भारतीय राजनीति और सरकार UNIT 5 SEMESTER 2 THEORY NOTES 1.सेक्युलरवाद पर विचार-विमर्श 2. साम्प्रदायिकता पर विचार-विमर्श Political DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakजनवरी 01, 2025
सेक्युलरवाद पर विचार-विमर्श
परिचय
राजनीतिक कार्यवाही जीवन के बेहतर विकास और दैनिक प्रक्रियाओं से जुड़ी है, जिसमें राज्य से लेकर व्यक्तिगत पहलू शामिल होते हैं। इस संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता एक प्रमुख मुद्दा है, जो राज्य और धर्म के संबंधों की परिभाषा तय करता है। इसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों के अधिकार और संस्कृति को संरक्षित रखते हुए बहुसंख्यकों के साथ संतुलन बनाना है।
सेक्युलरवाद
1. नीरा चंडोक का दृष्टिकोण
नीरा चंडोक भारतीय सेक्युलरवाद को सर्वधर्मसमभाव के रूप में देखती हैं, जहाँ सभी धर्मों को समान अवसर और सम्मान मिलता है। उनके अनुसार, यह विचार नेहरू के दृष्टिकोण से प्रभावित है, जिसमें राज्य किसी भी धर्म को स्वीकार नहीं करता। भारतीय सेक्युलरवाद इन दोनों विचारों का मिश्रण है, जहाँ राज्य धर्मनिरपेक्ष रहते हुए सभी धर्मों का सम्मान करता है।
2. राजीव भार्गव का दृष्टिकोण
भार्गव सेक्युलरवाद को तीन आधारों पर परिभाषित करते हैं:
उच्चय विशेष्य सेक्युलरवाद: धर्म और राज्य के बीच पूर्ण पृथकता।
अल्ट्रा प्रक्रियात्मक सेक्युलरवाद: राज्य की संस्थाओं और धार्मिक प्रभाव के बीच दूरी।
संदर्भयुक्त सेक्युलरवाद: राज्य धर्म में तभी हस्तक्षेप करता है जब यह स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देने में सहायक हो।
भार्गव का मानना है कि भारत में संदर्भयुक्त सेक्युलरवाद अधिक उपयुक्त है, जो लचीला दृष्टिकोण अपनाते हुए धर्म और राज्य के संबंध को संतुलित करता है।
3. डोनाल्ड स्मिथ का दृष्टिकोण:
डोनाल्ड स्मिथ ने अपनी पुस्तक "India as a Secular State" में राज्य, धर्म, और व्यक्ति के संबंधों को स्पष्ट किया। उन्होंने भारतीय सेक्युलरवाद की आलोचना करते हुए कहा कि यह धर्म और राज्य के बीच पूर्ण पृथकता स्थापित करने में असफल रहा है, जिससे इसकी प्रभावशीलता पर प्रश्न उठते हैं।
4. पार्थ चटर्जी का दृष्टिकोण
पार्थ चटर्जी भारतीय सेक्युलरवाद का मूल मूल्य सहिष्णुता मानते हैं और इसे तीन आधारों पर परिभाषित करते हैं: समझौते, परिणाम, और व्यक्तियों के प्रति आदर के आधार पर। उनके अनुसार, भारतीय सेक्युलरवाद पश्चिमी मॉडल से अलग है, क्योंकि यहाँ राज्य और धर्म के बीच टकराव की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नहीं है। उन्होंने भारतीय सेक्युलरवाद को "स्थानीय परिस्थितियों में ढला हुआ" बताया, लेकिन इसे समान नागरिक संहिता और धार्मिक विवादों के संदर्भ में समस्याग्रस्त भी माना।
5. कविराज का दृष्टिकोण
कविराज सेक्युलरवाद को दो चरणों में विभाजित करते हैं: आज़ादी से पहले, जब सेक्युलरवाद का विमर्श अधिक व्यापक और स्वीकृत था, और आज़ादी के बाद, जब यह विमर्श भारतीय भाषाओं से हटकर केवल अंग्रेजी तक सीमित हो गया। उनका मानना है कि आज़ादी के बाद सेक्युलरवाद भारतीय विविधता को समझने और उसका समावेश करने में असफल रहा है।
भारतीय संविधान और सेक्युलर राज्य
भारतीय संविधान में सेक्युलर राज्य की अवधारणा को 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से स्पष्ट किया गया, जब प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" शब्द जोड़ा गया। इस संशोधन ने भारतीय राज्य के सेक्युलर चरित्र को औपचारिक रूप से स्थापित किया। हालाँकि, इससे पहले भी संविधान के प्रावधानों में इस विचार का समर्थन मिलता रहा है।
1. सेक्युलर राज्य की विशेषताएँ
राज्य का धर्म से स्वतंत्रता: राज्य किसी धर्म को अपनाता या बढ़ावा नहीं देता और धर्म के आधार पर नागरिकों के अधिकारों में कोई भेदभाव नहीं करता।
