यूरोप का इतिहास : 1789-1870 UNIT 4 CHAPTER 10 SEMESTER 5 THEORY NOTES एकता की खोज जर्मनी का एकीकरण HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakदिसंबर 18, 2024
परिचय
1815 की वियना कांग्रेस के बाद, 39 राज्यों का जर्मन परिसंघ बना, जिसका उद्देश्य जर्मन क्षेत्रों की आर्थिक समन्वय और यूरोप में स्थिरता सुनिश्चित करना था। आंतरिक संघर्षों और एकता की कमी के कारण परिसंघ कमजोर रहा। 1848 की क्रांति के प्रयास विफल हुए, और 1866 में प्रशिया की जीत के बाद परिसंघ समाप्त हो गया। इसके स्थान पर 1867 में उत्तरी जर्मन परिसंघ बना, जो बाद में जर्मन साम्राज्य में परिवर्तित हुआ।
फ्रांसीसी क्रांति से पूर्व का जर्मनी
फ्रांसीसी क्रांति से पहले, जर्मनी 200 से अधिक राज्यों और रियासतों में विभाजित था, जो नाममात्र रूप से सम्राट के प्रति वफादार थे लेकिन आंतरिक रूप से स्वतंत्र थे। ऑस्ट्रिया ने हैब्सबर्ग साम्राज्य के तहत प्रमुखता पाई, जबकि प्रशिया उसकी सैन्य शक्ति के लिए चुनौती बना। जर्मन राज्यों ने अपनी संप्रभुता बनाए रखी, सम्राट की नाममात्र निष्ठा और साझा जर्मन भाषा ही उनके बीच का एकमात्र संबंध थे।
नेपोलियन की भूमिका और जर्मन राज्यों का पुनर्गठन
19वीं सदी की शुरुआत में जर्मनी ने एकीकरण की प्रक्रिया शुरू की, जिसमें नेपोलियन की भूमिका अहम रही। नेपोलियन ने जर्मन राज्यों को 200 से घटाकर 39 कर दिया, जिससे छोटे-छोटे राज्यों का विलय हुआ और राजनीतिक स्थिति सरल हो गई।
राइन परिसंघ और जर्मन परिसंघ की स्थापना: 1806-1815 के बीच नेपोलियन ने राइन परिसंघ बनाया, लेकिन उसकी हार के बाद यह भंग हो गया। इसके स्थान पर जर्मन परिसंघ की स्थापना हुई, जिसमें 39 राज्य शामिल थे। हालाँकि, परिसंघ में केंद्रीय सत्ता कमजोर थी।
क्रांति और प्रशिया-ऑस्ट्रिया प्रतिद्वंद्विता: 1848-49 की क्रांति और प्रशिया-ऑस्ट्रिया के बीच प्रतिद्वंद्विता से जर्मन राजनीति में तनाव बढ़ा। 1866 के ऑस्ट्रो-प्रशिया युद्ध के बाद जर्मन परिसंघ समाप्त हुआ और उत्तरी जर्मन परिसंघ का गठन हुआ।
फ्रेंको-प्रशिया युद्ध और जर्मन साम्राज्य की घोषणा: 1870-71 के फ्रेंको-प्रशिया युद्ध के बाद प्रशिया का प्रभाव बढ़ा। 1871 में वर्साय में जर्मन साम्राज्य की घोषणा हुई, जिससे उत्तरी और दक्षिणी जर्मन राज्य एकजुट हो गए। यह जर्मनी के एकीकरण का महत्वपूर्ण चरण था।
वियना कांग्रेस के बाद जर्मन एकीकरण का मार्ग
वोर्मरज़ काल और 1848 की क्रांति: वियना कांग्रेस के बाद का वोर्मरज़ काल रूढ़िवाद और उदार राष्ट्रवाद के संघर्ष का समय था। वाणिज्यिक और औद्योगिक वर्गों ने जमींदार अभिजात वर्ग और पारंपरिक शासकों को चुनौती दी, जो 1848 की असफल क्रांति का कारण बना।
फ्रांसीसी क्रांति और राष्ट्रवाद का प्रभाव: फ्रांसीसी क्रांति ने जर्मन समाज में बदलाव और राष्ट्रवाद की माँग को बढ़ावा दिया। ऑस्ट्रिया के मेटरनिख ने इसे साम्राज्य के लिए खतरा माना, क्योंकि इससे ऑस्ट्रियाई प्रभुत्व कमजोर हो सकता था।
