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भारतीय राजनीति और सरकार UNIT 4 SEMESTER 2 THEORY NOTES राजनीतिक सत्ता में सामाजिक संरचना 1.भारत में शक्ति-संरचना : जाति के संदर्भ में 2. भारत में शक्ति संरचना: वर्ग के संदर्भ में 3.पितृसत्तात्मकता Political DU. SOL.DU NEP COURSES


भारतीय राजनीति और सरकार UNIT 4 SEMESTER 2 THEORY NOTES राजनीतिक सत्ता में सामाजिक संरचना 1.भारत में शक्ति-संरचना : जाति के संदर्भ में 2. भारत में शक्ति संरचना: वर्ग के संदर्भ में 3.पितृसत्तात्मकता  Political DU. SOL.DU NEP COURSES


 भारत में शक्ति-संरचना : जाति के संदर्भ में 


 अनुसूचित जातियों का परिचय 

भारत सरकार अधिनियम, 1935 से पहले अनुसूचित जातियों को "डिप्रेस्ड क्लासेस" कहा जाता था। ये समाज का वह वर्ग है, जो ऐतिहासिक रूप से गरीब, वंचित और सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे कमजोर स्थिति में रहा है। भारत के पाँच प्रमुख राज्यों—उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में इनकी आधी से अधिक आबादी केंद्रित है।

संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जातियों की पहचान की गई है। ये समूह हिंदू सामाजिक संरचना में निम्न स्थान रखते हैं, सरकारी सेवाओं व अन्य क्षेत्रों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व रखते हैं, और सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन के कारण पीड़ित रहे हैं।


 जाति की शक्ति संरचना: एक सामाजिक दृष्टिकोण 

1. जाति का परिचय

जाति का अर्थ नस्ल या वंश से है, जो पुर्तगाली शब्द 'कास्टा' से लिया गया है। यह भारतीय समाज की महत्वपूर्ण सामाजिक संरचना है। संरचनावादी दृष्टिकोण में जाति को जन्म से निर्धारित बंद समूह माना गया है, जबकि सांस्कृतिक दृष्टिकोण इसे मूल्यों, विश्वासों और व्यवहारों के समूह के रूप में देखता है।

  • केटकर का मत: केटकर के अनुसार, जाति की दो मुख्य विशेषताएँ हैं। पहली, जाति में सदस्यता जन्म से ही तय होती है, और दूसरी, जाति के बाहर विवाह करना प्रतिबंधित होता है।
  • सी.एच. कोलेई का मत: जब किसी वर्ग की सदस्यता केवल वंश पर आधारित हो, तो उसे जाति कहते हैं।

2. जाति का स्वरूप और भेदभाव

जाति आधारित समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को ऊंची जातियों में गिना जाता है, जबकि अस्पृश्य सबसे निचले स्तर पर माने जाते हैं। निम्न जातियों के साथ भेदभाव के प्रमुख उदाहरण हैं: सार्वजनिक सुविधाओं से वंचित रखना, मंदिरों और वेद अध्ययन पर प्रतिबंध लगाना, निम्न स्तर के कार्यों में लगाना, अलग आवास और बर्तनों का उपयोग करना, और उच्च जातियों के सामने सम्मानजनक व्यवहार की अनिवार्यता।

3. अंबेडकर का दृष्टिकोण

डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने जाति व्यवस्था को असमानता का प्रतीक माना। उनके अनुसार, यह जन्म आधारित वर्गीकरण है, जिसमें व्यक्ति की योग्यता का कोई महत्व नहीं होता। यह स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। अंबेडकर का मानना था कि जाति का उन्मूलन करने के लिए धार्मिक मान्यताओं पर चोट करना आवश्यक है और संवैधानिक उपायों के माध्यम से दलितों को अधिकार संपन्न बनाना जरूरी है।

4. संवैधानिक प्रावधान

भारतीय संविधान में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए प्रावधान हैं:

  • अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता।
  • अनुच्छेद 15(2): सार्वजनिक स्थानों पर भेदभाव का निषेध।
  • अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता का उन्मूलन।
  • अनुच्छेद 46: कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों का संरक्षण।
  • अनुच्छेद 330 और 335: अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण।

5. दलित सशक्तिकरण के उपाय

दलित सशक्तिकरण के लिए सरकार ने विभिन्न प्रयास किए हैं, जिनमें आरक्षण और छात्रवृत्ति की व्यवस्था, बेहतर शिक्षा और कोचिंग सुविधाओं का प्रावधान, तथा कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए विशेष कानूनों का क्रियान्वयन शामिल है।


 भारत के विकास में जाति, आधुनिकता और लोकतांत्रिक राजनीति 

  • जाति का महत्व: भारतीय राजनीति में जाति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह चुनाव परिणाम, दबाव समूहों के रूप में काम करने और राजनीतिक दलों की संरचना को प्रभावित करती है।
  • मार्क गैलेंटर (1984): उन्होंने कहा कि स्वतंत्र भारत के नेताओं ने जाति व्यवस्था के दुष्प्रभावों को समझा और इसे लोकतांत्रिक राजनीति और नागरिक अधिकारों पर बाधा माना। भारतीय संविधान ने वंचित समुदायों को सशक्त करने के लिए कानूनी उपाय सुनिश्चित किए।
  • जी.एस. घूरिये (1991) ने हिंदू जाति प्रणाली की छह विशेषताएं बताई:

1.समाज का खंड विभाजन।

2.पदानुक्रम।

3.खान-पान और सामाजिक आदान-प्रदान पर प्रतिबंध।

4.धार्मिक और नागरिक असमानता।

5.व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता का अभाव।

6.विवाह पर प्रतिबंध।

  • एल. ड्युमन (1998): उन्होंने बताया कि हिंदू समाज में प्रतिष्ठा और शक्ति का संबंध अलग है। पश्चिमी समाज में शक्ति और प्रतिष्ठा एक साथ होती है, लेकिन जाति व्यवस्था में प्रतिष्ठा प्रमुख है।
  • संस्कृतिकरण (एम.एन. श्रीनिवास): निम्न जातियां उच्च जातियों की रीति-रिवाजों और जीवनशैली को अपनाकर अपने समाज में ऊंचा दर्जा पाने का प्रयास करती हैं।
  • आधुनिकीकरण और जाति: औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और तकनीकी विकास के कारण जाति पूरी तरह समाप्त नहीं हुई। इसके बजाय जाति संरचनात्मक रूप से मजबूत हुई है।
  • जी.एस. घूरिये (1932): उन्होंने गैर-ब्राह्मण आंदोलनों को जातीय एकता और "जातीय देशभक्ति" के उदाहरण के रूप में बताया।
  • एम.एन. श्रीनिवास (1962): आधुनिक तकनीक और औपनिवेशिक शासन ने जाति समूहों को संगठित होने में मदद की। रेलवे, डाक सेवा, और समाचार पत्रों ने जाति के लोगों को आपस में जोड़ा। जातिगत छात्रावास, सहकारी समितियां और अन्य सुविधाएं बनाई गईं।
  • ब्रिटिश शासन का प्रभाव: ब्रिटिश शासन ने पिछड़ी जातियों को राजनीति में प्रतिनिधित्व और स्थानीय निकायों में शक्ति दी। इससे जाति आधारित क्षैतिज एकता को बढ़ावा मिला।
  • लुईस ड्युमोंट (1998): उन्होंने तर्क दिया कि आर्थिक और राजनीतिक बदलाव के बावजूद जाति समाप्त नहीं हुई। इसके स्वरूप को "संरचना" से "पदार्थ" (सामूहिक इकाई) के रूप में देखा गया।


 जाति-संघ और भारतीय राजनीति में उनका प्रभाव 

जाति-संघ

जाति-संघ ऐसे संगठन हैं, जो जाति समुदायों की समस्याओं और हितों के लिए कार्य करते हैं। ये पारंपरिक समाज में आधुनिकता के एजेंट के रूप में काम करते हैं और दबाव समूह की भूमिका निभाते हैं।

1. प्रमुख विद्वानों के विचार

  • लायड रुडोल्फ और सुसेन रुडोल्फ: जाति-संघों को भारत में आधुनिकता का एजेंट मानते हैं। उनका तर्क है कि ये जाति समुदायों में अर्द्ध सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देते हैं और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में अपनी भूमिका निभाते हैं।
  • रजनी कोठारी का दृष्टिकोण (1970): रजनी कोठारी के अनुसार, लोकतांत्रिक राजनीति ने जाति जैसे पारंपरिक संस्थानों को पुनर्जीवित किया है। उनका मुख्य तर्क था कि जाति का राजनीतिकरण हुआ है, जिससे जाति को नई प्रतिष्ठा मिली है। जाति-संघ लचीले हो गए हैं और अब गैर-जातीय कार्यों को अपनाने के साथ-साथ स्वैच्छिक संगठनों और राजनीतिक पार्टियों के साथ गठबंधन भी करते हैं।
  • घनश्याम शाह का दृष्टिकोण: घनश्याम शाह के अनुसार, जाति-संघ लोकतांत्रिक राजनीति की संस्कृति को पारंपरिक क्षेत्रों में फैलाने में सहायक होते हैं। विशेष रूप से दक्षिण भारत में, जाति-संघ के नेता पारंपरिक जाति अधिकारी नहीं, बल्कि वकील, शिक्षित शहरी व्यवसायी और सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी होते हैं। जाति संगठन सामाजिक और राजनीतिक मंचों को आपस में जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।

2. जातिगत संरचना में परिवर्तन

स्वतंत्रता के बाद दो प्रमुख सुधार:

  • भूमि सुधार अधिनियम: खेतीहर किसानों को मालिकाना हक देकर बिचौलियों की पकड़ कमजोर हुई।
  • ग्रामीण सामाजिक परिवर्तन: सामुदायिक विकास, पंचायती राज, और हरित क्रांति ने ग्रामीण अमीरों और प्रमुख जातियों को राजनीतिक रूप से मजबूत बनाया।

चुनावी राजनीति का प्रभाव:

  • सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार ने प्रमुख जातियों को राजनीतिकरण का अवसर प्रदान किया। 1980-90 के दशक में राजनीति का केंद्र "विचारधारा" से बदलकर "प्रतिनिधित्व" की ओर हो गया, जिससे जाति आधारित समूहों को अधिक राजनीतिक महत्व मिला।

3. वैश्विक प्रभाव और नए सामाजिक आंदोलन

  • आर्थिक और राजनीतिक बदलाव: शीत युद्ध के अंत और वैश्वीकरण ने अर्थव्यवस्था, संस्कृति, और राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित किया। नई तकनीकों ने पर्यावरण, मानवाधिकार, और लैंगिक अधिकार जैसे मुद्दों पर वैश्विक नेटवर्किंग को बढ़ावा दिया। उदाहरण के तौर पर, नर्मदा बचाओ आंदोलन ने वैश्विक और स्थानीय स्तर पर महत्वपूर्ण ध्यान आकर्षित किया।
  • दलित राजनीति का उदय: सुदीप्त कविराज के अनुसार, जाति और राजनीति की पहचान के सवाल को दलित समूहों ने एक नई भाषा दी। सरकारी नौकरियों और आरक्षण ने दलित समुदाय में एक मध्यम वर्ग के उभार को प्रोत्साहित किया। ई. जेलियोट के अनुसार, डॉ. अंबेडकर दलित आकांक्षाओं के प्रतीक बनकर उभरे और दलित आंदोलन को एक सशक्त दिशा दी।
  • मायावती और कांशीराम का योगदान: उन्होंने दलित पहचान का उपयोग कर अनुसूचित जातियों को विकास और गरिमा के मुद्दों पर संगठित किया।

4. जातिगत राजनीति की चुनौतियाँ

जातिगत राजनीति के सामने कई चुनौतियाँ हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जातिगत प्रभुत्व अभी भी कायम है, और पंचायतें अक्सर प्रमुख जातियों के प्रभाव का केंद्र बनती हैं। अस्पृश्यता में कमी के बावजूद, दलितों पर अत्याचार और भेदभाव जैसी समस्याएँ आज भी बनी हुई हैं।


 उत्तर भारत में पिछड़ी जाति की राजनीति में गिरावट 

1980-90 के दशक में पिछड़ी जातियों का उभार हुआ, जिसे द्वितीय प्रजातांत्रिक उत्थान कहा गया, लेकिन आंतरिक विभाजन और नेतृत्व के अभाव से उनकी राजनीति कमजोर हो गई।

1.मुख्य कारण

  • जाति से वर्ग की ओर बदलाव: 'जाति-राजनीति' से 'वर्ग-राजनीति' की ओर बदलाव हुआ, लेकिन पूर्ण एकता नहीं बन पाई। आर्थिक मुद्दों को प्राथमिकता मिली।
  • नेतृत्व का कुलीनता की ओर झुकाव: आंदोलन कुलीन नेतृत्व तक सीमित रहे और आर्थिक समस्याओं का समाधान न होने से प्रभाव खो दिया।
  • आंतरिक जाति भेद: ध्यान अंतर्जातीय शोषण से हटकर जाति के भीतर भेदभाव पर केंद्रित हो गया।

2.पश्चिमी और भारतीय लोकतंत्र का अंतर

पश्चिमी लोकतंत्र विचारधारा आधारित है, जबकि भारतीय लोकतंत्र जाति, धर्म, और सामाजिक विविधताओं पर आधारित रहा। स्वतंत्रता संग्राम ने जाति और धर्म आधारित लामबंदी को बल दिया।

3. आधुनिक चुनौतियाँ

  • राजनीतिक दलों से निराशा: आर्थिक समस्याओं का समाधान न होने से जनता का मोहभंग हुआ।
  • जातिगत अस्मिता और आर्थिक संघर्ष: अस्मिता मजबूत हुई, लेकिन असमानता बढ़ी।
  • राजनीतिक लामबंदी का विघटन: जाति आधारित राजनीति ने वैचारिक राजनीति और जन आंदोलनों को कमजोर कर दिया।



 भारत में शक्ति संरचना: वर्ग के संदर्भ में 

भारतीय समाज में विभिन्न सामाजिक समूह और वर्ग हमेशा से मौजूद रहे हैं, जो आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और जातीय आधार पर विभाजित हैं। इन समूहों के बीच शक्ति और वर्चस्व की लड़ाई समाज की शक्ति संरचना को प्रभावित करती है। इस पाठ में, वर्ग की अवधारणा, सिद्धांतों और प्रमुख विद्वानों के विचारों पर चर्चा के साथ भारत में वर्ग संरचना और जाति के संबंध में वर्ग की भूमिका पर विचार किया जाएगा।

 1.वर्ग की प्रमुख परिभाषाएँ 

  • ओगबर्न और निमकोफ: वर्ग की मौलिक विशेषता अन्य सामाजिक वर्गों की तुलना में श्रेष्ठता और हीनता की सामाजिक स्थिति से जुड़ी है।
  • मैकआइवर और पेज: वर्ग एक ऐसा समुदाय है, जो अपनी सामाजिक स्थिति के आधार पर अन्य वर्गों से अलग होता है। यह स्थिति आर्थिक, राजनीतिक, या सांस्कृतिक शक्ति से प्रभावित होती है।
  • गिन्सबर्ग: वर्ग को समाज के किसी भी हिस्से को, उसकी सामाजिक स्थिति के आधार पर आराम से चिह्नित किया जा सकता है।
  • गर्थ और मिल्स: वर्ग उन लोगों का समूह है, जो समान सामाजिक स्थिति में पाए जाते हैं।
  • जॉन हैरिस: जॉन हैरिस ने वर्ग की अवधारणा को समझाने के लिए मार्क्स और वेबर के विचारों का संदर्भ लिया। मार्क्स के अनुसार, वर्ग का निर्धारण सामग्री उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से होता है। वहीं, वेबर ने इसमें सांस्कृतिक लक्षण, विशेष कौशल (मानव पूंजी), और सामाजिक संबंध (सामाजिक पूंजी) जैसे अतिरिक्त कारकों को जोड़ा। वर्ग व्यक्ति के बाजार में धन और अवसरों पर गहरा प्रभाव डालता है।

2. वर्ग की प्रमुख विशेषताएँ

  • सामाजिक स्थिति का निर्धारण: वर्ग सामाजिक श्रेष्ठता और हीनता को दर्शाता है।
  • आर्थिक असमानता: वर्ग विभाजन अक्सर आर्थिक आधार पर होता है (उच्च वर्ग, मध्य वर्ग, निम्न वर्ग)।
  • वर्गों के भीतर असमानता: एक ही वर्ग के भीतर भी भिन्नताएं हो सकती हैं, जिससे यह एक विषम श्रेणी बन जाता है।
  • सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव: वर्ग केवल आर्थिक विभाजन तक सीमित नहीं है; इसमें सांस्कृतिक और सामाजिक कारक भी भूमिका निभाते हैं।
  • शक्ति और संसाधनों पर प्रभाव: वर्ग शक्ति संरचना और संसाधनों के वितरण को समझने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है।

3. वर्ग का ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ

वर्ग की अवधारणा इतिहास, समय और समाज के संदर्भ में बदलती रहती है। यह समाज की संरचना और शक्ति के वितरण को समझने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। वर्ग विश्लेषण से यह समझा जा सकता है कि सामाजिक असमानताएँ और संघर्ष कैसे उत्पन्न होते हैं और समाज में उनकी क्या भूमिका है।


 वर्ग 

वर्ग समाज में सामाजिक और आर्थिक स्तरीकरण का परिणाम है। यह व्यक्तियों और समूहों के बीच संबंधों, संसाधनों और शक्ति के असमान वितरण पर आधारित होता है। वर्ग की प्रकृति और इसके निर्धारक तत्त्व निम्नलिखित हैं:

1. वर्ग के निर्धारक तत्त्व

वर्ग का निर्धारण व्यवसाय, संपत्ति, शिक्षा, पारिवारिक पृष्ठभूमि और संसाधनों तक पहुँच जैसे कारकों से होता है। ये कारक व्यक्ति की आर्थिक-सामाजिक स्थिति और आकांक्षाओं को प्रभावित करते हैं। सामाजिक गतिशीलता के माध्यम से वर्ग की सीमाएँ पार की जा सकती हैं।

2. वर्ग की प्रकृति

  • शक्ति और सत्ता का आधार: वर्ग समाज शक्ति के असमान वितरण पर आधारित होता है, जिसमें वर्गों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहला, शक्तिशाली वर्ग, जिनके पास संसाधन और सत्ता होती है, और दूसरा, शक्तिहीन वर्ग, जिनके पास संसाधनों और शक्ति की कमी होती है।
  • सापेक्ष अवधारणा: वर्ग की स्थिति समाज में अन्य वर्गों की स्थिति के सापेक्ष निर्धारित होती है। यह सामाजिक श्रेणीकरण का परिणाम है, जो समाज में "श्रेष्ठता" और "अधीनता" को दर्शाता है।
  • विशेषाधिकार और जिम्मेदारी: प्रत्येक वर्ग कुछ विशेषाधिकार और जिम्मेदारियों से जुड़ा होता है, जो उसकी शक्ति और समाज में स्थिति के आधार पर परिभाषित होते हैं।
  • सामाजिक चेतना: वर्ग समाज में एकजुटता और सहानुभूति की भावना को बढ़ावा देता है। यह सदस्यों के बीच साझा विश्वास और जिम्मेदारी उत्पन्न करता है, जिससे वर्ग चेतना (Class Consciousness) का निर्माण होता है। यह समान जीवन स्तर और विकल्पों के आधार पर वर्ग के सदस्यों को जोड़ता है।
  • सामाजिक गतिशीलता: वर्ग व्यवस्था में व्यक्तियों को अन्य वर्गों के साथ संपर्क और सामूहीकरण करने का अवसर मिलता है, जिससे सामाजिक गतिशीलता की संभावना बढ़ती है।

3. समाज में वर्ग की भूमिका

  • सामाजिक स्तरीकरण: रेमंड डब्ल्यू. मुरे के अनुसार, वर्ग सामाजिक इकाइयों का क्षैतिज विभाजन है, जो समाज में "उच्च" और "निम्न" वर्ग को चिह्नित करता है।
  • सामाजिक सहयोग: समान वर्ग के लोग एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति और सहयोग की भावना साझा करते हैं।
  • वर्ग चेतना का निर्माण: वर्ग चेतना व्यक्तियों की सोच और व्यवहार को उनके वर्ग की रेखाओं के अनुसार प्रभावित करती है।
  • समाज के भीतर एक समाज का निर्माण: वर्ग एक सामाजिक श्रेणी के रूप में समान वर्ग के लोगों को जोड़कर समाज के भीतर एक अलग इकाई का निर्माण करता है।


 वर्ग का सिद्धांत: मार्क्स, वेबर, वेब्लन और वार्नर 

1. कार्ल मार्क्स का वर्ग सिद्धांत

  • मुख्य विचार: मार्क्स के अनुसार, वर्ग समाज आर्थिक उत्पादन के साधनों के स्वामित्व पर आधारित होता है। उन्होंने समाज को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया: पूँजीपति वर्ग (Bourgeoisie), जो उत्पादन के साधनों का मालिक होता है, और सर्वहारा वर्ग (Proletariat), जो श्रमिक वर्ग है और अपनी श्रम शक्ति बेचता है।
  • वर्ग चेतना और संघर्ष: वर्ग चेतना उस स्थिति को दर्शाती है जब श्रमिक वर्ग अपनी समानता और अधिकारों को पहचानता है। वर्ग संघर्ष तब उत्पन्न होता है जब एक वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए अन्य वर्गों के विरुद्ध खड़ा हो जाता है।
  • आर्थिक कारणों पर जोर: मार्क्स ने वर्ग संघर्ष को समाज में परिवर्तन का मुख्य कारण माना। उनके अनुसार, समाज का अंतिम लक्ष्य साम्यवादी समाज का निर्माण है, जहाँ वर्ग विभाजन पूरी तरह समाप्त हो जाएगा।

2. मैक्स वेबर का वर्ग सिद्धांत

मुख्य विचार:

वेबर के अनुसार, वर्ग केवल आर्थिक कारकों पर आधारित नहीं है। यह सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों से भी प्रभावित होता है

  • उन्होंने समाज में चार प्रमुख वर्गों की पहचान की:
  • धनी वर्ग
  • बौद्धिक और प्रबंधकीय वर्ग
  • पारंपरिक बुर्जुआ वर्ग (छोटे व्यापारी)
  • श्रमिक वर्ग

वर्ग की तीन विशेषताएँ:

  • जीवन की संभावनाएँ (Life Chances): लोगों के पास उपलब्ध अवसर, जो उनके जीवन को प्रभावित करते हैं।
  • आर्थिक हित: संसाधनों और आय पर नियंत्रण।
  • बाजार की स्थिति: श्रम और वस्तुओं के बाजार में व्यक्ति का स्थान।
  • विभिन्न दृष्टिकोण: वेबर ने वर्ग को संपत्ति, कौशल, और श्रम बाजार के संदर्भ में देखा। उन्होंने सामाजिक स्थिति और शक्ति को वर्ग से अलग आयाम माना।

3. थोरस्टेन वेब्लन का वर्ग सिद्धांत:

  • मुख्य विचार: वेब्लन ने "धनाढ्य वर्ग" (Leisure Class) की अवधारणा प्रस्तुत की।इस वर्ग में समाज के सबसे धनी लोग शामिल होते हैं, जो उत्पादन में कोई योगदान नहीं देते।
  • मुख्य तर्क: धनाढ्य वर्ग अपने आराम और विलासिता के लिए दूसरों पर निर्भर होता है। यह वर्ग अन्य वर्गों का शोषण करता है और सामाजिक उत्पादन में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेता।
  • सामाजिक विभाजन: वेब्लन ने इस वर्ग को विजेता वर्ग और अन्य वर्गों को विजित वर्ग के रूप में परिभाषित किया। धनाढ्य वर्ग के लोग समाज में सबसे अधिक प्रभावशाली होते हैं।

4. लॉयड वार्नर का वर्ग सिद्धांत

मुख्य विचार

वार्नर ने वर्ग को "बहु-तथ्यात्मक घटना" के रूप में देखा। उन्होंने वर्ग का निर्धारण आर्थिक कारकों और मूल्यांकन की गई भागीदारी (Evaluated Participation) से किया।

वर्गों का छह-स्तरीय वर्गीकरण:

  • उच्च-ऊपरी वर्ग: पुराने कुलीन और शासक परिवार।
  • निचला-ऊपरी वर्ग: नव-अर्जित धन वाले परिवार।
  • ऊपरी-मध्यम वर्ग: पेशेवर और व्यवसायी।
  • निचला-मध्यम वर्ग: सफेदपोश नौकरियाँ और छोटे व्यवसाय।
  • ऊपरी-निचला वर्ग: कुशल मजदूर।
  • निचला-निचला वर्ग: गरीब और अवसादग्रस्त लोग।

मूल्यांकन कारक:

वर्ग स्थिति को सामाजिक जीवन में भागीदारी और समुदाय के भीतर मूल्यांकन के आधार पर देखा जाता है।

उदाहरण: व्यक्ति का निवास स्थान, पैसा खर्च करने का तरीका, सही लोगों से संपर्क।


 भारत में वर्ग का इतिहास 

वर्ग और जाति का संबंध

भारतीय समाज में वर्ग और जाति के बीच अधिव्यापन (overlap) स्पष्ट है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में। जाति जन्म के आधार पर तय होती है, जबकि वर्ग आर्थिक स्थिति से निर्धारित होता है। स्वतंत्रता-पूर्व युग में समाज जातिगत ढांचे में विभाजित था, जिससे वर्गीय विभाजन और असमानता को बल मिला।

1. स्वतंत्रता-पूर्व युग

  • जातिगत विभाजन: समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित था। ब्राह्मण पुरोहित और शासक वर्ग में, वैश्य व्यापारी वर्ग में, और शूद्र सेवा व कारीगरी के क्षेत्र में थे। जातिगत संरचना ने सामाजिक गतिशीलता को प्रतिबंधित किया और असमानता को बढ़ावा दिया।
  • ब्रिटिश शासन का प्रभाव: जमींदारी व्यवस्था और कर प्रणाली ने शोषण बढ़ाया। ब्रिटिश शासन में कारीगरों और छोटे किसानों की स्थिति कमजोर हुई।
  • मध्यम वर्ग का उदय: अंग्रेजी शिक्षा ने पेशेवर वर्ग (वकील, डॉक्टर, सिविल सेवक) को जन्म दिया। यह वर्ग राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमुख हिस्सा बना।
  • पूँजीपति वर्ग: भारतीय पूँजीवादी वर्ग 19वीं सदी के मध्य में उभरा और 1914-1947 के बीच इसका तेजी से विकास हुआ। पूँजीपति वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन दिया।
  • मजदूर वर्ग: औपनिवेशिक उद्योगों में काम करने वाले मजदूर वर्ग ने अमानवीय परिस्थितियों में संघर्ष किया। लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने मजदूर वर्ग को संगठित किया और उनके संघर्ष को साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के खिलाफ जोड़ा।

2.स्वतंत्रता पश्चात् के युग में वर्ग

स्वतंत्रता के बाद, भारत ने राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत को आगे बढ़ाते हुए जमींदारी प्रथा समाप्त कर दी और भूमि सुधार नीतियाँ लागू कीं। भूमि जोतने वाले किसानों और किरायेदारों को भूमि का अनुदान दिया गया, जिससे वे भूमि के मालिक बने। इससे ग्रामीण भारत में आर्थिक और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली कृषक वर्ग उभरा।

मजदूर वर्ग

भारतीय मजदूर वर्ग भी एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा।

  • विशेषता: भारत की लगभग 38% आबादी अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी है, जबकि केवल 7% संगठित श्रमिक वर्ग का हिस्सा है।
  • विभाजन: मजदूर संघ राजनीतिक दलों की निष्ठा के कारण विभाजित हैं। प्रमुख यूनियनें जैसे INTUC, AITUC श्रमिक वर्ग को खंडित और कमजोर बनाती हैं।
  • प्रभाव: संगठित मजदूर वर्ग ने पूँजीवादी ताकतों पर दबाव बनाने में भूमिका निभाई।

पूँजीपति वर्ग

पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व FICCI, ASSOCHAM, और CII जैसे संगठनों द्वारा किया जाता है, जो उनके आर्थिक हितों को संरक्षित करते हैं।

वर्ग चेतना: राजनीतिक रूप से परिवर्तनशील बनने में वर्ग चेतना महत्वपूर्ण है। यह सत्ता संरचनाओं के वर्चस्व के खिलाफ विकसित होती है और समाज को वर्गीय आधार पर संगठित करने में योगदान देती है।


 भारत में वर्ग संरचना

भारत की वर्ग संरचना जटिल और विविध है, जो ऐतिहासिक घटनाओं, जाति, और वर्गीय हितों के समेकन से प्रभावित है। वर्ग संरचना को सांस्कृतिक संदर्भ में समझना आवश्यक है, क्योंकि यह आदतों, व्यवहार, और कार्यों से प्रभावित होती है।

मुख्य वर्ग संरचनाएँ:

1. कृषि वर्ग:

  • जमींदार वर्ग: भूमि से आमदनी प्राप्त करने वाले और उच्च किराया वसूलने वाले।
  • किसान व धनी किसान: सीमित भूमि अधिकार वाले कामकाजी किसान।
  • भूमिहीन मजदूर: मजदूरी के लिए दूसरों की जमीन पर काम करने वाले।

परिवर्तन

  • भूमि सुधार और जमींदारी प्रथा के उन्मूलन से समृद्ध किसानों को लाभ हुआ, जबकि गरीब किसानों पर इसका सीमित प्रभाव पड़ा। हरित क्रांति ने अमीर और गरीब किसानों के बीच वर्गीय ध्रुवीकरण को बढ़ाया। साथ ही, कृषि से रोजगार के लाभ में गिरावट और गैर-कृषि क्षेत्रों में रोजगार के बढ़ते अवसरों के कारण युवा पीढ़ी कृषि छोड़ रही है।

चुनौतियाँ

  • ग्रामीण क्षेत्रों में विद्रोह और सशस्त्र संघर्षों में वृद्धि हुई है, जिससे सामाजिक अस्थिरता बढ़ी है। साथ ही, ग्रामीण से शहरी प्रवास और लगातार जारी कृषि संकट ने कृषि वर्ग के राजनीतिक प्रभाव को कमजोर कर दिया है।

2. श्रमिक वर्ग का विकास और प्रभाव

भारतीय श्रमिक वर्ग 19वीं सदी से राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा, जब देश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष कर रहा था। स्वतंत्रता से पहले मजदूर आंदोलनों में मिलों और कारखानों की हड़तालें प्रमुख थीं। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ने बाद में इन आंदोलनों को समर्थन दिया।

