परिचय
मुगल-राजपूत संबंधों को अक्सर शासकों की धार्मिक नीतियों, जैसे अकबर की सहिष्णुता और औरंगजेब की रूढ़िवादिता, के संदर्भ में देखा गया है। हालाँकि, ये संबंध केवल धार्मिक मान्यताओं तक सीमित नहीं थे, बल्कि मुगल साम्राज्य की केंद्रीकृत नौकरशाही, स्वायत्त राजाओं और जमींदारों के बीच सत्ता-संघर्ष से भी प्रभावित थे। यह संबंध समझौतों और संघर्षों की जटिल प्रक्रिया थी, जो दिल्ली सल्तनत के पतन और राजस्थान, गुजरात, व मालवा में नई राज्य प्रणाली के उदय की पृष्ठभूमि में विकसित हुए।
अकबर एवं मुगल-राजपूत संबंध
मुगल-राजपूत संबंध 16वीं शताब्दी में राजनीतिक आवश्यकताओं और आपसी हितों पर आधारित थे। अकबर ने राजपूतों को साम्राज्य का अभिन्न अंग बनाने के लिए सहमति और सहयोग पर आधारित नीति अपनाई। उन्होंने राजपूतों से वैवाहिक संबंध बनाए, उन्हें मनसबदारी में उच्च पद और धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की।
1.प्रमुख राजपूत शासकों से संबंध
- राजा भारमल (आमेर): 1562 ई. में भारमल ने अकबर से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए। उनकी पुत्री हरखा बाई का विवाह अकबर से हुआ। भगवान दास (5000 मनसब) और राजा मान सिंह (7000 मनसब) को उच्च पद दिए गए।
- जैसलमेर और बीकानेर: इन राज्यों ने भी वैवाहिक और मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए, जिससे सामंजस्य और स्थायित्व बढ़ा।
2. मेवाड़ और हल्दीघाटी का संघर्ष
- मेवाड़ के महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता अस्वीकार की। 1576 ई. में हल्दीघाटी का युद्ध हुआ, जिसमें महाराणा ने बहादुरी से संघर्ष किया। हालांकि, सैन्य संख्या कम होने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। फिर भी, मुगलों को मेवाड़ पर पूर्ण नियंत्रण नहीं मिला।
3. धार्मिक नीति और राजपूत संबंध
- अकबर ने राजपूत पत्नियों को धार्मिक स्वतंत्रता और उनके परिवारों को सम्मान दिया। हालाँकि, मेवाड़ के खिलाफ धार्मिक युद्ध और जजिया कर की नीति असफल रही। सहयोग और सहिष्णुता अकबर की मुख्य रणनीति थी, जिसने हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया।
अकबर की राजपूत नीति की समीक्षा
अकबर की राजपूत नीति उनके कुशल कूटनीतिक कौशल और साम्राज्यवादी दृष्टिकोण का उत्कृष्ट उदाहरण है। यदि उन्होंने राजपूतों के साथ सहिष्णु और मैत्रीपूर्ण दृष्टिकोण नहीं अपनाया होता, तो राजपूताना पर नियंत्रण करना उनके लिए असंभव था। 1585-86 ई. तक उनकी नीति पूरी तरह विकसित हो चुकी थी, और राजपूत मुगल साम्राज्य के मित्र ही नहीं, बल्कि भागीदार भी बन गए थे।
- राजपूतों की शाही सेवा में भागीदारी: अबुल फजल की आईन-ए-अकबरी के अनुसार, 24 राजपूत मनसबदारों को मुगल साम्राज्य में उच्च पद दिए गए। राजा टोडरमल को राजस्व विभाग का प्रमुख बनाया गया। राजपूतों की सेवा और वफादारी से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें शासन का अभिन्न अंग बनाया।
- वैवाहिक और राजनीतिक गठबंधन: मुगल-राजपूत वैवाहिक गठबंधनों ने न केवल अकबर की नीति को नई दिशा दी, बल्कि राजपूतों के प्रति उनके दृष्टिकोण में भी बदलाव लाया। राजपूतों ने मुगल सिंहासन की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित किया।
- धार्मिक सहिष्णुता: अकबर ने जजिया और तीर्थयात्रा कर समाप्त कर हिंदुओं, विशेषकर राजपूतों, के बीच भेदभाव की भावना को दूर किया। उन्होंने मेल-मिलाप की नीति अपनाकर राजपूतों का विश्वास जीता।
- राजपूतों के महत्व का आकलन: राजपूत हिंदुओं के बीच लड़ाकू जाति थे और अपनी बहादुरी और वफादारी के लिए प्रसिद्ध थे। अकबर ने उन्हें साम्राज्य के निर्माण और स्थिरता के लिए एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में देखा।
जहाँगीर और मुगल-राजपूत संबंध
जहाँगीर ने अकबर की राजपूत नीति को जारी रखा और राजपूतों के साथ वैवाहिक संबंध बनाए। उन्होंने कच्छवाहा राजकुमारी मान बाई, जगत गोसाई, और बीकानेर-जैसलमेर की राजकुमारियों से विवाह किया। उनके बेटे शाहजहाँ (खुर्रम) का विवाह राजा गज सिंह की पोती बाई लीलावती से हुआ।
1. मेवाड़ और जहाँगीर
- जहाँगीर ने मेवाड़ के राणा अमर सिंह के खिलाफ 1608-1615 ई. के बीच चार सैन्य अभियान चलाए। 1613 ई. में अजमेर से अभियान की निगरानी कर, राजकुमार खुर्रम को मेवाड़ पर आक्रमण की जिम्मेदारी सौंपी। 1615 ई. में राणा ने सम्मानजनक शर्तों पर अधीनता स्वीकार की।
2. संधि की शर्तें
- राणा ने मुगलों की अधीनता मानी।
- जहाँगीर ने चित्तौड़ सहित सभी क्षेत्रों को राणा को लौटा दिया।
- राणा को शाही दरबार में उपस्थित होने की बाध्यता नहीं रही।
शाहजहाँ और औरंगजेब कालीन मुगल-राजपूत संबंध
1. शाहजहाँ की राजपूत नीति
- राजपूतों पर भरोसा और पदभार: शाहजहाँ ने राजपूतों को महत्त्वपूर्ण पद और उच्च मनसब प्रदान किए। उन्होंने जहाँगीर की नीति को समाप्त कर प्रमुख राजपूत शासकों को सूबेदारी सौंपी, जिससे राजपूतों के साथ संबंध और मजबूत हुए।
- राजपूतों के साथ संघर्ष: शाहजहाँ के शासनकाल में बुंदेलखंड और मेवाड़ के साथ संघर्ष हुए, जो अधिकारों और भूमि अधिपत्य को लेकर मतभेद का परिणाम थे। मुगलों ने यह स्पष्ट किया कि कोई भी अधीनस्थ शासक सम्राट की अनुमति के बिना अपने क्षेत्र का विस्तार नहीं कर सकता।
- सैनिक सेवा और वफादारी: राजपूतों को सेना में उच्च पद दिए गए और उनकी वफादारी भूमि और राजस्व के माध्यम से सुनिश्चित की गई। यह व्यवस्था पारिवारिक वफादारी बढ़ाने और साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने में सहायक रही।
2. औरंगजेब की राजपूत नीति
- राजपूतों से बढ़ता असंतोष: 1680 के दशक में औरंगजेब की नीति से मेवाड़ और मारवाड़ के शासक असंतुष्ट हो गए, क्योंकि वे जब्त की गई भूमि की बहाली चाहते थे।
- राजपूतों के साथ संघर्ष: मेवाड़ और मारवाड़ के साथ युद्धों ने मुगल खजाने को खाली कर दिया और राजपूतों के प्रति औरंगजेब की उदासीनता ने उनके सहयोग को कम कर दिया।
- धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रभाव: औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता ने राजपूतों के साथ संबंधों को और जटिल बना दिया। इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक और धार्मिक वैमनस्य बढ़ा, जिससे राजपूतों और मुगल राजकुमारों ने विद्रोह किया।
- मराठों का उदय और राजपूतों की घटती भूमिका: 17वीं शताब्दी के अंत तक मराठों के उदय ने मुगल शासन में राजपूतों की भूमिका को कम कर दिया। इन संघर्षों और राजनीतिक असहमति ने मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा और स्थिरता को गहरा नुकसान पहुँचाया।
3.मुगल-राजपूत सहयोग का प्रभाव:
- मुगल-राजपूत संबंधों में गहराई: राजपूतों को सैन्य सेवा, विवाह, और संरक्षण के माध्यम से मुगल दरबार से जोड़ा गया। मुगल दरबार ने गैर-इस्लामिक प्रतीकों का उपयोग कर दोनों समुदायों के बीच सद्भाव बढ़ाया। अकबर और जहाँगीर जैसे मुगल सम्राट राजपूत माताओं से जन्मे, जिससे इन संबंधों में और गहराई आई।
- पं. नेहरू की दृष्टि: पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस काल को 'मुगल-राजपूत सहयोग' की संज्ञा दी और इसे भारतीय समाज के एकीकरण का समय माना। मुगल कुलीन वर्ग का भारतीयकरण हुआ और राजपूतों ने फारसी संस्कृति को आत्मसात किया।
- राजपूतों की विशेषताएँ: कर्नल टॉड ने राजपूतों को भारत की सबसे स्वाभिमानी, बहादुर और शूरवीर जाति कहा। उन्होंने उनकी सामंती सैन्य व्यवस्था, उनकी महिलाओं के सम्मान के प्रति सजगता और उनकी निडरता की प्रशंसा की।
अकबर की धार्मिक नीति
- धार्मिक सहिष्णुता की आवश्यकता: मध्यकालीन भारत में धार्मिक विविधता और हिंदू बहुसंख्यक जनसंख्या के कारण, अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। उन्होंने महसूस किया कि हिंदुओं का समर्थन प्राप्त किए बिना भारत में स्थिर शासन संभव नहीं था।
- धार्मिक कट्टरता का त्याग: अकबर ने सल्तनत काल के कट्टरता के सिद्धांत को बदलते हुए सभी धर्मों और संप्रदायों में समन्वय और एकता स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने 1562 ई. में युद्ध बंदियों को दास बनाने और बलपूर्वक धर्मांतरण पर रोक लगाई।
- प्रभावशाली व्यक्तियों का योगदान: मीर अब्दुल लतीफ, शेख सलीम चिश्ती, अबुल फजल, और फैजी जैसे विद्वानों और सूफी संतों ने अकबर की उदार मानसिकता को विकसित करने में मदद की। सुलह-ए-कुल (सार्वभौमिक भाईचारा) का सिद्धांत इन्हीं शिक्षाओं का परिणाम था।
- महत्वपूर्ण कदम
1.1563 ई. में तीर्थयात्रा कर समाप्त किया।
2.पंजाब में गौहत्या पर प्रतिबंध लगाया।
3.हिंदू तीर्थों और धार्मिक स्थलों को संरक्षण दिया।
4.राजपूतों से विवाह संबंध स्थापित कर हिंदू धर्म के साथ निकटता बढ़ाई।
जहाँगीर की धार्मिक नीति
जहाँगीर ने अपने पिता अकबर की सुलह-ए-कुल नीति को जारी रखा और धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया। उदार वातावरण में पले-बढ़े जहाँगीर ने ईश्वर में विश्वास करते हुए सभी धर्मों के प्रति सम्मान दिखाया। हिंदू, मुस्लिम, सिख, और ईसाई सभी धर्मों के अनुयायियों को राज्य से सुविधाएँ प्राप्त थीं।