परिचय
सम्राट अकबर को भारत में मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। मात्र तेरह वर्ष की उम्र में सत्ता संभालकर, उन्होंने पराक्रम, कुशल कूटनीति, और राजपूतों से समझौतों व वैवाहिक संबंधों के माध्यम से एक विशाल और सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया। अकबर और उनके उत्तराधिकारी जहाँगीर ने धार्मिक उदारता और क्षेत्रीय शासकों से सहयोग प्राप्त कर मुगल साम्राज्य को उत्तर भारत की प्रमुख शक्ति बना दिया।
अकबर
1. अकबर का राज्यारोहण
अकबर का जन्म 15 अक्टूबर 1542 को अमरकोट में हुआ। पिता हुमायूँ तैमूर वंश से और माता हमीदा बानो चंगेज खाँ के वंश से थीं। हुमायूँ को शेरशाह द्वारा हराकर निर्वासित होना पड़ा, जिससे अकबर का बचपन कठिन परिस्थितियों में बीता। 1555 में हुमायूँ ने दिल्ली पर कब्जा किया, लेकिन 1556 में मृत्यु हो गई। इसके बाद 13 साल की उम्र में अकबर ने मुगल सिंहासन संभाला।
2. बैरम खाँ का संरक्षण और प्रारंभिक चुनौतियाँ
बैरम खाँ ने अकबर को शुरुआती संघर्षों में सहायता दी।
- पानीपत का दूसरा युद्ध (1556): हेमू को हराकर दिल्ली और आगरा पर मुगल शासन को मजबूत किया।
- सिकंदर सूर का आत्मसमर्पण (1557): सिकंदर सूर को हराने के बाद पंजाब पर नियंत्रण स्थापित हुआ।
- ग्वालियर, मालवा और जौनपुर पर विजय: सूर वंश और अन्य विद्रोही शासकों को हराकर साम्राज्य का विस्तार किया।
3. विद्रोही अमीरों और बागियों का दमन
अकबर को प्रारंभिक वर्षों में विद्रोहों का सामना करना पड़ा।
- बैरम खाँ का पतन (1560): दरबार में बैरम खाँ के खिलाफ साजिश हुई। अकबर ने उसे माफ कर हज पर भेजा, लेकिन रास्ते में उसकी हत्या हो गई।
- खान जमान और अब्दुल्ला खान उजबेग का विद्रोह (1564): इन विद्रोहियों को हराकर अकबर ने उनकी साजिशों को कुचल दिया।
- उज्बेगों और अफगानों का संयुक्त विद्रोह (1565): विद्रोही अकबर का तख्ता पलटकर मिर्जा कामरान के बेटे को राजा बनाना चाहते थे। अकबर ने रणनीति से उन्हें हराया और सख्त सजा दी।
4. विजय अभियान और साम्राज्य विस्तार
- मालवा पर कब्जा (1561): बाज बहादुर को हराकर मालवा पर अधिकार किया।
- अफगानी विद्रोहियों का दमन (1560-1565): जौनपुर, ग्वालियर और अन्य क्षेत्रों में अफगानों को हराकर शांति स्थापित की।
- मालवा और गुजरात: अकबर ने इन क्षेत्रों पर पुनः कब्जा कर प्रशासन मजबूत किया।
5. अकबर की नेतृत्व क्षमता
- अकबर ने कुशल सैन्य रणनीति और दृढ़ नेतृत्व से साम्राज्य को विस्तारित किया। विद्रोहियों और बाहरी आक्रमणों को हराकर उसने मुगल साम्राज्य को सशक्त बनाया।
अकबर की साम्राज्यवादी नीति
अकबर ने भारत में मुगल साम्राज्य को व्यापक और स्थिर बनाने के लिए एक प्रभावशाली साम्राज्यवादी नीति अपनाई। उसने राजनीतिक एकता, शासकों के सहयोग, और सैन्य अभियानों के माध्यम से अपना साम्राज्य विस्तारित किया। उसकी नीति का मुख्य उद्देश्य पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को मुगल शासन के अधीन लाना था।
1. राजपुताना क्षेत्रों की विजय
अकबर ने राजपूतों के प्रति "फूल और तलवार की नीति" अपनाई, जिसमें कुछ राजपूत राज्यों के साथ मित्रता और अन्य के खिलाफ युद्ध शामिल था।
- आमेर का आत्मसमर्पण (1562): आमेर के राजा भारमल ने अकबर के सामने समर्पण किया और अपनी बेटी का विवाह अकबर से कर दिया।
- मेड़ता विजय (1562): जोधपुर के जागीरदार जयमल राठौर को हराकर मेड़ता पर कब्जा किया।
2. गोंडवाना पर आक्रमण (1564)
- गोंडवाना पर हमला अकबर की साम्राज्यवादी नीति का हिस्सा था।
- रानी दुर्गावती ने वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी लेकिन पराजित होकर सम्मान की रक्षा हेतु आत्महत्या कर ली।
- यह अभियान अकबर की नीति में विवादास्पद रहा क्योंकि गोंडवाना से मुगल शासन को कोई सीधा खतरा नहीं था।
3. चित्तौड़ और रणथंभौर विजय
- चित्तौड़ विजय (1567-1568): मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर कब्जा करने के लिए अकबर ने विशाल सेना का नेतृत्व किया। पाँच महीने के संघर्ष के बाद किला जीत लिया गया।
- रणथंभौर विजय (1568): रणथंभौर का किला सुर्जन राय हाड़ा के नियंत्रण में था। कुछ सप्ताह की घेराबंदी के बाद शांति संधि के माध्यम से इसे जीत लिया गया।
4. राजपूताना के समर्पण (1570 तक)
चित्तौड़ और रणथंभौर की हार से राजपूत शासकों में भय व्याप्त हो गया।
- कालिंजर (1569): बुंदेलखंड का कालिंजर किला हल्के प्रतिरोध के बाद समर्पित हुआ।
- नागौर समझौता (1570): जोधपुर, बीकानेर, और जैसलमेर के राजपूत शासकों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।
5. साम्राज्य विस्तार की मुख्य विशेषताएँ
- सहयोग और अधीनता: कई राजपूत राज्यों ने शांति और विवाह संबंधों के माध्यम से मुगल शासन को स्वीकार किया।
- सैन्य विजय: जो राजपूत शासक झुके नहीं, उनके खिलाफ अकबर ने सैन्य अभियान चलाए।
- कूटनीति और रणनीति: अकबर ने शत्रुओं को कमजोर करने के लिए चतुर रणनीति और कुशल प्रबंधन का सहारा लिया।
अकबर की उत्तर भारत की विजय
- गुजरात विजय (1572-1573): गुजरात में अराजकता और कमजोर शासक मुजफ्फर शाह तृतीय का लाभ उठाकर अकबर ने दिसंबर 1572 में आक्रमण किया। स्निल के युद्ध में विद्रोहियों को हराकर बड़ौदा, चंपानेर, और सूरत पर कब्जा किया। यह विजय पश्चिमी व्यापार मार्गों और समुद्री बंदरगाहों पर नियंत्रण का आधार बनी।
- बिहार और बंगाल की विजय (1574): सूर साम्राज्य के पतन के बाद बिहार और बंगाल पर अफगान शासक सुलेमान कर्रानी का कब्जा था। 1574 में पटना की लड़ाई में दाऊद खान की हार से ये क्षेत्र मुगलों के अधीन हो गए, जिससे अकबर का साम्राज्य पूर्वी भारत तक विस्तृत हुआ।
- कश्मीर की विजय (1586): अकबर ने दुर्गम हिमालयी मार्गों के जरिये कश्मीर पर आक्रमण किया और सुल्तान यूसुफ खान को पराजित कर इसे साम्राज्य में मिला लिया। कश्मीर पर कब्जे से साम्राज्य उत्तर की ओर मजबूत हुआ।
- सिंध की विजय (1590-1591): सिंध पर कब्जा मुगल साम्राज्य के पश्चिमी व्यापारिक मार्गों के लिए महत्वपूर्ण था। अब्दुल रहीम खान-ए-खाना के नेतृत्व में थट्टा के शासक मिर्जा जानी बेग को हराकर सिंध पर नियंत्रण स्थापित किया गया।
- उड़ीसा की विजय (1590-1592): उड़ीसा के लोहानी अफगानों को राजा मान सिंह के नेतृत्व में हराया गया। निसार खान के विद्रोह के बाद 1592 में उड़ीसा पूरी तरह मुगल साम्राज्य का हिस्सा बना।
- बलूचिस्तान की विजय (1586): बलूच सरदारों के विरोध को कुचलने के लिए अकबर ने मीर मासूम को अभियान सौंपा। सैन्य और कूटनीतिक दबाव से बलूचिस्तान पर नियंत्रण स्थापित कर इसे साम्राज्य का हिस्सा बनाया।
अकबर की उत्तर-पश्चिमी नीति
अकबर की उत्तर-पश्चिमी नीति का मुख्य उद्देश्य मुगल साम्राज्य की सीमाओं को सुरक्षित और सुदृढ़ बनाना था। उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में कमजोर सीमाओं और विदेशी आक्रमणों की संभावनाओं को देखते हुए, अकबर ने इस क्षेत्र में प्रभावी सैन्य और कूटनीतिक रणनीति अपनाई।
- काबुल और अफगानिस्तान पर नियंत्रण (1585): मिर्जा मुहम्मद हाकिम की मृत्यु के बाद अकबर ने काबुल को अपने साम्राज्य में मिलाकर वहाँ नागरिक प्रशासन की स्थापना की। अफगानिस्तान की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए राजा मानसिंह के नेतृत्व में सैन्य अभियान चलाए गए।
- अबदुल्लाह खान उजबेग से खतरा: अबदुल्लाह खान उजबेग ने बदख्शाँ पर कब्जा कर लिया था, जिससे उत्तर-पश्चिम सीमाओं पर खतरा उत्पन्न हो गया। अकबर ने कंधार, बलूचिस्तान, और अफगानिस्तान की सीमाओं को सुदृढ़ कर अपनी स्थिति मजबूत की और अबदुल्लाह खान को आक्रमण से रोका।
- कंधार पर नियंत्रण (1595): कंधार, जो पहले हुमायूँ के शासन का हिस्सा था, फारसी शासकों के अधीन आ गया था। अकबर ने फारसी सूबेदार मुजफ्फर हुसैन मिर्जा को अपने पक्ष में किया और कंधार को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
- सिंध और बलूचिस्तान पर विजय: 1591 में अब्दुल रहीम खान-ए-खाना के नेतृत्व में सिंध पर विजय प्राप्त की गई। बलूचिस्तान को 1595 तक मुगलों के प्रभावी नियंत्रण में लाया गया, जिससे उत्तर-पश्चिम सीमाएँ अधिक सुरक्षित हुईं।
- सीमाओं की सुदृढ़ता: अकबर ने हिन्दकुश और अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सैनिक चौकियों की स्थापना की। इन कदमों ने तूरान और अन्य पड़ोसी क्षेत्रों के शासकों को साम्राज्य पर आक्रमण करने से रोक दिया।
अकबर की दक्कन विजय का संक्षिप्त विवरण
अकबर की साम्राज्यवादी नीति का उद्देश्य भारत के राजनीतिक एकीकरण को सुनिश्चित करना था। 1591 में उत्तर और उत्तर-पश्चिम में विजय के बाद, उसने दक्षिण भारत (दक्कन) की ओर ध्यान केंद्रित किया। दक्कन विजय की प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित हैं:
- कूटनीतिक मिशन (1591): अकबर ने लाहौर से दक्कन के चार प्रमुख राज्यों - खानदेश, अहमदनगर, बीजापुर, और गोलकुंडा को कूटनीतिक मिशन भेजा। इनमें से केवल खानदेश के सुल्तान राजा अलीखान ने मुगलों की अधीनता स्वीकार की।
- अहमदनगर पर आक्रमण (1593-1595): अकबर ने अहमदनगर पर कब्जा करने के लिए अब्दुल रहीम खान-ए-खाना और शहजादा मुराद के नेतृत्व में दो सेनाएँ भेजीं। अहमदनगर की रानी चाँद बीबी ने वीरतापूर्वक मुगल सेना का सामना किया लेकिन अंततः हार माननी पड़ी, और अहमदनगर मुगलों के नियंत्रण में आ गया।
- खानदेश और असीरगढ़ विजय (1599-1601): 1599 में अकबर ने खानदेश पर कब्जा कर लिया और 1601 में असीरगढ़ के किले को जीतकर दक्कन में अपनी स्थिति मजबूत की। असीरगढ़ की विजय ने दक्कन विजय को अंतिम रूप दिया।
- दक्कन में प्रशासनिक प्रबंधन: दक्कन के क्षेत्रों को तीन सूबों - खानदेश, बरार और अहमदनगर में विभाजित किया गया। इनका प्रबंधन एक ही सूबेदार के अधीन था। इससे अकबर ने दक्कन में अपनी प्रशासनिक पकड़ मजबूत की।
अकबर की दक्कन नीति का महत्व
- राजनीतिक एकीकरण: दक्कन की विजय ने मुगल साम्राज्य का दक्षिण में विस्तार किया।
- व्यापार मार्गों पर नियंत्रण: अहमदनगर और असीरगढ़ जैसे क्षेत्रों पर कब्जा होने से दक्षिण के व्यापार मार्ग मुगलों के नियंत्रण में आ गए।
- सैन्य कौशल का प्रदर्शन: अकबर ने अपने कुशल सैन्य नेतृत्व और रणनीति से दक्कन में विजय प्राप्त की।
अकबर की प्रशासनिक नीति का संक्षिप्त विवरण
अकबर को भारत में मुगल शासन और प्रशासन का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। उनकी प्रशासनिक नीति ने पारंपरिक इस्लामी राजतंत्र से हटकर धर्मनिरपेक्षता और समावेशिता को अपनाया। उनकी नीतियाँ कुशल प्रशासन और सामाजिक समरसता की मिसाल हैं।
- धर्मनिरपेक्ष शासन: अकबर ने अपने शासन को केवल मुस्लिम प्रजा तक सीमित नहीं रखा, बल्कि सभी धर्मों के लोगों के प्रति समान व्यवहार किया। उन्होंने इस्लामी कानून की सर्वोच्चता को राज्यनीति के साधन के रूप में पुनर्गठित किया और इसे धर्मनिरपेक्षता के साथ संतुलित किया। उनके इस दृष्टिकोण ने उन्हें सभी वर्गों का शासक बना दिया।
- राज्य सिद्धांत में क्रांति: अकबर ने पारंपरिक इस्लामी राज्य की संकल्पना से अलग हटकर राज्य को सभी धर्मों के लिए सहिष्णु बनाया। उन्होंने विशेषकर हिंदुओं के प्रति सहिष्णुता दिखाते हुए समाज में संतुलन स्थापित किया। इस नीति ने उनके शासन को व्यापक समर्थन और स्थिरता प्रदान की।
- प्रशासनिक संरचना का पुनर्गठन: अकबर ने अपने प्रशासनिक ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन किए। उन्होंने एक केंद्रीकृत और कुशल प्रणाली विकसित की, जिसमें भूमि कर प्रणाली, सैन्य संगठन और प्रांतीय प्रशासन के लिए स्पष्ट नियम बनाए गए। मनसबदारी प्रणाली और राजस्व सुधार उनकी कुशलता के उदाहरण हैं।
- सामाजिक समरसता का प्रयास: अकबर ने सामाजिक और धार्मिक समरसता के लिए अनेक कदम उठाए। उन्होंने "दीन-ए-इलाही" नामक धर्म की स्थापना की, जो सभी धर्मों के अच्छे पहलुओं को मिलाकर बनाया गया था। जज़िया कर को समाप्त कर हिंदू प्रजा का विश्वास जीता, जिससे समाज में आपसी सौहार्द बढ़ा।
- स्थायी प्रभाव: अकबर की प्रशासनिक नीति ने मुगल साम्राज्य को दीर्घकालिक स्थायित्व और सुदृढ़ता प्रदान की। उनकी नीतियाँ उनके उत्तराधिकारियों द्वारा भी अपनाई गईं, जिससे मुगल साम्राज्य एक सदी से अधिक समय तक स्थिर और सशक्त बना रहा। उनकी नीतियाँ भारतीय प्रशासन के इतिहास में अद्वितीय स्थान रखती हैं।
जहाँगीर का परिचय
जहाँगीर, अकबर के पुत्र सलीम, 30 अगस्त 1569 को राजपूत रानी मरियम-उज-जमानी के गर्भ से पैदा हुए। अकबर ने जहाँगीर को सैन्य प्रशिक्षण और शिक्षा प्रदान की, लेकिन सलीम अपने युवावस्था में शबाब और शराब के प्रति आकर्षित हो गए। 1605 में गद्दी पर बैठने के बाद, जहाँगीर ने अपने पिता की नीतियों को जारी रखते हुए मुगल साम्राज्य को सुदृढ़ और विस्तारित किया। वह धार्मिक दृष्टि से उदार थे और राजपूतों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखा।
1. जहाँगीर की प्रमुख नीतियाँ और विजय
- राजपूत नीति: जहाँगीर ने अकबर की राजपूत नीति को जारी रखा। उन्होंने राजपूतों के साथ वैवाहिक और मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए। 1615 में मेवाड़ के राणा अमर सिंह से शांति समझौता कर मेवाड़ को मुगल साम्राज्य में शामिल किया।
- दक्षिण नीति: दक्षिण भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने के लिए जहाँगीर ने दक्कन के क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया। 1617 में अहमदनगर को मुगल साम्राज्य में शामिल किया गया। मलिक अंबर के साथ समझौता कर दक्कन में स्थिरता लाई।
- कांगड़ा की विजय: 1620 में शहजादा खुर्रम के नेतृत्व में कांगड़ा के अभेद किले को जीत लिया गया। इस विजय ने मुगल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र को और मजबूत किया।
- कंधार की पराजय: 1622 में फारस के शाह अब्बास ने कंधार पर आक्रमण कर इसे मुगल साम्राज्य से छीन लिया। जहाँगीर की राज्य के मामलों से विमुखता और आंतरिक षड्यंत्रों ने इस पराजय को आसान बना दिया।
2.जहाँगीर की धार्मिक नीति
- जहाँगीर ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई और गैर-मुस्लिमों पर जज़िया कर नहीं लगाया।हालांकि, गुरु अर्जुन देव के मामले में उन्होंने धार्मिक असहिष्णुता का प्रदर्शन किया, लेकिन यह अपवाद के रूप में देखा जा सकता है। जहाँगीर ने विभिन्न समुदायों के विद्वानों और कलाकारों को अपने दरबार में स्थान देकर सांस्कृतिक समन्वय को बढ़ावा दिया।