परिचय
मराठा शक्ति का उदय 17वीं शताब्दी की दक्षिण भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने मुगल-दक्खनी समीकरण को बदल दिया। शिवाजी भोसले के नेतृत्व में मराठा साम्राज्य ने स्वराज्य की स्थापना की और मुगलों को चुनौती दी। मराठों ने सुशिक्षित प्रशासनिक प्रणाली और संगठित सैन्य शक्ति के साथ अपने प्रभाव का विस्तार किया। यूरोपीय शक्तियों, विशेषकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, के साथ उनके संबंधों ने नए राजनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण विकसित किए। इस संघर्ष और सामरिक विस्तार ने दक्षिणी राजनीति को नया आयाम दिया और मुगल साम्राज्य को कमजोर किया।
मराठा शक्ति के उदय को प्रभावित करने वाले कारण
- भौगोलिक कारण: महाराष्ट्र की दुर्गम पहाड़ियाँ, जैसे सह्याद्रि और सतपुड़ा, बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित थीं। कठोर भौगोलिक परिस्थितियों ने मराठों को साहसी, वीर और छापामार युद्ध में कुशल बनाया। दुर्गों और पहाड़ों ने उनकी रक्षा और शत्रुओं पर आक्रमण के लिए अनुकूल आधार प्रदान किया।
- ऐतिहासिक कारण: महाराष्ट्र की सामाजिक व्यवस्था ने एकता को बढ़ावा दिया। धर्म सुधारकों के प्रयासों से जातिगत भेदभाव कम हुआ, जिससे मराठों में राष्ट्रीयता और संगठन की भावना प्रबल हुई। आर्थिक समानता और परिश्रमशीलता ने उन्हें आत्मनिर्भर और दृढ़ बनाया।
- प्रशासनिक एवं राजनीतिक कारण: मराठों ने दिल्ली सल्तनत और दक्षिण के राज्यों में प्रशासनिक अनुभव प्राप्त किया। बहमनी साम्राज्य के पतन के बाद, उन्होंने अहमदनगर, बीजापुर, और गोलकुंडा में महत्त्वपूर्ण पद हासिल किए। शाहजी भोंसले ने पूना की जागीर और मनसब लेकर मराठों को संगठित किया।
- धर्मसुधार आंदोलन का प्रभाव: संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, और रामदास जैसे सुधारकों ने मराठों में स्वदेश प्रेम और सामाजिक एकता जगाई। जनसाधारण की भाषा में संदेश देकर उन्होंने हिंदू धर्म और संस्कृति के पुनरुत्थान पर जोर दिया, जिससे मराठों में गौरव और संगठन की भावना विकसित हुई।
- मराठी भाषा और साहित्य: मराठी संतों और कवियों ने बोलचाल की भाषा में गीत और साहित्य रचे, जिससे मराठों में आपसी एकता, समानता और राष्ट्रीयता का विकास हुआ।
- शाहजी भोंसले का योगदान: शाहजी भोंसले ने मराठा सरदारों को संगठित कर मराठा शक्ति की नींव रखी। उन्होंने पूना की जागीर प्राप्त कर और कर्नाटक में प्रभाव जमाकर मराठा एकता को मजबूत किया। उनके प्रयासों ने स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना की पृष्ठभूमि तैयार की, जिसे शिवाजी ने साकार किया।
मराठा शक्ति के प्रमुख शासक
1.शिवाजी
शिवाजी भारतीय इतिहास में एक वीर योद्धा, कुशल राजनीतिज्ञ, और प्रशासक के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने मराठा राज्य की स्थापना की और मुगल तथा दक्षिणी रियासतों के विरुद्ध संघर्ष कर स्वतंत्रता की भावना को सुदृढ़ किया।
- प्रारंभिक जीवन: शिवाजी का जन्म 20 अप्रैल 1627 (कुछ के अनुसार 9 मार्च 1630) को पूना के पास शिवनेर में हुआ। उनके पिता शाहजी भोंसले अहमदनगर और बीजापुर में जागीरदार थे, जबकि उनकी माता जीजाबाई के धार्मिक और स्वाभिमानी स्वभाव ने शिवाजी के व्यक्तित्व को गढ़ा। गुरु कोणदेव और संत रामदास के मार्गदर्शन में उन्होंने घुड़सवारी, तीरंदाजी, युद्ध-कौशल और रणनीति में महारत हासिल की।
- राजनीतिक उद्देश्य: शिवाजी का लक्ष्य स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना करना था। उन्होंने मुगलों और मुस्लिम शासकों से महाराष्ट्र को स्वतंत्र कराने का संकल्प लिया।