जोल्वरिन संघ और आर्थिक सुधार: 1834 में प्रशिया द्वारा जोल्वरिन सीमा शुल्क संघ की स्थापना से व्यापार और औद्योगीकरण को बढ़ावा मिला। इसने सदस्य राज्यों के बीच टैरिफ हटाकर साझा बाजार बनाया, ऑस्ट्रियाई प्रभाव को कम किया, और एकीकरण की भावना को बढ़ाया।
प्रोटो-राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की नींव: जोल्वरिन ने मानकीकृत आर्थिक ढाँचे के माध्यम से व्यापारिक संबंधों को मजबूत किया और आर्थिक राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित किया, जो जर्मन एकीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था।
जर्मन राष्ट्रवाद का उदय
नेपोलियन युग और प्रारंभिक राष्ट्रवाद: नेपोलियन युग के अनुभवों ने जर्मनों में फ्रांसीसी प्रभुत्व के खिलाफ एकता की भावना जगाई। जर्मन बुद्धिजीवियों और छात्रों ने राष्ट्रवाद और एकता को बढ़ावा दिया। जेना विश्वविद्यालय इस आंदोलन का केंद्र बन गया।
मेटरनिख और प्रतिक्रियावादी नीतियाँ: मेटरनिख ने संसदवाद और उदारवाद को दबाने की कोशिश की, लेकिन बुद्धिजीवियों, लेखकों और कवियों ने राष्ट्रवादी भावना को जीवित रखा। नेपोलियन के आर्थिक और सैन्य प्रभाव ने फ्रांसीसी प्रभुत्व के खिलाफ विरोध को और बढ़ाया।
बर्सचेंशाफ्टन और वार्टबर्ग महोत्सव: 1817 का वार्टबर्ग महोत्सव राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में उभरा। हालाँकि, ऑगस्ट वॉन कोटज़ेबु की हत्या के बाद मेटरनिख ने कार्ल्सबैड डिक्री (1819) लागू की, जिससे राष्ट्रवादी आंदोलनों को दबा दिया गया और प्रेस व अकादमिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया।
सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव: जर्मन सांस्कृतिक पहचान, साहित्य, और परिवहन में प्रगति ने राष्ट्रवाद को मजबूत किया। इन कारकों ने जर्मन एकीकरण की दिशा में प्रेरणा दी।
कार्ल्सबैड डिक्रीज़
कार्ल्सबैड डिक्रीज़ 1819 में जर्मन राज्यों की एक सभा में लागू किए गए नियम थे। इनका उद्देश्य उदारवादी और राष्ट्रवादी आंदोलनों को दबाना था, जिन्हें पारंपरिक यूरोपीय रूढ़िवाद और वंशवादी परंपराओं के लिए खतरा माना गया।
मेटरनिख की भूमिका: मेटरनिख ने उदारवादी और राष्ट्रवादी विचारों को गंभीर खतरे के रूप में देखा और इन्हें दबाने के लिए डिक्रीज़ की स्थापना में मुख्य भूमिका निभाई। उन्होंने इसे ऑस्ट्रिया और पारंपरिक व्यवस्था की रक्षा के लिए आवश्यक माना।
मुख्य प्रावधान
1. विश्वविद्यालयों पर निगरानी: उदारवादी छात्र समूहों को भंग किया गया और विश्वविद्यालयों पर सख्त राज्य नियंत्रण लगाया गया।
2. प्रेस सेंसरशिप: प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दी गई, जिससे स्वतंत्र विचारों को दबाया गया।
3. संघीय आयोग: विध्वंसक गतिविधियों की जाँच के लिए एक आयोग बनाया गया।
मेटरनिख का पतन