स्वतंत्रता के बाद का दौर

  • संगठन: कम्युनिस्ट समर्थित AITUC के जवाब में कांग्रेस ने INTUC का गठन किया।
  • मजबूती: औद्योगिक कंपनियों में श्रमिक संघों ने संगठित बातचीत जारी रखी।
  • अनौपचारिक श्रमिक: भारत में अधिकतर श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। ये श्रमिक नियोक्ताओं की बजाय राज्य से कल्याणकारी लाभों की माँग करते हैं और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं।

प्रभाव

  • श्रमिक आंदोलनों ने सामाजिक संघवाद को बढ़ावा दिया, औद्योगिक विवादों को बनाए रखा, और श्रम नीतियों में सुधार के लिए दबाव डाला। यह लोकतंत्र को नया और मजबूत चरित्र प्रदान करता है।

3. पूँजीपति वर्ग

इस वर्ग में बड़े व्यापारी और पूँजी निवेशक शामिल हैं। रूडोल्फ और रूडोल्फ के अनुसार, भारत में व्यापारी वर्ग के हितों का संगठित श्रम के मुकाबले बेहतर प्रतिनिधित्व है। विवेक विब्बर ने यह भी बताया कि भारतीय राज्य व्यापारिक वर्ग को अनुशासित करने में कुछ हद तक विफल रहा।

सहयोग

  • फिक्की, एसोचैम और सीआईआई जैसी संस्थाओं ने राज्य और व्यापारिक वर्ग के बीच सहयोग को मजबूत बनाया और विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में भूमिका निभाई।

प्रभाव

  • राज्य और व्यापारिक वर्ग के बीच निवेश और विकास के लिए आम सहमति बनी, जिससे आर्थिक सुधारों को बढ़ावा मिला।

4. मध्यम वर्ग और उसका प्रभाव

मध्यम वर्ग भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो बड़े पूँजीपति और निम्न वर्गों के बीच सेतु का कार्य करता है। 

  • संरचना: इसकी संरचना परंपरागत मध्यम वर्ग (छोटे व्यापारी, जमींदार, अमीर किसान और छोटे निर्माता) और नए मध्यम वर्ग (पेशेवर, शिक्षित और सांस्कृतिक पूँजी वाले लोग) में विभाजित है।
  •  विशेषताएँ: यह वर्ग अंग्रेजी बोलने और महानगरीय व्यवहार में कुशल है (देशपांडे) और "सत्तारूढ़ वर्ग का सहायक" माना जाता है, जो अभिजात वर्ग के विचारों और प्रथाओं का अनुकरण करता है (फर्नांडीस और हेलर)। 
  • प्रभाव: नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के विस्तार के साथ, इस वर्ग ने सेवा क्षेत्र और बढ़ती अर्थव्यवस्था का लाभ उठाया है। अब यह वर्ग चुनावी राजनीति में प्रभावी भूमिका निभाने के साथ सामाजिक और आर्थिक विकास का प्रमुख वाहक बन गया है।


 वर्ग-जाति का बंधन 

भारतीय समाज में जाति और वर्ग का गठजोड़ एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहाँ दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह गठजोड़ सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक संबंधों को समझने में मदद करता है, लेकिन साथ ही इसे जटिल भी बनाता है। जाति उच्च सामाजिक स्वीकृति और सम्मान को प्रभावित करती है, जबकि वर्ग आर्थिक स्थिति को दर्शाता है।

1. जाति और वर्ग का परस्पर संबंध

  • गोफ का दृष्टिकोण: उत्पादन के साधनों और रिश्तेदारी, परिवार, और विवाह के संबंधों में जाति और वर्ग के बीच गहरा संबंध होता है।
  • जोन मेनचर का दृष्टिकोण: जाति व्यवस्था निम्न जातियों के आर्थिक शोषण को सुनिश्चित करती है, जिससे वे समाज के निचले वर्ग में रह जाती हैं।
  • डिसूजा का दृष्टिकोण: जाति कठोर संरचना का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि वर्ग तरलता का। लेकिन भारत में ये दोनों अविभाज्य हैं और सामाजिक गठन में योगदान देते हैं।

2. स्वतंत्रता के बाद जाति-वर्ग का अधिव्यापन

स्वतंत्रता के समय भारत में तीन प्रमुख वर्ग थे: 

  • भूमि मालिक
  • कृषक
  • भूमिहीन

3.महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम

  • सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार ने सभी को राजनीतिक अधिकार प्रदान किए। हरित क्रांति ने ग्रामीण कृषि समाज में बड़े बदलाव लाए। 1991 के आर्थिक सुधारों और पिछड़ा वर्ग आरक्षण ने जाति और वर्ग की गतिशीलता को व्यापक रूप से प्रभावित किया।

4. वर्तमान स्थिति

  • हालाँकि, सवर्ण जातियाँ आज भी बड़े पैमाने पर उच्च वर्ग में हैं, जबकि निम्न जातियाँ वर्ग संरचना में निम्न स्तरों पर बनी हुई हैं। इससे स्पष्ट है कि जाति और वर्ग एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं, बल्कि भारतीय समाज में शक्ति संरचना को मिलकर आकार देते हैं।



 पितृसत्तात्मकता 


 पितृसत्ता 

पितृसत्ता एक सामाजिक व्यवस्था है जिसमें पुरुष शक्ति और अधिकार का प्रभुत्व बनाए रखते हैं। यह व्यवस्था महिलाओं को अधीनस्थ और कमजोर मानते हुए, पुरुषों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्राथमिकता देती है। अरस्तू जैसे विचारकों ने महिलाओं को "विकृत पुरुष" और तर्कहीन प्राणी माना, जो पुरुषों के अधीन रहने के लिए बनी हैं।

1. पितृसत्ता का स्वरूप

पितृसत्ता केवल पुरुष-प्रधानता नहीं, बल्कि शक्ति, वर्चस्व, और पदानुक्रम पर आधारित एक प्रणाली है। यह संस्कृति, समाज, परिवार, और कानूनी व्यवस्थाओं के माध्यम से संरक्षित और प्रसारित होती है। यह महिलाओं को उनके कानूनी अधिकारों से वंचित करती है और परिवार, कार्यस्थल, तथा समाज जैसे जीवन के हर क्षेत्र में बाधाएँ उत्पन्न करती है।