- प्रारंभिक विजय: शिवाजी ने मावली योद्धाओं की सहायता से अपनी प्रारंभिक विजय अभियान शुरू किया। 1643 ई. में उन्होंने सिंहगढ़, चाकन, पुरंदर, और जावली जैसे दुर्गों पर कब्जा किया। 1656 ई. में जावली और राजगढ़ पर अधिकार कर अपनी शक्ति को और मजबूत किया।
- बीजापुर से संघर्ष: शिवाजी और बीजापुर के संघर्ष में, बीजापुर के सुलतान ने शिवाजी को हराने के लिए अफजल खाँ को भेजा। 1659 ई. में शिवाजी ने चतुराई से अफजल खाँ को मार दिया और उसकी सेना को पराजित किया। इसके बाद शिवाजी ने पन्हाला और कोल्हापुर के दुर्गों पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
- मुगलों से संघर्ष: मुगलों के साथ संघर्ष में, 1660 ई. में औरंगजेब ने शायस्ता खाँ को शिवाजी का दमन करने भेजा। शिवाजी ने 1663 ई. में शायस्ता खाँ के शिविर पर साहसिक हमला कर उसे पराजित किया। इसके बाद, 1664 ई. में सूरत के प्रमुख बंदरगाह को लूटकर शिवाजी ने अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया।
- पुरंदर की संधि (1665): 1665 ई. में पुरंदर की संधि मुगलों के दबाव में शिवाजी और जयसिंह के बीच हुई। इसके तहत शिवाजी ने 23 किले और 4 लाख हुण की आय वाले क्षेत्र मुगलों को सौंप दिए। साथ ही, उन्होंने अपने पुत्र शम्भाजी को 5000 जात मनसब के साथ मुगल सेवा में भेजा।
- आगरा से पलायन: 1666 ई. में शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा गए, जहाँ उन्हें नजरबंद कर दिया गया। सावधानीपूर्वक योजना बनाकर शिवाजी वहाँ से भाग निकले और सुरक्षित महाराष्ट्र लौट आए।
- छत्रपति शिवाजी (1674): 1674 ई. में रायगढ़ में राज्याभिषेक किया और छत्रपति की उपाधि धारण की। महाराष्ट्र, कोंकण, और कर्नाटक का बड़ा भाग उनके अधिकार में आ गया।
प्रशासनिक सुधार
- सैन्य संगठन: उन्होंने नौसेना की स्थापना की और दुर्गों को सुदृढ़ किया।
- राजस्व प्रणाली: किसानों के हितों का ध्यान रखते हुए राजस्व व्यवस्था को सुधारित किया।
- धार्मिक सहिष्णुता: उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया और धार्मिक स्थलों की रक्षा की।
- कर्नाटक अभियान और मृत्यु: शिवाजी ने कर्नाटक में अपनी शक्ति का विस्तार किया और जिंजी, वेलोर जैसे क्षेत्रों पर कब्जा किया। 14 अप्रैल 1680 को शिवाजी की मृत्यु हो गई।
- महत्त्व और विरासत: शिवाजी ने मराठा साम्राज्य की नींव रखी, जो मुगल साम्राज्य के पतन में सहायक बना। उन्होंने मराठों को संगठित कर उनमें राष्ट्रप्रेम, स्वाभिमान और स्वतंत्रता की भावना विकसित की। उनकी कुशलता, दूरदर्शिता और नेतृत्व ने उन्हें भारतीय इतिहास के महान शासकों में स्थान दिलाया।
2. शम्भाजी का शासनकाल (1680-1689)
- शम्भाजी का शासन: शिवाजी की मृत्यु के बाद शम्भाजी ने 1680 में गद्दी संभाली, लेकिन शासनकाल षड्यंत्रों और विद्रोहों से घिरा रहा। जागीरदारों और सहयोगियों का समर्थन कमजोर हुआ, और उन्होंने कवि कलश पर अत्यधिक भरोसा किया।
- औरंगजेब से संघर्ष: शम्भाजी ने बुरहानपुर पर हमला किया और अहमदनगर पर चढ़ाई की। औरंगजेब के बागी पुत्र अकबर से सहयोग का प्रयास असफल रहा। बीजापुर और गोलकुण्डा के पतन के बाद शम्भाजी राजनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ गए।
- प्रशासनिक कमजोरी: शम्भाजी ने जंजीरा के सिद्दियों और पुर्तगालियों से संघर्ष में अपनी शक्ति व्यर्थ की। प्रशासन पर उनका नियंत्रण कमजोर हुआ, और विलासिता में डूबने से शासन और अस्थिर हो गया।
