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भारत की विदेश नीति UNIT 4 SEMESTER 2 THEORY NOTES समकालीन बहुध्रुवीय विश्व में भारत 1.व्यापार, पर्यावरण और सुरक्षा रणनीति के संबंध में भारत की वार्तालाप की शैली 2.भारत एक वैश्विक शक्ति के रूप में : संभावनाएँ और चुनौतियाँ DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत की विदेश नीति  UNIT 4 SEMESTER 2 THEORY NOTES समकालीन बहुध्रुवीय विश्व में भारत 1.व्यापार, पर्यावरण और सुरक्षा रणनीति के संबंध में भारत की वार्तालाप की शैली 2.भारत एक वैश्विक शक्ति के रूप में : संभावनाएँ और चुनौतियाँ  DU. SOL.DU NEP COURSES

 व्यापार, पर्यावरण और सुरक्षा रणनीति के संबंध में भारत की वार्तालाप की शैली

प्रस्तावना 

भारत, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और 1.4 बिलियन की आबादी वाला राष्ट्र, वैश्विक मंच पर एक उभरती अर्थव्यवस्था और निवेश का आकर्षक केंद्र बनकर उभरा है। 1991 में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के बाद, भारत ने वैश्विक व्यापार में उल्लेखनीय प्रगति की है। इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर भारत की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। भारत शांति, सार्वभौमिक निशस्त्रीकरण और मानवता के कल्याण की वकालत करता है।

भारत का वैश्विक व्यापार

उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण के बाद 1990 के दशक में भारत ने व्यापारिक बाधाओं को समाप्त कर द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार के लिए नए अवसर बनाए। ऐतिहासिक रूप से, भारत का व्यापार दक्षिण-पूर्व एशिया और पड़ोसी देशों तक फैला था। वर्तमान समय में यह व्यापार भारत की आर्थिक समृद्धि और वैश्विक शक्ति का संकेतक बन गया है।

  • महत्त्वपूर्ण पहल: 1992 में "लुक ईस्ट नीति" शुरू की गई, जिसका उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापारिक संबंधों को मजबूत करना था। भारत ने 1994 में आसियान के साथ संवाद भागीदारी और 1996 में पूर्ण भागीदारी हासिल की। इसके अतिरिक्त, "मेक इन इंडिया" पहल ने विनिर्माण और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर रोजगार के अवसर बढ़ाने का प्रयास किया।
  • मुख्य व्यापारिक साझेदार: भारत-अमेरिका व्यापार ने 2019-20 में भारत-चीन व्यापार को पीछे छोड़ दिया। भारत-आसियान मुक्त व्यापार क्षेत्र (2009) के बावजूद आसियान के साथ व्यापार मात्र 10.5% है। वहीं, यूरोपीय संघ ने चीन को रोकने के लिए भारत के साथ आर्थिक संबंधों को बढ़ावा देने का प्रयास किया है।
  • चुनौतियाँ: वैश्विक वित्तीय संकट (2008) और कोविड-19 महामारी ने भारत के व्यापार को धीमा कर दिया। इसके अलावा, तेल की बढ़ती कीमतें और कमजोर आर्थिक बुनियादी ढांचा व्यापार के लिए बाधा बने। चीन के साथ व्यापारिक असंतुलन भी एक बड़ी चुनौती है।
  • उपलब्धियाँ: 1990 से 2016 के बीच भारत का निर्यात 0.6% से बढ़कर 1.7% और आयात 2.4% तक पहुंचा। 2015-20 की विदेश व्यापार नीति के तहत भारत ने निर्यात-आयात हिस्सेदारी बढ़ाने का लक्ष्य रखा और व्यापारिक विकास में महत्वपूर्ण प्रगति की।
  • आगे की राह: भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में बेहतर एकीकरण सुनिश्चित करना होगा। सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा क्षेत्र में निवेश के साथ-साथ विनिर्माण और बुनियादी ढांचे में सुधार के माध्यम से रोजगार के अधिक अवसर सृजित करने होंगे।