2. पितृसत्ता की विशेषताएँ

  • निजी और सार्वजनिक पितृसत्ता (वाल्बी): निजी पितृसत्ता घर के भीतर महिलाओं की आर्थिक और भावनात्मक निर्भरता को दर्शाती है। सार्वजनिक पितृसत्ता कार्यस्थल और राज्य में महिलाओं के अवसरों और संसाधनों पर नियंत्रण को इंगित करती है।
  • लैंगिक भेदभाव: यह धारणा कि महिलाएँ कमजोर और पुरुष मजबूत हैं, समाज में गहराई तक फैली है। इससे महिलाओं के योगदान और अधिकारों को कमतर आँका जाता है, जो असमानता और अन्याय को बढ़ावा देता है।
  • संस्थागत पितृसत्ता: परिवार, शिक्षा प्रणाली, कानून और आर्थिक ढाँचे जैसी संस्थाएँ पितृसत्ता को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं। इनमें पुरुषों को निर्णय लेने और संसाधनों के नियंत्रण में प्राथमिकता दी जाती है, जिससे लैंगिक असमानता कायम रहती है।
  • महिलाओं की प्रजनन शक्ति पर नियंत्रण: महिलाओं की प्रजनन क्षमता और कामुकता को नियंत्रित करना पितृसत्ता की एक प्रमुख विशेषता है, जो उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर बनाए रखती है।

3.पितृसत्ता और नारीवादी दृष्टिकोण :

  • नारीवादियों ने पितृसत्ता को केवल एक ऐतिहासिक व्यवस्था नहीं, बल्कि आज भी महिलाओं पर अत्याचार करने वाली प्रणाली के रूप में देखा है।
  • नारीवाद ने पितृसत्ता को सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक संरचना के रूप में उजागर किया है, जो महिलाओं के अधिकारों और अवसरों को सीमित करता है।
  • मार्क्सवादी नारीवादियों ने पितृसत्ता और पूँजीवाद के बीच संबंध को उजागर किया, जो महिलाओं के दोहरे शोषण का कारण बनता है।


 आधुनिक पितृसत्ता की विशेषताएँ और पहलू 

  • शुरुआत और परिवर्तनशीलता: पितृसत्ता की शुरुआत लगभग 6 सहस्राब्दी पहले हुई और यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है, जो समय और समाजों के साथ परिवर्तित होती रही है।
  • अलग-अलग मॉडल: पितृसत्ता के मॉडल समय, समाज, और स्थान के अनुसार बदलते हैं। नवउदारवादी पूँजीवाद के वैश्वीकरण ने इसे "पूँजीवादी पितृसत्ता" का रूप दिया है।
  • अलग-अलग मॉडल: पितृसत्ता समय, समाज, और स्थान के अनुसार बदलती है। नवउदारवादी पूँजीवाद ने इसे "पूँजीवादी पितृसत्ता" का स्वरूप दिया है।
  • महिलाओं के प्रति नकारात्मकता: महिलाओं को प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से कमजोर और उनकी गतिविधियों को कमतर दिखाया जाता है। प्रत्येक संस्कृति में महिलाओं से जुड़े नकारात्मक विचार भिन्न होते हैं।
  • सत्ता से बहिष्करण: पितृसत्ता महिलाओं को उच्च सामाजिक, राजनीतिक, और धार्मिक पदों से वंचित करती है। हालांकि, सभी महिलाएँ समान रूप से सत्ता से वंचित नहीं होतीं, जिससे उनकी एकता कमजोर होती है।
  • पदानुक्रमित मानसिकता: पितृसत्ता पुरुषों को "संस्कृति" के उच्चतम और महिलाओं को "प्रकृति" के निम्न स्तर पर रखती है।
  • लैंगिक भूमिकाएँ और रूढ़ियाँ: पितृसत्ता अलग-अलग वर्ग, उम्र, और संस्कृति के आधार पर भूमिकाएँ और रूढ़ियाँ निर्धारित करती है, जिन्हें संस्थानों के माध्यम से व्यापक रूप दिया जाता है।
  • पुरुषों के बीच पदानुक्रम: सभी पुरुष समान अधिकार और शक्ति के भागी नहीं होते। पितृसत्तात्मक पदानुक्रम में शीर्ष पर रहने वाले पुरुषों को विशेष आर्थिक और सामाजिक शक्ति मिलती है।
  • हिंसा और भेदभाव: पितृसत्ता महिलाओं के प्रति हिंसा और भेदभाव को बढ़ावा देती है। ये रूप संस्कृति, धर्म, और आर्थिक मॉडल के अनुसार बदलते हैं।
  • प्रभुत्व की अदृश्यता: पितृसत्ता एक केंद्रीय शक्ति संरचना है। इसकी अदृश्यता इसे और अधिक शक्तिशाली बनाती है, जिससे इसे अक्सर अनदेखा किया जाता है।
  • आत्म-उत्पीड़न: पितृसत्ता महिलाओं को आत्म-उत्पीड़न की ओर प्रेरित करती है, जहाँ वे स्वयं इस व्यवस्था को बनाए रखने में भूमिका निभाती हैं।


 पितृसत्ता की उत्पत्ति 

पितृसत्ता की जड़ें नर-मादा के जैविक भेदों में मानी जाती हैं। महिलाओं की जैविक भूमिका, जैसे प्रजनन और पालन-पोषण, ने उन्हें घरेलू कर्तव्यों तक सीमित कर दिया।

1.जैविक दृष्टिकोण

  • सिग्मंड फ्रायड: महिलाओं का जीव विज्ञान उनके मनोविज्ञान और भूमिकाओं को तय करता है।
  • हेयवुड: जैविक अंतर से सामाजिक भेद निकलते हैं, लेकिन इन्हें यौन पदानुक्रम का आधार नहीं बनाना चाहिए।
  • नारीवादी मत: पितृसत्ता जैविक नहीं, बल्कि मानव निर्मित है और यह सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक संरचनाओं से विकसित हुई है।

2. ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ

  • उपनिवेश और विस्तार: पुरुषों की शारीरिक दक्षता ने उन्हें क्षेत्र विस्तार और युद्ध का केंद्र बनाया, जबकि महिलाएँ घरेलू भूमिकाओं तक सीमित रहीं।
  • कृषि और शिकार: कृषि और शिकार पर निर्भरता ने पुरुषों को 'ब्रेडविनर' और महिलाओं को 'केयरगिवर' बना दिया, जिससे लिंग आधारित विभाजन स्थाई हुआ।