- बंदी और मृत्यु: फरवरी 1689 में शम्भाजी और कवि कलश मुगलों के हाथों बंदी बने। कठोर यातनाओं के बाद 21 मार्च, 1689 को उन्हें क्रूरता से मार डाला गया। उनकी मृत्यु मराठा इतिहास में दुखद और प्रेरणादायक घटना रही।
3.राजाराम का शासनकाल (1689–1700)
- शम्भाजी के निधन के बाद राजाराम का राज्याभिषेक: 1689 में शम्भाजी की मृत्यु के बाद, मराठा मंत्रिपरिषद ने शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम को राजा घोषित किया। फरवरी 1689 में रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक हुआ, लेकिन मुगल आक्रमण के डर से राजाराम ने रायगढ़ छोड़कर जिंजी (तमिलनाडु) की ओर प्रस्थान किया।
- जिंजी मराठा गतिविधियों का केंद्र: जिंजी 1698 तक मराठा साम्राज्य की राजधानी बनी और मुगलों के खिलाफ मराठा गतिविधियों का केंद्र बन गया। इस दौरान रायगढ़ पर मुगलों ने कब्जा कर लिया और शम्भाजी के पुत्र शाहू को बंदी बना लिया।
- मराठा साम्राज्य का विघटन: राजाराम के शासनकाल में मराठा साम्राज्य विभिन्न सरदारों और सेनानायकों के अधीन अलग-अलग क्षेत्रों में बँट गया। केंद्रीय नेतृत्व और संगठित सरकार का अभाव था।
- मुगल-मराठा संघर्ष: मराठा सरदारों ने स्वतंत्र रूप से मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। प्रमुख मराठा नेता जैसे धनाजी जाधव, सन्ताजी घोरपड़े, और परशुराम अंबक ने मुगलों के खिलाफ प्रभावी संघर्ष किया। मराठा सेना ने छापामार युद्ध का सहारा लिया, जिससे औरंगजेब को कठिनाई हुई।
- मराठा मण्डल का उदय: राजाराम के शासनकाल में मराठा सरदारों की स्वायत्तता बढ़ी, जिसके परिणामस्वरूप मराठा मण्डल या राज्यसंघ की अवधारणा उभरी। यह मराठा साम्राज्य के भविष्य के संगठन की नींव साबित हुआ।
4.ताराबाई का नेतृत्व और संघर्ष
- ताराबाई का शासन और मुगलों के खिलाफ संघर्ष: राजाराम की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ताराबाई ने मराठा साम्राज्य की बागडोर संभाली। उन्होंने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बिठाया और संरक्षिका बनकर युद्ध का संचालन किया। मुगलों के बढ़ते दबाव के बावजूद, उन्होंने मराठों को संगठित रखा और मुगलों के खिलाफ अभियान तेज कर दिया। 1704 ई. में मराठों ने सतारा पर फिर से कब्जा किया।
- मुगल-मराठा संधि और विफलता: औरंगजेब की बढ़ती उम्र और मराठों के लगातार आक्रमणों से थककर 1703 ई. में संधि वार्ता शुरू हुई। संधि की शर्तों में शाहू को छत्रपति स्वीकार करना और मराठों को चौथ और सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार देना शामिल था। लेकिन औरंगजेब को मराठों पर संदेह हो गया, और उन्होंने संधि को ठुकरा दिया, जिससे संघर्ष फिर से शुरू हो गया।
- औरंगजेब की मृत्यु और मुगल साम्राज्य का पतन: 1707 में औरंगजेब की मृत्यु दक्षिण में औरंगाबाद में हुई। मराठों ने इस दौरान अपनी खोई भूमि वापस लेना शुरू कर दिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों का पतन शुरू हुआ, और मराठों ने अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा लिया।
- शाहू बनाम ताराबाई का संघर्ष: शाहू, जो मुगल कैद से मुक्त हुए, महाराष्ट्र लौटे और ताराबाई का सामना किया। शाहू ने कई मराठा सरदारों को अपने पक्ष में कर लिया और ताराबाई को परास्त कर सतारा पर कब्जा कर लिया। 1708 ई. में शाहू का राज्याभिषेक हुआ। इस संघर्ष ने मराठा साम्राज्य की सत्ता को फिर से संगठित किया और शाहू के नेतृत्व में मराठा शक्ति का विस्तार हुआ।
मुगल-मराठा संबंध
मुगल-मराठा संबंधों को चार चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
1. पहला चरण 1615-1664 ई.