 भारत के व्यापार के रास्ते में बाधाएँ 

  • डब्ल्यूटीओ और अंतर्राष्ट्रीय विवाद: भारत ने 1995 में डब्ल्यूटीओ की स्थापना के बाद से इसमें अहम भूमिका निभाई है। हालांकि, कृषि सब्सिडी, पर्यावरण, निवेश, और खाद्य सुरक्षा मानकों से संबंधित कई मुद्दे लंबित हैं। कृषि प्रधान देश होने के कारण, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) जैसे नीतिगत निर्णय किसानों के असंतोष और चुनावी राजनीति को प्रभावित करते हैं।
  • सार्क और दक्षिण एशियाई असहयोग: सार्क, जिसकी स्थापना 1985 में हुई, दक्षिण एशियाई देशों में असहयोग और पाकिस्तान की प्रतिद्वंद्विता के कारण अपनी क्षमता के अनुसार कार्य नहीं कर पाया। 37 शिखर सम्मेलनों के बावजूद केवल 18 बैठकें हुई हैं। यह क्षेत्रीय व्यापार को बाधित करता है।
  • चीन का प्रभाव और क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा: चीन ने दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में अपनी उपस्थिति बढ़ाई है, जिससे भारत के लिए चुनौती उत्पन्न हुई है। इसके विपरीत, भारत ने आरसीईपी जैसे संगठनों से दूरी बनाते हुए आसियान, यूरोपीय संघ, जी-20, और अन्य वैश्विक साझेदारों के साथ संबंध मजबूत किए हैं।
  • क्षेत्रीय संगठन और उप-क्षेत्रीय समूह: बीबीआईएन और बिम्सटेक जैसे क्षेत्रीय संगठनों का महत्व बढ़ रहा है। हालांकि, इन संगठनों की प्रभावशीलता पर सवाल खड़े होते हैं क्योंकि कई समूह केवल कागजों पर ही सक्रिय हैं।
  • पड़ोसियों के साथ कमजोर संबंध: आसियान और अफ्रीकी देशों के साथ भारत के संबंध बेहतर हुए हैं, लेकिन यह पड़ोसियों के साथ व्यापारिक संबंधों को मजबूत करने की कीमत पर नहीं होना चाहिए।
  • वैश्विक समर्थन: भारत के आर्थिक सुधारों को विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों का समर्थन मिला है। विभिन्न देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर ने भी व्यापार के नए अवसर पैदा किए हैं।


 पर्यावरण के क्षेत्र में वार्तालाप 

1. जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग

  • मुख्य वैश्विक चिंता: जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख कारक बन गए हैं। बढ़ते तापमान, अनियमित मानसून, बार-बार बाढ़, और गिरते जल स्तर वैश्विक चिंता के विषय हैं।
  • प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग: उर्वरकों और गहरे बोरवेल के अत्यधिक उपयोग से पर्यावरण की स्थिति और भी गंभीर हो रही है।

2. भारत की भूमिका और पहल

  • अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं में भागीदारी: शीत युद्ध के बाद, भारत ने 1992 के रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन से पहले ही जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) में प्रमुख वार्ताकार के रूप में भूमिका निभाई।
  • विभेदित जिम्मेदारियाँ: भारत ने उच्च प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन को ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार ठहराया और विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग-अलग जिम्मेदारियों की मांग की।

3. प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भागीदारी

  • रामसर सम्मेलन (1971): आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिए, जिसमें भारत 1975 में शामिल हुआ।
  • स्टॉकहोम सम्मेलन (2001): लगातार कार्बनिक प्रदूषकों की रोकथाम पर, भारत ने 2004 में अपनाया।

4. रियो शिखर सम्मेलन और उसके परिणाम

  • रियो शिखर सम्मेलन (1992): पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCED) में, जलवायु परिवर्तन पर UNFCCC को अपनाया गया।
  • मुख्य दस्तावेज: जैव विविधता पर सम्मेलन, मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए सम्मेलन, और एजेंडा-21, जो सतत विकास पर एक वैश्विक कार्य योजना है।

5. क्योटो प्रोटोकॉल और बाद की वार्ताएँ

  • क्योटो प्रोटोकॉल (1997): कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि, जिसमें कार्बन उत्सर्जन को समयबद्ध तरीके से कम करने का निर्णय लिया गया।
  • भारत की भूमिका: 72 हरित देशों के सहयोग से उत्सर्जन कटौती पर जोर दिया और स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) पर आधारित परियोजनाओं में भाग लिया।

6. पेरिस समझौता (2015) और भारत की प्रतिबद्धताएँ

  • उत्सर्जन कटौती का वादा: भारत ने 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को 33-35% तक कम करने का लक्ष्य रखा।
  • नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन: 2030 तक 450 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य।
  • वर्तमान प्रगति: भारत ने अपने उत्सर्जन में 21% की कमी हासिल करने का दावा किया है।

7. राष्ट्रीय पहलें और कार्यक्रम

  • स्वच्छ भारत अभियान (2014): देश को स्वच्छ और खुले में शौच मुक्त बनाने की पहल, साथ ही एकल उपयोग वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध का लक्ष्य।
  • उज्ज्वला योजना: गरीब महिलाओं को मुफ्त एलपीजी कनेक्शन प्रदान करके धुएँ से मुक्त जीवन सुनिश्चित करना।
  • अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA): फ्रांस के सहयोग से स्थापित, सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए, जिसका मुख्यालय गुरुग्राम, हरियाणा में है।

8. COP-26 सम्मेलन और भविष्य की योजनाएँ

  • नई प्रतिबद्धताएँ: ग्लासगो में आयोजित COP-26 में, भारत ने 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने का लक्ष्य रखा।
  • उद्देश्य:

1. 2030 तक जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को 50% तक कम करना।

2. सौर ऊर्जा उत्पादन को 450 गीगावाट तक बढ़ाना।

3. कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 30% तक कटौती।

  • अन्य पहलें: वन क्षेत्र का विस्तार, इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन, और पुराने पेट्रोल एवं डीजल वाहनों के स्थान पर वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करना।


9. चुनौतियाँ और निष्कर्ष

  • विकसित देशों की प्रतिबद्धता: वित्तीय और तकनीकी सहायता के वादों को पूर्ण रूप से नहीं निभाया गया है।
  • जन जागरूकता: पर्यावरणीय मुद्दों पर जागरूकता बढ़ रही है, विशेषकर युवा पीढ़ी के बीच।
  • भारत का प्रयास: राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के लिए सक्रिय भूमिका निभा रहा है, जिससे सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।


 भारत की सुरक्षा रणनीति 

1. सुरक्षा का महत्त्व

  • आंतरिक और बाहरी सुरक्षा किसी भी देश के प्राथमिक राष्ट्रीय हितों में शामिल है। बाहरी सुरक्षा में क्षेत्रीय अखंडता और नागरिकों को बाहरी खतरों से बचाना प्रमुख है, जबकि आंतरिक सुरक्षा में गरीबी उन्मूलन, चरमपंथी हिंसा, सांप्रदायिकता, और नक्सलवाद से निपटना शामिल है।

2. बाहरी सुरक्षा चुनौतियाँ

  • सीमाई विवाद: भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन के बीच लंबे समय से सीमा विवाद जारी है। जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में तनाव बना हुआ है।
  • आतंकवाद: 1990 के बाद से आतंकवाद ने भारत की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
  • समुद्री खतरें: भारतीय समुद्री क्षेत्र मादक पदार्थों की तस्करी और चीन की बढ़ती गतिविधियों से प्रभावित है।

3. आंतरिक सुरक्षा चुनौतियाँ

  • नक्सलवाद: झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में नक्सलवादी गतिविधियाँ शांति के लिए चुनौती बनी हुई हैं।
  • सांप्रदायिकता: 1984 सिख दंगे, 1992 बाबरी मस्जिद विध्वंस, 2002 गोधरा कांड, और हाल के सांप्रदायिक तनाव देश की अखंडता को प्रभावित करते हैं।
  • जातिगत और सामाजिक असुरक्षा: जातिगत हिंसा, महिलाओं और बच्चों का उत्पीड़न, और असमान विकास बड़ी चुनौतियाँ हैं।

4. परमाणु शक्ति और रक्षा रणनीति

  • परमाणु परीक्षण: 1974 और 1998 में पोखरण परीक्षणों के बाद भारत ने परमाणु शक्ति के रूप में अपनी स्थिति मजबूत की।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM): भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई, जिससे वैश्विक मंच पर संतुलन बनाए रखा।
  • अंतरराष्ट्रीय संबंध: भारत-अमेरिका परमाणु समझौता और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के साथ सहयोग ने भारत को उन्नत रक्षा क्षमताओं के लिए सक्षम बनाया।

5. सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा

  • औद्योगिक विकास और विस्थापन: औद्योगीकरण के नाम पर भूमि विस्थापन ने असंतोष बढ़ाया, जैसे सिंगूर और नर्मदा बचाओ आंदोलन।
  • सतत विकास: सरकार का उद्देश्य तेजी से औद्योगीकरण और पर्यावरणीय संतुलन के बीच संतुलन बनाना है।

6. अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय संबंध

  • चीन और पाकिस्तान से चुनौतियाँ: चीन की हिंद महासागर में बढ़ती गतिविधियाँ और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद भारत के लिए बड़ी समस्याएँ हैं।
  • साझेदारी और सहयोग: भारत ने अमेरिका, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, और अन्य देशों के साथ साझेदारी बढ़ाई है।

7. सुरक्षा में प्रगति के कदम

  • आत्मनिर्भरता: भारत का 'मेक इन इंडिया' और स्टार्ट-अप पहल देश को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास कर रही है।
  • तकनीकी प्रगति: साइबर सुरक्षा और कुशल तकनीकी जनशक्ति के विकास पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।



  भारत एक वैश्विक शक्ति के रूप में : संभावनाएँ और चुनौतियाँ  

भारत की विदेश नीति स्वतंत्रता संग्राम से अर्जित सिद्धांतों और आधुनिक आवश्यकताओं के तालमेल का परिणाम है। यह नीति भौगोलिक अखंडता, स्वायत्तता, और वैश्विक शांति व सहयोग को बढ़ावा देने के लिए संप्रभुता के सिद्धांतों पर आधारित है। औपनिवेशिक शासन के प्रभाव और स्वतंत्रता संग्राम के अनुभव ने इसे आकार दिया। आज भी यह नीति ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अद्वितीय बनी हुई है और वैश्विक चुनौतियों का प्रभावी सामना करती है।

 उत्तर औपनिवेशिक राज्य 

उत्तर औपनिवेशिक राज्य का अध्ययन उपनिवेशवाद के प्रभावों और उसके बाद की वैश्विक संरचना को समझने का प्रयास है। यह उपनिवेशवाद के दौरान स्थापित राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक व्यवस्थाओं के विघटन और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को दर्शाता है।

1. उत्तर औपनिवेशिक अवधारणा

  • उत्तर औपनिवेशिक राज्य वह संरचना है, जो औपनिवेशिक युग के अंत के बाद विकसित हुई।
  • यह अध्ययन औपनिवेशिक शासन की क्रूरता, गुलामी, और स्वदेशी परंपराओं के विघटन के परिणामस्वरूप उभरती वैश्विक प्रणाली को समझने पर केंद्रित है।

2. औपनिवेशिक काल के प्रभाव

  • गुलामी और सांस्कृतिक विघटन: उपनिवेशवादियों ने स्वदेशी परंपराओं को कमजोर कर अपनी मूल्य प्रणाली थोपी।
  • विकास का दावा: "गोरे आदमी का बोझ" जैसी विचारधाराओं के माध्यम से उपनिवेशवाद को वैध ठहराने का प्रयास किया गया।
  • वैश्विक ढाँचे का उदय: उपनिवेशवाद ने आधुनिकता और वैश्विक राजनीतिक ढाँचे को स्थापित करने में भूमिका निभाई।

3. उत्तर औपनिवेशिक अध्ययन

  • ज्ञान की पुनर्परीक्षा: औपनिवेशिक शासन द्वारा प्रचारित तथाकथित "सत्य" को चुनौती देना।
  • संस्कृति और पहचान: पश्चिमी प्रभुत्व ने शेष दुनिया को "बर्बर" और "असंगठित" के रूप में प्रस्तुत किया।
  • सईद का ओरिएंटलिज्म: एडवर्ड सईद ने "ओरिएंट" और "ऑक्सिडेंट" के बीच मानव-निर्मित अंतर को उजागर किया।

4. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रभाव

  • वैश्विक न्याय पर सवाल: उत्तर औपनिवेशिक अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और नैतिक मूल्यों की पुनर्व्याख्या करता है।
  • पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती: एशिया, अफ्रीका, और लैटिन अमेरिका के राष्ट्रों ने पश्चिमी प्रभुत्व को खारिज करते हुए अपनी पहचान बनाई।

5. उत्तर औपनिवेशिक विदेश नीति

  • नैतिकता और समता: भारत जैसे उत्तर औपनिवेशिक राज्यों ने समतामूलक और नैतिक विदेश नीति को अपनाया।
  • पश्चिमी प्रभुत्व का प्रतिरोध: विकासशील देशों की विदेश नीति पश्चिमी ताकतों के वर्चस्व को चुनौती देती है।


 भारत की विदेश नीति के सिद्धांत एवं निर्धारक तत्त्व 

भारत की विदेश नीति के सिद्धांत और निर्धारक तत्त्व उसकी ऐतिहासिक विरासत, सांस्कृतिक मूल्यों, और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विकसित विचारधाराओं में निहित हैं।

1. विदेश नीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

  • 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत ने अपनी विदेश नीति को उन मूल्यों और विचारधाराओं पर आधारित किया, जो लंबे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विकसित हुईं।
  • राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव: यह आंदोलन भारत को एक राष्ट्र के रूप में एकजुट करने के साथ-साथ विदेश नीति को दिशा देने में सहायक रहा।
  • उत्तर औपनिवेशिक विशेषताएँ: औपनिवेशिक शासन ने संसदीय लोकतंत्र, आधुनिक न्यायपालिका, और शिक्षा प्रणाली के माध्यम से भारत की विदेश नीति पर अपना प्रभाव छोड़ा।

2.भारतीय विदेश नीति के सिद्धांत

वसुधैव कुटुम्बकम् और अद्वैत का प्रभाव

  • वसुधैव कुटुम्बकम्: भारत ने हमेशा विश्व को एक परिवार के रूप में देखा, जिसमें शांति और सहयोग का भाव हो।
  • अद्वैत दर्शन: यह मान्यता है कि विश्व एक ही राजनीतिक इकाई के रूप में जुड़ा हुआ है, जो भेदभाव और अन्याय को नकारती है।

पंचशील के सिद्धांत

  • भारत ने पंचशील या पंचसूत्र को अपनाया, जिसमें पाँच प्रमुख सिद्धांत शामिल हैं:
  • एक-दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान।
  • परस्पर अनाक्रमण।
  • आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
  • समान और परस्पर लाभकारी संबंध।
  • शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व।

सत्य और अहिंसा का प्रभाव

  • गाँधीवादी सिद्धांत: सत्य और अहिंसा ने भारत की विदेश नीति को शक्ति आधारित राजनीति से दूर रखा और इसे शांति और सहयोग की ओर प्रेरित किया।

धर्मयुद्ध की अवधारणा

  • सैन्य शक्ति का समावेश: भारत ने अपनी विदेश नीति में धर्मयुद्ध की अवधारणा अपनाई, जिसका उद्देश्य ब्रह्मांडीय स‌द्भाव बनाए रखना और न्याय की स्थापना करना है। भारत सैन्य ताकत का उपयोग केवल अपनी सुरक्षा के लिए करता है, न कि किसी आक्रमण के लिए।

3. विदेश नीति के निर्धारक तत्त्व

  • ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मूल्य: भारत की विदेश नीति की जड़ें उसके प्राचीन दर्शन, परंपराओं और नैतिकता में हैं, जो इसे नैतिक और समतामूलक दृष्टिकोण अपनाने में सक्षम बनाती हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय दबावों का प्रभाव: भारत ने अपनी नीति को वैश्विक दबावों से मुक्त रखते हुए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के मार्ग को अपनाया है।
  • शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व: भारत ने विश्व शांति को बढ़ावा देने के लिए शांति और सहयोग का मार्ग चुना अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर नैतिक मूल्यों को प्रमुखता दी।
  • राष्ट्रीय सुरक्षा और सैन्य शक्ति: भारत ने अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सैन्य शक्ति को विदेश नीति का हिस्सा बनाया। पड़ोसी देशों से सैन्य घुसपैठ ने भारत को अपनी नीति में बदलाव करने के लिए प्रेरित किया।


 गुटनिरपेक्ष आंदोलन 

गुटनिरपेक्ष आंदोलन भारत की एक अनोखी और प्रभावी विदेश नीति का परिणाम है। यह आंदोलन उत्तर औपनिवेशिक राज्यों और नए स्वतंत्र देशों को वैश्विक राजनीतिक ध्रुवीकरण से बचाने में सहायक सिद्ध हुआ।

1. गुटनिरपेक्ष आंदोलन का उदय

शीत युद्ध की पृष्ठभूमि 

  • द्वितीय विश्व युद्ध (1945) के तुरंत बाद शीत युद्ध शुरू हुआ, जिसमें अमेरिका और सोवियत संघ के बीच दो विचारधाराओं—उदार पूँजीवाद और साम्यवाद—के बीच अप्रत्यक्ष संघर्ष था। यह संघर्ष नए स्वतंत्र राज्यों को प्रभावित कर रहा था।

उत्तर औपनिवेशिक आंदोलन

गुटनिरपेक्ष आंदोलन उपनिवेशवाद के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया थी।

