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भारत की विदेश नीति UNIT 2 SEMESTER 2 THEORY NOTES शीत युद्ध से लेकर शीत युद्ध के बाद के युग तक वैश्विक शक्तियों के साथ बदलते संबंध 1.भारत और अमेरिका भारत और रूस 2.भारत और चीन 3.भारत और यूरोपीयन यूनियन DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत की विदेश नीति  UNIT 2 SEMESTER 2 THEORY NOTES शीत युद्ध से लेकर शीत युद्ध के बाद के युग तक वैश्विक शक्तियों के साथ बदलते संबंध 1.भारत और अमेरिका भारत और रूस 2.भारत और चीन 3.भारत और यूरोपीयन यूनियन DU. SOL.DU NEP COURSES


 भारत और अमेरिका भारत और रूस 


परिचय

अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में वैश्वीकरण के चलते राज्यों के बीच जटिल अंतर्निर्भरता बढ़ी है। प्राचीन काल से आर्थिक संबंधों को प्राथमिकता दी जाती रही है। यह अध्याय भारत-अमेरिका और भारत-रूस के व्यापक रणनीतिक संबंधों का विश्लेषण करता है, जो दोनों महाशक्तियों के साथ भारत की कूटनीति और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।

 भारत-अमेरिका संबंध 

भारत और अमेरिका विश्व के दो बड़े लोकतांत्रिक देश हैं। भारतीय स्वतंत्रता के बाद प्रारंभिक वर्षों में इनके संबंध मधुर नहीं थे, जिसका मुख्य कारण शीत युद्ध की अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियाँ थीं। भारत ने गुटनिरपेक्षता अपनाई, जबकि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच वैचारिक संघर्ष जारी था। भारत-अमेरिका संबंध तीन चरणों में विकसित हुए: शीत युद्ध के दौरान, शीत युद्ध की समाप्ति के बाद, और चीन के उभरने के बाद।

1. शीत युद्ध के दौर में संबंध

भारत ने गुटनिरपेक्षता और सामरिक स्वायत्तता पर जोर दिया, SEATO और CENTO से दूरी बनाए रखी। पाकिस्तान अमेरिका का करीबी सहयोगी बन गया, जिससे भारत-अमेरिका संबंधों में खटास आई। प्रमुख मुद्दे:

  • हंगरी और चेकोस्लोवाकिया संकट।
  • कश्मीर पर अमेरिका का पाकिस्तान समर्थक रुख।
  • परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर भारत का विरोध।

2. कश्मीर मुद्दा और शीत युद्ध की समाप्ति

  • कश्मीर पर अमेरिका ने 1971 तक पाकिस्तान का पक्ष लिया। शिमला समझौते के बाद भारत की स्थिति का समर्थन किया। सोवियत संघ के विघटन और भारत की मुक्त अर्थव्यवस्था ने संबंध सुधार में मदद की। 1999 के कारगिल युद्ध में अमेरिका ने भारत का समर्थन किया।

3. पाकिस्तान, भारत और अमेरिका के मिश्रित संबंध

  • शीत युद्ध में पाकिस्तान को अमेरिकी सैन्य सहायता ने भारत-अमेरिका संबंधों में रुकावट डाली। 1974 के परमाणु परीक्षण पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए, लेकिन PL480 और विश्व बैंक से सहायता जारी रखी।

4. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद संबंध

  • सोवियत संघ के विघटन और भारत के आर्थिक सुधारों से दोनों देशों के बीच व्यापार और रक्षा सहयोग बढ़ा। 1990 के दशक में नरसिम्हा राव और बिल क्लिंटन ने द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया।

5. 11 सितंबर के बाद संबंध

  • 9/11 के हमले के बाद आतंकवाद के खिलाफ भारत ने अमेरिका का समर्थन किया। पाकिस्तान को भी सहयोग दिया गया, लेकिन भारत और अमेरिका के व्यापार, सुरक्षा और कूटनीति में जुड़ाव गहरा हुआ।