धार्मिक स्वतंत्रता के प्रावधान:अनुच्छेद 25, 27, और 28 सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं। राज्य किसी विशेष धर्म को बढ़ावा देने के लिए कर नहीं लगा सकता और धार्मिक शिक्षाएँ राज्य के शैक्षिक संस्थानों में लागू नहीं की जा सकतीं।
समानता और नागरिक अधिकार:
1. अनुच्छेद 14 और 15(1):धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को निषिद्ध करते हैं।
2. अनुच्छेद 29(2): धर्म या नस्ल के आधार पर किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा संचालित संस्थानों में प्रवेश से मना नहीं किया जा सकता।
2. राजीव भार्गव का दृष्टिकोण
व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों का संतुलन: भारतीय सेक्युलरवाद केवल व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देता, बल्कि सामुदायिक अधिकारों को भी मान्यता देता है।
बहु-धार्मिक समाज का विशेष ध्यान: यह न केवल धर्मों के बीच, बल्कि धर्म के भीतर मौजूद प्रभुत्व को समाप्त करने का प्रयास करता है।
सैद्धांतिक दूरी का सिद्धांत: भारतीय सेक्युलरवाद धर्म और राज्य के बीच कठोर तटस्थता की बजाय "सैद्धांतिक दूरी" का पालन करता है। यह न तो किसी धर्म को प्राथमिकता देता है और न ही पूरी तरह से तटस्थ रहता है, बल्कि आवश्यकता के अनुसार धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करता है।
साम्प्रदायिकता पर विचार-विमर्श
भारतीय राजनीति में धर्म और राजनीति के संबंध को लेकर दो विचारधाराएँ हैं: सेक्युलरवाद, जो सर्वधर्मसमभाव को अपनाता है, और साम्प्रदायिकता, जो धर्म और राजनीति को मिलाने का समर्थन करती है। यह लेख साम्प्रदायिकता के उभार, इसकी प्रासंगिकता, और भारतीय राजनीति पर इसके प्रभावों का विश्लेषण करेगा।
उपनिवेशवाद और साम्प्रदायिकता
1.अंग्रेजी शासन और विभाजन की रणनीति
अंग्रेजों ने भारत में अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए यहाँ की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता को विभाजन का आधार बनाया। प्रारंभ में हिंदू और मुसलमानों के बीच सह-अस्तित्व था, लेकिन 1857 के विद्रोह में दोनों समुदायों की एकता ने अंग्रेजों को उनकी सत्ता के लिए खतरा महसूस कराया। इसके बाद उन्होंने समाज में धर्म के आधार पर विभाजन की नीति अपनाई।
2. राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना:
अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच द्वेष को बढ़ावा दिया।
अल्पसंख्यक पहचान: मुसलमानों को अल्पसंख्यक के रूप में अलग पहचान दी और उन्हें जमींदारों व भू-स्वामियों के माध्यम से अपने पक्ष में करने की कोशिश की।
भाषा विवाद: उर्दू को बढ़ावा देकर भाषा आधारित संघर्षों को जन्म दिया।
3. साम्प्रदायिकता का प्रभाव
साम्प्रदायिकता ने भारतीय समाज को वास्तविक समस्याओं से भटकाकर धर्म आधारित विवादों में उलझा दिया। जैसे, पूर्वी बंगाल और पंजाब के संघर्षों को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में दिखाया गया। इससे समाज में विभाजन और गहरा हुआ।
4. ब्रिटिश शासन की साम्प्रदायिक रणनीतियाँ (विपिन चंद्रा के अनुसार)
हिंदू, मुस्लिम और सिखों को अलग-अलग समुदायों के रूप में चित्रित करना।
साम्प्रदायिक नेताओं और संगठनों को संरक्षण देना।
साम्प्रदायिक आंदोलनों के प्रति सहिष्णुता दिखाना।
साम्प्रदायिक माँगों को तुरंत स्वीकार करना।
साम्प्रदायिक संगठनों को पूरे समुदाय का प्रतिनिधि मानना।
साम्प्रदायिक विचारधारा को वैचारिक रूप से मजबूत करना।
5. धर्म और साम्प्रदायिकता
विपिन चंद्रा, आदित्य मुखर्जी, और मृदुला मुखर्जी के अनुसार, साम्प्रदायिकता धर्म आधारित सामाजिक-राजनीतिक पहचान की विचारधारा है, न कि धर्म की स्वाभाविक भूमिका। साम्प्रदायिकता का उद्देश्य धार्मिक निष्ठा का उपयोग कर सामाजिक और राजनीतिक विभाजन करना था।
साम्प्रदायिकता, विचारधारा और समुदायवाद
भारत में साम्प्रदायिकता के विरुद्ध सेक्युलरवाद को अपनाया गया, जो धर्म विशेष में आस्था रखने और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने में अंतर करता है। भारतीय संविधान धर्म के प्रचार और संस्थाओं के निर्माण का अधिकार देता है, लेकिन दूसरों के अधिकारों और कर्तव्यों का सम्मान करने की अपेक्षा भी करता है। साम्प्रदायिकता तब खतरनाक बनती है, जब इसे हिंसा और कट्टरता का रूप दे दिया जाता है।
1. साम्प्रदायिकता का आशय और चरण
विपिन चंद्रा साम्प्रदायिकता को तीन चरणों में चिह्नित करते हैं:
प्रारंभिक चरण: यह विश्वास कि एक धर्म के अनुयायियों के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित समान होते हैं।
उदार साम्प्रदायिकता: यहाँ यह मान्यता होती है कि विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के हित आपस में भिन्न हैं, लेकिन लोकतांत्रिक और राष्ट्रीय मूल्यों को प्राथमिकता दी जाती है।
उग्र साम्प्रदायिकता: फासीवादी प्रवृत्तियों के साथ यह विचारधारा हिंसक होती है और धर्म के नाम पर राष्ट्र और संस्कृति के अस्तित्व पर खतरे की बात करती है।
2.धर्म, विचारधारा और साम्प्रदायिकता का द्वंद्व
धर्म, जो व्यक्तिगत आस्था और निष्ठा का विषय है, साम्प्रदायिकता के रूप में एक सामाजिक-राजनीतिक पहचान की विचारधारा बन जाता है। जावेद आलम और अशिस नंदी ने धर्म के राजनीतिकरण और साम्प्रदायिकता को आधुनिक राजनीति और संचार के माध्यमों से जोड़ा है।
3. समुदायवाद और साम्प्रदायिकता का अंतर
समुदायवाद, जो सामान्य हित और नैतिक दायित्वों पर आधारित है, साम्प्रदायिकता से अलग है। राजीव भार्गव के अनुसार, समुदायवादी दृष्टिकोण में अपने समुदाय के प्रति गर्व और उसकी प्रतिष्ठा बनाए रखने की भावना साम्प्रदायिक नहीं है। साम्प्रदायिकता तब शुरू होती है, जब एक समुदाय दूसरे के प्रति वैमनस्य और घृणा फैलाने लगता है।
भार्गव ने यह भी कहा कि सेक्युलरवाद को धर्म-विरोधी के रूप में प्रस्तुत करके समुदायवाद और साम्प्रदायिकता के बीच के अंतर को खत्म कर दिया गया है, जिससे सभी समुदायवादी तत्त्वों को साम्प्रदायिक के रूप में देखा जाने लगा है।
साम्प्रदायिकता और भारतीय लोकतंत्र
भारतीय लोकतंत्र के लिए विविधता और एकता का संतुलन महत्वपूर्ण है। भारतीय संविधान ने इसे सुनिश्चित करने के लिए धर्मनिरपेक्षता को मौलिक अधिकारों और राज्य के स्वरूप का आधार बनाया। 42वें संशोधन के माध्यम से धर्मनिरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि भारत किसी भी धर्म को प्राथमिकता नहीं देगा।
हालाँकि, साम्प्रदायिकता ने लोकतंत्र में कई चुनौतियाँ पैदा की हैं:
साम्प्रदायिकता और राजनीति का गठजोड़: साम्प्रदायिकता अक्सर लोकतंत्र में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देती है, जिससे धार्मिक आधार पर वोट बैंक की राजनीति को बल मिलता है। रजनी कोठारी के अनुसार, चुनावी लोकतंत्र में साम्प्रदायिकता गरीबों और वर्गीय संघर्ष जैसे मूलभूत मुद्दों से ध्यान भटकाने का काम करती है।
धार्मिक पहचान का उपयोग: अमर्त्य सेन के अनुसार, साम्प्रदायिकता धार्मिक पहचान को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करती है, जो बहुसंख्यकवाद और ध्रुवीकरण को जन्म देती है।
धार्मिक दबाव और पृथक राज्य की माँग: नागालैंड और पंजाब जैसे राज्यों में पृथक् राज्य की माँगें धार्मिक आधार पर उठी हैं, जो लोकतंत्र को कमजोर करती हैं।
साम्प्रदायिकता के उदाहरण: 1984 के सिख दंगे, शाह बानो केस, और हालिया मुजफ्फरनगर दंगे, साम्प्रदायिक राजनीति के दुष्परिणाम हैं, जिसने धर्मनिरपेक्षता को चुनौती दी।
साम्प्रदायिकता का लोकतंत्र पर प्रभाव: साम्प्रदायिक राजनीति लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों—समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व—को कमजोर करती है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश कुलदीप सिंह ने इसे "धर्मनिरपेक्षता के साम्प्रदायिकता में बदलने" का परिणाम बताया।