  • औपनिवेशीकरण का प्रभाव: उपनिवेशित राष्ट्रों ने आर्थिक शोषण, नस्लीय भेदभाव, और राजनीतिक नियंत्रण का सामना किया।
  • आत्मनिर्भरता का विचार: भारत सहित कई देशों ने स्वतंत्र विदेश नीति अपनाने और किसी भी शक्ति गुट से जुड़ने से इंकार कर दिया।

2. भारत की भूमिका और गुटनिरपेक्ष नीति का विकास

  • स्वतंत्रता से पूर्व गुटनिरपेक्षता: भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही गुटनिरपेक्षता का विचार विकसित हो चुका था। भारतीय नेताओं ने शक्ति आधारित राजनीति की आलोचना करते हुए स्वतंत्र नीतियों की वकालत की।
  • स्वतंत्रता के बाद: भारत ने औपचारिक रूप से किसी भी शक्ति गुट में शामिल होने से इंकार किया। भारतीय राजनयिक प्रयासों ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

3. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के परिणाम

  • उपनिवेशीकरण की समाप्ति: गुटनिरपेक्ष समूह ने उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को तेज किया और देशों को स्वतंत्र नीतियाँ अपनाने के लिए प्रेरित किया।
  • वैकल्पिक दृष्टिकोण: यह आंदोलन विश्व समुदाय को यह समझाने में सफल रहा कि शक्ति गुटों में शामिल हुए बिना भी शांति और विकास संभव है।
  • नए स्वतंत्र देशों का समर्थन: गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने अफ्रीका और एशिया के देशों को नैतिक और राजनीतिक समर्थन प्रदान किया।

4. आधुनिक युग में गुटनिरपेक्ष आंदोलन

  • औपचारिक स्थापना: 1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन औपचारिक रूप से स्थापित हुआ और वर्तमान में इसके 120 सदस्य हैं।
  • शीत युद्ध के बाद: 1991 में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद भी आंदोलन प्रासंगिक बना हुआ है। अब यह जलवायु परिवर्तन, गरीबी उन्मूलन, और वैश्विक सहयोग जैसे मुद्दों पर केंद्रित है।
  • भारत की भूमिका: भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को प्रासंगिक बनाए रखने और वैश्विक चुनौतियों से निपटने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई है।

5.गुटनिरपेक्ष आंदोलन का महत्त्व

  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने नए स्वतंत्र देशों को आत्मनिर्भर विदेश नीति अपनाने और वैश्विक ध्रुवीकरण से बचने में मदद की। यह आंदोलन आज भी प्रासंगिक है और वैश्विक शांति, सहयोग, और विकास को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभा रहा है।इसे भारत की सफल विदेश नीति का प्रतीक माना जा सकता है।

 भारत की परमाणु नीति 

भारत की परमाणु नीति, जो नैतिकता, आत्मरक्षा और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के आधार पर विकसित हुई है, वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण विषय रही है। यह नीति न केवल भारत की सुरक्षा जरूरतों को पूरा करती है, बल्कि एक उत्तर औपनिवेशिक राज्य के रूप में इसकी पहचान और विदेश नीति के सिद्धांतों को भी परिलक्षित करती है।

1. परमाणु नीति का विकास और पृष्ठभूमि

  • परमाणु मुद्दों की वैश्विक शुरुआत: 1945 में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु हमलों ने मानवता को झकझोर कर रख दिया और परमाणु हथियारों की विनाशकारी शक्ति को उजागर किया। इसके बाद, सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों ने परमाणु हथियारों पर अपना वर्चस्व कायम किया और अन्य देशों को इनके विकास से रोकने के लिए प्रतिबंध लगाए।
  • भारत का नैतिक दृष्टिकोण: गाँधीवादी सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों ने भारत की परमाणु नीति को नैतिकता और संयम पर आधारित बनाया। भारत ने परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग को बढ़ावा दिया और परमाणु हथियारों के वैश्विक उन्मूलन का समर्थन करते हुए शांति का आह्वान किया।

