प्रस्तावना
प्रत्येक आधुनिक राज्य में सरकार के तीन मुख्य अंग होते हैं: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उन्हें लागू करती है, और न्यायपालिका उनके आधार पर न्याय सुनिश्चित करती है। प्राचीन व मध्यकालीन राज्यों में ये कार्य एक ही शासक द्वारा किए जाते थे, लेकिन समाज की जटिलता बढ़ने के साथ इन कार्यों का विभाजन आवश्यक हो गया। इस पाठ में भारतीय शासन व्यवस्था में प्रधानमंत्री की भूमिका, नियुक्ति, कार्यकाल, शक्तियाँ और अन्य संस्थानों के साथ उनके संबंधों का अध्ययन करेंगे।
प्रधानमंत्री
1. संसदीय लोकतंत्र में भूमिका
भारत में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना संविधान द्वारा की गई है। यह व्यवस्था सरकार को जनता और संविधान के प्रति उत्तरदायी बनाती है।
कार्यकारी मुखिया:
- राष्ट्रपति: नाममात्र या संवैधानिक प्रमुख।
- प्रधानमंत्री: वास्तविक कार्यकारी प्रमुख, जो मंत्रिपरिषद का नेतृत्व करता है।
2. प्रधानमंत्री का महत्व
- प्रधानमंत्री कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान है और मंत्रीपरिषद के निर्णयों को राष्ट्रपति के नाम से औपचारिक रूप से कार्यान्वित किया जाता है। डॉ. अंबेडकर के अनुसार, "प्रधानमंत्री संपूर्ण तंत्र की धुरी है।" प्रधानमंत्री मंत्रीपरिषद, संसद, और देश का नेता होता है और सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति का प्रतीक है।
3.संवैधानिक प्रावधान
प्रधानमंत्री का उल्लेख संविधान में तीन बार किया गया है:
- अनुच्छेद 74(1): राष्ट्रपति की सहायता और परामर्श के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा।
- अनुच्छेद 75(1): प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे। अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के परामर्श से करेंगे।
- अनुच्छेद 78: प्रधानमंत्री का दायित्व:
1. राष्ट्रपति को संघ के कार्यों और मंत्रिपरिषद के निर्णयों की जानकारी देना।
2. राष्ट्रपति द्वारा माँगी गई जानकारी उपलब्ध कराना।
3. किसी विषय पर मंत्री द्वारा किए गए निर्णय को मंत्रीपरिषद के सामने रखने के लिए राष्ट्रपति को अधिकार देना।
4. उपप्रधानमंत्री
- संविधान में उपप्रधानमंत्री पद का कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन व्यावहारिक राजनीति में यह पद नियुक्त किया जाता है।उपप्रधानमंत्री कैबिनेट मंत्री के समान होता है।
प्रधानमंत्री की नियुक्ति
1. संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद 75(1) के अनुसार, प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। हालांकि, संविधान में प्रधानमंत्री के निर्वाचन और नियुक्ति की स्पष्ट प्रक्रिया का उल्लेख नहीं किया गया है।
2. संसदीय व्यवस्था में नियुक्ति की प्रक्रिया
लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल का नेता:आम चुनाव के बाद राष्ट्रपति, लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है। इस स्थिति में राष्ट्रपति वैयक्तिक विवेकाधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता।
- स्पष्ट बहुमत न होने की स्थिति: जब कोई दल लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं करता, तो राष्ट्रपति सबसे बड़े दल या गठबंधन के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति को वैयक्तिक विवेकाधिकार का प्रयोग करना पड़ता है।
- आकस्मिक परिस्थितियाँ: प्रधानमंत्री की आकस्मिक मृत्यु या इस्तीफे के समय, जब स्पष्ट उत्तराधिकारी न हो, राष्ट्रपति अपने विवेक से प्रधानमंत्री नियुक्त करता है।
उदाहरण:
- 1989: विश्वनाथ प्रताप सिंह (स्पष्ट बहुमत न होने पर)।
- 1991: पी.वी. नरसिम्हा राव।
- 1998 और 1999: अटल बिहारी वाजपेयी।
3. प्रधानमंत्री पद के लिए योग्यता
- प्रधानमंत्री संसद के किसी भी सदन (लोकसभा या राज्यसभा) का सदस्य हो सकता है। यदि नियुक्ति के समय वह किसी सदन का सदस्य नहीं है, तो उसे 6 महीने के भीतर संसद की सदस्यता लेनी होगी, अन्यथा वह प्रधानमंत्री पद पर नहीं बना रह सकता। प्रधानमंत्री पद के लिए वही योग्यता आवश्यक है, जो संसद का सदस्य बनने के लिए आवश्यक होती है।
4. शपथ ग्रहण (अनुच्छेद 75(4))
- प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति द्वारा शपथ दिलाई जाती है। यह शपथ "पद और गोपनीयता" की होती है, जिसका प्रारूप संविधान की तीसरी अनुसूची में उल्लिखित है।
प्रधानमंत्री का कार्यकाल
- संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 75 के अनुसार, प्रधानमंत्री का कार्यकाल राष्ट्रपति के "प्रसाद पर्यंत" (राष्ट्रपति की इच्छानुसार) होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि राष्ट्रपति उसे कभी भी हटा सकता है। प्रधानमंत्री को हटाने की प्रक्रिया केवल संसदीय व्यवस्था, जैसे अविश्वास प्रस्ताव या बहुमत खोने पर, संभव है।
- निश्चित कार्यकाल नहीं: प्रधानमंत्री का कार्यकाल निश्चित नहीं होता है। आमतौर पर वह 5 वर्षों तक पद पर रहता है, जब तक कि लोकसभा में उसे बहुमत प्राप्त हो।
- लोकसभा में बहुमत का महत्व: प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के लिए लोकसभा में बहुमत होना अनिवार्य है। यदि बहुमत नहीं रहता, तो प्रधानमंत्री को पद छोड़ना पड़ता है।
