विदेशी मुद्रा भंडार केवल दो सप्ताह के आयात के लिए बचा था। नरसिम्हा राव सरकार ने लाइसेंस कोटा राज समाप्त कर आर्थिक सुधारों की शुरुआत की।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI): उदारीकरण ने विदेशी निवेश के लिए रास्ता खोला। प्रशुल्क दरों में कमी और व्यापार प्रोत्साहन से निर्यात दोगुना हुआ। विदेशी कंपनियों ने नौकरियों के नए अवसर प्रदान किए।
व्यापार और औद्योगिकीकरण: टैरिफ में कमी और रुपए की परिवर्तनीयता ने व्यापार को आसान बनाया। औद्योगिकीकरण ने शहरीकरण, आधुनिकीकरण और राजनीतिक जागरूकता को बढ़ावा दिया।
ग्रामीण क्षेत्र और सामाजिक प्रभाव: ग्रामीण क्षेत्रों में आरक्षण और तुष्टीकरण की बहस ने सामाजिक तनाव पैदा किया। शहरीकरण से ग्रामीण-शहरी प्रवासन में वृद्धि हुई।
आर्थिक प्रदर्शन और सेवा क्षेत्र का विकास: 1991 के बाद GDP वृद्धि तेज हुई और 2003-2006 में यह 7.5%-8.5% तक पहुँची। सेवा क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था को स्थिरता और मजबूती प्रदान की।
समावेशी वृद्धि की चुनौतियाँ: हालाँकि आर्थिक सुधारों से प्रगति तेज हुई, लेकिन संसाधनों का असमान वितरण और समावेशी वृद्धि अभी भी बड़ी चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धांत
मौलिक अधिकार न्याय की गारंटी देते हैं, और नीति निर्देशक सिद्धांत सरकार को जीवन स्तर सुधारने का मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
महिला और बाल कल्याण: महिला और बच्चों के लिए ICDS, साक्षरता कार्यक्रम, पुनर्वास, और निःशुल्क शिक्षा जैसी योजनाएँ लागू की गईं।
अनुसूचित जाति/जनजाति और अल्पसंख्यक कल्याण: आरक्षण, रोजगार योजनाएँ, वित्तीय सहायता, और अल्पसंख्यक विकास कॉर्पोरेशन के माध्यम से कमजोर वर्गों को सशक्त किया गया।
ग्रामीण और शहरी विकास: सर्व शिक्षा अभियान, MNREGA, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, PDS, और टीकाकरण कार्यक्रमों ने विकास और जीवन स्तर सुधारने में योगदान दिया।
भारत: एक कल्याणकारी राज्य और चुनौतियाँ
कल्याणकारी राज्य का विचार स्वतंत्रता सेनानियों का सपना था, जिसे भारतीय संविधान के माध्यम से साकार किया गया। इस अवधारणा का उद्देश्य नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक कल्याण को सुनिश्चित करना है।
कल्याणकारी राज्य की अवधारणा: टी.एच. मार्शल की 'सामाजिक नागरिकता' में आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक हिस्सेदारी, और सम्मानजनक जीवन का अधिकार शामिल है। जयाल के अनुसार, भारत में कल्याणकारी राज्य धर्मार्थ और परोपकार पर आधारित है, जो पश्चिम के अधिकार-आधारित दृष्टिकोण से अलग है।
स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात स्थिति: ब्रिटिश शासन में भारत कल्याणकारी राज्य नहीं था; नीतियाँ केवल ब्रिटिश हितों को साधती थीं। स्वतंत्रता के बाद, असमानता और गरीबी के समाधान हेतु संविधान ने भारत को "समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य" के रूप में परिभाषित किया।
महत्त्वपूर्ण कदम और नीतियाँ
मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धांत: मौलिक अधिकार नागरिकों के लिए न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से संरक्षित किए गए हैं। साथ ही, नीति निर्देशक सिद्धांत राज्य को नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
महिला और बाल कल्याण: महिला और बाल विकास के लिए कई पहल की गईं, जैसे एकीकृत बाल विकास सेवा, महिलाओं के लिए साक्षरता, पुनर्वास और प्रशिक्षण कार्यक्रम, और बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा।
