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भारत की विदेश नीति UNIT 1 SEMESTER 2 THEORY NOTES भारत की विदेश नीति : अर्थ, निर्धारक तत्त्व और मूल्यांकन DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत की विदेश नीति  UNIT 1 SEMESTER 2 THEORY NOTES भारत की विदेश नीति : अर्थ, निर्धारक तत्त्व और मूल्यांकन  DU. SOL.DU NEP COURSES



परिचय

इक्कीसवीं शताब्दी में विश्व अनिश्चितता, जटिलता और बहुआयामी चुनौतियों का सामना कर रहा है। शीत युद्ध के बाद द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था का अंत एक नए वैश्विक क्रम की मांग करता है। बदलते शक्ति संतुलन और उभरते बहुध्रुवीय विश्व ने राष्ट्रों को अपनी विदेश नीति पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित किया है।भारत की विदेश नीति इसकी सांस्कृतिक विरासत और सभ्यता पर आधारित है, जो इसे 'विश्व गुरु' के रूप में स्थापित करने की दिशा में प्रेरित करती है। यह नीति राष्ट्रीय हितों, सुरक्षा, भू-रणनीति, और आर्थिक विकास के व्यापक आयामों को समेटे हुए है। वैश्वीकरण, जलवायु परिवर्तन, और आतंकवाद जैसी चुनौतियों के बीच, विदेश नीति राष्ट्रों के आंतरिक और बाह्य हितों को संतुलित करने का माध्यम बनती है।


 विदेश नीति 

विदेश नीति किसी देश के राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने का साधन है। इसका निर्माण राष्ट्रीय हितों को केंद्र में रखकर किया जाता है, जो समकालीन समय में जटिल प्रक्रिया बन गई है।

  • चुनौतियाँ: वैश्वीकरण, बहुध्रुवीय विश्व का उभार, जलवायु परिवर्तन, और आतंकवाद जैसी चुनौतियाँ आधुनिक विश्व के सामने गंभीर समस्याएँ पैदा कर रही हैं, जो शांति, सुरक्षा और स्थिरता को प्रभावित कर रही हैं।
  • महत्त्व: विदेश नीति का अध्ययन राज्यों को आंतरिक और बाह्य स्तर पर आवश्यक बदलावों और चुनौतियों का सामना करने में सहायक होता है।
  • निर्माता: राज्य, सरकारें, और गैर-सरकारी संस्थान विदेश नीति निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं।


 भारत की विदेश नीति के घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय निर्धारक 

  • घरेलू निर्धारक: भारत की विदेश नीति पर राष्ट्रीय चरित्र, राजनीतिक परंपराएं, भौगोलिक स्थिति, आर्थिक विकास, और सैन्य शक्ति जैसे घरेलू तत्व गहरा प्रभाव डालते हैं। इसमें सांस्कृतिक और दार्शनिक विचारधारा, ऐतिहासिक विरासत, तथा संसदीय लोकतंत्र का स्वरूप भी अहम भूमिका निभाता है। नीति निर्माण मुख्य रूप से कार्यपालिका के अंतर्गत होता है, जिसमें प्रधानमंत्री और संबंधित मंत्रालय योगदान देते हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय निर्धारक: वैश्विक व्यवस्था में बदलाव, द्विध्रुवीय से बहुध्रुवीय स्वरूप, शक्ति संतुलन, और क्षेत्रीय संगठनों का प्रभाव भारत की विदेश नीति को दिशा देते हैं। अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा, वैश्वीकरण, तथा कूटनीतिक संबंध भारत की नीतियों को चुनौतीपूर्ण बनाते हैं।
  • 21वीं सदी की चुनौतियां: बढ़ती अंतर-निर्भरता, वैश्विक आर्थिक असमानता, जलवायु परिवर्तन, और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत की भागीदारी विदेश नीति को अधिक जटिल बनाते हैं।
  • विदेश नीति का उद्देश्य: भारत की विदेश नीति लोकतांत्रिक और आध्यात्मिक मूल्यों के साथ वैश्विक मंच पर मार्गदर्शन का प्रयास करती है। 'वसुधैव कुटुंबकम्' जैसे विचार इसे वैश्विक कूटनीति में विशिष्ट पहचान देते हैं।
  • समकालीन उदाहरण:

1. नेहरू काल में भारत-चीन मुद्दा

2. इंदिरा गांधी के काल में बांग्लादेश निर्माण (1971)

3. मनमोहन सिंह के काल में भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील

4. भारत की विदेश नीति घरेलू और बाह्य कारकों के संयोजन से निर्मित होती है, जो इसे एक जटिल और गतिशील प्रक्रिया बनाते हैं।    



 भारत की विदेश नीति: उद्देश्य, सिद्धांत और विकास 

उद्देश्य और सिद्धांत

विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रहित की रक्षा करना है। यह उद्देश्य ही विदेश नीति के निर्माण का आधार बनता है। सिद्धांत वे साधन हैं, जिनके माध्यम से इन उद्देश्यों को प्राप्त किया जाता है। भारत की विदेश नीति का मूल्यांकन ऐतिहासिक संदर्भ में इसके उद्देश्यों और सिद्धांतों के आधार पर किया जा सकता है।

भारत की विदेश नीति के विकास के चरण

1. पहला चरण (1947-1962)

  • भारत की विदेश नीति के विकास का पहला चरण (1947-1962) पंडित नेहरू के नेतृत्व में आदर्शवादी दृष्टिकोण पर आधारित था। 
  • इस चरण में भारत ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाई, जिसमें अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तटस्थता बनाए रखी गई। 
  • भारत ने उपनिवेशवाद का विरोध करते हुए एशियाई और अफ्रीकी देशों के साथ एकजुटता प्रदर्शित की। 
  • साथ ही, भारत ने संयुक्त राष्ट्र में सक्रिय भूमिका निभाई और वैश्विक स्तर पर शांति और विकास को प्राथमिकता दी।

2. दूसरा चरण (1962-1991) 

  • भारत-चीन युद्ध के बाद इस चरण में विदेश नीति व्यावहारिक दृष्टिकोण पर आधारित थी। रक्षा क्षेत्र में सैन्य आधुनिकीकरण पर जोर दिया गया। 
  • 1971 में इंडो-सोवियत संधि के तहत भारत ने सोवियत संघ के साथ मजबूत संबंध स्थापित किए। इसके अलावा, 1974 में किए गए परमाणु परीक्षण ने भारत की सैन्य शक्ति को बढ़ावा दिया।

3. तीसरा चरण (1991-2000) 

  • शीत युद्ध की समाप्ति के बाद, भारत की विदेश नीति आर्थिक यथार्थवाद की ओर अग्रसर हुई। इस अवधि में आर्थिक उदारीकरण के तहत वैश्वीकरण, निजीकरण, और आर्थिक सुधारों पर जोर दिया गया।
  • "लुक ईस्ट" नीति के तहत दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ संबंध मजबूत हुए। साथ ही, अमेरिका और चीन जैसे वैश्विक शक्तियों के साथ सहयोग बढ़ाने के प्रयास किए गए।

4. चौथा चरण (2000 के बाद) 

  • समकालीन विदेश नीति यथार्थवाद और रचनात्मकता का मिश्रण है। 
  • इस चरण में भारत ने अमेरिका के साथ आतंकवाद विरोधी सहयोग को बढ़ावा दिया और G20 जैसे मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। 
  • वैश्विक नेतृत्व की ओर कदम बढ़ाते हुए भारत ने अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था में अपनी भूमिका को मजबूत किया और एक सशक्त परमाणु शक्ति के रूप में उभरा।

गुट निरपेक्षता और उसका प्रभाव

  • शीत युद्ध के दौरान भारत ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाई, जिसका उद्देश्य अमेरिका और सोवियत संघ जैसे गुटों से दूर रहकर स्वतंत्र विदेश नीति बनाना था। 
  • इस नीति ने तृतीय विश्व के देशों को एकजुट करने और उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत को नेतृत्व प्रदान करने में मदद की। 
  • पंडित नेहरू की इस नीति ने भारत को स्वतंत्र निर्णय लेने और वैश्विक मंच पर अपनी आवाज बुलंद करने की क्षमता दी।

समकालीन विकास और चुनौतियां (2014 से अब तक)

  • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले। 
  • बदलती वैश्विक व्यवस्था में भारत ने अपना प्रभाव बढ़ाने पर जोर दिया, जिसमें रणनीतिक साझेदारियों का विस्तार और प्रमुख मंचों पर नेतृत्व शामिल था। 
  • घरेलू और अंतरराष्ट्रीय यथार्थों के बीच संतुलन बनाए रखते हुए, भारत ने आतंकवाद विरोधी अभियानों, व्यापार समझौतों और क्षेत्रीय सहयोग को प्राथमिकता दी। 
  • इस दौर में भारत ने अपनी वैश्विक भूमिका को और सशक्त किया।


 पंचशील से पंचामृत तक: भारत की विदेश नीति का विकास 

1.पंचशील सिद्धांत (1954)

1954 में भारत और चीन के बीच पंचशील समझौता हुआ, जो शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धांतों पर आधारित था:

1. संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान।

2. गैर-आक्रामकता।

3. आपसी गैर-हस्तक्षेप।

4. पारस्परिक लाभ और समानता।

5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व।

2. भारत: स्विंग स्टेट के रूप में

भारत आज वैश्विक शक्ति संतुलन में एक स्विंग स्टेट की भूमिका निभा रहा है।

  • लोकतंत्र और आर्थिक सुदृढ़ता: भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
  • अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रभाव: भारत G20, BRICS और संयुक्त राष्ट्र में सक्रिय भूमिका निभा रहा है।
  • सुरक्षा सहयोग: भारत ने अमेरिका, फ्रांस, और इजराइल जैसे देशों के साथ अपने सुरक्षा संबंध मजबूत किए हैं।

3. समकालीन विदेश नीति और भारत का उभार

  • हिंद-प्रशांत रणनीति: भारत ने Quad (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत) के तहत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ाई है।
  • मध्य एशिया और पश्चिम एशिया: भारत ने इन क्षेत्रों में स्थिरता और आधुनिकीकरण को बढ़ावा दिया है।
  • वैश्विक शक्ति के रूप में पहचान: भारत अब सहायता प्राप्तकर्ता से सहायता प्रदाता के रूप में उभरा है।

4. बहुपक्षीय और क्षेत्रीय सहयोग

  • आसियान और शंघाई सहयोग संगठन: भारत ने क्षेत्रीय स्थिरता के लिए इन संगठनों में सक्रिय भूमिका निभाई।
  • संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता: भारत G4 के साथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए जोर दे रहा है।

5. भारत की नरम शक्ति और सांस्कृतिक प्रभाव

  • भारत की नरम शक्ति उसकी सभ्यता, संस्कृति, योग, आध्यात्मिकता, और प्रवासी भारतीयों के माध्यम से वैश्विक राजनीति में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही है।

6. चुनौतियाँ और अवसर

  • महामारी के बाद की दुनिया: भारत ने अपनी कूटनीति और आर्थिक नीतियों के माध्यम से वैश्विक शासन संस्थानों में अपनी भूमिका को मजबूत किया है।
  • भविष्य की रणनीति: भारत को अपनी अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की सदस्यता का प्रभावी उपयोग करना होगा।


 चुनौतियाँ और सीमाएँ: भारत की विदेश नीति 

  • पड़ोसी देशों की भूमिका: चीन का प्रभुत्व और पाकिस्तान का आतंकवाद भारत की स्थिरता को चुनौती देते हैं। पलायन, राजनीतिक अस्थिरता, और नागरिक युद्ध जैसे मुद्दे भी समस्या बढ़ाते हैं। "विश्वगुरु" बनने के लिए पड़ोसी देशों से बेहतर संबंध जरूरी हैं।
  • सुरक्षा परिषद् सुधार: P5 देशों की असहमति, वीटो पॉवर और क्षेत्रीय विवाद UNSC सुधार में बाधा हैं। भारत की स्थायी सदस्यता की दावेदारी अभी भी अधूरी है।
  • वैश्विक मुद्दों पर विचलन: जलवायु परिवर्तन, UNSC और IMF सुधार पर सहमति बनाना मुश्किल है। बहुपक्षीय मंचों पर एकरूपता की कमी चिंता का विषय है।
  • महामारी का प्रभाव: कोविड-19 ने आपूर्ति श्रृंखला के विविधीकरण और घरेलू विनिर्माण को प्राथमिकता दी। वैश्विक स्वास्थ्य और जलवायु रणनीतियों को मजबूत करने की जरूरत बढ़ी।
  • हिंद-प्रशांत क्षेत्र: इस क्षेत्र की स्थिरता प्राथमिकता है, लेकिन विभिन्न देशों की अवधारणाएँ अलग हैं। भारत की रणनीति आर्थिक समृद्धि और सहयोग पर केंद्रित है।
  • युद्ध और सुरक्षा: डिजिटल और अंतरिक्ष सुरक्षा बढ़ाने की आवश्यकता है। टिकाऊ, समावेशी और मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चुनौतीपूर्ण है।

पंचामृत 

1. भारत की समकालीन विदेश नीति के 5 स्तंभ

  • सम्मान (Respect): गरिमा और सम्मान के साथ अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की पहचान को मजबूत करना।
  • संवाद (Dialogue): व्यापक समझौता और वार्तालाप के माध्यम से कूटनीति को बढ़ावा देना।
  • समृद्धि (Prosperity): साझी समृद्धि के माध्यम से आर्थिक सहयोग और विकास को बढ़ावा देना।
  • सुरक्षा (Security): प्रादेशिक और वैश्विक स्तर पर सुरक्षा सुनिश्चित करना।
  • संस्कृति और सभ्यता (Culture and Civilization): भारत की सांस्कृतिक और सभ्यता संबंधी विरासत को विदेश नीति में शामिल करना।

2.मोदी सरकार और विदेश नीति में पंचामृत का प्रभाव

  • 'पड़ोस पहले' नीति: 2014 में मोदी सरकार ने अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को प्राथमिकता दी।
  • 'लिंक वेस्ट' और 'लुक ईस्ट' नीति: पश्चिम एशिया और पूर्वी एशियाई देशों के साथ जुड़ाव को पुनर्जीवित किया।
  • नरम शक्ति (Soft Power): संस्कृति, आध्यात्मिकता और सभ्यता के माध्यम से भारत की वैश्विक पहचान को बढ़ावा दिया।

3. प्रधानमंत्री का दृष्टिकोण

  • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अतीत के वैचारिक बोझ को छोड़ते हुए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने 'सभ्यता संबंधी लोकाचार' को केंद्र में रखकर विदेश नीति को नया आकार दिया और भारत को एक जिम्मेदार और सम्मानित वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करने पर जोर दिया।









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