1830 की क्रांतियाँ और संवैधानिक माँगें: 1830 की क्रांतियों ने यूरोपीय रूढ़िवादी शासन को कमजोर कर दिया और जर्मन राज्यों में संवैधानिक शासन की माँग को बढ़ावा दिया। प्रशिया के राजा इन सुधारों को लागू करने में हिचकिचाए, मुख्यतः मेटरनिख जैसे रूढ़िवादी नेताओं के प्रभाव के कारण।
उदारवादी आंदोलनों का विस्तार: जैसे-जैसे यूरोप में उदारवादी आंदोलन तेज हुए, रूढ़िवादी ताकतों की पकड़ कमजोर पड़ने लगी। इन आंदोलनों ने संवैधानिक शासन और राष्ट्रीय एकता की आकांक्षाओं को और बढ़ावा दिया।
1848 की क्रांति और मेटरनिख की सत्ता से बेदखली: 1848 की क्रांति ने रूढ़िवाद को बड़ा झटका दिया। इस क्रांति के परिणामस्वरूप ऑस्ट्रिया में मेटरनिख को सत्ता से हटा दिया गया। इस घटना ने जर्मन एकीकरण की संभावना को और मजबूत किया और इसे वास्तविकता के करीब लाया।
फ्रैंकफर्ट संसद (1848) और जर्मन एकीकरण प्रयास
फ्रैंकफर्ट संसद का गठन: 1848 की क्रांति के बाद फ्रैंकफर्ट संसद ने जर्मन एकीकरण के लिए नेतृत्व किया। इसमें 500 प्रतिनिधियों ने एक संविधान का प्रस्ताव दिया, जिसमें वंशानुगत सम्राट, लोकतांत्रिक विधायिका, सरकारी मंत्रालय, और सर्वोच्च न्यायालय का प्रावधान था। संविधान में गैर-जर्मन क्षेत्रों को जानबूझकर बाहर रखा गया।
प्रशिया के राजा का प्रस्ताव अस्वीकार:अप्रैल 1849 में संसद ने प्रशिया के राजा फ्रेडरिक विलियम IV को जर्मन सम्राट बनने का प्रस्ताव दिया। उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया, यह कहते हुए कि वह "लोकप्रिय सभा" से मुकुट स्वीकार नहीं करेंगे, बल्कि केवल राजकुमारों से। साथ ही, ऑस्ट्रिया और रूस से टकराव की आशंका भी उनके इनकार का कारण बनी।
संसद की विफलता और परिणाम: फ्रैंकफर्ट संविधान के अस्वीकृत होने के बाद कट्टरपंथियों ने इसे लागू करने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे। इस विफलता ने जर्मन एकीकरण को बड़ा झटका दिया और एकीकरण के प्रयास अगले दो दशकों तक रुके रहे।
जर्मन एकीकरण का मार्ग
औपचारिक एकीकरण और चुनौतियाँ:18 जनवरी, 1871 को वर्साय में जर्मनी का औपचारिक एकीकरण हुआ। यह एक लंबी प्रक्रिया थी, जो रियासतों के बीच गठबंधन और राजनीतिक नेतृत्व से संचालित हुई। धार्मिक, भाषाई, सामाजिक और सांस्कृतिक भिन्नताओं ने इसे जटिल बनाया।
पवित्र रोमन साम्राज्य और राष्ट्रवाद:1806 में पवित्र रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद जर्मन राष्ट्रवाद मजबूत हुआ। साझा भाषाई और सांस्कृतिक विरासत ने युद्ध के अनुभवों के साथ एकता की भावना को बढ़ावा दिया।
आर्थिक और बौद्धिक आधार:यूरोपीय उदारवाद ने शिक्षा, परंपरा और सांस्कृतिक सामंजस्य पर जोर देकर एकीकरण का बौद्धिक आधार तैयार किया। 1818 में प्रशा ज़ोल्वरिन सीमा शुल्क संघ ने आर्थिक सहयोग बढ़ाया और राज्यों को करीब लाया।