- अविश्वास प्रस्ताव: प्रधानमंत्री को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से हटाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, 10 जुलाई 1979 को यशवंत राव चव्हाण ने प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। जनता दल के कई सदस्यों द्वारा पार्टी छोड़ने के कारण, मोरारजी देसाई ने मतदान से पहले 15 जुलाई 1979 को त्यागपत्र दे दिया।
प्रधानमंत्री के कार्य एवं शक्तियाँ
प्रधानमंत्री भारतीय संसदीय शासन व्यवस्था में कार्यपालिका का वास्तविक अध्यक्ष होता है। उसकी शक्तियाँ और दायित्व निम्नलिखित हैं:
- मंत्रीपरिषद का गठन और नेतृत्व: अनुच्छेद 75(1) के तहत, प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति मंत्रीपरिषद का गठन करता है। प्रधानमंत्री मंत्रीपरिषद के सदस्यों का चयन करता है, उन्हें विभाग आवंटित करता है, और विभागों में फेरबदल कर सकता है। वह किसी मंत्री को हटाने का सुझाव भी राष्ट्रपति को दे सकता है।
- संसद के संदर्भ में: प्रधानमंत्री लोकसभा का नेता होता है। राष्ट्रपति संसद सत्र बुलाने, सत्रावसान करने और लोकसभा भंग करने का आदेश प्रधानमंत्री की सलाह पर देते हैं। 44वें संशोधन (1978) के अनुसार, लोकसभा भंग करना प्रधानमंत्री की सलाह से ही संभव है।
- राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के बीच कड़ी: प्रधानमंत्री राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के बीच संपर्क स्थापित करता है, मंत्रिपरिषद के निर्णयों की जानकारी राष्ट्रपति को देता है और उनके विचार मंत्रिपरिषद के समक्ष प्रस्तुत करता है।
- मंत्रिमंडल का नेता: प्रधानमंत्री कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करता है, कैबिनेट के निर्णयों को लागू करता है, और इसके सभी कार्यों और नीतियों का नेतृत्व करता है।
- विभिन्न विभागों के बीच समन्वय: प्रधानमंत्री विभागों के बीच समन्वय स्थापित करता है और विभागीय विवादों या मतभेदों को सुलझाने में मध्यस्थ की भूमिका निभाता है।
- राष्ट्र का नेता: प्रधानमंत्री देश का प्रमुख नेता होता है, जो जनता का ध्यान आकर्षित करता है। चुनाव अभियानों और नीतिगत मुद्दों पर उसका प्रभाव निर्णायक होता है, जैसे "अबकी बार मोदी सरकार" और "इंदिरा इज इंडिया"।
- नीति निर्धारण में भूमिका: प्रधानमंत्री विदेश और घरेलू नीतियों का प्रमुख निर्माता होता है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण और संविधान संशोधन जैसे प्रमुख फैसले उसके नेतृत्व में होते हैं। वह अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व करता है।
- आपातकालीन शक्तियाँ: अनुच्छेद 352, 356, और 360 के तहत, आपातकाल की घोषणा राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर करता है। जैसे, 1962 (चीन आक्रमण), 1971 (पाकिस्तान आक्रमण), और 1975 (आंतरिक आपातकाल) प्रधानमंत्री की सलाह पर घोषित किए गए। 44वें संशोधन (1978) के अनुसार, अब आपातकाल केवल कैबिनेट की लिखित सलाह पर ही लागू हो सकता है।
- आयोगों और परिषदों के अध्यक्ष: प्रधानमंत्री नीति आयोग, राष्ट्रीय विकास परिषद, अंतर्राज्यीय परिषद, और राष्ट्रीय एकता परिषद के अध्यक्ष होते हैं। ये संस्थाएँ देश की आर्थिक और सामाजिक नीतियों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
- राष्ट्रपति का प्रमुख सलाहकार: प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को उच्च अधिकारियों (जैसे महान्यायवादी, सीएजी, चुनाव आयुक्त) की नियुक्ति में सलाह देता है। भारत रत्न और पद्म विभूषण जैसे राष्ट्रीय सम्मान राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सिफारिश पर प्रदान करते हैं।
- अनुग्रह की शक्तियाँ: प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के माध्यम से दया याचिकाओं पर निर्णय लेने और सम्मान प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
भारत में प्रधानमंत्री एवं मंत्रीपरिषद
भारत की संसदीय शासन प्रणाली में प्रधानमंत्री मंत्रीपरिषद का केंद्र बिंदु और वास्तविक कार्यपालिका का प्रमुख होता है। प्रधानमंत्री की भूमिका और शक्तियाँ संविधान के प्रावधानों, राजनीतिक परिस्थितियों, उनके व्यक्तित्व और दल की स्थिति पर निर्भर करती हैं।
1. प्रधानमंत्री और मंत्रीपरिषद का गठन
- अनुच्छेद 75(1): के अनुसार, राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है और उनके परामर्श से मंत्रीपरिषद का गठन करता है। मंत्रियों का चयन, विभागों का आवंटन, और फेरबदल का अधिकार प्रधानमंत्री के पास होता है।
- नेतृत्व: प्रधानमंत्री मंत्रीपरिषद की सभी गतिविधियों और निर्णयों का नेतृत्व करता है और विभिन्न विभागों के बीच समन्वय स्थापित करता है।
2. प्रधानमंत्री की शक्ति पर प्रभाव डालने वाले कारक
- व्यक्तित्व और नेतृत्व कौशल: प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत क्षमता और राजनीतिक अनुभव उसकी शक्ति को प्रभावित करते हैं। जैसे, नेहरू और इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री पद अत्यधिक शक्तिशाली रहा।
- दल के भीतर स्थिति: प्रधानमंत्री की शक्ति तब अधिक होती है जब उनका दल संगठित और अनुशासित हो। वहीं, गठबंधन सरकारों में प्रधानमंत्री का अधिकार सीमित हो जाता है। उदाहरण: 1977 में जनता पार्टी और 1989 के बाद गठबंधन सरकारों में प्रधानमंत्री की स्थिति कमजोर हुई।
- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम: जैसे, 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद इंदिरा गाँधी की स्थिति मजबूत हुई।
- राजनीतिक स्थिरता: अल्पमत या गठबंधन सरकारें प्रधानमंत्री की शक्ति को सीमित करती हैं।
3. प्रधानमंत्री और मंत्रीपरिषद के संबंध
- क्रिकेट टीम के कप्तान जैसी भूमिका: प्रधानमंत्री मंत्रीपरिषद के सदस्यों का नेतृत्व करता है, लेकिन उनकी सफलता सहयोगियों के समर्थन और समन्वय पर निर्भर करती है।
- कार्य विस्तार और समितियों का गठन: सरकार के कार्यों के विस्तार और बढ़ते दायित्व के कारण, मंत्रिमंडल का आकार बढ़ा है।मंत्रिमंडल समितियों के गठन में प्रधानमंत्री का नेतृत्व और महत्त्व बढ़ा है।
- मंत्रियों का चयन और हटाना: प्रधानमंत्री का यह अधिकार उनके दल की स्थिति और गठबंधन की प्रकृति पर निर्भर करता है।
4. प्रधानमंत्री का निरीक्षण और नियंत्रण
- प्रधानमंत्री प्रशासन और मंत्रीपरिषद पर निरीक्षण और नियंत्रण रखता है। एक प्रभावशाली प्रधानमंत्री अपनी शक्तियों का कुशलतापूर्वक उपयोग करते हुए देश की नीतियों में प्रमुख भूमिका निभा सकता है।
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के संबंध
अनुच्छेद 52 से 78 के तहत, राष्ट्रपति औपचारिक और प्रधानमंत्री वास्तविक कार्यकारी प्रधान हैं। दोनों का सामंजस्य भारत की संसदीय व्यवस्था की सफलता के लिए आवश्यक है।
1. राष्ट्रपति की भूमिका:
- औपचारिक कार्यकारी प्रधान: राष्ट्रपति भारत के राज्य का औपचारिक प्रमुख और भारतीय संघ की एकता व अखंडता का प्रतीक हैं।
- संवैधानिक सीमाएँ: राष्ट्रपति वैधानिक अध्यक्ष होते हैं, लेकिन संकट के समय संवैधानिक संतुलन बनाए रखने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। अनुच्छेद 74(1) के तहत, वह मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य हैं।
- सुझाव और पुनर्विचार: राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर एक बार पुनर्विचार के लिए कह सकते हैं, लेकिन वही सलाह दोबारा मिलने पर उसे मानना अनिवार्य होता है।
2. प्रधानमंत्री की भूमिका
- मंत्रिमंडल और राष्ट्रपति के बीच कड़ी: प्रधानमंत्री का दायित्व है कि वह मंत्रिमंडल के सभी निर्णयों की सूचना राष्ट्रपति को दे। अनुच्छेद 78 के तहत, प्रधानमंत्री को शासन संबंधी कार्यों की जानकारी राष्ट्रपति को देना अनिवार्य है।
- संसद और राष्ट्रपति के बीच समन्वय: प्रधानमंत्री राष्ट्रपति और संसद के बीच संपर्क स्थापित करता है। राष्ट्रपति संसद के सत्र बुलाने और भंग करने का कार्य प्रधानमंत्री की सलाह पर करते हैं।
3. प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के संबंधों का प्रभाव
- व्यक्तित्व और परिस्थिति का प्रभाव: प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के संबंध उनके व्यक्तित्व और राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं। उदाहरण:इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद और ज्ञानी जैल सिंह की भूमिका सीमित रही, जबकि गठबंधन सरकारों के दौर में राष्ट्रपति की भूमिका बढ़ गई।
- संविधान संशोधन और परंपरा: 42वें और 44वें संशोधनों ने राष्ट्रपति की स्वतंत्रता को सीमित कर मंत्रिमंडल की सलाह को बाध्यकारी बनाया।
- सत्ता दल का प्रभाव: प्रधानमंत्री, सत्तारूढ़ दल का नेता होने के कारण, राष्ट्रपति के चुनाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिससे दोनों के बीच सामंजस्य बना रहता है।
4. विशेष परिस्थितियाँ
- सामंजस्य की कमी: 1987 में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पर संवैधानिक परंपराओं के उल्लंघन का आरोप लगाया। राजीव गाँधी ने इसे खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति को सूचना देना उनका दायित्व है।
- गठबंधन का प्रभाव: गठबंधन सरकारों के दौरान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच संवाद और संतुलन की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण और स्पष्ट हो गई।
प्रधानमंत्री, दल और संसद
1. प्रधानमंत्री और संसद
- संसद में भूमिका: प्रधानमंत्री लोकसभा का नेता होते हुए विधेयकों, प्रस्तावों, और बजट में मुख्य भूमिका निभाता है। प्रश्नकाल और अविश्वास प्रस्ताव के दौरान सरकार की नीतियों का बचाव करता है।
- लोकसभा भंग करने का अधिकार: अनुच्छेद 85(2) के तहत, प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने और चुनाव कराने की अनुशंसा कर सकता है।
2. प्रधानमंत्री और दल
- दल का नेता: प्रधानमंत्री अपने दल का घोषित और अघोषित नेता होता है। आम चुनावों में उनका व्यक्तित्व निर्णायक होता है। वह उम्मीदवारों के चयन, दल की नीतियों, और कार्यक्रमों को प्रभावित करता है।
- दलीय समर्थन: प्रधानमंत्री की शक्ति दल के बहुमत और समर्थन पर निर्भर करती है। दल में विद्रोह या बहुमत की कमी होने पर उसकी शक्तियाँ समाप्त हो जाती हैं।
3. दल और प्रधानमंत्री के संबंधों का विकास
- नेहरू काल: पंडित नेहरू के कार्यकाल में सरकार और दल की शक्ति उनके हाथों में केंद्रित थी।
- नेहरू के बाद: नेहरू की मृत्यु के बाद कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने में भूमिका निभाई। कांग्रेस विभाजन के बाद इंदिरा गाँधी ने दल पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
