परिचय
सार्वजनिक संस्थाएँ किसी भी लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला हैं, जो राजनीतिक, संवैधानिक, आर्थिक और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। भारत, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में, विभिन्न प्रकार के सार्वजनिक संस्थानों का जटिल समूह रखता है, जो मानवाधिकार सुनिश्चित करने, सरकारी जवाबदेही बनाए रखने और विनियमन जैसे उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। वैश्वीकरण, डिजिटल अर्थव्यवस्था, और वैश्विक संकटों के प्रभाव के कारण इन संस्थानों की भूमिका में बदलाव हुआ है। 21वीं सदी में सार्वजनिक संस्थानों का अध्ययन उनकी कार्यप्रणाली, चुनौतियों और समय के साथ उनके अनुकूलन को समझने के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस अध्याय में हम भारत में इन संस्थानों के विकास, उनकी प्रासंगिकता और मौजूदा चुनौतियों का विश्लेषण करेंगे।
सार्वजनिक संस्थान
1. अवधारणा
सार्वजनिक संस्थान वे संगठन हैं जो सरकार द्वारा स्थापित या संचालित होते हैं और जनहित के कार्य करते हैं। ये संस्थान स्थानीय, राज्य, या राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत होते हैं और लोकतांत्रिक व संवैधानिक व्यवस्था को सुचारू बनाने में सहायक होते हैं। इनमें विधायी, न्यायिक, प्रशासनिक और नागरिक कल्याण से जुड़े संस्थान शामिल हैं। डगलस नॉर्थ के अनुसार, संस्थान मानव निर्मित संरचनाएं हैं जो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संबंधों को आकार देती हैं। इनमें औपचारिक (कानून, संविधान) और अनौपचारिक (रीति-रिवाज, परंपराएं) बाधाएं शामिल होती हैं।
2.अध्ययन की आवश्यकता
सार्वजनिक संस्थानों के अध्ययन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण है:
- लोकतांत्रिक शासन की स्थिरता: सार्वजनिक संस्थान यह सुनिश्चित करते हैं कि सरकार जवाबदेह और पारदर्शी बनी रहे।
- नागरिक अधिकारों की सुरक्षा: ये संस्थान नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं और उनके कल्याण के लिए कार्य करते हैं।
- कानून और नीतियों का कार्यान्वयन: कानून निर्माण और उनके निष्पादन में सार्वजनिक संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- विवाद समाधान: न्यायिक संस्थान कानून की व्याख्या और विवादों के समाधान में सहायता करते हैं।
- सामाजिक स्थिरता: संस्थान समाज में अनुशासन बनाए रखते हैं और अनिश्चितता को कम करते हैं।
3. प्रमुख कार्य
- प्रतिनिधित्व: निर्वाचित निकाय नागरिकों और उनके हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- विधान निर्माण: विधायी संस्थान कानून बनाते हैं जो समाज को विनियमित करते हैं।
- प्रशासनिक कार्य: नीतियों को लागू करना और प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखना।
- न्यायिक कार्य: विवादों का निपटारा और कानून का शासन कायम रखना।
- नागरिक कल्याण: अधिकतम लोगों को कल्याणकारी सेवाएं प्रदान करना।
3. महत्व
- सार्वजनिक संस्थान समाज और सरकार के बीच सेतु का कार्य करते हैं, जो नागरिकों को सरकार से जोड़ने के लिए एक महत्वपूर्ण चैनल प्रदान करते हैं। ये संस्थान व्यवस्था और अनुशासन बनाए रखते हुए कार्यों की लागत और अनिश्चितता को कम करने में सहायक होते हैं।
सार्वजनिक संस्थाओं के अध्ययन की आवश्यकता
सार्वजनिक संस्थाएँ शासन की आधारशिला होती हैं, जैसे सरकारी निकाय, अदालतें, और प्रशासनिक एजेंसियां, जो नीति निर्माण, कानून लागू करने और सेवाएं प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इनका अध्ययन निम्नलिखित कारणों से आवश्यक है:
- लोकतांत्रिक प्रक्रिया और शासन: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य और उनके प्रभाव को समझना।
- नीति निर्माण और क्रियान्वयन: यह जानने के लिए कि नीतियां कैसे बनाई और लागू की जाती हैं।
- सामाजिक-आर्थिक विकास: संस्थाओं का योगदान जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे में।
- जवाबदेही और पारदर्शिता: संस्थाओं के निर्णय और प्रभाव का आकलन।
- चुनौतियों का समाधान: नए युग की समस्याओं और अवसरों को समझने के लिए।
सार्वजनिक संस्थानों के अध्ययन के दृष्टिकोण (उपागम)
- ऐतिहासिक दृष्टिकोण: यह दृष्टिकोण संस्थानों के विकास और उनके ऐतिहासिक संदर्भ पर केंद्रित है। यह जांच करता है कि संस्थानों के गठन, उनके कार्यों और सुधारों को ऐतिहासिक घटनाओं, जैसे औपनिवेशिक विरासत, संवैधानिक विवाद और सामाजिक आंदोलनों ने कैसे प्रभावित किया।
- तुलनात्मक दृष्टिकोण: विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों और संस्थानों की तुलना के माध्यम से उनकी समानताओं और अंतरों का अध्ययन करता है। यह दृष्टिकोण विभिन्न संदर्भों में संस्थानों के कार्य और प्रभावशीलता को समझने में मदद करता है। उदाहरण के लिए, संसदीय प्रणाली (यूके) और राष्ट्रपति प्रणाली (यूएस) की तुलना।
- कार्यात्मक दृष्टिकोण: इस दृष्टिकोण में संस्थानों के कार्य और उनकी भूमिका का विश्लेषण किया जाता है। यह जांचता है कि संस्थाएँ अपने कर्तव्यों, जैसे कानून निर्माण, प्रशासन और न्याय, को किस प्रकार पूरा करती हैं। उदाहरण: भारतीय चुनाव आयोग की स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने में भूमिका।
- संरचनात्मक दृष्टिकोण: संस्थानों की संरचना, नियमों और प्रक्रियाओं पर केंद्रित है। यह जांचता है कि संगठनात्मक ढाँचा संस्थान के कार्यों और उनकी दक्षता को कैसे प्रभावित करता है। उदाहरण: न्यायपालिका की संरचना और न्यायाधीशों की नियुक्ति।
- व्यवहारिक दृष्टिकोण: यह दृष्टिकोण संस्थानों के भीतर व्यक्तियों के व्यवहार, निर्णय लेने और पारस्परिक संबंधों का अध्ययन करता है। यह इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि व्यक्तिगत व्यवहार और संचार संस्थानों की सफलता को कैसे प्रभावित करते हैं। उदाहरण: विधायी निकाय में सदस्यों की बातचीत और निर्णय लेने की प्रक्रिया।
- संस्थावाद
संस्थावाद राजनीतिक परिणामों में संस्थानों की भूमिका को रेखांकित करता है। यह दो प्रकारों में विभाजित है:
क. ऐतिहासिक संस्थावाद
- यह अतीत के निर्णयों और घटनाओं के प्रभाव को समझने पर केंद्रित है। यह बताता है कि संस्थानों को उनकी ऐतिहासिक विरासतों के कारण बदलना कठिन होता है।उदाहरण: भारत के औपनिवेशिक अतीत ने इसके संस्थानों को कैसे प्रभावित किया।
ख. तर्कसंगत विकल्प संस्थावाद
यह व्यक्तियों के स्वार्थ और तर्कसंगत निर्णयों को संस्थानों के प्रोत्साहन और प्रतिबंधों के संदर्भ में समझता है।उदाहरण: भारतीय संसद में सांसदों के आचरण पर संस्थागत नियमों का प्रभाव।
- सार्वजनिक चयन सिद्धांत: यह सिद्धांत निर्वाचित अधिकारियों, नौकरशाहों और मतदाताओं के तर्कसंगत, स्वार्थपूर्ण व्यवहार पर केंद्रित है। यह बताता है कि ये सभी अपनी उपयोगिता अधिकतम करने के लिए कार्य करते हैं।उदाहरण: पुनः चुनाव की संभावना कैसे निर्णयों को प्रभावित करती है।