3. नारीवादी दृष्टिकोण

  • पितृसत्ता जैविक भेदों पर आधारित नहीं है, बल्कि यह ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से निर्मित प्रणाली है। महिलाओं की दयालुता और प्रेमपूर्णता को उनके स्वभाव का हिस्सा मानते हुए उनके योगदान को कम आँकने का प्रयास किया गया।


 पितृसत्ता की प्रथा से उत्पन्न विशेषताएँ 

  • सार्वजनिक-निजी द्वंद्व: पितृसत्ता महिलाओं को निजी क्षेत्र (घर और परिवार) तक सीमित रखती है, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र (कार्यस्थल और निर्णय लेने की भूमिकाएँ) पुरुषों के लिए आरक्षित होता है।
  • पितृवंशवाद का समर्थन: परिवार की पहचान पितृपक्ष (पिता के नाम) से जुड़ी होती है। महिलाओं और बच्चों को पुरुष के परिवार का हिस्सा माना जाता है।
  • महिलाओं की कामुकता पर नियंत्रण: महिलाओं के ड्रेस कोड और व्यवहार पुरुष तय करते हैं। गैर-पारंपरिक भूमिकाओं और रोजगार में महिलाओं की भागीदारी सीमित रहती है। उन्हें सांस्कृतिक प्रतीक और परंपराओं का संरक्षक माना जाता है।
  • प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण: महिलाओं की प्रजनन क्षमता पुरुषों के नियंत्रण में होती है। पुत्र-प्राथमिकता, कन्या भ्रूण हत्या, और बालिका उपेक्षा जैसी प्रथाएँ आम हैं। गर्भधारण और परिवार नियोजन में महिलाओं की इच्छाओं को महत्व नहीं दिया जाता।
  • महिलाओं के श्रम पर नियंत्रण: महिलाओं का श्रम अवैतनिक और अदृश्य रहता है। श्रम बाजार में उन्हें अधीनस्थ और कमतर भूमिकाओं तक सीमित रखा जाता है। लिंग आधारित श्रम विभाजन पुरुषों को प्राथमिकता देता है।


 पितृसत्ता और नारीवाद का परिप्रेक्ष्य 

1. नारीवाद की परिभाषा और उद्देश्य:

नारीवाद महिलाओं के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को पुरुषों के समान मानने का आंदोलन है। इसका उद्देश्य लैंगिक असमानता को समाप्त कर महिलाओं के अधिकारों की वकालत करना है।

नारीवाद की तीन लहरें

  • पहली लहर (19वीं-20वीं सदी): महिलाओं के मताधिकार और कानूनी अधिकारों पर केंद्रित।
  • दूसरी लहर (1960-70): सामाजिक, आर्थिक और प्रजनन अधिकारों पर जोर। नारा: "व्यक्तिगत ही राजनीतिक है।"
  • तीसरी लहर (1990 के बाद): वैश्वीकरण, लैंगिक अध्ययन और महिलाओं की यौन स्वतंत्रता पर चर्चा।

2. नारीवाद की शाखाएँ:

  • कट्टरपंथी नारीवाद: पितृसत्ता को महिलाओं की अधीनता का मुख्य कारण मानता है।
  • मार्क्सवादी नारीवाद: महिलाओं के शोषण को पूँजीवाद और पितृसत्ता का परिणाम मानता है।
  • उत्तर-आधुनिक नारीवाद: पितृसत्ता की संरचनाओं को चुनौती देकर लिंग आधारित भेदभाव को समाप्त करता है।

 3. पितृसत्ता का प्रभाव 

  • महिलाओं की अधीनता: महिलाओं को घर तक सीमित रखा गया, उनके श्रम और प्रजनन क्षमता पर पुरुषों का नियंत्रण रहा।
  • लैंगिक भूमिकाएँ: पुरुषों को शक्ति का प्रतीक और महिलाओं को सहनशीलता का प्रतीक माना गया।
  •  महिलाओं के यौन उत्पीड़न, पोर्नोग्राफी, मानव तस्करी, और कार्यस्थलों में असमानता जैसी समस्याओं का समाधान आवश्यक है।

 4. नारीवाद की प्रगति 

  • नारीवादी आंदोलनों ने महिलाओं को अभूतपूर्व ऊँचाइयों तक पहुँचाया, लेकिन लैंगिक असमानता और हिंसा जैसी चुनौतियाँ अब भी बनी हुई हैं।

5. नारीवादी दृष्टिकोण और समाधान

  • नारीवाद ने पितृसत्ता को चुनौती देकर समाज में संरचनात्मक बदलाव किए। महिलाओं के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए ठोस नीतियाँ और जागरूकता आवश्यक हैं। यह समाज को पितृसत्ता के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त करने का मार्ग दिखाता है।


 पितृसत्ता को नारीवादी चुनौती 

नारीवादियों का मानना है कि पितृसत्ता मानव निर्मित है, जो समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं से विकसित हुई है। वे इसे जैविक अंतर पर आधारित यौन पदानुक्रम के रूप में स्वीकार नहीं करते, जहाँ पुरुषों को महिलाओं पर श्रेष्ठ माना जाता है।

मुख्य तर्क और चुनौतियाँ

  • पितृसत्ता की मान्यता: नारीवादी पितृसत्ता को पुरुषों के हितों की सेवा के लिए एक उपकरण मानते हैं। यह समाज की जागरूकता, संस्कृति, और प्रथाओं में गहराई से निहित है।
  • पारंपरिक अवधारणा का विरोध: नारीवादी 'पितृसत्ता' शब्द को अस्वीकार कर 'लिंग उत्पीड़न' का उपयोग करना पसंद करते हैं। मिशेल बैरेट ने इसे अपरिवर्तनीय मानने की धारणा का विरोध किया है।
  • लैंगिक समानता का प्रयास: नारीवादी लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए मुख्यधारा में प्रयास कर रहे हैं, जिससे पितृसत्ता की निरंतरता को चुनौती दी जा सके।
  • पितृसत्ता में बदलाव: पितृसत्ता समय के साथ बदल रही है, लेकिन इसकी कुछ विशेषताएँ आज भी मौजूद हैं। नारीवादी इस परिवर्तन को तेज करने और समाज में सुधार लाने का प्रयास कर रहे हैं।












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