II. दूसरा चरण 1664-1667 ई.
III. तीसरा चरण 1667-1680 ई.
IV. चौथा चरण 1680-1707 ई.
1. पहला चरण: 1615-1664 ई.
मराठा-मुगल संबंध की शुरुआत
जहाँगीर ने 1615 ई. में मराठा सरदारों को मुगल सेना में शामिल किया। शाहजहाँ ने 1629 ई. में भी मराठा सरदारों को साथ लाने का प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हुए। शाहजी भोंसले ने पहले मुगलों का साथ दिया लेकिन बाद में बीजापुर दरबार के साथ मिलकर मुगलों के खिलाफ षड्यंत्र किया।
- शिवाजी का उदय और मराठा विस्तार: शिवाजी ने 1657 ई. में कल्याण, मिवण्डी, और माहूली जैसे क्षेत्रों पर कब्जा किया। दाभोल और आदिल शाही कोंकण जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को जीतकर मराठा साम्राज्य को विस्तार दिया। बीजापुर के सुल्तान के प्रयासों के बावजूद मराठों ने अफजल खाँ को हराया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार जमाया।
- औरंगजेब और मुगल चुनौती: औरंगजेब ने दक्खन में शाइस्ता खाँ को वायसराय बनाया। उसने चाकन और उत्तरी कोंकण पर कब्जा किया लेकिन दक्षिण कोंकण हासिल करने में असफल रहा। 1663 ई. में शिवाजी ने पूना में शाइस्ता खाँ के शिविर पर हमला कर मुगलों को बड़ा झटका दिया।
- सूरत पर आक्रमण: 1664 ई. में शिवाजी ने सूरत पर आक्रमण किया और इसे लूटकर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत की। इस दौरान मराठा शक्ति मुगलों के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुकी थी।
2. द्वितीय चरण: 1664-1667 ई.
शिवाजी की बढ़ती शक्ति, अफजल खाँ की हत्या, और बीजापुर की असफलता ने मुगलों को नई रणनीति अपनाने पर मजबूर किया। औरंगजेब ने मिर्जा राजा जय सिंह को दक्खन का वायसराय बनाया। जय सिंह ने शिवाजी को रियायतें देकर बीजापुर को कमजोर करने की योजना बनाई।
- पुरंदर की संधि (1665): जय सिंह ने 1665 ई. में शिवाजी को पराजित किया। पुरंदर संधि के तहत शिवाजी ने 35 में से 23 किले और 4 लाख हुन की वार्षिक आमदनी वाले क्षेत्र मुगलों को सौंपे। शिवाजी को मुगल सीमा से दूर रखने की यह योजना बीजापुर और मराठों के बीच संघर्ष बढ़ाने का प्रयास था।
- शिवाजी का आगरा में अपमान: 1666 ई. में शिवाजी को औरंगजेब ने आगरा बुलाया, जहाँ उन्हें निम्न अधिकारी की तरह सम्मान दिया गया। अपमान से क्रोधित होकर शिवाजी ने दरबार में विद्रोह किया और उन्हें कैद कर लिया गया।
- जय सिंह की योजना की विफलता: शिवाजी के आगरा से पलायन (1666) ने जय सिंह की योजना को ध्वस्त कर दिया। जय सिंह को काबुल भेजा गया, और मुअज्जम को दक्खन का वायसराय बनाया गया। यह चरण मुगलों के लिए मराठों पर नियंत्रण पाने में असफल रहा।
3. तृतीय चरण: 1667-1680 ई.
