यूरोप का इतिहास : 1789-1870 UNIT 3 CHAPTER 7 SEMESTER 5 THEORY NOTES सामाजिक किण्वन (परिवर्तन): श्रमिक आन्दोलन, उदारवाद का उद्भव एवं प्रारम्भिक समाजवाद HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakदिसंबर 17, 2024
परिचय
19वीं शताब्दी की शुरुआत में औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और राजनीतिक विचारधाराओं में बदलाव ने व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन किए। तेजी से बढ़ते कारखाने और शहरी जीवन अवसरों के साथ कठिनाइयाँ भी लाए। श्रमिक आंदोलनों ने शोषण के खिलाफ आवाज उठाई, जबकि उदारवाद और प्रारंभिक समाजवाद ने एक न्यायसंगत समाज की कल्पना प्रस्तुत की। इस युग ने राजनीतिक उथल-पुथल और वैचारिक जागृति का साक्षी बनते हुए प्रचलित संस्थानों को चुनौती दी। परिवर्तन के इस दौर ने यूरोप के साथ वैश्विक स्तर पर मुक्ति और सामाजिक न्याय के लिए प्रेरक आंदोलन की नींव रखी, जिसने समाज के ढांचे और राष्ट्रों के भविष्य को नया आकार दिया।
सामाजिक उत्साह
19वीं शताब्दी की शुरुआत में सामाजिक उत्साह का अर्थ है वह समय जब समाज में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बदलाव हुए। लोग सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता और राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने इन बदलावों को तेज किया।
श्रमिक आंदोलनों का उदय: औद्योगिकीकरण के कारण मजदूरों को लंबे समय तक काम करना पड़ा और कम मजदूरी मिलती थी। इसके खिलाफ मजदूरों ने संगठित होकर हड़तालें और आंदोलन शुरू किए। प्रारंभिक समाजवाद और उदारवाद ने मजदूरों को सामाजिक कल्याण और धन के समान वितरण का नया दृष्टिकोण दिया।
औद्योगिक शहर:औद्योगिक शहर रोजगार की तलाश में गाँवों से आए लोगों का केंद्र बने। यहाँ नए अवसर तो मिले, लेकिन भीड़भाड़, गंदगी और कठिन जीवन जैसी चुनौतियाँ भी सामने आईं। बावजूद इसके, मजदूर वर्ग ने सामुदायिक एकजुटता के माध्यम से इन कठिनाइयों का सामना किया।
सामाजिक बदलाव का वैश्विक प्रभाव:सामाजिक उत्साह केवल यूरोप तक सीमित नहीं था, बल्कि इसने अन्य महाद्वीपों में भी मुक्ति आंदोलनों को प्रेरित किया। यह दौर मानव सहनशीलता और न्यायपूर्ण समाज की खोज का गवाह बना।
विद्वानों का योगदान
1. एरिक हॉब्सबॉम (क्रांति का युग): उन्होंने सामाजिक और आर्थिक बदलाव के परस्पर संबंध को समझाया तथा औद्योगीकरण और सामाजिक गतिशीलता का विश्लेषण किया।
2. कार्ल मार्क्स: उनकी किताबें "द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो" और "कैपिटल" औद्योगिक पूँजीवाद की शोषणकारी प्रकृति पर चर्चा करती हैं। उन्होंने वर्ग संघर्ष और सामाजिक क्रांति की संभावना पर जोर दिया।
3. ई.पी. थॉम्पसन (द मेकिंग ऑफ द इंग्लिश वर्किंग क्लास): उन्होंने मजदूर वर्ग के जीवन और संघर्षों का विश्लेषण किया तथा जमीनी स्तर के आंदोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर किया।
4.मिशेल फूको: उन्होंने शक्ति और प्रतिरोध की रणनीतियों का अध्ययन किया और बताया कि समाज में हाशिए पर मौजूद समूह कैसे बदलाव के लिए संघर्ष करते हैं।
5. बैरिंगटन मूर जूनियर: उन्होंने यह समझाया कि सामाजिक संरचना और राजनीतिक संस्थाएँ कैसे सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करती हैं।
उदारवाद का उदय
19वीं शताब्दी की शुरुआत में यूरोप में उदारवाद का उदय एक महत्वपूर्ण वैचारिक बदलाव था, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मुक्त बाजार और सीमित सरकारी हस्तक्षेप पर जोर देता था।
1. एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक "द वेल्थ ऑफ नेशंस" (1776) में आर्थिक उदारवाद की नींव रखी और अहस्तक्षेप (Laissez-faire) तथा मुक्त व्यापार की वकालत की।
2. जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी किताब "ऑन लिबर्टी" (1859) में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बढ़ावा दिया और हानि सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसमें राज्य और सामाजिक दबाव से व्यक्ति की सुरक्षा पर जोर दिया गया।
3. उदारवाद ने फ्रांसीसी क्रांति जैसे आंदोलनों को प्रेरित किया, जिसने सामंती विशेषाधिकारों को समाप्त कर लोकतांत्रिक शासन की माँग की।
उदारवाद का प्रभाव और आलोचना