- गठबंधन सरकारों का दौर: 1977 में जनता दल सरकार में दल के अध्यक्ष चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को चुनौती दी। गठबंधन सरकारों के समय प्रधानमंत्री की भूमिका कमजोर हो गई।
- यूपीए और एनडीए: 2004 में यूपीए सरकार के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह पर दल अध्यक्ष का प्रभाव था। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार में प्रधानमंत्री का प्रभावी नेतृत्व देखा गया।
4. प्रधानमंत्री के प्रभाव के कारक
- व्यक्तित्व और नेतृत्व क्षमता: पंडित नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, अटल बिहारी वाजपेयी, और नरेंद्र मोदी ने अपने करिश्माई व्यक्तित्व और नेतृत्व से अपने दल और सरकार पर मजबूत पकड़ बनाई।
- दलीय संरचना और बहुमत: बहुमत वाली सरकार में प्रधानमंत्री का प्रभाव बढ़ता है, जबकि गठबंधन सरकारों में प्रधानमंत्री की भूमिका सीमित हो जाती है।
- जनता का समर्थन: प्रधानमंत्री की चुनावी भूमिका और जनता का समर्थन उनकी स्थिति को मजबूत बनाते हैं।
प्रधानमंत्री और गठबंधन राजनीति का युग
1. गठबंधन राजनीति की शुरुआत
भारतीय राजनीति में गठबंधन की राजनीति बहुदलीय व्यवस्था का परिणाम है।
- 1977: केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी गठबंधन सरकार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी, लेकिन गुटबंदी और आंतरिक संघर्ष के कारण यह सरकार लंबे समय तक नहीं टिक सकी।
- 1989 के बाद: किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, जिससे गठबंधन राजनीति का युग शुरू हुआ।
- 1996 से: गठबंधन सरकारें नियमित हो गईं, जैसे राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (NDA) और संयुक्त प्रगतिशील
2.गठबंधन राजनीति का प्रधानमंत्री पर प्रभाव
- प्रधानमंत्री की स्थिति कमजोर: गठबंधन सरकारों में प्रधानमंत्री को गठबंधन के दलों के दबाव में काम करना पड़ता है, जिससे उनकी स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। मंत्रियों की नियुक्ति और पदोन्नति में भी प्रधानमंत्री को गठबंधन के नेताओं को संतुष्ट करना पड़ता है।
- निर्णय लेने में कठिनाई: गठबंधन के दल अपने-अपने हितों के अनुसार प्रधानमंत्री से निर्णय करवाने की कोशिश करते हैं, जो लोकतांत्रिक स्थिरता के लिए चुनौती बनती है।
3. कमजोर प्रधानमंत्री
- गठबंधन सरकार में कमजोर नेतृत्व: गठबंधन की मजबूरियों के कारण कई प्रधानमंत्रियों को कमजोर नेतृत्व के रूप में देखा गया। मोरारजी देसाई को गुटबंदी के चलते पद छोड़ना पड़ा। चरण सिंह, चंद्रशेखर, आई. के. गुजराल, और एच. डी. देवगौड़ा प्रभावशाली भूमिका निभाने में असमर्थ रहे। पी. वी. नरसिम्हा राव ने अल्पमत सरकार चलाने के लिए कई समझौते किए।
4. मजबूत प्रधानमंत्री
- बहुमत वाली सरकार के प्रधानमंत्रियों ने विपरीत परिस्थितियों में प्रभावशाली नेतृत्व दिखाया। 1984 में भारी बहुमत के कारण राजीव गाँधी को निर्णय लेने में स्वतंत्रता मिली। अटल बिहारी वाजपेयी ने गठबंधन सरकार के बावजूद अपने व्यक्तित्व और नेतृत्व क्षमता से प्रभावशाली भूमिका निभाई। नरेंद्र मोदी ने 2014 और 2019 में बहुमत सरकार के चलते दल और जनता पर मजबूत पकड़ के साथ प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान किया।
संसद
प्रस्तावना
भारतीय संसद, केंद्र सरकार की विधायी शाखा, भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक केंद्रीय भूमिका निभाती है। वेस्टमिंस्टर मॉडल से प्रेरित यह संसदीय प्रणाली उत्तरदायी सरकार के सिद्धांत पर आधारित है, जहाँ कैबिनेट संसद के प्रति उत्तरदायी होती है।भारतीय संसद का विकास ब्रिटिश शासन के दौरान 1858 के बाद धीरे-धीरे हुआ, जब क्राउन ने ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत का शासन अपने हाथ में लिया। भारतीय परिषद अधिनियम (1861, 1892, 1909) जैसे सुधारों ने विधायी प्रक्रियाओं में मामूली बदलाव किए, जैसे नामांकित सदस्यों की भागीदारी और बजट पर चर्चा।
1919 और 1935 के भारत सरकार अधिनियमों ने प्रांतीय स्वायत्तता और द्विसदनीय विधायिका जैसे सुधार किए, लेकिन वास्तविक सत्ता गवर्नर-जनरल और ब्रिटिश क्राउन के हाथों में रही।1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम ने भारत और पाकिस्तान को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। संविधान सभा, जो 1946 में गठित हुई थी, ने 26 नवंबर 1950 को भारतीय संविधान को अंगीकार किया, जिससे भारत एक पूर्ण लोकतांत्रिक गणराज्य बना।
संसद का गठन
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, भारत की संसद तीन प्रमुख घटकों से बनी है:
राष्ट्रपति
1. लोकसभा (निचला सदन)
2. राज्यसभा (ऊपरी सदन)
लोकसभा भंग की जा सकती है, जबकि राज्यसभा एक स्थायी सदन है। राष्ट्रपति का पद कभी रिक्त नहीं रहता।
राष्ट्रपति और संसद में उनकी भूमिका
1. राष्ट्रपति की स्थिति
- राष्ट्रपति भारतीय संसद का अभिन्न अंग होते हुए भी सदन की बैठकों में भाग नहीं लेता। उनकी भूमिका औपचारिक है, लेकिन संसद की विधायी प्रक्रिया में उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
2. राष्ट्रपति की विधायी शक्तियाँ
- संसद की बैठक और सत्रावसान: राष्ट्रपति संसद की बैठक बुला सकता है, सत्र स्थगित कर सकता है, लोकसभा को भंग कर सकता है, और संयुक्त अधिवेशन का आह्वान कर सकता है।
- संसद को संबोधित करना: राष्ट्रपति प्रत्येक नए चुनाव के बाद और हर वर्ष संसद के प्रथम सत्र में दोनों सदनों को संबोधित करता है।
- संदेश भेजना: वह संसद में लंबित किसी विधेयक या विषय पर संदेश भेज सकता है।
- विशेष परिस्थितियों में अध्यक्ष की नियुक्ति: यदि लोकसभा या राज्यसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पद रिक्त हों, तो राष्ट्रपति किसी सदस्य को अध्यक्षता सौंप सकता है।
- सदस्यों का मनोनयन: राष्ट्रपति राज्यसभा में साहित्य, विज्ञान, कला, और समाजसेवा के क्षेत्रों से 12 सदस्यों को मनोनीत करता है। साथ ही, लोकसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय के दो सदस्यों को भी मनोनीत कर सकता है।
- संसद सदस्यों की अयोग्यता: चुनाव आयोग से परामर्श लेकर राष्ट्रपति संसद सदस्यों की अयोग्यता पर निर्णय करता है।
- विशेष विधेयकों के लिए सिफारिश: संचित निधि से व्यय संबंधित विधेयक या राज्यों की सीमा परिवर्तन पर विधेयक लाने के लिए राष्ट्रपति की सिफारिश आवश्यक होती है।
लोकसभा
लोकसभा, जिसे "जनता का सदन" कहा जाता है, भारतीय संसद का निचला सदन है, जिसके सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। इसकी अधिकतम सदस्य संख्या 552 है, जबकि वर्तमान में इसमें 545 सदस्य हैं:
- 530 सदस्य राज्यों से।
- 13 सदस्य संघ राज्य क्षेत्रों से।
- 2 सदस्य एंग्लो-इंडियन समुदाय से, जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है।
1. लोकसभा का गठन
- राज्यों का प्रतिनिधित्व: राज्यों के प्रतिनिधि जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। 61वें संविधान संशोधन (1988) के तहत मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
- संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व: संविधान ने संसद को संघ राज्य क्षेत्रों में चुनाव की विधि तय करने का अधिकार दिया है। 1965 के संघ राज्य क्षेत्र अधिनियम के तहत इन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष चुनाव होते हैं।
- एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व: यदि एंग्लो-इंडियन समुदाय का पर्याप्त प्रतिनिधित्व न हो, तो राष्ट्रपति दो सदस्यों को लोकसभा में नामित कर सकता है। 95वें संविधान संशोधन (2009) के तहत यह प्रावधान 2020 तक बढ़ाया गया।
2. चुनाव प्रणाली
- प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र: संविधान में राज्यों के लिए लोकसभा सीटों का आवंटन और प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन समान जनसंख्या अनुपात पर आधारित है। परिसीमन आयोग अधिनियम (1952, 1962, 1972, 2002) के तहत परिसीमन किया गया। 42वें और 84वें संशोधन (1976, 2001) ने सीटों के आवंटन और निर्वाचन क्षेत्रों के पुनः निर्धारण को स्थिर कर दिया।
- अनुसूचित जाति और जनजाति का आरक्षण: लोकसभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटें आरक्षित हैं। आरक्षण की अवधि हर 10 साल में बढ़ाई जाती है, जैसे 95वें संशोधन (2009) ने इसे 2020 तक बढ़ाया।
3. अहर्ताएँ
लोकसभा सदस्य बनने के लिए व्यक्ति को:
- भारत का नागरिक होना चाहिए।
- कम से कम 25 वर्ष की आयु होनी चाहिए।
- संसद द्वारा निर्धारित अन्य अहर्ताओं को पूरा करना चाहिए।
लोकसभा अध्यक्ष
1.चुनाव और कार्यकाल
- लोकसभा की पहली बैठक में सदस्यों द्वारा अध्यक्ष का चुनाव किया जाता है। यदि पद रिक्त हो जाए, तो लोकसभा नए अध्यक्ष का चुनाव करती है। आमतौर पर, अध्यक्ष लोकसभा के पूरे कार्यकाल तक पद पर बने रहते हैं। लोकसभा चुनाव की तारीख राष्ट्रपति द्वारा तय की जाती है।
2.शक्तियाँ और कर्तव्य
- सदन की कार्यवाही का संचालन: अध्यक्ष सदन की कार्यवाही और नियमों का पालन सुनिश्चित करता है, और उसके निर्णय अंतिम होते हैं।
- गणपूर्ति (कोरम): सदन में न्यूनतम उपस्थिति (कुल सदस्यों का 10वां भाग) न होने पर बैठक स्थगित करता है।
- निर्णायक मत: सामान्यतः मतदान में भाग नहीं लेता, लेकिन बराबरी की स्थिति में निर्णायक मत देकर गतिरोध समाप्त करता है।
- संयुक्त बैठक की अध्यक्षता: दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता करता है।
- गुप्त बैठक: आवश्यकता होने पर गुप्त बैठक बुलाता है।
- धन विधेयक का निर्धारण: निर्धारित करता है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं।
- दल-बदल कानून: दसवीं अनुसूची के तहत दल-बदल से संबंधित मामलों पर निर्णय करता है।
- संसदीय और विधायी कार्य: भारतीय संसदीय समूह और विधायी निकायों के सम्मेलनों का सभापति होता है। लोकसभा समितियों के सभापति नियुक्त करता है और उनके कार्यों का पर्यवेक्षण करता है।
3.सामायिक अध्यक्ष (प्रोटेम स्पीकर)
- नई लोकसभा की पहली बैठक से पहले राष्ट्रपति एक वरिष्ठ सदस्य को सामायिक अध्यक्ष नियुक्त करता है। सामायिक अध्यक्ष नए सदस्यों को शपथ दिलाता है और नए अध्यक्ष के चुनाव में मदद करता है। नए अध्यक्ष का चुनाव होते ही सामायिक अध्यक्ष का कार्यकाल समाप्त हो जाता है।
राज्यसभा
1. राज्यसभा का गठन