- शिवाजी की रणनीति और विजय: आगरा से पलायन के बाद, शिवाजी ने मुगलों से सीधे टकराव से बचते हुए 1670 में अपने खोए हुए किलों जैसे पुरंदर, कोंडाना और माहुली पर कब्जा कर लिया। सूरत को दूसरी बार लूटा और बगलाना, बरार, और खानदेश में विजय प्राप्त की।
- बीजापुर और मुगलों की असफलता: बीजापुर के शासकों की आंतरिक कमजोरी और मुगलों के नेतृत्व की असफलताओं का शिवाजी ने लाभ उठाया। उन्होंने पनहाला, पारली और सतारा के किलों पर कब्जा किया। मुगलों ने बहादुर खाँ और दिलेर खाँ को दक्खन भेजा, लेकिन वे शिवाजी को रोकने में नाकाम रहे।
- कर्नाटक अभियान और गोलकुंडा संधि: शिवाजी ने 1677-78 में कर्नाटक में अभियान चलाया। गोलकुंडा के शासक से सहयोग प्राप्त किया, लेकिन वादाखिलाफी के कारण दोनों के संबंध खराब हो गए।
- आंतरिक संघर्ष और शम्भाजी का विद्रोह: शिवाजी ने अपने छोटे पुत्र राजाराम को देस और कोंकण, और शम्भाजी को कर्नाटक सौंपा। शम्भाजी ने इसे अस्वीकार कर मुगलों से हाथ मिला लिया और 7000 जात का मनसब प्राप्त किया।
- मुगल नीतियों की विफलता: मुगल नीति दिशाहीन रही। मराठों से निपटने में नाकामयाब रहे। शिवाजी ने दक्खन में अपनी शक्ति को मजबूत किया और मुगलों की आक्रामक नीतियों को विफल कर दिया।
4. चौथा चरण: 1680-1707 ई.
- शिवाजी की मृत्यु और संघर्ष: 1680 में शिवाजी की मृत्यु के बाद शम्भाजी ने सत्ता संभाली, लेकिन उनकी अनुशासनहीनता और दमनकारी नीतियों ने मराठा साम्राज्य को कमजोर किया।
- औरंगजेब का आक्रामक अभियान: औरंगजेब ने बीजापुर और गोलकुंडा को 1687-1688 में जीत लिया। 1689 में शम्भाजी को पकड़कर मार दिया गया, लेकिन मराठा संघर्ष जारी रहा।
- मराठा पुनरुत्थान: राजाराम ने जिंजी से मुगलों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। छापामार युद्ध के माध्यम से मराठों ने अपने खोए हुए क्षेत्र वापस हासिल किए।
- मुगल प्रशासन की विफलता: जागीरदारी व्यवस्था और युद्धों ने मुगलों को कमजोर किया। मराठों के हमलों और आंतरिक असंतोष ने मुगल शक्ति को हिला दिया।
- औरंगजेब की मृत्यु: 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, मराठों ने फिर से अपना प्रभाव बढ़ाया। यह चरण मुगल साम्राज्य के पतन और मराठा शक्ति के पुनरुत्थान का प्रतीक है।
मराठा और जंजीरा के सिद्दी
1658 ई. में शिवाजी ने कल्याण और भिवंडी पर कब्जा कर नौसैनिक अड्डा स्थापित किया। दक्षिण कोंकण तट पर मराठों का सामना जंजीरा के सिद्दियों से हुआ, जो 15वीं शताब्दी में अबीसीनिया से आकर जंजीरा में बसे थे। पहले वे अहमदनगर और बीजापुर के लिए नौसैनिक कार्य करते थे, लेकिन निजाम शाही के पतन के बाद स्वतंत्र हो गए।
1. मराठा-सिद्दी संघर्ष
- प्रारंभिक संघर्ष: 1659 ई. में अफजल खाँ के कोंकण अभियान के दौरान सिद्दियों ने बीजापुर का समर्थन किया। शिवाजी ने रघुनाथ बल्लाल के नेतृत्व में सिद्दियों के खिलाफ अभियान चलाया और ताल, घोनसाल, और दांडा के समुद्री क्षेत्र पर कब्जा किया, लेकिन संघर्ष जारी रहा।
- पुरंदर संधि (1665): इस संधि के तहत मुगलों ने जंजीरा को मराठों को सौंपने का वादा किया, लेकिन शिवाजी इस पर कब्जा नहीं कर सके।
- मुगलों से गठजोड़: 1671 ई. में सिद्दियों ने अपनी नौसेना मुगलों को सौंप दी, और मुगलों ने उन्हें मनसबदार बनाकर "याकूत खाँ" की उपाधि दी। सिद्दियों ने मराठों से छीने गए क्षेत्रों को फिर से वापस ले लिया।
- शिवाजी का प्रयास: शिवाजी ने अंग्रेजों से सहायता लेने का प्रयास किया, लेकिन इसमें सफल नहीं हुए।