- नया संस्थावाद: नया संस्थावाद तर्कसंगत विकल्प सिद्धांत, समाजशास्त्र और संस्थावाद के तत्वों को एकीकृत करते हुए संस्थानों के गठन, उनके व्यवहार और समय के साथ उनके विकास का अध्ययन करता है। यह अध्ययन करता है कि वैश्वीकरण और तकनीकी प्रगति जैसे बाहरी कारकों के प्रभाव से संस्थान कैसे अनुकूलित और विकसित होते हैं। इसके तीन प्रमुख उप-दृष्टिकोण हैं: ऐतिहासिक संस्थावाद, जो अतीत के निर्णयों और उनके प्रभाव पर केंद्रित है; समाजशास्त्रीय संस्थावाद, जो सामाजिक मानदंडों और मूल्यों के संस्थागत ढाँचे पर प्रभाव को देखता है; और तर्कसंगत विकल्प संस्थावाद, जो व्यक्तियों के स्वार्थपूर्ण और तर्कसंगत निर्णयों का विश्लेषण करता है।
भारतीय सार्वजनिक संस्थानों का इतिहास और विकास
1. प्राचीन काल
भारतीय सार्वजनिक संस्थानों का इतिहास प्राचीन ग्रंथों और सभ्यताओं से आरंभ होता है, जहाँ 'सभा' और 'समिति' जैसी अवधारणाओं का उल्लेख मिलता है।
- ऋग्वेद और अर्थशास्त्र: इन ग्रंथों में प्रारंभिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और प्रशासनिक ढाँचों की झलक मिलती है।
- मौर्य साम्राज्य: प्रशासनिक दक्षता के लिए प्रसिद्ध, मौर्य शासन में स्थानीय प्रशासन, कर संग्रह, पुलिस, और जासूसी तंत्र जैसे संस्थान संगठित थे।
- गुप्त साम्राज्य: इसे 'स्वर्ण काल' कहा जाता है, जहाँ कानूनी प्रणाली और प्रशासनिक संरचनाएँ परिपक्व हुईं।
2. मध्यकालीन काल
- दिल्ली सल्तनत और अन्य साम्राज्य: इस युग में व्यापार और शिल्प को प्रोत्साहन मिला, जिससे कई सामाजिक और आर्थिक संस्थानों का विकास हुआ।
- मुगल साम्राज्य: अकबर ने राजस्व प्रणाली और नौकरशाही को संगठित किया। केंद्रीय प्रशासनिक तंत्र में कानून और व्यवस्था बनाए रखने पर जोर दिया गया।
3. औपनिवेशिक काल
ब्रिटिश शासन ने भारतीय सार्वजनिक संस्थानों को औपचारिक रूप से व्यवस्थित किया।
- सिविल सेवा और पुलिस सुधार: भारतीय सिविल सेवा (ICS) और न्यायिक प्रणाली जैसे संस्थानों की स्थापना की गई।
- विधान परिषदें और संसदीय भागीदारी: मताधिकार का सीमित विस्तार और विधान परिषदों की स्थापना हुई।
- शिक्षा और कानूनी सुधार: अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी कानूनी प्रणाली को अपनाया गया।
4. स्वतंत्रता के बाद का काल
स्वतंत्रता के बाद भारतीय सार्वजनिक संस्थानों का विकास संविधान के सिद्धांतों पर आधारित रहा।
- संविधान निर्माण: संविधान ने लोकतंत्र, समानता, और न्याय को स्थापित किया।
- संवैधानिक संस्थान: कार्यपालिका, न्यायपालिका, और विधायिका को संविधान में परिभाषित किया गया।
- संघीय ढाँचा: संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन सहकारी संघवाद को बढ़ावा देता है।
5. समकालीन काल
- स्वायत्त संस्थान: चुनाव आयोग, मानवाधिकार आयोग, और वित्त आयोग जैसे संस्थान सुचारू शासन सुनिश्चित करते हैं।
- आर्थिक सुधार और पीएसयू: सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (PSUs) और आरबीआई जैसे संस्थानों ने आर्थिक स्थिरता और विकास में योगदान दिया।
- डिजिटल युग: ई-गवर्नेंस और डिजिटल सेवाओं ने सार्वजनिक संस्थानों को अधिक कुशल और सुलभ बनाया।
6. विशेष योगदान
- न्यायिक संस्थाएँ: न्यायपालिका कानून के शासन को लागू करती है।
- आर्थिक संस्थाएँ: योजना आयोग (अब नीति आयोग), आरबीआई और वित्तीय संस्थानों ने आर्थिक प्रगति में योगदान दिया।
- सामाजिक कल्याण संस्थाएँ: विभिन्न आयोग और सरकारी योजनाएँ नागरिकों के कल्याण पर केंद्रित हैं।
भारत में प्रमुख प्रकार की सार्वजनिक संस्थाएँ