- राज्यसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 250 है, जबकि वर्तमान में 245 सदस्य हैं, जिनमें 229 राज्यों से, 4 संघ राज्य क्षेत्रों से, और 12 राष्ट्रपति द्वारा नामित सदस्य शामिल हैं। सीटों का आवंटन संविधान की चौथी अनुसूची के अनुसार राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में किया जाता है। राज्यसभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए कोई आरक्षण नहीं है।
2. प्रतिनिधित्व के प्रकार
- राज्यों का प्रतिनिधित्व: राज्यसभा में राज्यों के प्रतिनिधि राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं। चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति और एकल संक्रमणीय मत प्रणाली से होता है। राज्यों की सीटें उनकी जनसंख्या के आधार पर तय होती हैं, जैसे उत्तर प्रदेश (31 सीटें) और त्रिपुरा (1 सीट)।
- संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व: सात संघ राज्य क्षेत्रों में से केवल दो का राज्यसभा में प्रतिनिधित्व है। इनके सदस्य एक निर्वाचक मंडल द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति से चुने जाते हैं।
- नामित सदस्य: राष्ट्रपति कला, साहित्य, विज्ञान, और समाज सेवा में विशेष योगदान देने वाले 12 सदस्यों को नामांकित करता है, ताकि प्रसिद्ध व्यक्तियों को बिना चुनाव के संसद में शामिल किया जा सके।
3.अहर्ताएँ
राज्यसभा सदस्य बनने के लिए:
- भारत का नागरिक होना चाहिए।
- आयु कम से कम 30 वर्ष होनी चाहिए।
- संसद द्वारा निर्धारित अन्य योग्यताएँ पूरी करनी चाहिए।
4. राज्यसभा का सभापति
राज्यसभा का पीठासीन अधिकारी सभापति कहलाता है, जो उपराष्ट्रपति के पदेन भूमिका में होता है।
- पद से हटाने की प्रक्रिया: सभापति को उपराष्ट्रपति पद से हटाए बिना हटाया नहीं जा सकता।
- शक्तियाँ:
सभापति की शक्तियाँ लोकसभा अध्यक्ष के समान हैं, लेकिन उनके पास दो विशेष अधिकार नहीं होते:
1. यह तय करना कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं।
2. संसद की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता।
संसद में विधायी प्रक्रिया
भारतीय संसद में विधि-निर्माण प्रक्रिया एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है, जो कई चरणों में संपन्न होती है। यह प्रक्रिया मुख्यतः निम्न प्रकार है:
1. विधेयक का प्रारंभ (प्रस्तुतीकरण)
- प्रथम वाचन: प्रथम वाचन विधेयक का प्रारंभिक चरण है, जिसमें इसे लोकसभा या राज्यसभा में पेश किया जाता है। पेश करते समय इसके उद्देश्यों और प्रयोजनों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जाता है। विधेयक को किसी मंत्री या गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है।
2. विधेयक का दूसरा चरण (विचार और संशोधन)
इस चरण में चार विकल्प होते हैं:
- सदन द्वारा सीधा विचार: विधेयक पर बहस होती है और इसे धारा-दर-धारा पढ़ा और संशोधित किया जाता है।
- प्रवर समिति को भेजना: विधेयक पर विस्तार से विचार करने के लिए प्रवर समिति को भेजा जाता है। समिति अपनी सिफारिशें और संशोधन सदन में प्रस्तुत करती है।
- संयुक्त समिति को भेजना: दोनों सदनों की संयुक्त समिति के पास विधेयक भेजा जाता है।
- जनता की राय लेना: केवल विवादास्पद या महत्वपूर्ण विधेयकों पर यह विकल्प अपनाया जाता है।
3. विधेयक का तीसरा चरण (पारित करना)
- तीसरे चरण में विधेयक पर अंतिम चर्चा और संशोधन किए जाते हैं, जो सामान्यतः औपचारिक होते हैं। विधेयक पारित होने के बाद इसे दूसरे सदन को भेजा जाता है।
4. दूसरे सदन में विधेयक
दूसरा सदन विधेयक पर वही प्रक्रिया अपनाता है और उसके पास तीन विकल्प होते हैं:
- विधेयक को यथावत पारित करना।
- विधेयक को अस्वीकार करना।
- विधेयक को संशोधनों के साथ लौटाना।
- यदि दूसरा सदन छह माह तक कोई कार्रवाई नहीं करता, तो विधेयक निरस्त माना जाता है।
5.मतभेद की स्थिति
- यदि दोनों सदनों में सहमति नहीं बनती, तो राष्ट्रपति संयुक्त सत्र बुलाता है। संयुक्त सत्र में विधेयक को साधारण बहुमत से पारित या अस्वीकार किया जाता है।
6.राष्ट्रपति की सहमति
दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प होते हैं:
- विधेयक को स्वीकृति देना।
- विधेयक को पुनर्विचार हेतु लौटाना।
- सहमति सुरक्षित रखना।
- पुनर्विचार के बाद विधेयक फिर से पारित होने पर, राष्ट्रपति को इसे स्वीकार करना अनिवार्य होता है।
7. विधेयक का अधिनियम बनना
- राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद विधेयक "अधिनियम" बन जाता है और लागू हो जाता है।
वित्त विधेयक और धन विधेयक की प्रक्रिया:
- धन विधेयक (अनुच्छेद 110):धन विधेयक केवल लोकसभा में पेश किया जा सकता है। राज्यसभा इसे संशोधित नहीं कर सकती, केवल सिफारिशें दे सकती है। राज्यसभा को इसे 14 दिनों के भीतर लोकसभा को लौटाना अनिवार्य है, अन्यथा इसे पारित मान लिया जाता है।
संसदीय विशेषाधिकार
संसद सदस्यों को स्वतंत्र और कुशल कार्य करने के लिए विशेषाधिकार दिए जाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं:
1. परिगणित विशेषाधिकार (Enumerated Privileges):
सदस्यों को प्राप्त मुख्य विशेषाधिकार:
- संसद में बोलने की स्वतंत्रता।
- संसद में व्यक्त कथनों या मतों के लिए न्यायालयीय कार्यवाही से प्रतिरक्षा।
- संसद की रिपोर्ट, कागजात, या कार्यवाही के प्रकाशन पर उत्तरदायित्व से सुरक्षा।