- शम्भाजी काल: सिद्दियों ने 1681 ई. में रायगढ़ तक आक्रमण किया, जिसे 1682 ई. में रघुनाथ प्रभु ने विफल कर दिया।
मराठा, अंग्रेज और पुर्तगाली
1. मराठा-अंग्रेज संबंध
मराठों और अंग्रेजों के बीच संबंध शुरू से ही तनावपूर्ण रहे।
- 1660 ई.: शिवाजी ने राजापुर में अंग्रेज कारखाने पर हमला किया, क्योंकि वहाँ से बीजापुर को हथियार और बारूद की आपूर्ति हो रही थी।
- 1672-1675 ई.: शिवाजी ने अंग्रेजों से हरजाने की माँग की। कई प्रतिनिधिमंडल असफल रहे, लेकिन 1674 ई. में हेनरी ऑक्सिनदेन के नेतृत्व में समझौता हुआ, और राजापुर का कारखाना फिर से शुरू हुआ।
- 1682 ई.: शम्भाजी ने राजापुर कारखाने को बंद करवा दिया, जिससे संबंध और बिगड़ गए।
2. मराठा-पुर्तगाली संबंध
मराठों और पुर्तगालियों के संबंध भी आरंभ से ही सौहार्दपूर्ण नहीं थे।
- 1659 ई.: शिवाजी ने पुर्तगालियों को जंजीरा के सिद्दियों की सहायता न करने को कहा, और उन्होंने इसका पालन किया।
- 1667 ई. और 1670 ई.: दोनों के बीच संधियाँ हुईं, जिसमें शिवाजी ने पुर्तगाली व्यापार में हस्तक्षेप न करने और किले न बनाने का आश्वासन दिया।
- 1683 ई.: शम्भाजी ने गोवा पर आक्रमण किया, लेकिन मुगल दबाव के कारण पीछे हटना पड़ा।
मराठा साम्राज्य की प्रशासनिक संरचना
शिवाजी एक वीर योद्धा और कुशल प्रशासक थे। उन्होंने पारदर्शिता, न्याय, और जनहित को प्राथमिकता देकर मराठा साम्राज्य को संगठित और स्थिर बनाया। उनकी प्रशासनिक प्रणाली उनके युग में सफल रही और भारतीय प्रशासन के लिए प्रेरणा बनी।
1. केन्द्रीय प्रशासन
- राजा की स्थिति: मराठा साम्राज्य में राजा सर्वोच्च शासक और शक्ति का केंद्र था। शिवाजी ने राजतंत्रात्मक प्रणाली अपनाते हुए प्रजा के कल्याण और न्याय को प्राथमिकता दी। वे राज्य की स्थिरता और विकास के लिए व्यक्तिगत रुचि लेते थे।
- अष्टप्रधान परिषद: शिवाजी ने प्रशासनिक कार्यों में सहायता के लिए "अष्टप्रधान" नामक आठ प्रमुख मंत्रियों की परिषद बनाई। ये मंत्री अपने-अपने विभागों के स्वतंत्र प्रमुख थे, लेकिन राजा के प्रति पूरी तरह उत्तरदायी रहते थे।
2. अष्टप्रधान की संरचना
- पेशवा (मुख्य मंत्री): पेशवा राज्य का सबसे प्रमुख अधिकारी था, जो प्रशासनिक व्यवस्था का नेतृत्व करता और अन्य मंत्रियों की निगरानी करता था। राजा की अनुपस्थिति में शासन की पूरी जिम्मेदारी पेशवा पर होती थी। सभी राज्य दस्तावेजों पर राजा के साथ पेशवा की मुहर लगती थी, जो उसके अधिकार का प्रतीक थी।
- सेनापति (सर-ए-नौबत): सेनापति राज्य की सैन्य व्यवस्था का प्रमुख अधिकारी था। सेना की भर्ती, प्रशिक्षण, अनुशासन और युद्ध की योजना बनाना उसकी जिम्मेदारी थी। वह युद्ध में सेना का नेतृत्व करता और सैनिकों की सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखता था।
- अमात्य (मजमुदार): अमात्य राज्य की आय-व्यय और अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करता था। वह कर संग्रह और राजकोषीय नीतियों की देखरेख करता, जिससे राज्य की आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित होती थी।
- मंत्री (वाकयानवीस): मंत्री राजा की सुरक्षा, गुप्तचर विभाग, और सूचना प्रबंधन का प्रमुख था। वह राज्य के विभिन्न क्षेत्रों से सूचनाएं एकत्रित कर उन्हें राजा तक पहुंचाता था।
- सचिव (सुरुनवीस/चिटनिस): सचिव राजकीय पत्राचार का कार्य देखता था। वह सभी सरकारी पत्रों को जांचता और उनकी प्रामाणिकता सुनिश्चित करता, जिससे राज्य के दस्तावेजों का सत्यापन हो सके।
