व्यापार, पर्यावरण और सुरक्षा रणनीति के संबंध में भारत की वार्तालाप की शैली
प्रस्तावना
भारत, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और 1.4 बिलियन की आबादी वाला राष्ट्र, वैश्विक मंच पर एक उभरती अर्थव्यवस्था और निवेश का आकर्षक केंद्र बनकर उभरा है। 1991 में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के बाद, भारत ने वैश्विक व्यापार में उल्लेखनीय प्रगति की है। इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर भारत की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। भारत शांति, सार्वभौमिक निशस्त्रीकरण और मानवता के कल्याण की वकालत करता है।
भारत का वैश्विक व्यापार
उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण के बाद 1990 के दशक में भारत ने व्यापारिक बाधाओं को समाप्त कर द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार के लिए नए अवसर बनाए। ऐतिहासिक रूप से, भारत का व्यापार दक्षिण-पूर्व एशिया और पड़ोसी देशों तक फैला था। वर्तमान समय में यह व्यापार भारत की आर्थिक समृद्धि और वैश्विक शक्ति का संकेतक बन गया है।
- महत्त्वपूर्ण पहल: 1992 में "लुक ईस्ट नीति" शुरू की गई, जिसका उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापारिक संबंधों को मजबूत करना था। भारत ने 1994 में आसियान के साथ संवाद भागीदारी और 1996 में पूर्ण भागीदारी हासिल की। इसके अतिरिक्त, "मेक इन इंडिया" पहल ने विनिर्माण और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर रोजगार के अवसर बढ़ाने का प्रयास किया।
- मुख्य व्यापारिक साझेदार: भारत-अमेरिका व्यापार ने 2019-20 में भारत-चीन व्यापार को पीछे छोड़ दिया। भारत-आसियान मुक्त व्यापार क्षेत्र (2009) के बावजूद आसियान के साथ व्यापार मात्र 10.5% है। वहीं, यूरोपीय संघ ने चीन को रोकने के लिए भारत के साथ आर्थिक संबंधों को बढ़ावा देने का प्रयास किया है।
- चुनौतियाँ: वैश्विक वित्तीय संकट (2008) और कोविड-19 महामारी ने भारत के व्यापार को धीमा कर दिया। इसके अलावा, तेल की बढ़ती कीमतें और कमजोर आर्थिक बुनियादी ढांचा व्यापार के लिए बाधा बने। चीन के साथ व्यापारिक असंतुलन भी एक बड़ी चुनौती है।
- उपलब्धियाँ: 1990 से 2016 के बीच भारत का निर्यात 0.6% से बढ़कर 1.7% और आयात 2.4% तक पहुंचा। 2015-20 की विदेश व्यापार नीति के तहत भारत ने निर्यात-आयात हिस्सेदारी बढ़ाने का लक्ष्य रखा और व्यापारिक विकास में महत्वपूर्ण प्रगति की।
- आगे की राह: भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में बेहतर एकीकरण सुनिश्चित करना होगा। सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा क्षेत्र में निवेश के साथ-साथ विनिर्माण और बुनियादी ढांचे में सुधार के माध्यम से रोजगार के अधिक अवसर सृजित करने होंगे।
भारत के व्यापार के रास्ते में बाधाएँ
- डब्ल्यूटीओ और अंतर्राष्ट्रीय विवाद: भारत ने 1995 में डब्ल्यूटीओ की स्थापना के बाद से इसमें अहम भूमिका निभाई है। हालांकि, कृषि सब्सिडी, पर्यावरण, निवेश, और खाद्य सुरक्षा मानकों से संबंधित कई मुद्दे लंबित हैं। कृषि प्रधान देश होने के कारण, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) जैसे नीतिगत निर्णय किसानों के असंतोष और चुनावी राजनीति को प्रभावित करते हैं।
- सार्क और दक्षिण एशियाई असहयोग: सार्क, जिसकी स्थापना 1985 में हुई, दक्षिण एशियाई देशों में असहयोग और पाकिस्तान की प्रतिद्वंद्विता के कारण अपनी क्षमता के अनुसार कार्य नहीं कर पाया। 37 शिखर सम्मेलनों के बावजूद केवल 18 बैठकें हुई हैं। यह क्षेत्रीय व्यापार को बाधित करता है।