- सत्र के पूर्व और पश्चात् 40 दिनों तक दिवानी मामलों में गिरफ्तारी से मुक्ति।
- किसी न्यायालय में गवाह के रूप में उपस्थित होने से छूट।
2. अगणित विशेषाधिकार (Unenumerated Privileges):
- ब्रिटिश संसद के "हाउस ऑफ कॉमन्स" के सदस्यों को प्रदत्त विशेषाधिकारों के समान।
- संसद को अवमानना के मामलों में, किसी भी व्यक्ति (सदस्य या गैर-सदस्य) को दंडित करने का अधिकार।
कार्यपालिका पर नियंत्रण हेतु संसदीय युक्तियाँ
संसद, कार्यकारिणी को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न विधियों और प्रक्रियाओं का उपयोग करती है। ये युक्तियाँ न केवल सरकार को जवाबदेह बनाती हैं बल्कि सार्वजनिक हित में नीतियों और प्रशासनिक कार्यों का मूल्यांकन भी सुनिश्चित करती हैं।
1. मुख्य संसदीय युक्तियाँ
- प्रश्नकाल: प्रत्येक बैठक प्रश्नकाल से शुरू होती है, जिसमें सदस्य सरकार से प्रश्न पूछकर प्रशासन की कमियों को उजागर करते हैं। उत्तर संतोषजनक न होने पर सदस्य विस्तृत चर्चा का अनुरोध कर सकते हैं।
- ध्यानाकर्षण प्रस्ताव: सदस्य, सार्वजनिक महत्व के मुद्दों पर मंत्री का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं। मंत्री तुरंत या बाद में वक्तव्य दे सकता है।
- कार्यस्थगन प्रस्ताव: यह असाधारण प्रक्रिया सार्वजनिक महत्व के गंभीर मुद्दों पर चर्चा के लिए उपयोग होती है। इसे स्वीकार करना सरकार की आलोचना के समान है।
- आधे घंटे की चर्चा: प्रश्नकाल के दौरान उठे मुद्दों पर बैठक के अंतिम आधे घंटे में चर्चा की जाती है।
2. संसदीय समितियाँ
संसदीय समितियाँ कार्यकारिणी की कार्यप्रणाली की समीक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
- लोक लेखा समिति: सरकारी वित्तीय लेनदेन की जांच करती है।
- आकलन समिति: नीतियों और खर्चों की समीक्षा करती है।
3. संसदीय समितियों की भूमिका
- संसदीय समितियाँ विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दों पर निष्पक्ष चर्चा का मंच प्रदान करती हैं। ये नीतियों का मूल्यांकन कर कार्यकारिणी पर नियंत्रण रखती हैं और भावी मंत्रियों व पीठासीन अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण का माध्यम बनती हैं।
राज्यसभा की स्थिति:
राज्यसभा की संवैधानिक स्थिति को लोकसभा की तुलना में तीन पहलुओं से समझा जा सकता है:
1. लोकसभा के साथ समान स्थिति:
राज्यसभा की शक्तियाँ और स्थिति निम्न मामलों में लोकसभा के समान है:
- सामान्य विधेयकों और संवैधानिक संशोधन विधेयकों का प्रस्तुतीकरण और पारित करना।
- राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव।
- राष्ट्रपति, न्यायाधीशों, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, और लेखा महानियंत्रक को हटाने की सिफारिश।
- तीनों प्रकार के आपातकाल (राष्ट्रीय, राज्य, और वित्तीय) की स्वीकृति।
- प्रधानमंत्री और मंत्रियों का चयन (हालांकि वे केवल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं)।
- संवैधानिक इकाइयों की रिपोर्टों पर चर्चा।
- उच्चतम न्यायालय और संघ लोक सेवा आयोग के न्याय क्षेत्र का विस्तार।
2. लोकसभा के साथ असमान स्थिति
राज्यसभा की शक्तियाँ निम्न मामलों में लोकसभा से कम हैं:
- धन विधेयक: धन विधेयक केवल लोकसभा में पेश किया जा सकता है। राज्यसभा इसे अस्वीकृत या संशोधित नहीं कर सकती, बल्कि 14 दिनों के भीतर सिफारिश के साथ लौटाना आवश्यक है। धन विधेयक पर अंतिम निर्णय लोकसभा का ही होता है।
- संयुक्त बैठक: संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करते हैं, और संख्या बल के कारण लोकसभा का प्रभाव अधिक होता है।
- बजट: राज्यसभा केवल चर्चा कर सकती है; मतदान नहीं कर सकती।
- राष्ट्रीय आपातकाल: इसे समाप्त करने का प्रस्ताव केवल लोकसभा में लाया जा सकता है।
- अविश्वास प्रस्ताव: राज्यसभा मंत्रिपरिषद के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नहीं ला सकती क्योंकि मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है।
3. राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ:
राज्यसभा के पास दो विशेष शक्तियाँ हैं:
- अनुच्छेद 249: राज्यसभा यह घोषणा कर सकती है कि "राष्ट्रीय हित" में संसद को राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाना चाहिए। यह प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाता है और इसकी मान्यता एक वर्ष तक होती है।
- अखिल भारतीय सेवाएँ: राज्यसभा की सिफारिश पर संसद संघ और राज्यों के लिए नई अखिल भारतीय सेवाओं का गठन कर सकती है।
4. महत्त्व
- राज्यसभा एक स्थायी सदन है, जो सरकार के कार्यों पर प्रभावी सलाह और स्थिरता प्रदान करता है। यह केवल विधायी कार्यों तक सीमित नहीं है, बल्कि संघीय ढाँचे में राज्यों के हितों की रक्षा भी करता है। इसके वरिष्ठ और अनुभवी सदस्य इसे आदरणीय और प्रभावशाली बनाते हैं। राज्यसभा "हाउस ऑफ लॉर्ड्स" जैसे प्रतीकात्मक सदन की बजाय भारतीय विधायिका का एक महत्वपूर्ण और सक्रिय घटक है।
न्यायपालिका
प्रस्तावना