- सुमंत (दबीर): सुमंत विदेश मंत्री के रूप में कार्य करता था। वह अन्य राज्यों के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करता, संधियां करता और युद्ध नीतियों की योजना बनाता था।
- न्यायाधीश (न्यायाधीश): न्यायाधीश न्याय विभाग का प्रमुख था। वह नागरिक और सैनिक विवादों का निपटारा करता और निचली अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनता था।
- पंडितराव (दान विभाग प्रमुख): पंडितराव दान विभाग का प्रमुख था, जो ब्राह्मणों, गरीबों और जरूरतमंदों को राज्य की ओर से सहायता प्रदान करता था। वह सामाजिक अनुशासन और नैतिकता बनाए रखने का कार्य भी करता था।
3. शिवाजी की प्रांतीय और स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्था
छत्रपति शिवाजी ने न केवल केंद्रीय शासन बल्कि प्रांतीय और स्थानीय प्रशासन को भी मजबूत बनाने के लिए अहम कदम उठाए। उन्होंने अपने राज्य को दो भागों में बाँटा: स्वराज्य और मुगलई।
स्वराज्य:
यह क्षेत्र शिवाजी के प्रत्यक्ष नियंत्रण में था और इसे तीन भागों में विभाजित किया गया:
- उत्तरी प्रांत: सूरत से पूना तक का क्षेत्र, जिसका प्रशासन त्रिग्बक पिगले के हाथों था।
- दक्षिणी प्रांत: समुद्रतटीय इलाका और कोंकण प्रदेश, जिसकी देखभाल अन्नाजी दत्तो करते थे।
- दक्षिण-पूर्वी प्रांत: इसमें सतारा, कोल्हापुर, बेलगाँव, और धारवार शामिल थे, जिसकी ज़िम्मेदारी दत्तोजी पंत को दी गई।
मुगलई
- इसमें वे इलाके शामिल थे जो पहले मुगलों के अधीन थे। इसमें मैसूर के उत्तरी और पूर्वी भाग, मद्रास का वेलारी जिला, और चितूर-आर्काट के क्षेत्र आते थे।
परगना व्यवस्था
- परगना प्रांतों से छोटी प्रशासनिक इकाई थी, जिसमें कई गाँव शामिल होते थे। परगने का प्रशासन देशमुख, सैनिक अधिकारियों और स्थानीय कर्मचारियों द्वारा संचालित किया जाता था। गाँवों का प्रबंधन मुख्य रूप से पटेल और ग्राम पंचायत के हाथों में होता था। इन गाँवों को प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान की गई थी, जिससे वे अपनी स्थानीय आवश्यकताओं को स्वयं पूरा कर सकें।
शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था की कमजोरियाँ
- शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह उनके व्यक्तिगत नेतृत्व और क्षमता पर निर्भर थी, जिससे उनके बाद यह कमजोर पड़ गई।
- मंत्रियों को आवश्यकता से अधिक अधिकार दिए गए थे, जिससे सत्ता में असंतुलन उत्पन्न हुआ।
- जमींदारी और जागीरदारी प्रथा को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका, जिससे सामाजिक और आर्थिक असमानता बनी रही।
- राज्य की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने और जनता के कल्याण के लिए पर्याप्त ठोस कदम नहीं उठाए गए।
शिवाजी की सैनिक व्यवस्था
शिवाजी की सैनिक व्यवस्था उनकी प्रशासनिक क्षमता और सैन्य कौशल का प्रतीक थी। मराठा राज्य की स्थापना सैनिक शक्ति के आधार पर हुई थी, इसलिए उन्होंने सैन्य संगठन पर विशेष ध्यान दिया।
1.सैन्य संगठन और अनुशासन
- शिवाजी ने सैनिकों की नियुक्ति, प्रशिक्षण और अनुशासन पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया। उनकी सेना नियमित और स्थायी थी। सैनिकों को क्रमशः पंचहजारी, एकहजारी, जुमलादार, और हवलदार के अधीन विभाजित किया गया।
2. सेना का विभाजन
- पागा सेना: यह शिवाजी की व्यक्तिगत और स्थायी घुड़सवार सेना थी, जिसमें 45,000 प्रशिक्षित सैनिक शामिल थे। इन्हें राज्य द्वारा वेतन और युद्ध सामग्री उपलब्ध कराई जाती थी।