- चीन का प्रभाव और क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा: चीन ने दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में अपनी उपस्थिति बढ़ाई है, जिससे भारत के लिए चुनौती उत्पन्न हुई है। इसके विपरीत, भारत ने आरसीईपी जैसे संगठनों से दूरी बनाते हुए आसियान, यूरोपीय संघ, जी-20, और अन्य वैश्विक साझेदारों के साथ संबंध मजबूत किए हैं।
- क्षेत्रीय संगठन और उप-क्षेत्रीय समूह: बीबीआईएन और बिम्सटेक जैसे क्षेत्रीय संगठनों का महत्व बढ़ रहा है। हालांकि, इन संगठनों की प्रभावशीलता पर सवाल खड़े होते हैं क्योंकि कई समूह केवल कागजों पर ही सक्रिय हैं।
- पड़ोसियों के साथ कमजोर संबंध: आसियान और अफ्रीकी देशों के साथ भारत के संबंध बेहतर हुए हैं, लेकिन यह पड़ोसियों के साथ व्यापारिक संबंधों को मजबूत करने की कीमत पर नहीं होना चाहिए।
- वैश्विक समर्थन: भारत के आर्थिक सुधारों को विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों का समर्थन मिला है। विभिन्न देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर ने भी व्यापार के नए अवसर पैदा किए हैं।
पर्यावरण के क्षेत्र में वार्तालाप
1. जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग
- मुख्य वैश्विक चिंता: जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख कारक बन गए हैं। बढ़ते तापमान, अनियमित मानसून, बार-बार बाढ़, और गिरते जल स्तर वैश्विक चिंता के विषय हैं।
- प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग: उर्वरकों और गहरे बोरवेल के अत्यधिक उपयोग से पर्यावरण की स्थिति और भी गंभीर हो रही है।
2. भारत की भूमिका और पहल
- अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं में भागीदारी: शीत युद्ध के बाद, भारत ने 1992 के रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन से पहले ही जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) में प्रमुख वार्ताकार के रूप में भूमिका निभाई।
- विभेदित जिम्मेदारियाँ: भारत ने उच्च प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन को ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार ठहराया और विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग-अलग जिम्मेदारियों की मांग की।
3. प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भागीदारी
- रामसर सम्मेलन (1971): आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिए, जिसमें भारत 1975 में शामिल हुआ।
- स्टॉकहोम सम्मेलन (2001): लगातार कार्बनिक प्रदूषकों की रोकथाम पर, भारत ने 2004 में अपनाया।
4. रियो शिखर सम्मेलन और उसके परिणाम
- रियो शिखर सम्मेलन (1992): पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCED) में, जलवायु परिवर्तन पर UNFCCC को अपनाया गया।
- मुख्य दस्तावेज: जैव विविधता पर सम्मेलन, मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए सम्मेलन, और एजेंडा-21, जो सतत विकास पर एक वैश्विक कार्य योजना है।
5. क्योटो प्रोटोकॉल और बाद की वार्ताएँ
- क्योटो प्रोटोकॉल (1997): कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि, जिसमें कार्बन उत्सर्जन को समयबद्ध तरीके से कम करने का निर्णय लिया गया।
- भारत की भूमिका: 72 हरित देशों के सहयोग से उत्सर्जन कटौती पर जोर दिया और स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) पर आधारित परियोजनाओं में भाग लिया।
6. पेरिस समझौता (2015) और भारत की प्रतिबद्धताएँ
- उत्सर्जन कटौती का वादा: भारत ने 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को 33-35% तक कम करने का लक्ष्य रखा।
- नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन: 2030 तक 450 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य।