6. उभरता हुआ भारत: अमेरिका के लिए रणनीतिक विकल्प

  • भारत की स्थिर अर्थव्यवस्था और सामरिक स्वायत्तता ने इसे अमेरिका के लिए महत्त्वपूर्ण साझेदार बनाया। 2018 में प्रधानमंत्री मोदी ने रूस और अमेरिका दोनों के साथ समान संबंधों पर जोर दिया। S-400 मिसाइल प्रणाली की खरीद और ईरान से तेल व्यापार स्वतंत्र विदेश नीति का उदाहरण हैं।

भारत और अमेरिका के बीच सामरिक स्वायत्तता की रूपरेखा

  • असैन्य परमाणु सहयोग: 2008 के असैन्य परमाणु सहयोग समझौते ने भारत-अमेरिका के संबंधों को नई ऊँचाई पर पहुँचाया। इस समझौते ने भारत के परमाणु अलगाव को समाप्त कर भारत को एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दी। यह सहयोग भारत को रूस, फ्रांस, दक्षिण कोरिया, और जापान जैसे देशों के साथ परमाणु समझौते करने में सहायक बना।
  • रक्षा सहयोग: 2005 में रक्षा सहयोग समझौते के तहत संयुक्त अभ्यास, हथियारों की आपूर्ति, और तकनीकी विकास पर बल दिया गया। 2007 में मालाबार नौसैनिक अभ्यास और QUAD की स्थापना रक्षा संबंधों का मुख्य भाग रहा। 2016 में भारत को "प्रमुख रक्षा भागीदार" का दर्जा मिला, जिससे उसे उन्नत रक्षा उपकरण उपलब्ध हुए। अमेरिका ने भारत को C130J विमान, अपाचे हेलीकॉप्टर, और अन्य उन्नत रक्षा उपकरण प्रदान किए।
  • इंडो-पैसिफिक स्ट्रेटेजिक थिएटर: हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत-अमेरिका की साझेदारी रणनीतिक और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। चीन के उदय और दक्षिण चीन सागर में विवाद के चलते यह क्षेत्र वैश्विक व्यापार और ऊर्जा आपूर्ति के लिए मुख्य केंद्र बन गया। अमेरिका ने इस क्षेत्र में अपनी भूमिका को मजबूत करते हुए "इंडो-पैसिफिक कमांड" का गठन किया। भारत और अमेरिका हिंद-प्रशांत में चीन के विस्तार को रोकने के लिए अपने सहयोग को सशक्त कर रहे हैं।