अनुसूचित जाति/जनजाति और अल्पसंख्यक: अनुसूचित जाति/जनजाति और अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण, रोजगार योजनाएँ, और वित्तीय सहायता जैसे कदम उठाए गए। अल्पसंख्यक वित्त एवं विकास कॉर्पोरेशन की स्थापना की गई, और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा तथा TRYSEM जैसी योजनाएँ लागू की गईं।
ग्रामीण और शहरी विकास: ग्रामीण और शहरी विकास के लिए सर्व शिक्षा अभियान, MNREGA, और बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाएँ चलाई गईं। ग्रामीण संरचना, आवास सुधार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS), और टीकाकरण जैसे कदमों ने विकास को बढ़ावा दिया।
चुनौतियाँ
स्वास्थ्य और शिक्षा पर कम व्यय: भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च कम है, 2019 तक शिक्षा पर बजट का 5% भी खर्च नहीं हुआ, जिससे सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
क्षेत्रीय और सामाजिक असमानता: क्षेत्रीय दलों की अस्थिरता और जाट, पाटीदार, मराठा आंदोलनों जैसे तनाव नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन में बाधा डालते हैं।
वैश्विक दबाव: WTO सदस्यता के कारण कई कल्याणकारी नीतियों पर सीमाएँ लगी हुई हैं, जो भारत की स्वतंत्र नीतियों को प्रभावित करती हैं।
नीतियों का प्रभावी क्रियान्वयन: भ्रष्टाचार, प्रशासनिक जटिलताएँ, और संसाधनों का असमान वितरण योजनाओं के सही कार्यान्वयन को बाधित करते हैं।
इक्कीसवीं सदी में भारत
बदलती आर्थिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि: 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की आर्थिक और राजनीतिक संरचना 21वीं सदी के भारत से पूरी तरह भिन्न थी। 2020 तक भारत क्रय शक्ति के आधार पर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है।
विकासात्मक आयाम और कौशल विकास: भारत का ध्यान अब आधारभूत आवश्यकताओं से हटकर कौशल श्रम, मानव संसाधन विकास, और जनसंचार तकनीकी की ओर स्थानांतरित हो रहा है। मेक इन इंडिया और कौशल भारत जैसी योजनाएँ तभी सफल हो सकती हैं जब सरकार जनसांख्यिकी लाभांश का सही उपयोग करे।
वैश्विक संदर्भ और चुनौतियाँ: अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते तनाव और मध्य एशिया में उभरते राजनीतिक असंतुलन भारत के लिए नई चुनौतियाँ खड़ी कर रहे हैं। भारत को गरीबी, भ्रष्टाचार, महिलाओं के प्रति भेदभाव, बौद्धिक संपदा अधिकार की क्रियान्वयन की कमजोरी, अपर्याप्त शिक्षा और स्वास्थ्य संसाधन, तथा शहरी प्रवासन जैसी समस्याओं का समाधान करना होगा।
नीतिगत और संस्थागत संरचना: भारत विकासात्मक परिवर्तन के शिखर पर है, और उसकी नीतियों का चयन भविष्य की दिशा तय करेगा। संतुलित और समावेशी विकास के लिए भारत को शहरी-ग्रामीण असंतुलन और कृषि संकट जैसे मुद्दों पर ध्यान देना होगा। इसके अलावा, एक नई संस्थागत संरचना की आवश्यकता है जो स्वा स्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर सके।
विचारधारा और नीतिगत विभाजन: 21वीं सदी का भारत एक परिवर्तनशील काल से गुजर रहा है, जहाँ विचारों के आधार पर जन विमर्श बँटा हुआ है। यह विभाजन संतुलित नीतियों के चयन में बाधा उत्पन्न करता है और अल्पकालिक व असंतुलित नीतियों को प्राथमिकता मिल रही है।
उत्पीड़क आयाम
प्रस्तावना
उत्पीड़न शक्ति राज्य की वह क्षमता है, जिससे दूसरों को नियंत्रित या प्रभावित किया जाता है। यह व्यक्तिगत और संस्थागत संदर्भ में प्रकट हो सकती है। लुइस क्रिसबर्ग के अनुसार, यह शक्ति राज्य की वैधता और शासन की स्थिरता सुनिश्चित करने में मदद करती है। 1947 में स्वतंत्रता के बाद, भारत को सामाजिक तनाव, धीमी अर्थव्यवस्था, और लोकतांत्रिक संस्थाओं की असफलता जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इन समस्याओं से निपटने के लिए, भारतीय राज्य ने अपनी उत्पीड़न शक्ति का उपयोग कर अनियंत्रित तत्वों को नियंत्रित किया। मार्क्सवादी विचार में, उत्पीड़न शक्ति शासक वर्ग के प्रभुत्व का मुख्य तत्त्व है। ग्राम्सी ने इसे राजनीतिक और नागरिक समाज के बीच विभाजित किया। राज्य द्वारा कानून व्यवस्था, कराधान, और नियामक शक्ति लागू करने के लिए उत्पीड़न शक्ति का उपयोग किया जाता है। हालांकि, इसका अत्यधिक प्रयोग वैधता को कम कर सकता है। आधुनिक राज्य, अपनी स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए, संतुलित तरीके से इस शक्ति का उपयोग करता है।
राज्य और गैर-राज्यकर्ता
भारत में राज्य और उसकी उपनिवेशीय विरासत: 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बावजूद भारत की संगठनात्मक संरचना में उपनिवेशीय विरासत की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। पुलिस, सेना, न्यायालय जैसी संस्थाओं का आधार ब्रिटिश शासनकाल में ही रखा गया था। उदाहरण के लिए, 1860 में निर्मित भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A, जिसे राजद्रोह कानून के रूप में जाना जाता है, आज भी विवादास्पद बनी हुई है। स्वतंत्रता के बाद भी, राज्य ने नियंत्रण बनाए रखने और समस्याओं को हल करने के लिए कई कठोर कदम उठाए, जिससे मानवाधिकार उल्लंघन और फर्जी मुठभेड़ों जैसी घटनाएँ सामने आईं।
राज्य बल और लोकतांत्रिक मूल्य: अरविंद वर्मा के अनुसार, IPC की कुछ धाराएँ राज्य को अनावश्यक शक्ति प्रदान करती हैं, जिससे नागरिकों के अधिकारों का हनन होता है। जैसे, धारा 124A के अंतर्गत नागरिक और छात्र अक्सर देशद्रोही करार दिए जाते हैं। कई बार यह शक्तियाँ राजनीतिक दलों द्वारा अपने विरोधियों को दबाने के लिए उपयोग की जाती हैं। लोकतंत्र के तहत राज्य बल का उपयोग एक संवेदनशील मुद्दा है, जहाँ कानूनों की अस्पष्टता से मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है।
लोकतंत्र और सामाजिक परिवर्तन: भारतीय राज्य की प्रकृति लोकतंत्र और शक्ति के बीच प्रतिस्पर्धा से आकार लेती है। लोकतंत्र असमान समाज में समानता और सुशासन की आशा प्रदान करता है। यह सार्वभौमिक मताधिकार, निष्पक्ष चुनाव, और स्वतंत्र मीडिया के माध्यम से सामाजिक बदलाव लाने का प्रयास करता है। हालांकि, जब राज्य अपने वादे पूरे करने में विफल रहता है, तो यह नागरिक असंतोष और आंदोलन को जन्म देता है।
गैर-राज्यकर्ता और उनकी भूमिका: गैर-राज्यकर्ता, जैसे आतंकवादी समूह, सामाजिक आंदोलन, और अलगाववादी संगठन, राज्य को प्रभावित करने के लिए अपनी रणनीतियों का उपयोग करते हैं। उनके उद्देश्यों और कार्यों के आधार पर इन्हें परिभाषित किया जाता है। उदाहरण के लिए, आतंकवादी समूह सामूहिक दंड और सहनशीलता की लागत पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जबकि सामाजिक आंदोलन राज्य की नीतियों को बदलने का प्रयास करते हैं।
दक्षिण कोरिया का उदाहरण: दक्षिण कोरिया में 1987 के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के बाद, लोकतंत्र का समेकन हुआ। हालांकि, कानून की स्पष्टता के बावजूद, राज्य द्वारा उत्पीड़न जारी रहा। The Law on Assembly and Demonstration में संशोधन ने नागरिकों को सामूहिक कार्रवाई का अधिकार दिया, जो लोकतंत्र की ओर एक महत्वपूर्ण कदम था।
उत्तर-पूर्वी भारत में राजद्रोह की समस्या, जम्मू-कश्मीर में राज्य प्रायोजित आतंकवाद और नक्सलवाद आन्दोलन
उत्तर-पूर्वी भारत में राजद्रोह: पूर्वोत्तर भारत उग्रवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित है। आठ राज्यों (असम, मणिपुर, नागालैंड, आदि) में अलगाववादी आंदोलनों के चलते अस्थिरता बनी रहती है। 1947 के बाद से उग्रवादी समूह सक्रिय रहे हैं, जो अधिक स्वायत्तता और विकास की कमी का आरोप लगाते हैं। केंद्र सरकार ने सैन्य कार्रवाई, पुलिस आधुनिकीकरण, और विकास योजनाओं के माध्यम से शांति लाने का प्रयास किया है, लेकिन उग्रवाद अब भी एक चुनौती है।
जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद: जम्मू-कश्मीर लंबे समय से भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का केंद्र है। 1989 के बाद उग्रवाद और आतंकवाद बढ़ा, जिसमें पाकिस्तान का समर्थन प्रमुख भूमिका निभाता है। कई अलगाववादी समूह स्वतंत्रता या पाकिस्तान में विलय की माँग करते हैं। भारतीय सेना ने आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई की है, लेकिन कट्टरपंथ और हिंसा अब भी बड़ी समस्या है।
नक्सलवाद आंदोलन: नक्सलवाद का आरंभ 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से हुआ। यह आंदोलन भूमि सुधार और गरीबों के अधिकारों के लिए शुरू हुआ था। आज यह ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिक असमानताओं की समस्या का प्रतीक बन गया है। सरकार ने नक्सलवाद को रोकने के लिए कानून बनाए और सुरक्षा बलों की तैनाती की, लेकिन यह समस्या अब भी बनी हुई है।
गैर-राज्यकर्ताओं को नियंत्रित करने के अधिनियम और प्रावधान
भारत में गैर-राज्यकर्ताओं द्वारा उत्पन्न खतरों को नियंत्रित करने के लिए कई कानूनी प्रावधान और अधिनियम बनाए गए हैं। ये प्रावधान राजद्रोह, आतंकवाद, और अन्य गैर-कानूनी गतिविधियों को रोकने में मदद करते हैं।
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A: राजद्रोह से संबंधित यह धारा "शब्दों, संकेतों, या दृश्य माध्यमों से सरकार के खिलाफ घृणा, अवमानना, या अप्रभाव लाने" के प्रयास को अपराध मानती है। हालांकि, इस कानून की आलोचना इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के रूप में देखते हुए की गई है। 1962 में केदार नाथ सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट ने इसका समर्थन किया, लेकिन हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था भड़काने की शर्त जोड़ी।
अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट, 1967 (UAPA): यह अधिनियम गैर-कानूनी संगठनों और अलगाववादी गतिविधियों को रोकने के लिए लागू किया गया। यह आतंकवादी गतिविधियों में शामिल व्यक्तियों और संगठनों पर कार्रवाई करने की अनुमति देता है।
सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम (AFSPA), 1958: इस कानून के तहत, सुरक्षा बलों को अशांत क्षेत्रों में विशेष शक्तियाँ दी गई हैं। यह पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू-कश्मीर में लागू है, हालांकि इसे मानवाधिकार उल्लंघन के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है।
आतंकवाद विरोधी अधिनियम
1. TADA (1985-1995): पंजाब में खालिस्तान आंदोलन के दौरान लागू किया गया।
2. POTA (2002): संसद हमले और अन्य आतंकवादी घटनाओं के बाद लाया गया।
3. COFEPOSA (1974): आर्थिक अपराधों और विदेशी मुद्रा उल्लंघनों के लिए।
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66A: यह ऑनलाइन आपत्तिजनक भाषण को रोकने के लिए था, लेकिन अस्पष्टता के कारण 2015 में इसे असंवैधानिक करार दिया गया।
राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA), 1980: यह अधिनियम किसी भी ऐसे व्यक्ति को हिरासत में लेने की अनुमति देता है जो राज्य की सुरक्षा, कानून और व्यवस्था, या भारत की संप्रभुता के लिए खतरा हो सकता है।
संविधान का सोलहवां संशोधन (1963): इस संशोधन के तहत राज्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अन्य मौलिक अधिकारों पर सीमित प्रतिबंध लगाने का अधिकार मिला, यदि यह भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए आवश्यक हो।