भारत का इतिहास 1550-1700 UNIT 6 CHAPTER 12 SEMESTER 4 THEORY NOTES मुगलकालीन गैर-कृषि उत्पादन : हस्तकला एवं तकनीक DU.SOL.DU NEP COURSES

भारत का इतिहास 1550-1700 UNIT 6 CHAPTER 12 THEORY NOTES मुगलकालीन गैर-कृषि उत्पादन : हस्तकला एवं तकनीक DU.SOL.DU NEP COURSES

परिचय 

मुगल साम्राज्य की राजनीतिक और आर्थिक नीतियों में कृषि, शिल्प और प्रौद्योगिकी का महत्वपूर्ण योगदान था। मुगल कारखाने शिल्पकारों को प्रोत्साहन देते हुए उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों का निर्माण करते थे, जो मुख्य रूप से राजशाही और उच्च वर्गों की आवश्यकताओं को पूरा करते थे। हालांकि स्वतंत्र शिल्पकारों की गतिविधियों पर सीमित जानकारी उपलब्ध है, यह स्पष्ट है कि मुगलकालीन शिल्प और तकनीक ने भारतीय उद्योग और यूरोपीय बाजारों पर गहरी छाप छोड़ी। इस काल में हस्तकला और तकनीकी विकास का अध्ययन हमें इस समृद्ध सांस्कृतिक और आर्थिक परंपरा को समझने में मदद करता है।


 वस्त्र प्रौद्योगिकी 

मुगलकालीन भारत में वस्त्र प्रौद्योगिकी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र था, जिसमें कपड़ों के उत्पादन और बुनाई की उन्नत तकनीकों ने भारतीय वस्त्रों को उच्च गुणवत्ता और चमकीले रंगों के लिए विश्व प्रसिद्ध बनाया। रंगाई की कला, विभिन्न प्रकार के वस्त्र (जैसे मलमल, जमदानी), मुगल सिल्क, और सूती वस्त्र इस काल की प्रमुख विशेषताएँ थीं। इन वस्त्रों की उत्कृष्टता ने भारत को वैश्विक वस्त्र व्यापार का केंद्र बना दिया।

1. मुगलकाल में वस्त्र रंगाई की कला

मुगलकालीन भारत में वस्त्र रंगाई की कला न केवल एक महत्त्वपूर्ण परंपरा थी, बल्कि इसे वैश्विक स्तर पर ख्याति भी प्राप्त हुई। यह कला वस्त्रों को सुंदर और आकर्षक बनाने के लिए विकसित की गई थी।

 विशेषताएँ:

  • रंगों और पैटर्न का उपयोग: वस्त्रों पर गहरे और उच्च गुणवत्ता के रंगों का इस्तेमाल किया जाता था। फूल, पत्तियाँ, गुलाब, और गेंदे जैसे आकर्षक पैटर्न आमतौर पर वस्त्रों को सजाने के लिए प्रयोग किए जाते थे।

तकनीकें :

1. कलाया: वस्त्रों को गहरे और विविध रंगों से भरने की तकनीक।

2. पैचवर्क: अलग-अलग रंगों के टुकड़ों को जोड़कर नए और अनोखे डिज़ाइन बनाना।

3. कारीगारी: वस्त्रों पर गोल्ड और सिल्वर कढ़ाई से जटिल डिज़ाइन और चित्र बनाना।

सौंदर्य और गुणवत्ता: 

  • इन तकनीकों ने वस्त्रों को समृद्ध, सुंदर और उच्च गुणवत्ता वाला बनाया।

प्रभाव और महत्त्व:

  • मुगलकाल में वस्त्र रंगाई की कला भारतीय वस्त्र परंपरा का गौरव बनी। इसने भारतीय वस्त्रों को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई और भारतीय कारीगरों की प्रतिभा को प्रदर्शित किया।

2. मुगलकाल में वस्त्रों के प्रकार और उनकी विशेषताएँ

वस्त्रों के प्रकार:

मुगलकाल में विभिन्न प्रकार के वस्त्र तैयार किए जाते थे, जिनमें प्रमुख थे:

  • सिल्क (रेशम): मुगलकाल का प्रमुख वस्त्र, जो दरबार और समृद्ध वर्ग में लोकप्रिय था।
  • कॉटन (सूती कपड़े): दैनिक उपयोग के लिए सबसे अधिक प्रचलित।
  • लिनन: गर्मियों में पहनने के लिए उपयुक्त और हल्का कपड़ा।

3.मुगल सिल्क

मुगल सिल्क उस समय के वस्त्र उद्योग की शान थी और इसे विशिष्टता, गुणवत्ता, और डिज़ाइन के लिए जाना जाता था।

प्रमुख विशेषताएँ:

  • सिल्क उत्पादन: मुगलकाल में सिल्क उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अकबर ने विशेष कारखाने स्थापित किए, जहां मुख्य रूप से मल्बरी सिल्क, तसर, और एरी सिल्क का उत्पादन होता था।
  • गुणवत्ता: मुगल सिल्क कपड़े अपनी मजबूती, चमक, और जटिल डिज़ाइनों के लिए प्रसिद्ध थे, जिन्हें विदेशी बाजारों में भी अत्यधिक मांग प्राप्त हुई।
  • विदेशी व्यापार: मुगल सिल्क इंग्लैंड, पुर्तगाल, और ओटोमन साम्राज्य जैसे देशों को निर्यात की जाती थी, जो अंतरराष्ट्रीय व्यापार का प्रमुख हिस्सा थी।
  • आर्थिक महत्त्व: सिल्क उद्योग ने लाखों लोगों को रोजगार दिया और भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ मुगल समृद्धि को भी बढ़ावा दिया।
  • कलात्मक विकास: मुगल सम्राटों ने सिल्क कारीगरों को नए डिज़ाइन और तकनीकों के विकास के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे जटिल बुनाई और रूपांकन वाले कपड़े मुगल दरबार की पहचान बन गए।


 4. मुगलकाल में सूती वस्त्र और उनका महत्त्व 

मुगलकालीन भारत में सूती वस्त्र एक प्रमुख उद्योग और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा थे। इन वस्त्रों की विशेषता उनकी उच्च गुणवत्ता, विविधता, और बुनाई में परिलक्षित होती थी।

  • सूती वस्त्रों का महत्त्व: सूती वस्त्र आम जनता के साथ-साथ मुगल दरबार और समृद्ध वर्गों के बीच भी लोकप्रिय थे। यह कृषि के बाद का सबसे बड़ा उद्योग था, जिसमें लाखों लोग रोजगार पाते थे।
  • उत्पादन और केंद्र: बंगाल, गुजरात, कश्मीर, लाहौर, आगरा, बुरहानपुर, और सूरत सूती वस्त्र उत्पादन के प्रमुख केंद्र थे। 16वीं सदी में 130 प्रकार के सूती वस्त्र बनाए जाते थे, जिनमें सस्ते दैनिक उपयोग वाले कपड़े से लेकर उच्च गुणवत्ता के सजावटी वस्त्र शामिल थे।
  • बुनाई की तकनीक और नवाचार: बुनाई में दोहरी बुनाई, ब्लॉक प्रिंटिंग, और धागा जड़ाई जैसी तकनीकों का इस्तेमाल होता था। वस्त्रों को सोने-चाँदी की जरी और रंगीन धागों से सजाया जाता था। तफ्ता, तसर, एटलस, खटान, और किमखाब जैसे वस्त्र अत्यधिक प्रचलित थे।
  • प्रमुख उत्पाद और निर्यात: बंगाल के उच्च गुणवत्ता वाले सूती कपड़े, गुजरात के रंगीन और कढ़ाई वाले वस्त्र, तथा कश्मीर के पश्मीना और शॉल प्रसिद्ध थे। मुगलकाल में सूती वस्त्रों का निर्यात इंग्लैंड, ओटोमन साम्राज्य, और दक्षिण-पूर्व एशिया में होता था।
  • यूरोपीय यात्रियों के वर्णन: यूरोपीय यात्रियों ने मुगलकालीन वस्त्रों की प्रशंसा करते हुए बताया कि मुगल कारीगर अपनी बुनाई और रंगाई की कला में निपुण थे। बर्नियर ने लिखा कि वस्त्र उत्पादन के लिए बड़े-बड़े कारखाने बनाए गए थे, जहाँ कारीगर दिन-रात काम करते थे।
  • मुगलकालीन सूती वस्त्रों की विरासत: मुगलकालीन सूती वस्त्रों ने भारतीय कला और संस्कृति को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई। इनकी उच्च गुणवत्ता, उत्कृष्ट डिज़ाइन, और तकनीकी नवाचार आज भी भारतीय वस्त्र परंपरा को समृद्ध करते हैं।


 मुगलकाल में खनन और धातुशिल्प 

मुगलकालीन भारत में खनन और धातुशिल्प ने विज्ञान, कला और प्रौद्योगिकी में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यह क्षेत्र समृद्धि और तकनीकी विशेषज्ञता का प्रतीक था, जो विभिन्न धातुओं और तकनीकों के उपयोग से परिलक्षित होता है।

1. खनन के प्रमुख केंद्र

  • गोलकुंडा, कोल्लूर, अरावली, बासेनगर, अगूचा, और दरिबा खनिज संपदा के लिए प्रसिद्ध थे। जावर (राजस्थान) जिंक, चाँदी और सीसे की खदानों के लिए जाना जाता था।