- सिलहदार सेना: यह अस्थायी सेना थी, जिसमें सैनिक अपने सामान की व्यवस्था स्वयं करते थे। इन्हें राज्य से नियमित वेतन नहीं मिलता था।
- पैदल सेना: पैदल सैनिकों को "पाइक" कहा जाता था। इनकी संरचना भी घुड़सवार सेना की तरह ही थी।
- तोपखाना और नौसेना: शिवाजी ने तोपखाने और नौसेना का भी गठन किया। हालांकि, ये बहुत अधिक विकसित नहीं थे।
- गुप्तचर विभाग: युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण सूचनाएँ जुटाने के लिए गुप्तचर विभाग का गठन किया गया, जिसने शिवाजी की सैन्य रणनीतियों को सुदृढ़ बनाया।
- दुर्ग और किलों की सुरक्षा: शिवाजी ने दुर्गों को मराठा शक्ति का आधार बनाया। दुर्गों की सुरक्षा के लिए मावल प्यादों और तोपचियों को नियुक्त किया गया। किलों की देखरेख का कार्य हवलदार के जिम्मे था।
- सैनिक अनुशासन: शिवाजी की सेना में कड़ा अनुशासन था। सैनिकों को धार्मिक स्थलों, धर्मग्रंथों, स्त्रियों, और निरपराध लोगों को हानि पहुँचाने से प्रतिबंधित किया गया था।
- धार्मिक समरसता: शिवाजी ने अपनी सेना में मुसलमानों को भी स्थान दिया और उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया।
3. राजकीय आय के स्रोत:
शिवाजी की आय के मुख्य स्रोत लगान, चुंगी, बिक्री कर, चौथ (1/4 आमदनी) और सरदेशमुखी (1/10 आमदनी) थे। युद्ध और विजयों से भी बड़ी मात्रा में धन प्राप्त होता था।
भूमि व्यवस्था:
शिवाजी ने मलिक अंबर की लगान व्यवस्था में सुधार किया। भूमि को तीन भागों में बांटा गया:
- पट्टीभूमि: उपज का 2/5 लगान।
- उद्यान भूमि: उपज का 1/2 लगान।
- पहाड़ी भूमि: नाममात्र लगान।
किसानों के लिए सुधार
- किसानों से सीधा संपर्क स्थापित कर रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू की गई। ऋण व सामग्री प्रदान की गई और देशमुखों की शक्ति सीमित की गई।
राजस्व संग्रह और उपयोग
- राजकीय अधिकारी लगान वसूलते थे। अनावश्यक करों पर रोक लगाई गई। राजस्व का उपयोग प्रशासन, सेना, और जनहित कार्यों पर किया गया।
4. शिवाजी की नौसेना
- शिवाजी ने कोंकण पर अधिकार के बाद सशक्त नौसेना बनाई, जिसमें घुराब (युद्धक नौकाएँ) और गल्लिखत (बड़ी खेने वाली नौकाएँ) शामिल थीं। नौसेना में मालाबार तट की कोली जाति के कुशल नाविक थे। उनके 200 जहाजों का नेतृत्व दरिया सारंग, पद नायक भंडारी, और दौलत खाँ जैसे सेनानायकों ने किया।
5. नौसेना का उपयोग
- शिवाजी ने नौसेना का उपयोग देशी और विदेशी ताकतों के खिलाफ किया, लेकिन सिद्दियों के आक्रमण को पूरी तरह नहीं रोक सके। पेशवाओं ने इसे और मजबूत कर पश्चिमी तट की रक्षा की। मराठा नौसेना अपनी पराकाष्ठा पर अंगीरों के स्वतंत्र नेतृत्व में पहुँची।
6. शिवाजी की न्याय व्यवस्था
शिवाजी ने निष्पक्ष और प्रभावी न्याय व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया। उनकी न्याय प्रणाली प्राचीन भारतीय न्याय परंपराओं पर आधारित थी।
- न्याय का स्वरूप: लिखित कानून या सामान्य न्यायालय नहीं थे।राजा न्याय-व्यवस्था का प्रधान था और प्रधान न्यायाधीश के कार्यों की निगरानी करता था।न्यायाधीश सैनिक और असैनिक दोनों विवादों का निपटारा करते थे।
- समानता और निष्पक्षता: न्याय की दृष्टि में सभी समान थे, और भेदभाव नहीं किया जाता था।अपराधियों को कठोर दंड दिए जाते थे।
- पंचायती व्यवस्था: स्थानीय मुकदमों का निपटारा पंचायतों द्वारा किया जाता था।
- शांति और व्यवस्था: कठोर दंड और प्रभावी न्याय प्रणाली के कारण राज्य में अपराध कम थे और शांति-व्यवस्था बनी रहती थी।