उदारवाद ने योग्यता और प्रतिस्पर्धा के माध्यम से सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा दिया। हालांकि, आलोचकों ने इसके व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति की आलोचना की, जिससे आर्थिक असमानताएँ और सामाजिक अन्याय बढ़े। इसके अलावा, उदारवाद का उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से जुड़ाव इसकी नैतिकता और सार्वभौमिकता पर सवाल खड़े करता है।
प्रसार और सीमाएँ
उदारवाद ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों में सामंतवाद के उन्मूलन और संवैधानिक राजतंत्रों की स्थापना के साथ लोकप्रिय हुआ। हालाँकि, रूस और ऑस्ट्रिया-हंगरी जैसे देश रूढ़िवादी बने रहे। 1848 की क्रांतियाँ उदार विचारों के प्रसार को दर्शाती हैं, लेकिन ये सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को हल करने में उदारवाद की सीमाएँ भी उजागर करती हैं।
प्रारंभिक समाजवाद
19वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रारंभिक समाजवाद का उदय यूरोप में औद्योगिकीकरण से पैदा हुई सामाजिक असमानता और अन्याय के विरोध में हुआ। यह विचारधारा पूँजीवादी शोषण की आलोचना करते हुए एक न्यायसंगत और सहयोगी समाज की कल्पना करती थी।
1. मुख्य विचारक और उनके योगदान:
हेनरी डी सेंट-साइमन: हेनरी डी सेंट-साइमन ने योग्यता और सहयोग पर आधारित समाज की वकालत की, जहाँ उद्योगपति और वैज्ञानिक समाज का नेतृत्व करेंगे और सभी के भले के लिए कार्य करेंगे।
चार्ल्स फूरियर: चार्ल्स फूरियर ने फार्लस्टरी नामक आत्मनिर्भर समुदायों की स्थापना का प्रस्ताव रखा, जिसमें उन्होंने संसाधनों के समान वितरण और सामुदायिक जीवन पर विशेष जोर दिया।
रॉबर्ट ओवेन: रॉबर्ट ओवेन ने न्यू लानार्क (स्कॉटलैंड) और न्यू हार्मनी (अमेरिका) में सहकारी समुदायों के प्रयोग किए और श्रमिक-स्वामित्व वाले उद्यमों तथा शिक्षा सुधार के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए।
2. प्रमुख विशेषताएँ: सामूहिक स्वामित्व और सामाजिक कल्याण पर जोर, औद्योगिकीकरण के कारण हुए पूँजीवादी शोषण की आलोचना, सहकारी समुदायों की स्थापना और श्रमिक अधिकारों की रक्षा।
3. सीमाएँ: यूटोपियन समाजवाद के प्रयोग अक्सर व्यावहारिक रूप से सफल नहीं हुए और पूँजीवादी व्यवस्था को चुनौती देने में उनकी सीमित सफलता रही।
4. 1848 की क्रांतियों में भूमिका: प्रारंभिक समाजवाद ने 1848 की यूरोपीय क्रांतियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाजवादियों ने लोकतांत्रिक सुधारों, श्रमिकों के अधिकारों, और निजी संपत्ति के उन्मूलन की माँग की।
5. विचारों का प्रसार और प्रभाव:
श्रमिक वर्ग की चेतना: औद्योगिकीकरण के बीच श्रमिक वर्ग में जागरूकता का विकास हुआ। शिक्षा, साक्षरता और राजनीतिक अधिकारों के विस्तार से समाजवादी विचार फैले।
वैश्विक प्रभाव: यूरोप के बाहर भी समाजवादी आंदोलनों ने श्रमिकों के अधिकार और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष किया। आधुनिक राजनीति और सामाजिक नीति में राज्य की भूमिका पर बहस को आकार दिया।
सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का प्रतिबिंब
19वीं शताब्दी के यूरोप में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों को विद्वानों ने औद्योगिकीकरण, पूँजीवाद और वर्ग संघर्ष के संदर्भ में गहराई से अध्ययन किया।
1. ई.पी. थॉम्पसन ने अपनी पुस्तक "द मेकिंग ऑफ द इंग्लिश वर्किंग क्लास" में श्रमिक वर्ग की संस्कृति और चेतना के उभार पर बल दिया। उन्होंने औद्योगिकीकरण के दौरान श्रमिकों की एजेंसी और उनके अनुभवों के महत्व को रेखांकित किया।
2. सिडनी पोलार्ड ने अपनी पुस्तक "द जेनेसिस ऑफ मॉडर्न मैनेजमेंट" में बताया कि औद्योगिकीकरण ने प्रबंधन प्रथाओं और श्रम संबंधों को बदल दिया। इस प्रक्रिया में आधुनिक प्रबंधन तकनीकों का विकास हुआ और श्रम-पूँजी के बीच शक्ति संतुलन की नई व्यवस्था उभरी।
3. एरिक हॉब्सबॉम ने अपनी पुस्तक "लेबरिंग मेन" में वर्ग संघर्ष की भूमिका को संरचनात्मक दृष्टिकोण से समझाया। उन्होंने बताया कि पूँजीवाद ने श्रम लामबंदी और सामूहिक कार्रवाई को प्रेरित किया, जिससे व्यापक सामाजिक बदलाव संभव हुआ।
4. कार्ल पोलानी ने अपनी पुस्तक "द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन" में श्रम के वस्तुकरण और बाजार अर्थव्यवस्था के प्रभाव का विश्लेषण किया। उन्होंने दिखाया कि कैसे आर्थिक शक्तियों ने व्यक्तियों और समुदायों के सामाजिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया।