भारत में सार्वजनिक संस्थान UNIT 4 SEMESTER 4 THEORY NOTES नागरिकों की सुरक्षा : पुलिस DU SOL DU NEP COURSES

भारत में सार्वजनिक संस्थान UNIT 4 THEORY NOTES नागरिकों की सुरक्षा : पुलिस DU SOL DU NEP COURSES


परिचय

अध्याय 'नागरिकों की सुरक्षा पुलिस' पुलिस व्यवस्था के विकास पर केंद्रित है। यह सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता से उत्पन्न हुआ, जैसा कि हॉब्स, लॉक और रूसो जैसे विचारकों ने भी संरचित प्रणाली की वकालत की थी। अध्याय का मुख्य ध्यान ब्रिटिश राज और उसके बाद पुलिस बल के व्यवहार पर है। यह भारत में पुलिस व्यवस्था के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं का विश्लेषण करता है और सुधारों, विशेष रूप से आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रणाली, की आवश्यकता पर जोर देता है। ऐसे सुधार पुलिस और नागरिकों के बीच विश्वास बढ़ाने और समाज में व्यवस्था बनाए रखने में सहायक हो सकते हैं। 

पुलिस क्या है? 

'पुलिस' शब्द ग्रीक 'पोलिस' और लैटिन 'पोलिटिया' से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'शहर' और 'राज्य की स्थितियाँ'। पुलिस समाज में कानून-व्यवस्था बनाए रखने और सुरक्षा सुनिश्चित करने का कार्य करती है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, यह कानून लागू करने और व्यवस्था बनाए रखने की प्रणाली है। रॉयल कमीशन (1929) ने पुलिस को जनता की भलाई के लिए काम करने वाले अधिकारी बताया है।

भारतीय पुलिस प्रणाली:

भारतीय पुलिस प्रणाली दुनिया में सबसे विस्तृत कमांड संरचनाओं में से एक है, जो छह स्तरों पर काम करती है: मुख्यालय, रेंज, जिला, उपखंड, सर्कल, और स्टेशन। इसमें चार प्रमुख पद हैं:

  • भारतीय पुलिस सेवा अधिकारी (IPS)
  • प्रांतीय पुलिस सेवा अधिकारी (PPS)
  • उप-निरीक्षक (SI)
  • कांस्टेबल (जो पुलिस बल का 90% हिस्सा बनाते हैं)।


 पुलिस की उत्पत्ति 

प्राचीन भारत में पुलिस व्यवस्था

प्राचीन भारत में संगठित और कानूनी रूप से नियंत्रित पुलिस प्रणाली का इतिहास ब्रिटिश शासन से पहले का है। यह धारणा कि भारतीय पुलिस प्रणाली ब्रिटिशों द्वारा बनाई गई थी, आंशिक रूप से गलत है।

  • हड़प्पा सभ्यता: सुरक्षा संगठनों के निशान इस बात का संकेत देते हैं कि व्यापारी टाउनशिप की सुरक्षा के लिए गार्ड का उपयोग किया जाता था।
  • मनु स्मृति: प्राचीन ग्रंथों में राज्य का कर्तव्य शांति बनाए रखना और अपराधियों को दंडित करना बताया गया है। मनु ने सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांतों को रेखांकित करते हुए राज्य को न्याय और सुरक्षा का जिम्मेदार माना।
  • मनु के अनुसार, राज्य का कर्तव्य शांति बनाए रखना, अपराध रोकना और न्याय देना था। 'डंडा' राज्य की शक्ति का प्रतीक था और पुलिस प्रणाली की नींव रखता था।
  • रामायण और महाभारत में प्रजा की सुरक्षा और भीड़ नियंत्रण के प्रयास पुलिस व्यवस्था के शुरुआती रूप दर्शाते हैं।


 प्राचीन काल में पुलिस संगठन 

1. ग्राम स्तरीय पुलिस व्यवस्था

ग्राम प्रधान, जिन्हें 'ग्रामीनी' कहा जाता था, कानून-व्यवस्था बनाए रखने और अपराधियों को पकड़ने के लिए जिम्मेदार थे। गांवों पर कर लगाकर सैनिकों और अधिकारियों की व्यवस्था की जाती थी। जिला स्तर पर 'प्रदेश' अधिकारी कर संग्रह, कानून-व्यवस्था, और न्यायिक कर्तव्यों का निर्वहन करते थे।

2. शहरी पुलिस व्यवस्था

  • कौटिल्य के अर्थशास्त्र में "अष्टदश तीर्थ" का उल्लेख है, जो 18 प्रमुख अधिकारियों को दर्शाता है।
  • 'दौवारिका' और 'अन्तर्वसिका' महल की सुरक्षा देखते थे।
  • 'दुर्गपाल' और 'कोटपाल' शहर की सुरक्षा, कानून-व्यवस्था, और राजस्व संग्रहण के लिए जिम्मेदार थे।

3. सड़क सुरक्षा

  • यात्रियों और व्यापार मार्गों की सुरक्षा के लिए 'अंतपाल' जैसे अधिकारी तैनात किए जाते थे। ये अधिकारी डकैतियों से रक्षा करते थे और टोल वसूलते थे, जिससे व्यापारियों को सुरक्षा सुनिश्चित की जाती थी।


 आपराधिक कानून प्रशासन 

  • 'कंटक शोधन' की अवधारणा: कौटिल्य ने आपराधिक कानून को 'कंटक शोधन' कहा, जो अपराधियों को नियंत्रित करने और समाज से खतरों को दूर करने की भूमिका को दर्शाता है। 'चटास' और 'भटास' जैसे निचले स्तर के अधिकारी इस प्रणाली का अभिन्न हिस्सा थे, जो सैनिकों के रूप में भी कार्य करते थे।
  • पुलिस कदाचार और चुनौतियाँ: ऐतिहासिक शिलालेखों से पता चलता है कि इन अधिकारियों ने कभी-कभी अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया, जो पुलिस कदाचार की आधुनिक समस्याओं से मेल खाता है।
  •  कौटिल्य की 'दंडनीति': कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राज्य प्रशासन के सभी पहलुओं को कवर किया, जिसमें कार्यकारी, न्यायपालिका, पुलिस और सेना शामिल हैं। उनकी 'दंडनीति' ने पुलिस और नौकरशाही की एक संगठित प्रणाली की नींव रखी।


 गुप्त काल तक पुलिस व्यवस्था का विकास 

गुप्त काल (540 ई.) तक चोरी और अपराध की अंतिम जिम्मेदारी राजा की होती थी। ग्राम प्रधान और परिषद अपराधियों को पकड़ने और कानून-व्यवस्था बनाए रखने में सहायक होते थे। ग्राम समुदायों में भूमि स्वामित्व और सामूहिक जिम्मेदारी पर आधारित स्वदेशी पुलिस प्रणाली काम करती थी।प्राचीन भारत में मनु और कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों ने सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने और नागरिकों की भलाई सुनिश्चित करने में पुलिस व्यवस्था को महत्वपूर्ण बनाया। इन प्रथाओं ने भविष्य में अधिक संगठित पुलिस प्रणाली के विकास की नींव रखी।

1. मध्यकालीन भारत में पुलिस व्यवस्था और न्याय : एक तुलनात्मक अध्ययन

  • पुलिस व्यवस्था और न्याय का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: मध्यकालीन भारत के दो प्रमुख कालखंड, दिल्ली सल्तनत (1206-1526 ई.) और मुगल काल (1526-1860 ई.), पुलिस व्यवस्था और न्यायिक प्रणाली के अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन कालों में पुलिस प्रणाली की संरचना और कार्यप्रणाली पर ध्यान केंद्रित किया गया।
  • केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण का महत्व: पुलिस व्यवस्था का विश्लेषण मुख्य रूप से इसकी कमांड संरचना (केंद्रीकृत या विकेंद्रीकृत) और अधीनस्थ बलों की संख्या पर आधारित होता है। बेले (1985) ने इन संरचनाओं को व्यवस्थित रूप से वर्गीकृत किया, जिससे प्रशासनिक दृष्टिकोण को समझने में मदद मिलती है।
  • इस्लामी प्रणालियों का प्रभाव: सल्तनत और मुगल काल की इस्लामी प्रणालियाँ अत्यधिक केंद्रीकृत थीं। इन व्यवस्थाओं में इस्लामी सिद्धांतों का सख्ती से पालन किया जाता था। औपचारिक पुलिस तंत्र से पहले स्थानीय और अनौपचारिक तरीकों का सहारा लिया गया, जो इस्लामी कानूनों की विशिष्टता को दर्शाता है।

2.सल्तनत काल (1206-1526 ई.)

भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत आठवीं शताब्दी में हुई, जबकि ग्यारहवीं शताब्दी में तुर्क, फारसी और अफगान आक्रमणों ने गहरा प्रभाव डाला।

  • कोतवाल की भूमिका: कोतवाल शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार प्रमुख अधिकारी था। वह स्थानीय नागरिक बल की मदद से पुलिसिंग और न्यायिक कार्य करता था।
  • मुहतासिब की जिम्मेदारी: मुहतासिब सार्वजनिक नैतिकता, पुलिस निरीक्षण, और सार्वजनिक कार्यों की देखरेख के लिए जिम्मेदार था।
  • अमीर-ए-दाद का महत्व: अमीर-ए-दाद ने कोतवाल और मुहतासिब की भूमिका को एक साथ निभाया, जो प्रशासन में उनकी केंद्रीयता को दर्शाता है।

3. मुगल काल (1526-1860 ई.)

  • केंद्रीकृत पुलिस व्यवस्था: मुगल काल में केंद्रीकृत पुलिस संरचना विद्यमान थी। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में कानून-व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व स्पष्ट रूप से विभाजित था।
  • यूरोपीय यात्रियों के वृत्तांत: सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय यात्रियों ने मुगल पुलिस और न्याय प्रणाली की सादगी को वर्णित किया। हालाँकि, उनके विवरण सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों से प्रभावित थे।
  • मुगल प्रशासन का प्रभाव: मुगल राजवंश ने 300 वर्षों तक भारतीय प्रशासनिक तंत्र पर प्रभाव डाला। उनके शासन के कमजोर होने के बाद भी, उनकी इस्लामी प्रशासनिक परंपराएँ बनी रहीं।
  • ब्रिटिश और सांस्कृतिक समानता: ब्रिटिश शासन, विशेष रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रारंभिक दौर में, मुगल परंपराओं और भारतीय समाज के साथ सांस्कृतिक समानता बनाए रखने पर निर्भर रहा।

4. आधिकारिक मुगल अभिलेख

  • मूल स्रोत और अभिलेख: मुगल युग की पुलिस और न्याय प्रणाली को समझने के लिए फारसी, उर्दू, और अंग्रेजी अनुवादों के साथ आधिकारिक मुगल अभिलेख एक अमूल्य संसाधन हैं। सम्राट अकबर द्वारा 1574 में सार्वजनिक रिकॉर्ड कार्यालय की स्थापना ने अदालती कार्यवाही को व्यवस्थित रूप से रिकॉर्ड करने की नींव रखी।
  • प्रमुख अधिकारियों की भूमिकाएँ:

(i) मुहतासिब: कानून-व्यवस्था, सार्वजनिक नैतिकता, और स्वास्थ्य पहल की देखरेख।

(ii) कोतवाल: शहरी पुलिस प्रशासन और नागरिक रिकॉर्ड का प्रबंधन।

(iii) फौजदार: पुलिस मजिस्ट्रेट और सैन्य टुकड़ी के कमांडर के रूप में कार्य।

(iv) सूबेदार: प्रांतीय कानून-व्यवस्था, राजस्व संग्रह और शाही आदेशों का क्रियान्वयन।

(v) शिकदार और थानेदार: स्थानीय स्तर पर परगना और थानों की देखरेख।

  • व्यवस्था का प्रभाव:  मुगल काल की पुलिस प्रणाली ने कानून और प्रशासन के केंद्रीकृत मॉडल को प्रस्तुत किया। हालांकि शहरी केंद्रों पर अधिक ध्यान दिया गया, यह प्रणाली प्रशासनिक कुशलता में योगदान देती रही।
  • मुगल-ब्रिटिश संक्रमण: मुगल प्रशासन के प्रभाव ब्रिटिश शासन में भी देखे गए। हालांकि, ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन ने द्वैध शासन की जटिलताओं को जन्म दिया, जिससे पुलिस व्यवस्था में प्रभावशीलता बाधित हुई।


 ब्रिटिश पुलिस व्यवस्था पहल 

  • प्रारंभिक हस्तक्षेप और दोहरी शासन: 1765 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल, बिहार, और उड़ीसा में दीवानी अधिकार प्राप्त कर पुलिस व्यवस्था में प्रवेश किया। रॉबर्ट क्लाइव की दोहरी शासन प्रणाली में नवाब आपराधिक न्याय के लिए जिम्मेदार थे, लेकिन वास्तविक सत्ता कंपनी के पास थी। जमींदारों की मिलीभगत और गैर-हस्तक्षेप नीति ने पुलिस को कमजोर कर दिया।
  • वॉरेन हेस्टिंग्स और सुधार: 1772 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने पुलिस व्यवस्था का पुनर्गठन किया, लेकिन जमींदारों के प्रतिरोध और भ्रष्टाचार ने इसे अस्थिर बना दिया। 1793 में लॉर्ड कॉर्नवालिस ने दरोगा प्रणाली शुरू की और पुलिस की जिम्मेदारी कंपनी के अधिकारियों को सौंप दी।
  • औपनिवेशिक बनाम ब्रिटिश पुलिस: ब्रिटेन में 1829 में सर रॉबर्ट पील ने लोकतांत्रिक और जवाबदेह पुलिस प्रणाली स्थापित की। इसके विपरीत, भारत में औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था दमन और नियंत्रण पर आधारित थी। सर चार्ल्स नेपियर ने भारत में स्थानीय जनता के प्रति कम जवाबदेह दमनकारी पुलिस प्रणाली लागू की।

पुलिस अधिनियम और कठोर प्रावधान:

1861 के पुलिस अधिनियम ने औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था की कठोरता को स्थापित किया।

  • धारा 15: अशांत क्षेत्रों में अतिरिक्त पुलिस तैनात करने की अनुमति।
  • धारा 17: निवासियों को विशेष पुलिस अधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान।
  • धारा 30: सभाओं और जुलूसों को लाइसेंस देने की शक्ति।
  • धारा 44: निगरानी के लिए स्टेशन हाउस अधिकारी को सामान्य डायरी बनाए रखने का निर्देश।


 समसामयिक चुनौतियाँ और सुधार की अनिवार्यताएँ 

1. औपनिवेशिक विरासत और संरचनात्मक चुनौतियाँ:

  • भारतीय पुलिस व्यवस्था अभी भी 1861 के पुलिस अधिनियम पर आधारित है। आज़ादी के बाद इसमें बड़े बदलाव नहीं किए गए। 1902 के ब्रिटिश आयोग ने इसे कमजोर और भ्रष्ट बताया था। 1978 में राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने सुधारों की सलाह दी, लेकिन इन पर अमल नहीं हुआ। डीएसपी (1905) और डीजीपी (1980) जैसे पद तो बने, लेकिन पुलिस की संरचना में खास बदलाव नहीं हुआ।

2. केंद्र और राज्य के बीच नियंत्रण:

  • भारतीय पुलिस का प्रबंधन राज्य स्तर पर होता है और यह गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है। स्वतंत्रता के बाद भी केंद्र-नियंत्रित सशस्त्र पुलिस और खुफिया एजेंसियाँ औपनिवेशिक जड़ों से जुड़े रहने का संकेत देती हैं।

3. प्रमुख समस्याएँ:

  • बल प्रयोग पर निर्भरता: पुलिस बल कानून और व्यवस्था बनाए रखने पर अधिक केंद्रित है।
  • प्रशासनिक नियंत्रण: आईपीएस और आईएएस अधिकारियों के नियंत्रण से प्रभावी संचालन प्रभावित होता है।
  • सैन्य और नागरिक पुलिस के बीच सीमाएँ: अर्धसैनिक बलों और सशस्त्र पुलिस का उपयोग बढ़ता गया है।

4.पुलिस का प्राथमिक ध्यान:

  • पुलिस अपराध रोकने के बजाय कानून व्यवस्था, सामुदायिक मुद्दों, और महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देती है।

5.सुधार की आवश्यकता:

  • पुलिस व्यवस्था में जवाबदेही, पारदर्शिता, और सामुदायिक सहभागिता बढ़ाने के लिए तत्काल सुधारों की आवश्यकता है। वर्तमान प्रणाली में औपनिवेशिक प्रभाव और संरचनात्मक समस्याएँ सुधार की दिशा में सबसे बड़ी बाधाएँ हैं।


 स्वतंत्रता के बाद भारत में पुलिस व्यवस्था और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव 

  • सरकार की जिम्मेदारियाँ बढ़ीं: आजादी के बाद सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य आपूर्ति और सामुदायिक विकास पर ध्यान दिया। लेकिन इन सेवाओं की कमी से लोग नाराज हुए, जिससे विरोध और प्रदर्शन शुरू हुए।
  • सामाजिक तनाव और संघर्ष: भारत की विविधता के कारण हिंदू-मुस्लिम तनाव और जातिगत विवाद पुलिस के लिए बड़ी चुनौती बने। बिहार जैसे राज्यों में जातिगत हिंसा और क्षेत्रीय झगड़ों ने कानून व्यवस्था को और कठिन बना दिया।
  • राजनीतिक प्रदर्शन और हिंसा: लोकतंत्र में बोलने की आज़ादी होने के बावजूद, कई बार विरोध प्रदर्शन हिंसक हो जाते हैं। हड़ताल, छात्र आंदोलन और आरक्षण से जुड़े मुद्दों ने पुलिस के लिए नई मुश्किलें पैदा कीं।
  • चुनावी हिंसा: चुनाव के समय हिंसा और लोगों को मतदान से रोकने की घटनाएं लोकतंत्र के लिए समस्या बनीं। पुलिस पर इन घटनाओं को रोकने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने की जिम्मेदारी होती है।
  • पुलिस की भूमिका: पुलिस का मुख्य काम व्यवस्था बनाए रखना है, लेकिन कई बार यह माना जाता है कि पुलिस अमीर और प्रभावशाली लोगों का पक्ष लेती है। जनता के साथ जुड़े पुलिस बल का सपना अभी अधूरा है।


 भारतीय पुलिस संस्थाओं की चुनौतियाँ: राजनीतिकरण और केंद्रीकरण 

  • राजनीतिक दबाव: 1967 के बाद कांग्रेस की राज्यों में हार और गठबंधन सरकारों के बढ़ने से पुलिस पर राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ गया। राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने इसे पुलिस का दुरुपयोग बताया।
  • स्वायत्तता की कमी: पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति, तबादले और कार्यकाल पर राजनीति का असर है। सत्ताधारी दल पुलिस को अपने हिसाब से नियंत्रित करते हैं, जिससे निष्पक्ष कानून लागू करना मुश्किल हो जाता है।
  • केंद्रीकरण: पुलिस प्रणाली में फैसले शीर्ष स्तर पर लिए जाते हैं। पोस्टिंग, फंड, संसाधन और खुफिया जानकारी जैसे कार्य केंद्रीय स्तर पर नियंत्रित होते हैं, जिससे स्थानीय स्तर पर कामकाज प्रभावित होता है।
  • पुरानी प्रक्रियाएँ: औपनिवेशिक काल से चली आ रही धीमी और पुरानी रिकॉर्ड-कीपिंग प्रणाली से कामकाज प्रभावित होता है, जिससे बड़े विभागों का प्रबंधन मुश्किल हो जाता है।


 भारत की पुलिस व्यवस्था: चुनौतियाँ और सुधार की आवश्यकता 

भारत की पुलिस तीन-स्तरीय प्रणाली में काम करती है, जिसमें वर्ग भेद स्पष्ट है। आईपीएस अधिकारियों के पास शक्ति केंद्रित है, जबकि कांस्टेबलों को खराब वेतन और कामकाजी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।

1. मुख्य चुनौतियाँ:

  • वर्ग भेद: कांस्टेबलों की स्थिति में सुधार की जरूरत।
  • संचार की कमी: विभिन्न स्तरों के बीच समन्वय की कमी।
  • अधिकारियों पर बोझ: भारी कार्यभार और विश्वास की कमी।

2. प्रदर्शन मापन की समस्याएँ:

  • अपराध दर और गिरफ्तारी आंकड़ों पर ध्यान, लेकिन सकारात्मक परिणामों की उपेक्षा।

3. सुधार की आवश्यकता:

  • एनपीसी ने बेहतर संचार, सहयोग और कांस्टेबलों की स्थिति सुधारने की सिफारिश की है। पारदर्शी और कुशल पुलिस प्रणाली के लिए सुधार जरूरी हैं।

भारत में अपराध दर और पुलिस व्यवस्था

  • अपराध दर: 1951 से 1991 तक अपराध दर में गिरावट देखी गई, लेकिन यह जनसंख्या वृद्धि और गलत रिकॉर्डिंग से प्रभावित है। एनसीआरबी द्वारा वर्गीकृत अपराधों में बड़ी संख्या 'अन्य' श्रेणी में रहती है, जबकि महिलाओं और कमजोर वर्गों के अपराध अक्सर कम रिपोर्ट होते हैं।
  • पुलिस का प्रदर्शन: पुलिस आउटपुट चिंताजनक है, खासकर हिंसक अपराधों और महिलाओं के खिलाफ अपराधों में वृद्धि के मामलों में। सामाजिक कलंक और अधूरी जांच इसे और जटिल बनाते हैं।
  • जांच में खामियाँ: महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों की जांच अक्सर अधूरी रहती है। कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए बेहतर कानून प्रवर्तन की आवश्यकता है।
  • पुलिस दुर्व्यवहार: हिरासत में बलात्कार, मौत और अनावश्यक गोलीबारी जैसे दुव्यवहार आम हैं। नागरिक शिकायतों की जांच में गंभीर कमी है।
  • काम का बोझ और वेतन: पुलिसकर्मियों की संख्या अपर्याप्त है, जिससे काम का अत्यधिक दबाव है। वेतन और कामकाजी परिस्थितियों में सुधार की तत्काल आवश्यकता है।
  • नियम बनाम निर्णय: पुलिस के विवेकाधिकार का अध्ययन सीमित है। कानून प्रवर्तन में निर्णय लेने की प्रकृति को समझने और सुधारने की आवश्यकता है।
  • कानूनी विवेकाधिकार: सीआरपीसी के तहत पुलिस को कुछ परिस्थितियों में बिना वारंट गिरफ्तारी और तलाशी का अधिकार है, जिससे उनके विवेक का दायरा बढ़ता है।
  • रैंक द्वारा निर्णय: कांस्टेबल, जो बल का अधिकांश हिस्सा बनाते हैं, स्थानीय विवादों और प्राथमिक जांच में निर्णय का सबसे अधिक प्रयोग करते हैं।


 भारत में पुलिस व्यवस्था: कानूनी, नौकरशाही और भ्रष्टाचार की चुनौतियाँ 

  • अपराध दर्ज करने और राजनीतिक हस्तक्षेप: सीआरपीसी की धारा 154 के तहत अपराध दर्ज करने की प्रक्रिया है, लेकिन अधिकारी अक्सर अपराधों को कम दर्ज करते हैं। राजनीतिक दबाव, खासकर नियुक्ति और तैनाती में, कानून व्यवस्था को प्रभावित करता है। चुनावों में पुलिस का दुरुपयोग विकास को नुकसान पहुंचाता है।
  • आईएएस और आईपीएस के बीच टकराव: आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के सत्ता संघर्ष से पुलिस व्यवस्था कमजोर होती है। आईएएस अधिकारियों का पुलिस नीतियों पर अत्यधिक नियंत्रण और महानगरों में आयुक्त प्रणाली डीएम की भूमिका को सीमित कर देती है।
  • राजनीतिक और पुलिस गठजोड़: राजनीतिक नेताओं और पुलिस के गठजोड़ से भ्रष्टाचार बढ़ता है। हाई-प्रोफाइल घोटालों में निष्पक्ष जांच राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण बाधित होती है।
  • भ्रष्टाचार और स्वायत्तता की कमी: राजनीतिक दबाव और नौकरशाही हस्तक्षेप से पुलिस की स्वायत्तता घट रही है। यह पुलिस को राजनीतिक एजेंडे का उपकरण बना देता है और न्यायिक निष्पक्षता पर सवाल उठता है।


 भारत की पुलिस व्यवस्था में सुधार: नागरिक और पुलिस सुरक्षा का विश्लेषण 

लोकतांत्रिक भारत में पुलिस नागरिक सुरक्षा की रीढ़ है। हालांकि, पुलिस व्यवस्था में जवाबदेही की कमी, पुरानी संगठनात्मक संस्कृति और संरचनात्मक खामियों ने इसे गंभीर आलोचना के दायरे में ला दिया है। व्यापक सुधार की आवश्यकता स्पष्ट है, ताकि न केवल नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित हो, बल्कि पुलिस बल की भलाई और दक्षता भी बढ़ाई जा सके। यह विश्लेषण इन सुधारों की अनिवार्यता और संभावित उपायों पर प्रकाश डालता है।

पुलिस जवाबदेही और भर्ती की चुनौतियाँ

1. नागरिक शिकायतों में जवाबदेही की समस्या:

  • पुलिस अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों का निपटारा विभागीय पूर्वाग्रह और राजनीतिक हस्तक्षेप से प्रभावित होता है। एनपीसी ने पारदर्शिता के लिए वरिष्ठ न्यायाधीशों के नेतृत्व में जिला जांच प्राधिकरण की सिफारिश की। स्वतंत्र और निष्पक्ष निरीक्षण तंत्र की आवश्यकता है।

2. भर्ती और प्रशिक्षण की खामियाँ:

  • पुलिस भर्ती में न्यूनतम योग्यता और प्रशिक्षण में समकालीन चुनौतियों की अनदेखी समस्या है। राष्ट्रीय पुलिस अकादमी केवल वरिष्ठ अधिकारियों पर ध्यान देती है, जिससे असंतुलन बढ़ता है। आधुनिक अपराधों से निपटने के लिए सूचना प्रबंधन और प्रशिक्षण में सुधार आवश्यक है।

3.संगठनात्मक संस्कृति और भ्रष्टाचार

  • कदाचार और गोपनीयता की संस्कृति: पुलिस में गोपनीयता और असहमति को दबाने वाली संस्कृति भ्रष्टाचार और क्रूरता को बढ़ावा देती है। यह औपनिवेशिक मानसिकता आज भी सुधार में बाधा डालती है।
  • भ्रष्टाचार और अनैतिक प्रथाएं: रिश्वतखोरी, पक्षपात और जबरन वसूली जैसी प्रथाएं पुलिस में आम हैं। हिरासत में मौतें और फर्जी मुठभेड़ों के बावजूद दोषियों पर कार्रवाई बहुत कम होती है।
  • सुधार की आवश्यकता: जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए पुलिस संस्कृति में व्यापक सुधार आवश्यक हैं। इससे पुलिस बल को अधिक कुशल और नागरिकों के प्रति उत्तरदायी बनाया जा सकता है।


 भारत में मानवाधिकार और पुलिस व्यवस्था 

1. मानवाधिकारों का महत्व और पुलिस की भूमिका

मानवाधिकार न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज का आधार हैं। पुलिस व्यवस्था को कानून और व्यवस्था बनाए रखने और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के बीच संतुलन बनाना चाहिए।

  • विद्युत चक्रवर्ती: पुलिस में मानवाधिकारों को बनाए रखने की अनिवार्यता पर जोर दिया। हिरासत में यातना और न्यायेतर हत्याओं के मामलों ने पुलिस कदाचार की गंभीरता को उजागर किया।
  • गांगुली और बाजोरिया: पुलिस हिंसा और दण्डमुक्ति पर प्रकाश डालते हुए कानून प्रवर्तन में जवाबदेही की कमी और सुधार की आवश्यकता को रेखांकित किया।

2. डिजिटल युग में पुलिसिंग: चुनौतियाँ और अवसर

  • कमल कुमार: 21वीं सदी में कृत्रिम बुद्धिमत्ता और उन्नत निगरानी उपकरणों के उपयोग पर जोर दिया। कुशल और नैतिक प्रशिक्षण के साथ तकनीकी नवाचार को जिम्मेदारी से अपनाने की आवश्यकता बताई।
  • वेस्ले जी. स्कोगन: प्रौद्योगिकी और नैतिकता के संतुलन की वकालत की। नीति निर्माताओं से पारदर्शिता, जवाबदेही, और नागरिक स्वतंत्रता की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले ढांचे तैयार करने का आग्रह किया।










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