परिवहन नेटवर्क और संपर्क: बेहतर परिवहन नेटवर्क ने जर्मन भाषी क्षेत्रों के बीच संपर्क को बढ़ाया। हालांकि, इसने मतभेदों को भी उजागर किया, लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों के साथ एकीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ी।
जर्मन सांस्कृतिक पहचान का उद्भव
प्रारंभिक प्रभाव और बदलाव:18वीं सदी के अंत तक जर्मन सांस्कृतिक पहचान आकार लेने लगी। 1750 से पहले जर्मन अभिजात वर्ग फ्रांसीसी संस्कृति से प्रभावित था। लेकिन "औफ़क्लारुंग" (ज्ञानोदय) ने संगीत, दर्शन, विज्ञान, और साहित्य के माध्यम से जर्मन उच्च संस्कृति में बदलाव लाया।
प्रमुख विचारकों और आंदोलनों का योगदान:क्रिश्चियन वोल्फ ने ज्ञानोदय विचारों को बढ़ावा दिया और दार्शनिक विमर्श में जर्मन भाषा को महत्व दिया। जोहान गॉटफ्राइड वॉन हर्डर ने स्टर्म अंड ड्रैग आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसने स्वच्छंदतावाद (रोमांटिकता) की नींव रखी।
वाइमर क्लासिकिज़्म और मानवतावाद: 1772-1805 के दौरान वाइमर क्लासिकिज़्म ने ज्ञानोदय, शास्त्रीयता और रोमांटिक विचारों को मिलाकर मानवतावाद का नया रूप प्रस्तुत किया। गोएथे, शिलर और हर्डर जैसे साहित्यकारों ने जर्मन संस्कृति और राष्ट्रवाद को गहराई दी। हर्डर ने भाषा और संस्कृति को पहचान का मूल आधार बताया।
शिलर का योगदान और सांस्कृतिक जागृति:शिलर के नाटकों ने सामाजिक बाधाओं और भाग्य के खिलाफ संघर्ष को उजागर किया, जो समकालीन जर्मनों के दिलों से जुड़ा। इस सांस्कृतिक जागृति ने जर्मन पहचान को मजबूत किया और राष्ट्रवादी आंदोलन को प्रेरित किया।
बिस्मार्क का नेतृत्व और फ्रैंको-प्रशिया युद्ध
बिस्मार्क की रणनीति और निर्णायक संघर्ष: 1860 के दशक में, ओटो वॉन बिस्मार्क ने प्रशिया के मंत्री प्रमुख के रूप में डेनमार्क, ऑस्ट्रिया, और फ्रांस के खिलाफ संघर्षों की योजना बनाई। उनका उद्देश्य प्रशिया के नेतृत्व में छोटे जर्मन राज्यों को एकजुट करना था। 1871 में फ्रांस को हराने के बाद जर्मन साम्राज्य की स्थापना हुई, जो बिस्मार्क की रणनीतिक दूरदर्शिता का परिणाम था।
आयरन चांसलर के रूप में पहचान:बिस्मार्क को "आयरन चांसलर" के रूप में उनके दृढ़ और प्रभावी नेतृत्व के लिए जाना जाता है। उन्होंने जर्मन एकीकरण और आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी और कूटनीतिक संतुलन बनाए रखते हुए यूरोपीय स्थिरता सुनिश्चित करने का प्रयास किया।
सामाजिक सुधार और चुनौतियाँ: 1862 से 1890 तक मंत्री-राष्ट्रपति रहते हुए, बिस्मार्क ने श्रमिक वर्ग का समर्थन पाने के लिए सामाजिक कल्याण सुधार लागू किए। हालाँकि, उन्होंने कैथोलिक चर्च के साथ संघर्ष और अन्य घरेलू चुनौतियों का भी सामना किया।
जर्मन एकीकरण और विरासत:जर्मन राष्ट्रवादियों द्वारा बिस्मार्क को एकीकरण के लिए उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए सराहा गया। उनकी कूटनीतिक कुशलता ने इतिहासकारों का ध्यान खींचा। जर्मनी में स्थापित उनके स्मारक उनकी स्थायी विरासत और जर्मन साम्राज्य के वास्तुकार के रूप में उनके योगदान को दर्शाते हैं।