2.परमाणु नीति का विकास

  • प्रारंभिक चरण (1954): भारतीय वैज्ञानिक होमी जे. भाभा के नेतृत्व में परमाणु ऊर्जा अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए 1954 में परमाणु ऊर्जा विभाग की स्थापना की गई। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सार्वजनिक रूप से परमाणु हथियारों का विरोध करते हुए भारत में परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग को प्राथमिकता दी।
  • भू-राजनीतिक बदलाव और 1960 का दशक: 1964 में चीन के लोप नौर में पहले परमाणु परीक्षण के बाद भारत में परमाणु कार्यक्रम की माँग तेज हो गई। इसके अतिरिक्त, 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों ने सैन्य रूप से सशक्त होने की भारत की आवश्यकता को और बल दिया।
  • पहला परमाणु परीक्षण (1974): भारत ने 1974 में पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण किया, जिसे "शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट" कहा गया। इस कदम पर पश्चिमी देशों ने तीखी आलोचना की और भारत पर प्रतिबंध लगाए। बावजूद इसके, भारत ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति और तकनीकी क्षमता का प्रदर्शन किया।
  • यथास्थिति और पुनः परीक्षण (1998):परमाणु अप्रसार संधि (NPT) को भारत ने भेदभावपूर्ण मानते हुए इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। 1998 में पोखरण-II परीक्षणों के माध्यम से भारत ने अपनी सैन्य और तकनीकी ताकत को मजबूत करते हुए खुद को एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में स्थापित किया।

3.भारत का परमाणु सिद्धांत (2003)

  • विश्वसनीय न्यूनतम निवारक: भारत केवल न्यूनतम परमाणु हथियार रखेगा, जो रक्षा और प्रतिरोध के लिए आवश्यक हों।
  • पहले उपयोग नहीं (No First Use): भारत कभी भी किसी देश के खिलाफ पहले परमाणु हथियारों का उपयोग नहीं करेगा।
  • शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा का समर्थन: परमाणु ऊर्जा का उपयोग केवल विकास और वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए होगा।

4. परमाणु नीति के प्रभाव

  • राष्ट्रीय सुरक्षा: भारत की परमाणु नीति का उद्देश्य अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करना है। यह नीति खासतौर पर चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ से उत्पन्न खतरों को देखते हुए आत्मरक्षा को प्राथमिकता देती है।
  • वैश्विक प्रतिष्ठा: परमाणु परीक्षणों ने भारत की स्वतंत्र विदेश नीति और आत्मनिर्भरता को साबित किया। इसने भारत को विज्ञान और प्रौद्योगिकी में एक वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाया।
  • नैतिकता और शांति: गाँधीवादी मूल्यों पर आधारित भारत की नीति "नो फर्स्ट यूज" सिद्धांत का पालन करती है। यह परमाणु हथियारों को निवारण का माध्यम मानते हुए नैतिकता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर बल देती है।

5.आर्थिक और रणनीतिक महत्त्व

  • आर्थिक विकास: परमाणु ऊर्जा ने औद्योगिकीकरण और ऊर्जा संकट के समाधान में योगदान देकर भारत के आर्थिक विकास को गति दी।
  • अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति: NPT और CTBT पर भारत के रुख ने पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती दी और परमाणु परीक्षणों ने भारत को एक महत्वपूर्ण वैश्विक खिलाड़ी के रूप में स्थापित किया।


 भारत की आर्थिक नीति: विकास और बदलाव 

  • प्रारंभिक दौर: कृषि और औद्योगिकीकरण:स्वतंत्रता के बाद, भारत ने कृषि और औद्योगिक उत्पादन पर जोर दिया। बड़े बाँधों और खनिज-आधारित उद्योगों के माध्यम से बिजली और सिंचाई की समस्याओं को हल करने का प्रयास किया गया।
  • आर्थिक स्थिरता की चुनौतियाँ (1950-1980): 1950 से 1980 के बीच भारत की जीडीपी वृद्धि दर केवल 3.5% रही। यह धीमी वृद्धि आर्थिक नीतियों में पुनर्गठन की आवश्यकता को दर्शाती है।
  • 1991 का आर्थिक सुधार: आर्थिक संकट के दौरान, 1991 में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति अपनाई गई। विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया गया और निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया।
  • आर्थिक सुधारों के परिणाम: 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद भारत की जीडीपी वृद्धि दर में तेजी आई। वर्तमान में, भारत की जीडीपी 3.25 ट्रिलियन डॉलर है और इसका विदेशी मुद्रा भंडार 619 बिलियन डॉलर तक पहुँच चुका है। भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था में छठे स्थान पर है और 2026 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहा है।
  • वैश्विक भूमिका और आत्मनिर्भरता: भारत विनिर्माण, तेल रिफाइनरी, और सॉफ्टवेयर उद्योग में एक प्रमुख केंद्र बन रहा है। वैश्विक संकटों के दौरान भी इसकी आर्थिक स्थिरता ने इसे एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में स्थापित किया है।
  • भविष्य की दिशा: भारत का लक्ष्य 2030 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में तीसरे स्थान पर पहुँचना है। तकनीकी प्रगति और मजबूत आर्थिक नीतियाँ इसे वैश्विक मंच पर एक प्रभावशाली भूमिका में स्थापित कर रही हैं।


 दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका 

  • ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध: भारत और दक्षिण एशियाई देशों के बीच गहरे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश ने एक समान स्वतंत्रता संग्राम और शोषण का अनुभव किया। नेपाल, भूटान, और श्रीलंका सहित सभी देशों के साथ साझा सभ्यतागत मूल्य इस क्षेत्र को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं।
  • क्षेत्रीय एकीकरण और "नेबरहुड फर्स्ट" नीति: भारत ने ऐतिहासिक संबंधों के आधार पर दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय एकीकरण की दिशा में प्रयास किए हैं। 2014 में "नेबरहुड फर्स्ट" नीति के तहत, भारत ने प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था, शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए कदम उठाए। भारत ने दक्षिण एशियाई देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता प्रदान की है।
  • आर्थिक सहयोग: भारत दक्षिण एशिया में आर्थिक संबंधों को प्राथमिकता देता है। 2008 में दक्षिण एशिया के साथ भारत का व्यापार 13.5 बिलियन डॉलर था, जो 2018 में 36 बिलियन डॉलर तक बढ़ गया। क्षेत्रीय व्यापार को बढ़ावा देने के लिए भारत ने SAPTA (1994) और SAFTA (2004) जैसे व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर किए।
  • सुरक्षा और क्षेत्रीय संतुलन: भारत दक्षिण एशिया में सुरक्षा प्रदाता और संतुलनकर्ता की भूमिका निभाता है। सार्क, बिम्सटेक, और बीबीआईएन जैसे क्षेत्रीय संगठनों के माध्यम से भारत क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देता है।
  • COVID-19 में भूमिका: महामारी के दौरान, भारत ने दक्षिण एशियाई देशों को वैक्सीन और चिकित्सा सहायता प्रदान करके अपनी भूमिका को और मजबूत किया।
  • भारत का सहयोगी दृष्टिकोण: भारत ने कभी भी इस क्षेत्र में राजनीतिक या सामाजिक मुद्दों पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास नहीं किया। इसके बजाय, भारत ने सहयोग और समर्थन की नीति अपनाई है, जिससे दक्षिण एशिया में स्थिरता और विकास को बढ़ावा मिला है।


 अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत का महत्त्व एवं महत्त्वाकांक्षा 

  • आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता: वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत एक आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में उभरा है। 1991 के आर्थिक उदारीकरण ने अर्थव्यवस्था को गति दी, और 1998 के परमाणु परीक्षणों ने भारत को वैश्विक मंच पर स्थापित किया।
  • सशक्त कूटनीति और वैश्विक संबंध: संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बावजूद, भारत ने अपनी कूटनीति और आर्थिक-सैन्य शक्ति से वैश्विक राय को अपने पक्ष में करने में सफलता प्राप्त की। अमेरिका और भारत के बीच बेहतर संबंधों और "क्वाड" जैसे गठजोड़ ने भारत को क्षेत्रीय और वैश्विक संतुलन बनाने में मदद की।
  • बहुपक्षीय मंचों पर नेतृत्व: भारत ब्रिक्स, एससीओ, और ईएएस जैसे मंचों पर सक्रिय है और डब्ल्यूटीओ व आईएमएफ में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। संयुक्त राष्ट्र शांति मिशनों और नीतिगत निर्माण में भारत की भागीदारी उसकी वैश्विक जिम्मेदारी को दर्शाती है।
  • वैश्विक समस्याओं में योगदान: भारत ने जलवायु परिवर्तन, वैश्विक गरीबी उन्मूलन और महामारी रोकथाम जैसे मुद्दों पर प्रभावी नीतियाँ प्रस्तावित की हैं। तकनीकी, आर्थिक, और मानव संसाधन सहायता के माध्यम से भारत ने अपनी भूमिका को और अधिक सशक्त बनाया है।
  • वैज्ञानिक और मानव सेवा में नेतृत्व: बाहरी अंतरिक्ष अन्वेषण और टीका निर्माण में भारत ने अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करते हुए वैश्विक मान्यता प्राप्त की। भारत ने न केवल अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाई है, बल्कि मानव सेवा में अग्रणी भूमिका निभाई है।





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