- वर्तमान प्रगति: भारत ने अपने उत्सर्जन में 21% की कमी हासिल करने का दावा किया है।
7. राष्ट्रीय पहलें और कार्यक्रम
- स्वच्छ भारत अभियान (2014): देश को स्वच्छ और खुले में शौच मुक्त बनाने की पहल, साथ ही एकल उपयोग वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध का लक्ष्य।
- उज्ज्वला योजना: गरीब महिलाओं को मुफ्त एलपीजी कनेक्शन प्रदान करके धुएँ से मुक्त जीवन सुनिश्चित करना।
- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA): फ्रांस के सहयोग से स्थापित, सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए, जिसका मुख्यालय गुरुग्राम, हरियाणा में है।
8. COP-26 सम्मेलन और भविष्य की योजनाएँ
- नई प्रतिबद्धताएँ: ग्लासगो में आयोजित COP-26 में, भारत ने 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने का लक्ष्य रखा।
- उद्देश्य:
1. 2030 तक जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को 50% तक कम करना।
2. सौर ऊर्जा उत्पादन को 450 गीगावाट तक बढ़ाना।
3. कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 30% तक कटौती।
- अन्य पहलें: वन क्षेत्र का विस्तार, इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन, और पुराने पेट्रोल एवं डीजल वाहनों के स्थान पर वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करना।
9. चुनौतियाँ और निष्कर्ष
- विकसित देशों की प्रतिबद्धता: वित्तीय और तकनीकी सहायता के वादों को पूर्ण रूप से नहीं निभाया गया है।
- जन जागरूकता: पर्यावरणीय मुद्दों पर जागरूकता बढ़ रही है, विशेषकर युवा पीढ़ी के बीच।
- भारत का प्रयास: राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के लिए सक्रिय भूमिका निभा रहा है, जिससे सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।
भारत की सुरक्षा रणनीति
1. सुरक्षा का महत्त्व
- आंतरिक और बाहरी सुरक्षा किसी भी देश के प्राथमिक राष्ट्रीय हितों में शामिल है। बाहरी सुरक्षा में क्षेत्रीय अखंडता और नागरिकों को बाहरी खतरों से बचाना प्रमुख है, जबकि आंतरिक सुरक्षा में गरीबी उन्मूलन, चरमपंथी हिंसा, सांप्रदायिकता, और नक्सलवाद से निपटना शामिल है।
2. बाहरी सुरक्षा चुनौतियाँ
- सीमाई विवाद: भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन के बीच लंबे समय से सीमा विवाद जारी है। जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में तनाव बना हुआ है।
- आतंकवाद: 1990 के बाद से आतंकवाद ने भारत की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
- समुद्री खतरें: भारतीय समुद्री क्षेत्र मादक पदार्थों की तस्करी और चीन की बढ़ती गतिविधियों से प्रभावित है।
3. आंतरिक सुरक्षा चुनौतियाँ
- नक्सलवाद: झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में नक्सलवादी गतिविधियाँ शांति के लिए चुनौती बनी हुई हैं।
- सांप्रदायिकता: 1984 सिख दंगे, 1992 बाबरी मस्जिद विध्वंस, 2002 गोधरा कांड, और हाल के सांप्रदायिक तनाव देश की अखंडता को प्रभावित करते हैं।
- जातिगत और सामाजिक असुरक्षा: जातिगत हिंसा, महिलाओं और बच्चों का उत्पीड़न, और असमान विकास बड़ी चुनौतियाँ हैं।
4. परमाणु शक्ति और रक्षा रणनीति
- परमाणु परीक्षण: 1974 और 1998 में पोखरण परीक्षणों के बाद भारत ने परमाणु शक्ति के रूप में अपनी स्थिति मजबूत की।
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM): भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई, जिससे वैश्विक मंच पर संतुलन बनाए रखा।
- अंतरराष्ट्रीय संबंध: भारत-अमेरिका परमाणु समझौता और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के साथ सहयोग ने भारत को उन्नत रक्षा क्षमताओं के लिए सक्षम बनाया।
5. सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा
- औद्योगिक विकास और विस्थापन: औद्योगीकरण के नाम पर भूमि विस्थापन ने असंतोष बढ़ाया, जैसे सिंगूर और नर्मदा बचाओ आंदोलन।
- सतत विकास: सरकार का उद्देश्य तेजी से औद्योगीकरण और पर्यावरणीय संतुलन के बीच संतुलन बनाना है।
6. अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय संबंध
- चीन और पाकिस्तान से चुनौतियाँ: चीन की हिंद महासागर में बढ़ती गतिविधियाँ और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद भारत के लिए बड़ी समस्याएँ हैं।
- साझेदारी और सहयोग: भारत ने अमेरिका, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, और अन्य देशों के साथ साझेदारी बढ़ाई है।
7. सुरक्षा में प्रगति के कदम
- आत्मनिर्भरता: भारत का 'मेक इन इंडिया' और स्टार्ट-अप पहल देश को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास कर रही है।
- तकनीकी प्रगति: साइबर सुरक्षा और कुशल तकनीकी जनशक्ति के विकास पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
भारत एक वैश्विक शक्ति के रूप में : संभावनाएँ और चुनौतियाँ
भारत की विदेश नीति स्वतंत्रता संग्राम से अर्जित सिद्धांतों और आधुनिक आवश्यकताओं के तालमेल का परिणाम है। यह नीति भौगोलिक अखंडता, स्वायत्तता, और वैश्विक शांति व सहयोग को बढ़ावा देने के लिए संप्रभुता के सिद्धांतों पर आधारित है। औपनिवेशिक शासन के प्रभाव और स्वतंत्रता संग्राम के अनुभव ने इसे आकार दिया। आज भी यह नीति ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अद्वितीय बनी हुई है और वैश्विक चुनौतियों का प्रभावी सामना करती है।
उत्तर औपनिवेशिक राज्य
उत्तर औपनिवेशिक राज्य का अध्ययन उपनिवेशवाद के प्रभावों और उसके बाद की वैश्विक संरचना को समझने का प्रयास है। यह उपनिवेशवाद के दौरान स्थापित राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक व्यवस्थाओं के विघटन और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को दर्शाता है।
1. उत्तर औपनिवेशिक अवधारणा
- उत्तर औपनिवेशिक राज्य वह संरचना है, जो औपनिवेशिक युग के अंत के बाद विकसित हुई।
- यह अध्ययन औपनिवेशिक शासन की क्रूरता, गुलामी, और स्वदेशी परंपराओं के विघटन के परिणामस्वरूप उभरती वैश्विक प्रणाली को समझने पर केंद्रित है।
2. औपनिवेशिक काल के प्रभाव
- गुलामी और सांस्कृतिक विघटन: उपनिवेशवादियों ने स्वदेशी परंपराओं को कमजोर कर अपनी मूल्य प्रणाली थोपी।
- विकास का दावा: "गोरे आदमी का बोझ" जैसी विचारधाराओं के माध्यम से उपनिवेशवाद को वैध ठहराने का प्रयास किया गया।
- वैश्विक ढाँचे का उदय: उपनिवेशवाद ने आधुनिकता और वैश्विक राजनीतिक ढाँचे को स्थापित करने में भूमिका निभाई।
3. उत्तर औपनिवेशिक अध्ययन
- ज्ञान की पुनर्परीक्षा: औपनिवेशिक शासन द्वारा प्रचारित तथाकथित "सत्य" को चुनौती देना।
- संस्कृति और पहचान: पश्चिमी प्रभुत्व ने शेष दुनिया को "बर्बर" और "असंगठित" के रूप में प्रस्तुत किया।
- सईद का ओरिएंटलिज्म: एडवर्ड सईद ने "ओरिएंट" और "ऑक्सिडेंट" के बीच मानव-निर्मित अंतर को उजागर किया।
4. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रभाव
- वैश्विक न्याय पर सवाल: उत्तर औपनिवेशिक अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और नैतिक मूल्यों की पुनर्व्याख्या करता है।
- पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती: एशिया, अफ्रीका, और लैटिन अमेरिका के राष्ट्रों ने पश्चिमी प्रभुत्व को खारिज करते हुए अपनी पहचान बनाई।
5. उत्तर औपनिवेशिक विदेश नीति
- नैतिकता और समता: भारत जैसे उत्तर औपनिवेशिक राज्यों ने समतामूलक और नैतिक विदेश नीति को अपनाया।