क्रांतिकारियों के लिए झटका और प्रशिया का पुनः दावा
बर्लिन पर पुनः नियंत्रण: 1848 के अंत में प्रशिया ने जनरल वॉन रैंगल और राजा फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ के नेतृत्व में बर्लिन पर फिर से कब्ज़ा कर लिया। राजा ने नवंबर में नई प्रशिया संसद को भंग कर दिया और ऐसा संविधान लागू किया, जो उनके पूर्ण अधिकार को बनाए रखता था।
क्रांति की विफलता: 1851 तक, 1848 की क्रांति से प्राप्त सभी लाभ उलट दिए गए। फ्रैंकफर्ट असेंबली द्वारा स्थापित बुनियादी अधिकार समाप्त कर दिए गए। क्रांति की असफलता के प्रमुख कारणों में गुटों का विभाजन, उदारवादियों की सतर्कता, वामपंथियों का कमजोर समर्थन और राजशाहीवादी ताकतों की शक्ति शामिल थी।
फ्रैंकफर्ट असेंबली की असफलता: फ्रैंकफर्ट असेंबली जर्मन राज्यों को एकजुट करने में असफल रही। उदारवादी संविधान का मसौदा तैयार कर राजाओं की स्वीकृति चाहते थे, जबकि कट्टरपंथी इसे विधायी निकाय बनाना चाहते थे। इन मतभेदों ने निर्णायक कदम को बाधित किया।
राष्ट्र-निर्माण की चुनौती:1848 की जर्मन क्रांति राष्ट्र-निर्माण और संवैधानिक विकास की दोहरी चुनौती से घिरी रही। असंगत राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों ने इसे सफल होने से रोक दिया, जिससे जर्मन एकीकरण को लंबा समय लगा।
प्रशिया की विजय और फ्रेंको-प्रशिया संघर्ष
ऑस्ट्रिया पर प्रशिया की विजय और उत्तरी जर्मन परिसंघ: 1866 में प्रशिया की ऑस्ट्रिया पर विजय से जर्मन परिसंघ का विघटन हुआ और उत्तरी जर्मन परिसंघ की स्थापना हुई। यह परिवर्तन फ्रांस और प्रशिया के बीच तनाव का कारण बना, क्योंकि नेपोलियन III को डर था कि जर्मन एकीकरण यूरोपीय शक्ति संतुलन को बिगाड़ देगा।
फ्रांसीसी विरोध और बिस्मार्क की रणनीति:फ्रांसीसी क्षेत्रीय मुआवजे की माँग और प्रशिया की बढ़ती शक्ति ने संघर्ष की संभावना बढ़ाई। 1870 में, स्पेनिश सिंहासन विवाद ने युद्ध का बहाना दिया। बिस्मार्क ने "एम्स डिस्पैच" में हेरफेर करके फ्रांस को युद्ध की घोषणा के लिए उकसाया।
फ्रेंको-प्रशिया युद्ध और जर्मन एकीकरण:19 जुलाई 1870 को युद्ध शुरू हुआ, जिसमें प्रशिया और जर्मन राज्य एकजुट हो गए। प्रशिया ने पूर्वी फ्रांस में तेजी से जीत हासिल की और नेपोलियन III को बंदी बना लिया। इस विजय के बाद बिस्मार्क ने दक्षिणी जर्मन राज्यों के साथ एकीकरण के लिए बातचीत की, जो 1871 में विल्हेम प्रथम को जर्मन सम्राट घोषित करने के साथ समाप्त हुआ।
फ्रेंको-प्रशिया युद्ध के परिणाम: 1871 की फ्रैंकफर्ट संधि में फ्रांस को अलसैस और लोरेन क्षेत्र प्रशिया को सौंपने और भारी क्षतिपूर्ति का भुगतान करने के लिए मजबूर किया गया। इस विजय ने प्रशिया को एकीकृत जर्मन साम्राज्य की प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया और जर्मन राष्ट्रवाद के शिखर को चिह्नित किया।