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भारतीय राजनीति और सरकार UNIT 7 SEMESTER 2 THEORY NOTES स्वतंत्रता के पश्चात् से भारत में विकास की कार्यनीति : योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था एवं नव-उदारवाद DU. SOL.DU NEP COURSES

भारतीय राजनीति और सरकार UNIT 7 SEMESTER 2 THEORY NOTES स्वतंत्रता के पश्चात् से भारत में विकास की कार्यनीति : योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था एवं नव-उदारवाद DU. SOL.DU NEP COURSES


स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारत

अगस्त 1947 में, भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त कर "भाग्य के साथ प्रयास" की प्रतिज्ञा पूरी करने की दिशा में कदम बढ़ाया। स्वतंत्रता के समय भारत के सामने दो प्रमुख चुनौतियाँ थीं:

  • राष्ट्र निर्माण: भारत का सबसे पहला लक्ष्य विभाजित रियासतों का एकीकरण और भारतीयों की आकांक्षाओं को पूरा करना था।
  • सामाजिक-आर्थिक विकास: औपनिवेशिक शोषण के प्रभाव के बाद, भारत के सामने गरीबी उन्मूलन और सामाजिक-आर्थिक न्याय की गंभीर चुनौती थी। जीवन स्तर को सुधारने के साथ-साथ पर्यावरण, आदिवासी समुदायों और समाज के अन्य वर्गों के बीच संतुलन और सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक हो गया। इन प्रयासों का उद्देश्य समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अवसर प्रदान करते हुए एक समावेशी विकास प्रक्रिया सुनिश्चित करना था।


 आर्थिक विकास और राज्य की भूमिका 

  • राज्य और बाज़ार का संतुलन: स्वतंत्रता के समय उद्योगों में पूँजी और उपभोग क्षमता की कमी को देखते हुए, राज्य ने अर्थव्यवस्था में समाजवादी दृष्टिकोण अपनाया। इसका उद्देश्य आर्थिक नियोजन और नियंत्रण के माध्यम से संसाधनों का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करना और औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करना था।
  • सार्वजनिक और निजी क्षेत्र का तालमेल: सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच तालमेल आवश्यक था, ताकि दोनों एक-दूसरे के पूरक के रूप में काम कर सकें। राज्य ने सामाजिक न्याय और आर्थिक प्रगति को सुनिश्चित करने के लिए लोकतांत्रिक तरीकों का सहारा लिया, जिससे संतुलित विकास का मार्ग प्रशस्त हो सके।

विकास का अर्थ

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विकास को आधुनिकता और औद्योगिकीकरण के रूप में परिभाषित किया गया, जिसका उद्देश्य शोषित और नष्ट हुए देशों को समृद्धि के रास्ते पर लाना था। इसे "ट्रूमैन परियोजना" और पश्चिमीकरण मॉडल के रूप में जाना गया, जो बुनियादी ढाँचे के निर्माण और आर्थिक प्रगति पर केंद्रित था।

1. विकास की परिभाषा एवं इसके विभिन्न अन्य मॉडल

  • समाजवादी मॉडल: समाजवादी मॉडल का नेतृत्व सोवियत संघ ने किया। यह संसाधनों और संपत्ति के राज्य स्वामित्व, सामाजिक-आर्थिक पुनर्वितरण, और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित था। इसका उद्देश्य लोगों के कल्याण और समानता को बढ़ावा देना था। हालांकि, इस मॉडल में राजनीतिक स्वतंत्रता सीमित थी, लेकिन इसे समाज के कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए प्रभावी माना गया।
  • पूँजीवादी मॉडल: पूँजीवादी मॉडल का नेतृत्व अमेरिका ने किया। यह मॉडल मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था, निजी संपत्ति के अधिकार, और सीमित राज्य हस्तक्षेप को बढ़ावा देता है। इसका उद्देश्य आर्थिक वृद्धि और व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुनिश्चित करना था। इस मॉडल में प्रतियोगी बाजार को प्राथमिकता दी गई, जिससे आर्थिक समृद्धि को बढ़ावा मिला।

2. भारत में विकास का दृष्टिकोण:

  • भारत के विकास दृष्टिकोण पर समाजवाद का गहरा प्रभाव था, विशेष रूप से नेहरू के नेतृत्व में। समाजवादी दृष्टिकोण ने गरीबी उन्मूलन, सामाजिक-आर्थिक न्याय, और संसाधनों के समान वितरण पर बल दिया। यह भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धांतों में भी परिलक्षित होता है।

4. राज्य और विकास

  • भारत ने राज्य नेतृत्व वाले विकास मॉडल को अपनाया, जो सामाजिक और आर्थिक सुधार पर केंद्रित था। इस मॉडल ने सामाजिक कल्याण और आर्थिक न्याय को प्राथमिकता दी। राज्य ने समाजवादी नीतियों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को कम करने और समावेशी विकास सुनिश्चित करने का प्रयास किया।


 मिश्रित अर्थव्यवस्था 

भारत ने विकास के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल अपनाया, जो सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के सामंजस्य पर आधारित था। इस मॉडल में राज्य और निजी क्षेत्र, दोनों की भूमिका को महत्व दिया गया।

मुख्य विशेषताएँ:

  • राज्य नियंत्रण: राज्य ने उत्पादन के मुख्य साधनों को नियंत्रित किया और महत्वपूर्ण उद्योगों में सक्रिय भूमिका निभाई।
  • सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश: सार्वजनिक क्षेत्र को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य ने निवेश और व्यापार के नियम बनाए, जिससे आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित की जा सके।
  • कृषि में हस्तक्षेप: राज्य ने कृषि में आवश्यक सब्सिडी और समर्थन प्रदान किया। इसका उद्देश्य किसानों की आय में सुधार और कृषि उत्पादन को बढ़ावा देना था।
  • सामाजिक उपक्रम: राज्य ने सामाजिक उपक्रमों को आगे बढ़ाया, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए मुख्य भूमिका निभाई।


 योजना का संक्षिप्त विवरण 

1. राष्ट्रीय योजना समिति

  • 1938 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में स्थापित इस समिति ने प्रमुख उद्योगों, खनिज, रेल, जलमार्ग जैसे संसाधनों पर राज्य नियंत्रण की सिफारिश की। कृषि को राष्ट्रीय योजना का केंद्र बिंदु मानते हुए लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने का लक्ष्य रखा गया।

2. गांधीवादी मॉडल

  • महात्मा गांधी ने औपचारिक आर्थिक मॉडल नहीं दिया, लेकिन लघु उद्योग, कृषि नवाचार, और ग्रामीण विकास को प्राथमिकता दी। जे.सी. कुमारप्पा और चौधरी चरण सिंह जैसे गांधीवादी विचारकों ने ग्रामीण औद्योगिकीकरण और कृषि पर बल दिया।

3. बॉम्बे योजना

  • 1944 में उद्योगपतियों के एक वर्ग ने योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था की मांग की। राज्य नेतृत्व में औद्योगिक विकास के लिए इस योजना का प्रारूप तैयार किया गया, जिसे बॉम्बे योजना कहा गया।

4. योजना आयोग

1950 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में योजना आयोग की स्थापना हुई। यह एक अतिरिक्त संवैधानिक निकाय था, जो पाँच वर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास की प्राथमिकताएँ तय करता था। आयोग ने राष्ट्रीय विकास परिषद (1952) का गठन किया, जिसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष और मुख्यमंत्रियों को सदस्य बनाया गया।

योजना आयोग के उद्देश्य

  • सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए संसाधनों का कुशल उपयोग।
  • नागरिकों को समान आजीविका के साधन उपलब्ध कराना।
  • धन की असमानता और संसाधनों की एकाग्रता को रोकना।
  • जीवन स्तर को सुधारने के लिए उत्पादन और अवसरों को बढ़ावा देना।
  • समय-समय पर योजना की प्रगति का मूल्यांकन।

राष्ट्रीय विकास परिषद के कार्य

  • राष्ट्रीय योजना की समीक्षा और आवश्यक सुधार।
  • संतुलित और समावेशी विकास सुनिश्चित करना।
  • प्रशासनिक दक्षता और लोगों की भागीदारी को बढ़ावा देना।
  • कम उन्नत क्षेत्रों और वर्गों के विकास के लिए कदम उठाना।


 नीति आयोग 

नीति आयोग की स्थापना 13 अगस्त 2014 को योजना आयोग को समाप्त करके की गई। इसे जनवरी 2015 में लागू किया गया। यह सरकार की थिंक टैंक की तरह काम करता है, जो नीतियाँ और योजनाएँ बनाने में मदद करता है। यह केंद्र और राज्यों को तकनीकी सलाह भी देता है।

मुख्य विशेषताएँ

1. यह नीचे से ऊपर (ग्राउंड-लेवल से) योजनाएँ बनाता है, न कि ऊपर से नीचे।

2. यह सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) को बढ़ावा देता है।

नीति आयोग की संरचना

1. अध्यक्ष: 

  • भारत के प्रधानमंत्री।

2. शासित परिषद

  • राज्यों के मुख्यमंत्री।
  • केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल।

3. क्षेत्रीय परिषद

  • क्षेत्रीय समस्याओं को सुलझाने के लिए बनाई जाती है।
  • इसमें राज्यों के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल शामिल होते हैं।

4. विशेष आमंत्रित सदस्य

  • प्रधानमंत्री द्वारा आमंत्रित विशेषज्ञ।

5.पूर्णकालिक ढाँचा

  • वाइस चेयरपर्सन: प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त, जिन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिलता है।
  • अंशकालिक सदस्य: प्रमुख विश्वविद्यालयों या शोध संस्थानों से अधिकतम 2 सदस्य।
  • पदेन सदस्य: केंद्रीय मंत्रिपरिषद के अधिकतम 4 सदस्य।
  • मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ): प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त।


 योजना में राज्य की भूमिका 

राज्य, किसी भी राष्ट्र की आर्थिक विकास प्रक्रिया में केंद्रीय भूमिका निभाता है। भारत में, स्वतंत्रता के बाद, राज्य की भूमिका को ऐतिहासिक, सामाजिक, और आर्थिक कारणों से विशेष महत्व दिया गया।

  • राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव और स्वतंत्र भारत का दृष्टिकोण: स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रवादी नेताओं ने औपनिवेशिक शासन की आलोचना करते हुए सभी वर्गों के समावेशी विकास का वादा किया। स्वतंत्रता के बाद, यह दृष्टिकोण राज्य की नीतियों और योजनाओं में स्पष्ट रूप से दिखा।
  • सामाजिक-आर्थिक विकास के प्रति प्रतिबद्धता: राज्य ने गरीबी उन्मूलन, संसाधनों के समान पुनर्वितरण, और सामाजिक न्याय को प्राथमिकता दी। औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए राज्य ने हस्तक्षेप का मार्ग अपनाया, जिससे आर्थिक विकास की नींव रखी जा सके।
  • नियोजन में राज्य की अग्रणी भूमिका: राज्य ने समाज के व्यापक हितों को पहचानने और उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी निभाई। नीतियाँ पूरे समाज के लिए लाभकारी बनाने के उद्देश्य से तैयार की गईं, लेकिन विशेष हित समूहों की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा गया।
  • वैधता और जनता का विश्वास: राष्ट्रीय आंदोलन के कारण राज्य को जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त था। इस विश्वास ने राज्य को एक प्रभावी योजनाकार और निष्पादक के रूप में स्थापित किया, जिससे स्वतंत्र भारत में आर्थिक और सामाजिक नीतियों को सफलतापूर्वक लागू किया जा सका।


 प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-1956): कार्यान्वयन 

उद्देश्य

  • प्रथम पंचवर्षीय योजना का मुख्य लक्ष्य देश में गरीबी उन्मूलन और कृषि क्षेत्र का विकास था। योजना का प्रारूप प्रसिद्ध अर्थशास्त्री के. एन. राज ने तैयार किया।

मुख्य क्षेत्र और कार्य

1. कृषि पर ध्यान

  • कृषि क्षेत्र में निवेश प्राथमिकता थी। प्रमुख सिंचाई परियोजनाएँ, जैसे भाखड़ा नांगल बाँध, के लिए धन आवंटित कर कृषि उत्पादन बढ़ाने का प्रयास किया गया।

2. भूमि सुधार

  • शोषक कृषि व्यवस्थाओं (जमींदारी, महलवारी, रैयतवारी) को समाप्त करने के लिए
  • भूमि पर सीलिंग और भूमिहीनों को भूमि वितरण।
  • सहकारी खेती को बढ़ावा।
  • बिचौलियों की समाप्ति और किसानों को स्थायी अधिकार।
  • सामुदायिक विकास कार्यक्रम (1952)
  • गाँवों के विकास और खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिए यह योजना शुरू हुई। ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक और सामाजिक विकास को जोड़ने का प्रयास किया गया।

3.चुनौतियाँ

  • प्रशासनिक भ्रष्टाचार और कमजोर कार्यान्वयन के कारण अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी।


 द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-1961) 

यह योजना भारी औद्योगिक विकास और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था पर केंद्रित थी। पी. सी. महालनोबिस की टीम ने इसे तैयार किया। शिशु उद्योगों को संरक्षण और सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया।

  • औद्योगिक नीति संकल्प (1956): उद्योगों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया: राज्य नियंत्रण, राज्य संचालित इकाइयाँ, और निजी क्षेत्र। लाइसेंस प्रणाली, कर रियायत, और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा दिया गया।
  • लघु उद्योग: लघु उद्योगों को संरक्षण देकर श्रम गहन विकास को प्रोत्साहित किया गया। आयात प्रतिस्थापन नीति के तहत विदेशी उत्पादों की जगह घरेलू उत्पादों को बढ़ावा दिया गया।
  • चुनौतियाँ: तकनीकी कमी और विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव जैसी चुनौतियाँ रहीं। फिर भी, यह योजना औद्योगिकीकरण के लिए अहम साबित हुई।


 तीसरी पंचवर्षीय योजना 

  • भूमि सुधार और कृषि संकट: पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि सुधारों की योजना बनाई गई थी, लेकिन भूमि सुधार अधिनियम को लागू करने में विफलता के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। भूमि मालिकों और स्थानीय नेताओं की साँठगाँठ ने इसे कमजोर कर दिया। साथ ही, दो सूखे और युद्धों के कारण खाद्य संकट उत्पन्न हुआ, जिससे भारत को अमेरिका से खाद्य सहायता (PL-480) पर निर्भर रहना पड़ा।
  • हरित क्रांति (नव कृषि कार्यनीति): इंदिरा गाँधी सरकार ने कृषि सुधार के लिए हरित क्रांति की शुरुआत की, जिसमें HYV बीज, सिंचाई, और आधुनिक तकनीक को बढ़ावा दिया गया। यह नीति समृद्ध किसानों और बड़े जमींदारों के लिए फायदेमंद रही, लेकिन क्षेत्रीय असमानता बढ़ी। मुख्य ध्यान उत्तरी राज्यों (पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश) पर था, जबकि अन्य राज्य पीछे रह गए।
  • एमआरटीपी अधिनियम (1979): मोनोपोली रेस्ट्रिक्टिव ट्रेड एक्ट का उद्देश्य आर्थिक शक्ति की एकाग्रता रोकना और प्रतिबंधात्मक व्यापार नीतियों को खत्म करना था। यह अधिनियम पूरे भारत (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) में लागू हुआ और उत्पादन पर कुछ कंपनियों के नियंत्रण को समाप्त करने का प्रयास किया।
  • आर्थिक संकट और उदारीकरण (1991): 1991 में भारत गंभीर आर्थिक संकट से गुजरा। विदेशी मुद्रा भंडार घट गया और तेल वित्तपोषण के लिए पर्याप्त धन नहीं बचा। इस संकट से निपटने के लिए भारत ने IMF से संपर्क किया और संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम लागू किया।

नीतियाँ

1. उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण।

2.सार्वजनिक क्षेत्र में खर्च कम करना, निर्यात बढ़ाने के लिए मुद्रा का अवमूल्यन।

3.एफडीआई को बढ़ावा देना और आयात शुल्क तथा कोटा प्रणाली हटाना।

4.यह सुधार भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।

योजना का आकलन 

  • प्रारंभिक सफलता और चुनौतियाँ: भारत ने सार्वजनिक क्षेत्र और बुनियादी ढांचे में निवेश से औद्योगिक क्षेत्र में जीडीपी का अनुपात बढ़ाया। विदेशी बाजार से संरक्षण ने घरेलू उद्योगों को विकसित होने का अवसर दिया। लेकिन परमिट लाइसेंस प्रणाली और नौकरशाही के कारण नवाचार और प्रतिस्पर्धा में बाधा उत्पन्न हुई। उत्पादन में वृद्धि के बावजूद, राज्य ऋण और राजकोषीय घाटे की समस्या बढ़ी।
  • अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य का प्रभाव: 1991 में सोवियत संघ के पतन और रूस के साथ व्यापार में गिरावट ने भारत की आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया। इससे भारत को अमेरिका की ओर झुकने और विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने के लिए नए कदम उठाने पड़े।

नव-उदारवादी नीति

उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (एलपीजी नीति) 1991 के आर्थिक संकट से उबरने के लिए भारत ने एलपीजी नीति अपनाई।

  • उदारीकरण: बाजार को नियंत्रित करने के बजाय उत्पादन और वितरण में स्वतंत्रता दी गई।
  • निजीकरण: सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में देकर दक्षता बढ़ाने और वित्तीय घाटा कम करने का प्रयास किया गया।
  • वैश्वीकरण: भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाजार से जोड़ा गया और अंतरराष्ट्रीय व्यापार बढ़ाने पर जोर दिया गया।

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ)

  • 1995 में गठित WTO ने सदस्य देशों के बीच व्यापार के लिए नियम बनाए। इसने भारतीय बाजार को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए खोला।

कृषि में सुधार

  • हरित क्रांति के माध्यम से कृषि में निवेश बढ़ा, लेकिन सुधार काल में इनपुट और सब्सिडी में कमी आई। न्यूनतम समर्थन मूल्य घटाने और अंतरराष्ट्रीय बाजार से प्रतिस्पर्धा के कारण भारतीय किसानों को नुकसान हुआ। घरेलू खपत से नकदी फसलों की ओर झुकाव देखा गया।

उद्योग में सुधार

1991 के बाद सरकार ने लाइसेंस परमिट राज समाप्त कर उद्यमिता और विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया।

  • एमआरटीपी अधिनियम: प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने और निजी क्षेत्र पर नियंत्रण कम करने के लिए प्रतिस्पर्धी अधिनियम लाया गया।
  • विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (FEMA): विदेशी व्यापार को सरल और व्यवस्थित करने के लिए लागू किया गया।

इन सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रतिस्पर्धी और नवाचार-अनुकूल बनाया।


 सुधार का प्रभाव: एक आलोचनात्मक विश्लेषण 

सकारात्मक प्रभाव

  • सुधारों के बाद भारत अपने विदेशी मुद्रा भंडार को पुनर्निर्माण करने और जीडीपी को बढ़ाने में सक्षम रहा। 1991 से 1996 तक निर्यात में वृद्धि हुई और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की गई। निवेश, बचत, और बाजार का विस्तार हुआ, जिससे अर्थव्यवस्था को स्थिरता मिली।

नकारात्मक प्रभाव

सुधारों की प्रक्रिया शहरी केंद्रित रही, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों को अपेक्षित लाभ नहीं मिला।

  • गैर-समावेशी विकास: विकास की गति के बावजूद शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन गुणवत्ता में सुधार अपर्याप्त रहा।
  • बेरोजगारी: रोजगार के अवसरों की गुणवत्ता गिरी और बेरोजगारी बढ़ी। संगठित क्षेत्र में सामाजिक सुरक्षा कम हुई और कम वेतन वाले श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हुई।
  • असमानता: सुधारों ने अमीर और गरीब, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच विषमता बढ़ाई।


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