 भारत-रूस संबंध 

  • भारत-सोवियत संबंधों की ऐतिहासिक झलक: शीत युद्ध के दौरान भारत और सोवियत संघ के संबंध गहराई से जुड़े रहे। गुटनिरपेक्षता की नीति से आरंभिक असहजता के बावजूद सोवियत संघ ने भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था और कश्मीर मुद्दे पर समर्थन किया। 1971 में शांति, मित्रता और सहयोग की संधि के बाद रक्षा और रणनीतिक सहयोग बढ़ा। भारतीय सेना के लिए सोवियत संघ मुख्य हथियार आपूर्तिकर्ता था।
  • यूएसएसआर का पतन और विवाद: 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने पाकिस्तान और अन्य इस्लामी देशों से संबंध बनाए, जिससे भारत-रूस संबंध प्रभावित हुए। क्रायोजेनिक इंजन तकनीक और आर्थिक विवादों ने तनाव बढ़ाया। 1993 में कर्ज भुगतान समझौते के बाद आर्थिक विवाद सुलझाए गए।
  • नए युग की शुरुआत: 1996 में भारत-रूस रणनीतिक साझेदारी मजबूत हुई। रूस ने भारत के परमाणु कार्यक्रम का समर्थन किया और कुडनकुलम परमाणु संयंत्र में मदद की। कारगिल युद्ध के दौरान रूस ने भारत का पक्ष लिया।
  • रक्षा संबंध: रूस भारत का विश्वसनीय रक्षा साझेदार बना हुआ है, जिसकी 70% रक्षा आपूर्ति रूसी है। S-400 मिसाइल प्रणाली, कामोव हेलीकॉप्टर और अन्य समझौते भारत-रूस रक्षा साझेदारी को सशक्त करते हैं। “मेक इन इंडिया” के तहत कामोव हेलीकॉप्टर का उत्पादन भारत में हो रहा है।
  • असैन्य परमाणु संबंध: भारत-रूस असैन्य परमाणु सहयोग गहरा है। रूस भारत में 25 नए परमाणु संयंत्र बनाने की योजना पर काम कर रहा है और भारत के रणनीतिक यूरेनियम रिजर्व में प्रमुख योगदानकर्ता है।
  • आर्थिक संबंध: भारत रूस को फार्मास्युटिकल उत्पादों का प्रमुख निर्यातक है। दोनों देशों ने बुनियादी ढांचा परियोजनाओं और व्यापार सहयोग को मजबूत करने पर जोर दिया।
  • वैश्विक साझेदारी: रूस ने ब्रिक्स और एससीओ में भारत की सदस्यता का समर्थन किया। यूरेशियन क्षेत्र में निवेश और परिवहन सहयोग को बढ़ावा दिया।
  • वर्तमान चुनौतियाँ और अवसर: रूस के चीन और पाकिस्तान के साथ बढ़ते संबंध भारत के लिए चिंता का विषय हैं। रूस का OBOR का समर्थन भारत की सुरक्षा के लिए चुनौती है। इसके बावजूद, रूस भारत को एक स्थिर और मजबूत साझेदार मानता है, जो चीन की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने में सहायक हो सकता है।



 भारत और चीन 

भारत और चीन केवल समाज नहीं, बल्कि प्राचीन सभ्यताएँ हैं। इनके बीच सांस्कृतिक संवाद और परस्पर विकास का इतिहास हज़ारों वर्षों पुराना है। बौद्ध धर्म के प्रसार से पहले भी, वैदिक और शांगझोऊ सभ्यता के बीच भाषाई आदान-प्रदान के प्रमाण मिलते हैं। भारतीय साहित्य में 'चीन' का उल्लेख और संस्कृत शब्दों का चीनी भाषा में उपयोग इसकी पुष्टि करते हैं।

भारत-चीन संबंध : इतिहास, चुनौतियाँ, और द्विपक्षीय संबंधों की जटिलताएँ

1. इतिहास और पृष्ठभूमि

  • औपनिवेशिक संवाद: गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की चीन यात्रा और डॉ. कोटनिस का योगदान भारत-चीन के सांस्कृतिक संबंधों के महत्वपूर्ण पहलू रहे।
  • स्वतंत्रता के बाद: 1950 के दशक में 'भारत-चीन सहयोग' के तहत पंचशील समझौता हुआ, जिसमें शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांत अपनाए गए।
  • द्विपक्षीय संबंधों की जटिलता: सीमा विवाद और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा ने दोनों देशों के संबंधों में खटास पैदा की। बीजिंग सीमा को स्पष्ट करने को तैयार नहीं, जिससे दोनों देशों में शंका बनी रहती है।

2. भारत-चीन संबंधों का वैचारिक दृष्टिकोण

  • यथार्थवादी दृष्टिकोण: भारत-चीन संबंधों में सीमितता और परस्पर शंका का भाव है। एशिया में वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा प्रमुख मुद्दा है।
  • उदारवादी दृष्टिकोण: आर्थिक संबंधों के माध्यम से बेहतर सहयोग और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर बल।
  • सभ्यतागत दृष्टिकोण: इतिहास और सांस्कृतिक समानताओं को आधार बनाकर संपर्क और सहयोग को बढ़ावा।

3.मुख्य विवाद और घटनाएँ

सीमा विवाद और 1962 का युद्ध

  • सीमा विवाद के चलते 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ, जिससे द्विपक्षीय संबंधों में विराम लगा।
  • चीन ने अरुणाचल प्रदेश को 'दक्षिण तिब्बत' बताते हुए उस पर दावा किया।
  • दोकलाम और गलवान जैसी घटनाओं ने सीमा विवाद को और बढ़ावा दिया।

तिब्बत मुद्दा

  • 1959 में दलाई लामा ने भारत में शरण ली, जिससे तिब्बत का विवाद गहराया।
  • चीन तिब्बती संस्कृति को दबाने और तिब्बत का 'चीनीकरण' करने में जुटा है।
  • भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना है, लेकिन दलाई लामा को शरण देने के कारण चीन के साथ तनाव बना रहता है।

डोकलाम और गलवान जैसी घटनाएँ

  • 2020 में गलवान घाटी में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हिंसक झड़प ने आपसी संबंधों को और जटिल बना दिया। इससे पहले डोकलाम विवाद (2017) ने भी सीमा विवाद को बढ़ावा दिया।

4.भारत-चीन आर्थिक और व्यावसायिक संबंध

  • द्विपक्षीय व्यापार और संरचनात्मक समस्याएँ: भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंधों में लंबे समय से कई मुद्दे बने हुए हैं। 'ट्रेड डेफिसिट' भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता है, क्योंकि सस्ते चीनी उत्पादों के निर्यात ने भारतीय लघु उद्योगों और घरेलू विनिर्माताओं को नुकसान पहुँचाया है। हालाँकि, प्रधानमंत्री मोदी के 'आत्मनिर्भर भारत अभियान' के तहत भारत का व्यापार घाटा 2018-19 में 53.57 अरब डॉलर से घटकर 2020-21 में 44.02 अरब डॉलर हो गया। भारतीय वाणिज्य मंत्रालय ने 12 क्षेत्रों की पहचान की है, जहाँ भारत वैश्विक आपूर्तिकर्ता बन सकता है।
  • चीन की आर्थिक विकास रणनीति और असमानता: चीन ने 1978 में आर्थिक सुधार शुरू किया, जबकि भारत ने 1990 के दशक के अंत में उदारीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया। इससे चीन की जीडीपी विकास दर भारत से तेज रही। चीन के 'राज्य पूँजीवाद मॉडल' ने इस अंतर को और बढ़ा दिया, जिससे दोनों देशों के बीच आर्थिक विषमता पैदा हुई।
  • 'मेक इन इंडिया' और विकासात्मक साझेदारी: 'मेक इन इंडिया' के तहत भारत ने चीनी कंपनियों को निवेश और कौशल विकास में सहयोग के लिए आमंत्रित किया। रेलवे, औद्योगिक पार्क, और ढाँचागत विकास में चीन के साथ साझेदारी की पहल की गई। हालाँकि, उच्च 'ट्रेड डेफिसिट' को हल करना अभी भी एक चुनौती है।

5.वन बेल्ट वन रोड (OBOR) और भू-राजनीतिक प्रभाव

  • चीन की महत्वाकांक्षी OBOR परियोजना भारत के लिए रणनीतिक चुनौती है। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, और नेपाल में चीनी निवेश ने क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ा दिया है। चीन की 'डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी' के कारण कई देश आर्थिक संकट में फँसे हैं। चीन की इस योजना को भारत अपनी संप्रभुता और सुरक्षा के लिए खतरा मानता है, विशेषकर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के संदर्भ में।

6.कोरोना संकट और वैश्विक चुनौतियाँ

  • चीन में कोरोना महामारी के प्रकोप ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया। चीन की आपूर्ति श्रृंखला पर निर्भर कंपनियों को चुनौती का सामना करना पड़ा। महामारी से निपटने में चीन की देरी और पारदर्शिता की कमी ने उसकी वैश्विक छवि को नुकसान पहुँचाया।

7.भविष्य की दिशा

भारत और चीन को द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों को पुनर्जीवित करने के लिए सहयोग और संवाद पर जोर देना होगा।

  • आर्थिक सहयोग: भारत-चीन रणनीतिक आर्थिक संवाद के तहत पर्यावरण, सौर ऊर्जा, और हाई स्पीड रेलवे जैसे क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाना आवश्यक है।
  • व्यापार संतुलन: चीन को भारतीय फार्मास्यूटिकल्स और आईटी क्षेत्रों में अधिक जगह देकर व्यापार घाटे की चिंताओं को दूर करना चाहिए।
  • सांस्कृतिक और सामाजिक संवाद: नागरिक समाज संवाद, सहज वीजा नियम, और सांस्कृतिक सहयोग बढ़ाने से आपसी विश्वास को बढ़ावा मिलेगा।




 भारत और यूरोपीयन यूनियन 


परिचय

भारत तेजी से उभरते बहुध्रुवीय विश्व में एक प्रमुख भूमिका निभा रहा है। अपनी मध्य शक्ति और उभरती महाशक्ति की मानसिकता के साथ, भारत बहुध्रुवीय विश्व में अवसरों और चुनौतियों दोनों का सामना कर रहा है। भारत शंघाई सहयोग संगठन (SCO), एशियाई संरचना निवेश बैंक (AIIB), और ब्रिक्स जैसे समूहों का हिस्सा बनकर क्षेत्रीय और वैश्विक मंचों पर अपनी उपस्थिति मजबूत कर रहा है। साथ ही, यूरोपीय संघ और अन्य अंतरराष्ट्रीय साझेदारों के साथ सहयोग के जरिए भारत अपनी रणनीतिक दृष्टि को साकार कर रहा है। उभरती वैश्विक व्यवस्था में, भारत एक संतुलित, प्रभावशाली और बहुपक्षीय दृष्टिकोण के साथ अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

 बहुध्रुवीयता 

बहुध्रुवीयता एक व्यवस्था है जिसमें शक्ति कई देशों, संस्थाओं और संगठनों में वितरित होती है, न कि एक या दो देशों तक सीमित। यह शीत युद्ध की द्विध्रुवीयता के विपरीत है, जहाँ अमेरिका और सोवियत संघ प्रमुख थे। आज, नई वैश्विक शक्तियाँ उभरकर नीतियों और शासन को प्रभावित कर रही हैं।

  • विशेषताएँ: बहुध्रुवीयता में शक्ति कई देशों और संस्थाओं में वितरित होती है। इसमें क्षेत्रीय शक्तियों की भूमिका बढ़ती है, अन्योन्याश्रयता के जटिल संबंध बनते हैं, और वैश्विक, क्षेत्रीय व स्थानीय स्तर पर गवर्नेंस की परतें होती हैं।
  • महत्त्व: बहुध्रुवीयता में कोई एकल शक्ति हावी नहीं होती, जिससे संतुलन और साझेदारी के अवसर बढ़ते हैं। यह वैश्विक संगठनों जैसे यूरोपीय संघ, ब्रिक्स, और एस.सी.ओ. के लिए नई संभावनाएँ और चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है।

यूरोपीय संघ (EU)

यूरोपीय संघ, एक राजनीतिक और आर्थिक संघ है, जो मुख्य रूप से यूरोप में स्थित 28 सदस्य देशों का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी शुरुआत 1950 में यूरोपीय कोयला और इस्पात समुदाय के रूप में हुई थी, जिसे 1957 में रोम की संधि के तहत यूरोपीय आर्थिक समुदाय (EEC) के रूप में विस्तार मिला। 1993 में मास्ट्रिच सम्मेलन के बाद इसका नाम बदलकर यूरोपीय संघ (EU) किया गया।

प्रमुख संस्थाएँ

  • यूरोपीय आयोग, यूरोपीय संसद, न्यायालय, केंद्रीय बैंक और अन्य संस्थाएँ मिलकर EU की कार्यप्रणाली का संचालन करती हैं।

लक्ष्य

  • शांति, मूल्यों और नागरिक कल्याण को बढ़ावा देना।
  • आंतरिक सीमाओं के बिना स्वतंत्रता, सुरक्षा और न्याय प्रदान करना।
  • सतत विकास, रोजगार, सामाजिक प्रगति और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देना।
  • वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति को बढ़ाना।
  • सामाजिक असमानता और सीमांकन का उन्मूलन।
  • यूरोपीय संघ की समृद्ध सांस्कृतिक और भाषाई विविधता का सम्मान करना।
  • यूरो आधारित आर्थिक और वित्तीय संघ का निर्माण।


 भारत-यूरोपीय संघ संबंध 

भारत और यूरोपीय संघ (EU) के बीच संबंधों की शुरुआत 1960 के दशक में हुई। भारत 1962 में यूरोपीय आर्थिक समुदाय (EEC) के साथ संबंध स्थापित करने वाले शुरुआती देशों में से एक था। 2004 में, इन संबंधों को रणनीतिक साझेदारी में अपग्रेड किया गया।

1. संबंधों की विशेषताएँ

  • राजनीतिक और आर्थिक सहयोग: भारत और EU शांति, सतत विकास, रोजगार सृजन, और वैश्विक स्थिरता के लिए साझेदारी कर रहे हैं।
  • रणनीतिक सहयोग: दोनों पक्ष डिजिटल कनेक्टिविटी, साइबर सुरक्षा, और डेटा संरक्षण जैसे क्षेत्रों में मिलकर काम कर रहे हैं।
  • शिखर सम्मेलन: 2000 से अब तक 14 शिखर सम्मेलनों के माध्यम से संबंध मजबूत हुए हैं।
  • व्यापार और निवेश: व्यापारिक साझेदारी और निवेश पहल भारत और EU के आर्थिक सहयोग को गहरा कर रही है।

2. भविष्य की संभावनाएँ

  • भारत और यूरोपीय संघ बहुध्रुवीय विश्व में एक स्थिर और नियम-आधारित वैश्विक व्यवस्था बनाने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं। कनेक्टिविटी साझेदारी, सतत विकास, और वैश्विक चुनौतियों का समाधान उनके सहयोग को और सुदृढ़ बनाएगा।


 भारत के लिए यूरोपीय संघ का महत्त्व 

यूरोपीय संघ (EU) भारत के लिए एक प्रमुख व्यापारिक और रणनीतिक भागीदार है। भारत, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में, यूरोपीय संघ के लिए राजनीतिक और आर्थिक रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

1.आर्थिक संबंध

  • व्यापार भागीदारी: यूरोपीय संघ भारत का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है।2020 में भारत और EU का माल व्यापार €62.8 बिलियन था।भारत से निर्यात के लिए यूरोपीय संघ दूसरा सबसे बड़ा गंतव्य है।
  • मुक्त व्यापार समझौता (FTA): भारत-EU व्यापार को बढ़ावा देने के लिए FTA सहयोग को और मजबूत कर सकता है।
  • कृषि और आयात-निर्यात: भारत मसालों और कीमती पत्थरों जैसे उत्पादों का निर्यात करता है। EU से जैतून का तेल, चॉकलेट, और अन्य कृषि उत्पाद आयात करता है।

2. रणनीतिक महत्त्व

  • भू-राजनीतिक सहयोग: EU ने भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए "भू-राजनीतिक मुख्य आधार" माना है।समुद्री सुरक्षा, समुद्री डकैती का मुकाबला, और अंतरराष्ट्रीय संकट प्रबंधन में भारत प्रमुख भागीदार है।
  • सुरक्षा और स्थिरता: EU के साथ मानवाधिकार, जलवायु परिवर्तन, और शांति व सुरक्षा पर संवाद भारत के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

3. ऊर्जा और जलवायु सहयोग

  • ग्रीन डील और स्वच्छ ऊर्जा: EU की ग्रीन डील भारत के साथ स्वच्छ ऊर्जा में निवेश और नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा दे सकती है।
  • 2050 तक कार्बन-तटस्थता: भारत और EU मिलकर ऊर्जा परिवर्तन में सहयोग कर सकते हैं।


 यूरोपीय संघ-भारत शिखर सम्मेलन 

भारत और यूरोपीय संघ (EU) के बीच शिखर सम्मेलन आपसी संबंधों को मजबूत करने और वैश्विक मुद्दों पर सहयोग बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण मंच रहे हैं।

1.प्रमुख शिखर सम्मेलन और घटनाएँ

  • पहला शिखर सम्मेलन (2000, लिस्बन): भारत-EU संबंधों का पहला प्रमुख मंच लिस्बन में 2000 में आयोजित हुआ, जिसने द्विपक्षीय सहयोग के नए आयाम खोले। यह बैठक भारत और यूरोपीय संघ के बीच राजनीतिक और आर्थिक साझेदारी को मजबूती प्रदान करने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हुई।
  • 12वाँ शिखर सम्मेलन (भारत): भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और EU नेतृत्व ने 12वें शिखर सम्मेलन के दौरान व्यापार, निवेश, सुरक्षा, और ऊर्जा के क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ाने के उद्देश्य से महत्वपूर्ण समझौते किए। अनुसंधान और नवाचार के क्षेत्रों में भी साझेदारी को मजबूती देने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। यह बैठक द्विपक्षीय संबंधों की व्यापक समीक्षा का अवसर बनी।
  • 13वाँ शिखर सम्मेलन (2013, ब्रसेल्स): 2013 में ब्रसेल्स में आयोजित 13वें शिखर सम्मेलन में वैश्विक महामारी और बदलते वैश्विक ध्रुवीकरण के संदर्भ में बहुपक्षीय सहयोग को प्राथमिकता दी गई। इसमें नियम-आधारित व्यापार प्रणाली और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर गहन चर्चा की गई, जिससे सहयोग के नए रास्ते खुले।
  • 2020 और आगे: COVID-19 महामारी और अमेरिका-चीन तनाव के बीच भारत और EU ने बहुपक्षीय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता को रेखांकित किया। जलवायु परिवर्तन, स्वच्छ ऊर्जा, डिजिटल अर्थव्यवस्था, और साइबर सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में सहयोग को गहरा करने पर चर्चा हुई। 2023 में G20 की मेजबानी के संदर्भ में भारत-EU साझेदारी को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया।

2.सहयोग के प्रमुख क्षेत्र

  • व्यापार और निवेश: बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को बढ़ावा देना।
  • जलवायु और ऊर्जा: पेरिस समझौते के तहत स्वच्छ ऊर्जा और स्थायी विकास पर संयुक्त प्रयास।
  • डिजिटल और साइबर सुरक्षा: उभरती प्रौद्योगिकियों के विनियमन और डिजिटल अर्थव्यवस्था पर काम।
  • वैश्विक स्वास्थ्य: महामारी के बाद वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा में सुधार।

महत्त्व

  • भारत और EU, दोनों बड़े लोकतांत्रिक साझेदार, नियम-आधारित वैश्विक व्यवस्था को स्थिरता, सुरक्षा, और सतत विकास के साथ बनाए रखने में अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं। शिखर सम्मेलनों के माध्यम से ये संबंध लगातार मजबूत हो रहे हैं, जो बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था के निर्माण में योगदान करते हैं।


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