भारत का इतिहास 1550-1700 UNIT 1 CHAPTER 3 SEMESTER 4 THEORY NOTES मुगलकालीन प्रशासनिक व्यवस्था DU.SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakजनवरी 07, 2025
परिचय
मुगल शासन एक मजबूत और निरंकुश राजतंत्र था। यह भारतीय और विदेशी तत्त्वों का मिश्रण था। पानीपत के दूसरे युद्ध के बाद अकबर ने शासन पर ध्यान दिया। टोडरमल की मदद से उन्होंने राजस्व और प्रशासन में सुधार किए। अकबर ने मनसबदारी और जागीरदारी व्यवस्था शुरू की और केन्द्रीय व प्रांतीय प्रशासन की नींव रखी।
पादशाह (बादशाह)
पादशाह शब्द में "पाद" का मतलब स्थायित्व और स्वामित्व है, जबकि "शाह" का अर्थ है स्वामी। पादशाह एक ऐसे शक्तिशाली शासक को दर्शाता है जिसे अपदस्थ नहीं किया जा सकता। मुगल साम्राज्य में यह उपाधि सबसे पहले बाबर ने ग्रहण की। पादशाह ही शासन का प्रधान होता था और सभी शक्तियाँ उसी में निहित रहती थीं।
पादशाह और दैवीय सिद्धांत:
दिल्ली के सुल्तानों की तरह मुगल पादशाह भी राजत्व के दैवीय सिद्धांत में विश्वास करते थे।
अकबर: अकबर ने अपने शासन को "फर्र-ए-इज्दी" (दैवीय प्रकाश) पर आधारित किया, "खलीफा-उज-जमाँ" और "अमीरुल मोमिनीन" की उपाधियाँ धारण कीं। उन्होंने फतेहपुर सीकरी की जामा मस्जिद में खुद को धर्म और राज्य का सर्वोच्च स्वामी घोषित किया।
जहाँगीर और शाहजहाँ: जहाँगीर ने दैवीय सिद्धांत को स्वीकारा, जबकि शाहजहाँ ने खुद को "जिल्ले-इलाही" (ईश्वर की छाया) घोषित कर दैवीय अधिकार पर जोर दिया।
औरंगजेब: औरंगजेब ने शाहजहाँ को "जिल्ले-इलाही" कहा और खुद को ईश्वर का प्रतिनिधि बताया, लेकिन अधिक धार्मिक रूढ़िवादी दृष्टिकोण अपनाया।
मुगल पादशाहों की निरंकुशता: मुगल पादशाह निरंकुश थे, लेकिन उनकी सत्ता संतुलित और विवेकपूर्ण थी, जिससे साम्राज्य स्थिर और शक्तिशाली बना।
प्रशासन
प्रशासन दो भागों में विभक्त था-
(1) केन्द्रीय प्रशासन
(2) प्रांतीय प्रशासन
केन्द्रीय प्रशासन
मुगल साम्राज्य में प्रशासन की धुरी बादशाह था, जिसके हाथों में सभी प्रशासनिक शक्तियाँ केंद्रित थीं। इतने बड़े साम्राज्य के सुचारु संचालन के लिए एक केंद्रीकृत शासन प्रणाली बनाई गई, जिसमें कई विभाग और पद सृजित किए गए। प्रत्येक विभाग के लिए विशिष्ट अधिकारी नियुक्त किए जाते थे, जो बादशाह के आदेशों का पालन करते थे।
मुख्य पद एवं उनके कार्यक्षेत्र
वकील: वकील प्रशासन का सबसे महत्त्वपूर्ण पद था, जिसे बादशाह का प्रतिनिधि माना जाता था। वकील को सभी अधिकार प्राप्त थे और वह प्रशासन के हर पहलू पर नियंत्रण रख सकता था। हालाँकि, अकबर ने वकील के अधिकारों में कमी करते हुए वित्तीय और राजस्व मामलों का प्रबंधन वकील से अलग कर दिया।
वजीर (दीवान): वजीर वित्त विभाग और प्रधानमंत्री का कार्यभार संभालता था। इसे दो भागों में विभाजित किया गया था: वजीर-ए-तफवीज (असीमित अधिकार वाला) और वजीर-ए-तनफीज (सीमित अधिकार वाला)। वजीर ने विभिन्न विभागों जैसे दीवान-ए-खालसा, दीवान-ए-तन, और दीवान-ए-बयूतात का प्रबंधन किया। प्रमुख वजीर अकबर के समय टोडरमल, शाहजहाँ के समय सादुल्ला खाँ, और औरंगजेब के समय असद खाँ थे।
मीरबख्श: मीरबख्श का कार्य सैनिकों के वेतन और संगठन का प्रबंधन था। वह सैनिकों की भर्ती, शस्त्र, घोड़े, और रसद का प्रबंधन करता था। यह पद बादशाह और मनसबदारों के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी का काम करता था।
खाने-समां: खाने-समां शाही गृह विभाग का प्रमुख अधिकारी था। इसका कार्य शाही रसोईघर, राजमहल, और शाही परिवार के खर्च का प्रबंधन करना था।
सद्र-उस-सुदूर: सद्र-उस-सुदूर धर्म और धार्मिक व्यक्तियों से संबंधित मामलों का प्रबंधन करता था। वह धार्मिक भूमि (सयूरगल) का प्रबंधन भी देखता था। प्रमुख सद्र अकबर के समय अब्दुल नबी और शाहजहाँ के समय जलाल बुखारी थे।
काजी-उल-कुजात (मुख्य काजी): काजी-उल-कुजात न्याय विभाग का प्रमुख अधिकारी था। वह दीवानी और फौजदारी मामलों में न्याय करता था और प्रांतीय व स्थानीय काजियों की नियुक्ति में सलाह देता था।
मोहतसिब: मोहतसिब जन आचरण का निरीक्षण करता था। उसका कार्य समाज में मदिरा और वेश्यावृत्ति जैसे कुप्रथाओं पर प्रतिबंध लगाना और नैतिकता बनाए रखना था।
अन्य महत्वपूर्ण पद
मीर आतिश: तोपखाने का प्रमुख।
दरोगा-ए-डाक चौकी: डाक और गुप्तचर विभाग का प्रमुख।
मुस्तौफी: महालेखाकार।
मीर बहर: नौसेना अधिकारी।
अवरजाह नवीस: दरबार के खर्च का लेखा-जोखा।
खयाँ सालार: शाही बावर्चीखाने का प्रमुख।
प्रांतीय प्रशासन
मुगल साम्राज्य में प्रांतीय प्रशासन की नींव अकबर ने डाली। 1580 ई. में अकबर ने साम्राज्य को 12 सूबों (प्रांतों) में विभाजित किया, जिसमें आगरा, दिल्ली, इलाहाबाद, अवध, अजमेर, अहमदाबाद, बिहार, बंगाल, काबुल, लाहौर, मुल्तान और मालवा शामिल थे। आगे चलकर यह संख्या बढ़कर 15, जहाँगीर के समय 17, शाहजहाँ के समय 22, और औरंगजेब के समय 21 हो गई। प्रत्येक सूबे में निम्नलिखित प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किए गए:
सिपहसालार (सूबेदार): सूबेदार प्रांत में बादशाह का प्रतिनिधि होता था। उसका प्रमुख दायित्व प्रांत में व्यवस्था बनाए रखना, राजस्व संग्रह करना, सेना का नेतृत्व करना और बादशाह के आदेशों का पालन सुनिश्चित करना था। वह प्रांतीय फौजदारी मामलों का निर्णय करता और अपीलों की सुनवाई भी करता था। बादशाह, सूबेदार के अधिकारों को सीमित या विशेष बनाने का निर्णय ले सकता था।
दीवान: दीवान प्रांत का राजस्व और आर्थिक मामलों का सर्वोच्च अधिकारी था। यह सूबेदार से स्वतंत्र होकर प्रांत के वित्तीय मामलों का प्रबंधन करता था। राजस्व संग्रह और आर्थिक योजनाओं के क्रियान्वयन की पूरी जिम्मेदारी दीवान के पास होती थी।
बख्श: बख्श प्रांतीय सेना का प्रमुख अधिकारी था। उसका कार्य सेना की व्यवस्था, सैनिकों की भर्ती और प्रांत में गुप्तचर विभाग का संचालन करना था। वह प्रांत की सभी गतिविधियों की जानकारी एकत्रित कर बादशाह को भेजता था।
सद्र: सद्र प्रांत में धार्मिक और सामाजिक मामलों का प्रबंधन करता था। यह केंद्र में कार्यरत सद्र-उस-सुदूर के समान कार्य करता था। धर्म और धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन की जिम्मेदारी इसके पास थी।
काजी-ए-सूबा: काजी-ए-सूबा प्रांत का मुख्य न्यायाधीश था। उसे दीवानी और फौजदारी दोनों मामलों में निर्णय देने का अधिकार था। उसे मीर अदल, मुफ्ती, और काजी जैसे सहायक न्यायिक अधिकारी सहयोग प्रदान करते थे।
कोतवाल: कोतवाल नगर का पुलिस प्रमुख होता था। उसका कार्य कानून-व्यवस्था बनाए रखना, अपराध रोकना और नगर की सुरक्षा प्रबंधन करना था।
मीर बहर: मीर बहर का कार्य सेना के लिए पुलों और नावों की व्यवस्था करना था। वह बंदरगाहों और नदियों पर चुंगी का प्रबंधन भी देखता था और उनका सुचारु संचालन सुनिश्चित करता था।
वाकया-ए-नवीस: वाकया-ए-नवीस प्रांत का गुप्तचर विभाग प्रमुख था। उसका कार्य सूबे की सभी गतिविधियों की जानकारी एकत्रित कर बादशाह को भेजना था। यह प्रशासन के लिए एक महत्त्वपूर्ण सूचना तंत्र का हिस्सा था।
अकबर एवं जहाँगीर कालीन मनसबदारी व्यवस्था
1. मनसबदारी का अर्थ और उत्पत्ति:
मनसब फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ 'पद' है। इसे मंगोलों की दशमलव प्रणाली पर आधारित माना जाता है और भारत में इसका आरंभ अकबर ने किया। मनसब सैनिक और असैनिक, दोनों को दिया जा सकता था। यह स्थानांतरणीय था लेकिन अनुवांशिक नहीं। मनसबदारी व्यवस्था मुगल साम्राज्य की सैनिक और प्रशासनिक व्यवस्था का मूलाधार थी।
2. अकबर काल की मनसबदारी व्यवस्था:
अकबर ने मनसब को 66 श्रेणियों में विभाजित किया, लेकिन अबुल फजल ने केवल तीन श्रेणियों का उल्लेख किया।
"जात" और "सवार" नामक द्वैध व्यवस्था शुरू की, जिसमें "जात" पद और "सवार" घुड़सवारों की संख्या दर्शाता था।
सबसे छोटा मनसब 10 का और सबसे बड़ा 10,000 का था, जो बाद में 12,000 तक बढ़ा।
5000 से ऊपर का मनसब शाही परिवार और खास व्यक्तियों के लिए सुरक्षित था।
3. जहाँगीर और शाहजहाँ काल में बदलाव:
जहाँगीर और शाहजहाँ ने मनसब की ऊँचाई बढ़ाई।
शहजादों का मनसब 40,000 तक और विशेष अमीरों का 8,000 तक कर दिया गया।
शाहजहाँ के पुत्रों को 12,000 से 60,000 तक के मनसब प्रदान किए गए।
4. जात और सवार:
"जात" किसी मनसबदार की पदवी और स्थिति का निर्धारण करता था।
"सवार" घुड़सवार सैनिकों की संख्या का सूचक था।
तीन श्रेणियाँ:
प्रथम श्रेणी: जात और सवार संख्या समान (जैसे 7000/7000)।
द्वितीय श्रेणी: सवार संख्या, जात संख्या की आधी या कम (जैसे 5000/3000)।
तृतीय श्रेणी: सवार संख्या जात संख्या से काफी कम (जैसे 5000/2000)।
4.मसरुत मनसब:
विशेष परिस्थितियों में सवार संख्या जात से अधिक हो सकती थी।
आवश्यकता समाप्त होने पर यह व्यवस्था समाप्त कर दी जाती थी।
दाग प्रथा एवं चहर तस्लीम व्यवस्था
दाग प्रथा
अकबर ने सेना की कार्यकुशलता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए कई सुधार किए। इनमें दाग प्रथा और चहर तस्लीम व्यवस्था प्रमुख थे।
दाग प्रथा का उद्देश्य: दाग प्रथा का मुख्य उद्देश्य घोड़ों और सैनिकों की शुद्धता और गुणवत्ता सुनिश्चित करना था। इस प्रथा के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया कि मुगल सेना के पास प्रशिक्षित सैनिक और उच्च गुणवत्ता वाले घोड़े हों, जिनकी अदला-बदली न की जा सके।
दाग प्रथा की व्यवस्था: 1579 ई. में इस प्रथा को लागू किया गया, जिसके तहत घोड़ों को शाही मोहर और मनसबदार के निशान के साथ दागा जाता था। "दाग-महाली" नामक एक विशेष विभाग बनाया गया, जो इस प्रक्रिया का संचालन करता था। इसके तहत प्रत्येक 10 सैनिकों के लिए 20 घोड़ों (दहबिस्ती) की व्यवस्था की गई, जिससे आकस्मिक परिस्थितियों में घोड़ों की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके।
घोड़ों का रख-रखाव: घोड़ों के रख-रखाव के लिए मनसबदारों के वेतन से सालाना एक महीने का वेतन काटा जाता था। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती थी कि घोड़ों का उचित पोषण और देखभाल हो सके।
दाग प्रथा का महत्व: दाग प्रथा से सेना की दक्षता में वृद्धि हुई और घोड़ों की गुणवत्ता पर नियंत्रण सुनिश्चित हुआ। इसने मुगल सैन्य संगठन को अधिक व्यवस्थित और प्रभावी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
चहर तस्लीम व्यवस्था
उद्देश्य: चहर तस्लीम व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य सैनिकों की पहचान सुनिश्चित करना और गैर-मुगल सैनिकों की सेना में घुसपैठ को रोकना था।
व्यवस्था: इस व्यवस्था के तहत सैनिकों का चेहरा (हुलिया) लिखा जाता था, जिससे उनकी पहचान स्पष्ट रूप से दर्ज की जा सके। यह प्रक्रिया मुगल सेना की सुरक्षा और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए लागू की गई थी।
महत्त्व: चहर तस्लीम व्यवस्था ने सेना में अनुशासन बनाए रखने और बाहरी तत्वों की घुसपैठ रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे मुगल सेना की संगठनात्मक मजबूती और प्रभावशीलता में वृद्धि हुई।
जहाँगीर के सुधार: दो अस्पा और सिह अस्पा
दो अस्पा: इस प्रणाली में प्रत्येक सैनिक के पास दो घोड़े रखने की व्यवस्था थी। यह सैनिकों की गति और दक्षता को बढ़ाने के लिए लागू किया गया।
सिह अस्पा: इसमें प्रत्येक सैनिक के पास तीन घोड़े होना अनिवार्य था। यह अधिक गतिशीलता और आकस्मिक परिस्थितियों में घोड़ों की उपलब्धता सुनिश्चित करने का उपाय था।
लक्ष्य: दो अस्पा और सिह अस्पा व्यवस्थाएँ बिना जात संख्या (सैनिकों की आधिकारिक सूची) बढ़ाए सेना की संख्या और ताकत बढ़ाने का तरीका थीं। इससे सेना अधिक प्रभावशाली और संगठित बनी।
पहला पद: इस व्यवस्था का पहला पद महावत खाँ को दिया गया, जो जहाँगीर के कुशल सैन्य और प्रशासनिक सुधारों का प्रमाण है।
शाहजहाँ और औरंगजेब कालीन मनसबदारी व्यवस्था
शाहजहाँ का योगदान: शाहजहाँ के शासनकाल में मनसबदारी व्यवस्था सबसे सुव्यवस्थित रही। मासिक वेतन प्रणाली शुरू की गई और सबसे बड़ा मनसब (60,000) उनके पुत्र दाराशिकोह को दिया गया।
औरंगजेब का योगदान: औरंगजेब ने मशरूत व्यवस्था लागू की, जिसमें सवारों की संख्या शर्तों पर आधारित बढ़ाई जा सकती थी। राजपूत मनसबदारों की संख्या सबसे अधिक (33%) थी। मनसबदारों की संख्या बढ़ने से बोजागीरी समस्या उत्पन्न हुई, जो मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बनी।
महत्त्व: मनसबदारी व्यवस्था ने प्रशासन में एकरूपता लाई और राजनीतिक स्थिरता को बढ़ावा दिया, लेकिन इसके दुरुपयोग ने साम्राज्य को कमजोर किया।
जागीरदारी व्यवस्था
मनसबदारों को नकद वेतन के बदले भू-क्षेत्र का राजस्व आवंटित किया जाता था, जिसे जागीर कहा जाता था। जागीर का उपयोग मनसबदार अपने वेतन और प्रशासनिक खर्चों के लिए करते थे।
अलतमगा जागीर: यह जागीर विशेष अनुग्रह के रूप में दी जाती थी। इसका आरंभ जहाँगीर के शासनकाल में हुआ।
मशरूत जागीर: यह जागीर विशेष शर्तों पर दी जाती थी। इसका आरंभ औरंगजेब के शासनकाल में हुआ।
वतन जागीर: मनसबदारों को उनके अधिराज्य का राजस्व वतन जागीर के रूप में दिया जाता था। यह वंशानुगत थी और प्रायः राजपूतों को दी जाती थी। यदि वतन जागीर की आय कम होती, तो अतिरिक्त तनख्वाह जागीर दी जाती थी।
तनख्वाह जागीर: यह नकद वेतन के स्थान पर दी जाती थी। यह स्थानांतरणीय थी और वंशानुगत नहीं होती थी।
इनाम जागीर: विशेष सेवा के बदले पुरस्कार स्वरूप दी गई जागीर थी। इसका कोई प्रशासनिक दायित्व नहीं होता था। धार्मिक और विद्वानों को मदद-ए-माश के तहत यह जागीर दी जाती थी। बहादुरशाह प्रथम ने इसे वंशानुगत बना दिया।
महाल-ए-पैबाकी जागीर: यह जागीर अस्थायी रूप से केंद्रीय प्रशासन के अधीन कर ली जाती थी। इसे दंड स्वरूप छीनकर नई जागीर देने या विस्तार के लिए उपयोग किया जाता था।
जमा (जमादानी) और हाल-ए-हासिल
जमा/जमादानी: जमा या जमादानी जागीर की अनुमानित आय होती थी। यह अनुमान राजस्व संग्रह की संभावनाओं के आधार पर लगाया जाता था।
हाल-ए-हासिल: हाल-ए-हासिल जागीर की वास्तविक आय होती थी। यह राशि जागीर से वसूले गए वास्तविक राजस्व को दर्शाती थी।
महत्व: जमा और हाल-ए-हासिल के माध्यम से जागीर की आय का मूल्यांकन किया जाता था, जिससे जागीरदार की जिम्मेदारियों और प्रशासनिक दक्षता का आकलन किया जा सके।