- पश्चिमी प्रभुत्व का प्रतिरोध: विकासशील देशों की विदेश नीति पश्चिमी ताकतों के वर्चस्व को चुनौती देती है।
भारत की विदेश नीति के सिद्धांत एवं निर्धारक तत्त्व
भारत की विदेश नीति के सिद्धांत और निर्धारक तत्त्व उसकी ऐतिहासिक विरासत, सांस्कृतिक मूल्यों, और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विकसित विचारधाराओं में निहित हैं।
1. विदेश नीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
- 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत ने अपनी विदेश नीति को उन मूल्यों और विचारधाराओं पर आधारित किया, जो लंबे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विकसित हुईं।
- राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव: यह आंदोलन भारत को एक राष्ट्र के रूप में एकजुट करने के साथ-साथ विदेश नीति को दिशा देने में सहायक रहा।
- उत्तर औपनिवेशिक विशेषताएँ: औपनिवेशिक शासन ने संसदीय लोकतंत्र, आधुनिक न्यायपालिका, और शिक्षा प्रणाली के माध्यम से भारत की विदेश नीति पर अपना प्रभाव छोड़ा।
2.भारतीय विदेश नीति के सिद्धांत
वसुधैव कुटुम्बकम् और अद्वैत का प्रभाव
- वसुधैव कुटुम्बकम्: भारत ने हमेशा विश्व को एक परिवार के रूप में देखा, जिसमें शांति और सहयोग का भाव हो।
- अद्वैत दर्शन: यह मान्यता है कि विश्व एक ही राजनीतिक इकाई के रूप में जुड़ा हुआ है, जो भेदभाव और अन्याय को नकारती है।
पंचशील के सिद्धांत
- भारत ने पंचशील या पंचसूत्र को अपनाया, जिसमें पाँच प्रमुख सिद्धांत शामिल हैं:
- एक-दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान।
- परस्पर अनाक्रमण।
- आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
- समान और परस्पर लाभकारी संबंध।
- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व।
सत्य और अहिंसा का प्रभाव
- गाँधीवादी सिद्धांत: सत्य और अहिंसा ने भारत की विदेश नीति को शक्ति आधारित राजनीति से दूर रखा और इसे शांति और सहयोग की ओर प्रेरित किया।
धर्मयुद्ध की अवधारणा
- सैन्य शक्ति का समावेश: भारत ने अपनी विदेश नीति में धर्मयुद्ध की अवधारणा अपनाई, जिसका उद्देश्य ब्रह्मांडीय सद्भाव बनाए रखना और न्याय की स्थापना करना है। भारत सैन्य ताकत का उपयोग केवल अपनी सुरक्षा के लिए करता है, न कि किसी आक्रमण के लिए।
3. विदेश नीति के निर्धारक तत्त्व
- ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मूल्य: भारत की विदेश नीति की जड़ें उसके प्राचीन दर्शन, परंपराओं और नैतिकता में हैं, जो इसे नैतिक और समतामूलक दृष्टिकोण अपनाने में सक्षम बनाती हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय दबावों का प्रभाव: भारत ने अपनी नीति को वैश्विक दबावों से मुक्त रखते हुए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के मार्ग को अपनाया है।
- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व: भारत ने विश्व शांति को बढ़ावा देने के लिए शांति और सहयोग का मार्ग चुना अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर नैतिक मूल्यों को प्रमुखता दी।
- राष्ट्रीय सुरक्षा और सैन्य शक्ति: भारत ने अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सैन्य शक्ति को विदेश नीति का हिस्सा बनाया। पड़ोसी देशों से सैन्य घुसपैठ ने भारत को अपनी नीति में बदलाव करने के लिए प्रेरित किया।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन
गुटनिरपेक्ष आंदोलन भारत की एक अनोखी और प्रभावी विदेश नीति का परिणाम है। यह आंदोलन उत्तर औपनिवेशिक राज्यों और नए स्वतंत्र देशों को वैश्विक राजनीतिक ध्रुवीकरण से बचाने में सहायक सिद्ध हुआ।
1. गुटनिरपेक्ष आंदोलन का उदय
शीत युद्ध की पृष्ठभूमि