भारत में सार्वजनिक संस्थानों का वर्गीकरण उनके कार्यों और प्राप्त शक्तियों के आधार पर किया जा सकता है। ये संस्थान लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को सुचारू रूप से चलाने और नागरिकों की आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक होते हैं। प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं:
- संवैधानिक संस्थाएँ: ये संस्थाएँ संविधान द्वारा स्थापित की जाती हैं और अपनी शक्तियाँ सीधे संविधान से प्राप्त करती हैं। इनमें वित्त आयोग, चुनाव आयोग, यूपीएससी, और सीएजी शामिल हैं। इनके कार्यों में बदलाव के लिए संवैधानिक संशोधन आवश्यक है।
- वैधानिक संस्थाएँ: संसद द्वारा अधिनियम के माध्यम से स्थापित ये संस्थाएँ गैर-संवैधानिक होती हैं। जैसे, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण।
- नियामक संस्थाएँ: ये संस्थाएँ विशिष्ट क्षेत्रों में मानकों को परिभाषित और लागू करती हैं। जैसे, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) और भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (BCCI)।
- कार्यकारी संस्थाएँ: कार्यकारी शाखा द्वारा स्थापित ये संस्थाएँ कार्यकारी संकल्प से बनाई जाती हैं। जैसे, नीति आयोग, केंद्रीय जांच ब्यूरो, और राष्ट्रीय विकास परिषद। इन्हें वैधानिक निकायों में बदला जा सकता है।
- अर्ध न्यायिक संस्थाएँ: ये संस्थाएँ विशेष डोमेन में न्यायिक कार्य करती हैं लेकिन सीमित अधिकारों के साथ। जैसे, राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, और सेबी।
नीति और समग्र विकास में सार्वजनिक संस्थानों की भूमिका
- कार्यकारी संस्थाएँ: भारत में प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद सार्वजनिक नीतियों को क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी संभालते हैं। नीति आयोग (पहले योजना आयोग) देश का प्रमुख थिंक टैंक है, जो राष्ट्रीय विकास योजनाएँ बनाकर सहकारी संघवाद को बढ़ावा देता है।
- अर्थव्यवस्था में भूमिका: भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) मौद्रिक नीतियाँ बनाकर मूल्य व वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करता है और बैंकिंग उद्योग पर निगरानी रखता है। जीएसटी परिषद केंद्र और राज्यों के बीच मिलकर अप्रत्यक्ष कराधान को सरल और एकरूप बनाने का काम करती है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) सरकारी खर्च का ऑडिट कर वित्तीय पारदर्शिता व जवाबदेही बनाए रखता है।
- अन्य महत्वपूर्ण संस्थाएँ: चुनाव आयोग स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए ज़िम्मेदार है, जबकि सुप्रीम कोर्ट न्याय के जरिए नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है। संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) सिविल सेवकों की भर्ती में योग्यता और पारदर्शिता बनाए रखता है। वहीं ट्राई (टेलीकॉम) और सेबी (शेयर बाज़ार) जैसे संस्थान जटिल क्षेत्रों में नियमन का काम करते हैं।
- नागरिक समाज का योगदान: गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) और नागरिक संस्थाएँ सूचना का अधिकार (2005), मनरेगा (2005), शिक्षा का अधिकार (2009), भोजन का अधिकार (2013) जैसे महत्वपूर्ण कानूनों के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाती हैं। ये संस्थाएँ नागरिक अधिकारों को मज़बूत करने और सामाजिक-आर्थिक न्याय को बढ़ावा देने में मदद करती हैं।
नीति और समग्र विकास में सार्वजनिक संस्थानों की भूमिका
1.कार्यकारी संस्थाएँ