2. प्रमुख धातुएँ और उनकी उपयोगिता

  • लोहा: प्राचीन धातुकौशल का प्रमाण मेहरौली का जंग प्रतिरोधी स्तंभ है। मुगलकाल में लोहे का उपयोग मस्केट और हैंडगन बनाने में बढ़ा।
  • स्टील: डैमसीन स्टील कच्छ के कोरीज क्षेत्र में प्रसिद्ध था और तलवार निर्माण में उपयोग होता था। भारतीय तलवारों की गुणवत्ता को वैश्विक स्तर पर सराहा गया।
  • सोना और चाँदी: इन धातुओं के सिक्के व्यापक रूप से जारी किए गए, जिनमें सूरत की मिंट फैक्ट्री प्रमुख थी। भारतीय सुनारों ने सोने पर नक्काशी और सोल्डरिंग कला विकसित की।
  • जिंक: मुगलकाल में जिंक को अलग करने की प्रक्रिया का नवाचार हुआ।

3. धातुशिल्प और नवाचार

  • उपकरण और प्रौद्योगिकी: सिरिंज, पिस्टन, और वैक्यूम पंप का ज्ञान मुगलों के समय में था। धातु स्प्रिंग्स का बुनाई और यांत्रिकी में प्रयोग हुआ।
  • टिनिंग और कांस्य: कोल्हापुर तांबे के बर्तनों पर टिनिंग के लिए प्रसिद्ध था। सोने और चाँदी की पत्तियाँ अन्य धातुओं पर चढ़ाई जाती थीं।

4. परिवहन और उद्योग

  • सिक्के व्यापार और प्रशासन का आधार थे। जहाजों के लिए लोहे के लंगर बनाए जाते थे, हालाँकि वे यूरोपीय लंगरों जितने उन्नत नहीं थे।

5. भारतीय और विदेशी तकनीकों का समन्वय

  • भारत में स्थानीय खनन और धातुशिल्प तकनीकों को अरब, फारसी, और भूमध्यसागरीय प्रौद्योगिकी से समृद्ध किया गया।


 निर्माण उद्योग का विकास 

भारत में निर्माण तकनीकों का विकास समय के साथ हुआ।

  • प्रारंभिक काल: हड़प्पा काल में ईंटों का उपयोग शुरू हुआ। प्राचीन मंदिरों जैसे एलोरा में पत्थरों से बने स्तंभ और बीम तकनीक का उपयोग ऊँची छतों के निर्माण में हुआ। बड़े पत्थरों के ब्लॉक को जोड़ने के लिए लोहे के क्लैंप्स का प्रयोग किया गया।
  • मध्यकाल: तेरहवीं सदी में गुंबद, चाँदी के वृत्त, और गुफा निर्माण तकनीकों का विकास हुआ। ईंट, पत्थर, चूना, और जिप्सम को मोर्टार के रूप में उपयोग किया जाने लगा।
  • मुगल काल: निर्माण तकनीक में बाइजंटीन और सासानिद प्रभाव देखे गए, विशेष रूप से गुंबदों और बैरल वॉल्ट्स में। कैप्स्टन और व्हीलबैरो जैसे उपकरणों का उपयोग किया गया। सजावट में पेट्राडुरा और चित्रकारी का व्यापक उपयोग हुआ। पुल निर्माण में मजबूत पत्थरों और संरक्षित डिज़ाइनों का सहारा लिया गया।
  • अकबर का योगदान: अकबर ने 18 पोर्टेबल लकड़ी के घरों का निर्माण कराया, जिनमें ऊपरी कक्ष और बालकनी थीं। इन ढाँचों में बांस का उपयोग हुआ और इन्हें "बंगला" कहा गया।


 कागज निर्माण का विकास 

मुगल काल में कागज निर्माण उद्योग ने विशेष प्रगति की।

1. प्रारंभिक प्रमाण और प्रसार

  • कागज का प्रारंभिक उपयोग शतपथ ब्राह्मण में उल्लेखित है, जबकि 1089 ई. में कश्मीर में कागज निर्माण का प्रमाण मिलता है। दिल्ली सल्तनत के दौरान कागज उद्योग स्थापित हुआ, और अमीर खुसरो ने कागज बनाने की तकनीक का उल्लेख किया।

2. कागज निर्माण प्रक्रिया

  • कच्चा माल: कपास के रेशे, पुराने रस्से, गनी थैले, और पेड़ की छाल।
  • प्रसंस्करण: सामग्री को पानी में भिगोकर पल्प बनाया जाता, जिसमें चूना और अन्य सामग्री मिलाई जाती।
  • निर्माण: बांस के मोल्ड से कागज की परतें तैयार कर सुखाई जातीं और पत्थर या काँच से चमकदार बनाई जातीं।

3. प्रयोग और प्रभाव

  • सस्ती उत्पादन लागत ने ज्ञान के प्रसार, रिकॉर्ड रखने, और दस्तावेजों के आदान-प्रदान को आसान बनाया। मुगलकाल में प्रिंटेड पुस्तकों की जानकारी थी, लेकिन प्रिंटिंग तकनीक में प्रगति सीमित रही।

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