न्यायपालिका सरकार का अनिवार्य अंग है, जो कानून के शासन और व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करती है। यह विवादों को कानून के अनुसार हल करती है और लोकतंत्र को तानाशाही से बचाने के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से कार्य करती है। भारतीय संविधान ने एकीकृत न्याय-व्यवस्था स्थापित की है, जिसके शीर्ष पर उच्चतम न्यायालय है। इसके अधीन उच्च न्यायालय और फिर जिला व अधीनस्थ न्यायालय कार्य करते हैं। न्यायपालिका को विधायिका का तीसरा सदन भी कहा जाता है, जो विधायिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखती है।
भारत का उच्चतम न्यायालय
भारतीय संविधान ने एक एकीकृत न्याय प्रणाली बनाई है, जिसमें तीन स्तर हैं:
1. उच्चतम न्यायालय (शीर्ष पर)
2. उच्च न्यायालय (राज्यों में)
3. सत्र न्यायालय (स्थानीय स्तर पर)
यह प्रणाली भारत सरकार अधिनियम, 1935 से ली गई है और केंद्रीय व राज्य दोनों कानूनों को लागू करती है।
उच्चतम न्यायालय का गठन
उच्चतम न्यायालय का उद्घाटन 28 जनवरी 1950 को हुआ। यह संघीय न्यायालय का उत्तराधिकारी है और ब्रिटेन के प्रिवी काउंसल का स्थान लेता है, जो पहले अपील का सर्वोच्च न्यायालय था। इसका न्यायक्षेत्र और शक्तियाँ पूर्ववर्ती न्यायालयों की तुलना में अधिक व्यापक हैं।
1.उच्चतम न्यायालय की विशेषताएँ
- उच्चतम न्यायालय संविधान की अंतिम व्याख्या करने वाली सर्वोच्च संस्था है। इसके गठन, स्वतंत्रता, अधिकार, शक्तियाँ और प्रक्रियाओं का उल्लेख संविधान के भाग V (अनुच्छेद 124-147) में किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य न्याय की सर्वोच्चता और संविधान की रक्षा सुनिश्चित करना है।
2.गठन और संरचना
- उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश शामिल होते हैं। अनुच्छेद 124(1) के तहत न्यायाधीशों की संख्या निर्धारित की जाती है। प्रारंभ में इसकी संख्या 8 थी (1 मुख्य न्यायाधीश और 7 अन्य), जो वर्तमान में बढ़कर 34 हो गई है (1 मुख्य न्यायाधीश और 33 अन्य)।
3.न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया
- उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। मुख्य न्यायाधीश आमतौर पर वरिष्ठतम न्यायाधीश को नियुक्त किया जाता है, जबकि अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद की जाती है।
4.परामर्श पर विवाद
- पहला मामला (1982): परामर्श का अर्थ केवल विचारों का आदान-प्रदान है, सहमति नहीं।
- दूसरा मामला (1993): परामर्श को सहमति के रूप में परिभाषित किया गया।
- तीसरा मामला (1998): मुख्य न्यायाधीश को चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों से सलाह लेना अनिवार्य है। यदि दो न्यायाधीश असहमति जताते हैं, तो सिफारिश राष्ट्रपति को नहीं भेजी जा सकती।
5. 99वाँ संविधान संशोधन और NJAC:
- 2014 में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) बनाया गया। लेकिन 2015 में उच्चतम न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। यह निर्णय चौथे न्यायाधीश मामले (2015) में दिया गया। वर्तमान में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली से होती है।
6. न्यायाधीशों की अहर्ताएँ
- उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए निम्नलिखित अहर्ताएँ आवश्यक हैं:
- वह भारत का नागरिक हो।
- किसी उच्च न्यायालय में कम से कम पाँच वर्षों तक न्यायाधीश रहा हो। या उच्च न्यायालय या विभिन्न न्यायालयों में मिलाकर 10 वर्षों तक वकील रहा हो। या राष्ट्रपति के अनुसार वह एक सम्मानित न्यायविद् हो।
- संविधान में न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु का कोई प्रावधान नहीं है।
न्यायाधीशों को हटाना
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को राष्ट्रपति के आदेश द्वारा पद से हटाया जा सकता है। संविधान में न्यायाधीश को हटाने के दो आधार हैं:
1.कदाचार साबित होना।
2.अयोग्यता।
1. प्रक्रिया लोकसभा में प्रारंभ होने पर
- प्रस्ताव: 100 सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ प्रस्ताव लोकसभा अध्यक्ष को प्रस्तुत किया जाता है।
- स्वीकृति: लोकसभा अध्यक्ष प्रस्ताव स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं।
- जाँच समिति: स्वीकृति पर, तीन सदस्यीय समिति गठित होती है, जिसमें शामिल हैं:
1.मुख्य न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश।
2.किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश।
3. प्रतिष्ठित न्यायवादी।
- जाँच परिणाम: समिति द्वारा दोषी ठहराए जाने पर लोकसभा प्रस्ताव पर विचार करती है और विशेष बहुमत से पारित कर राज्यसभा भेजती है।
- अंतिम आदेश: राज्यसभा में भी विशेष बहुमत से पारित होने पर प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजा जाता है, जो न्यायाधीश को हटाने का आदेश जारी करते हैं।
2. प्रक्रिया राज्यसभा में प्रारंभ होने पर
- प्रस्ताव: 50 सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ प्रस्ताव राज्यसभा सभापति को प्रस्तुत किया जाता है।
- स्वीकृति: राज्यसभा सभापति प्रस्ताव स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं।
- जाँच समिति: स्वीकृति पर, तीन सदस्यीय समिति गठित होती है, जिसमें वही सदस्य शामिल होते हैं जैसे लोकसभा के मामले में।
- जाँच परिणाम: दोष सिद्ध होने पर राज्यसभा प्रस्ताव पर विचार करती है और विशेष बहुमत से पारित कर लोकसभा भेजती है।
- अंतिम आदेश: लोकसभा में भी विशेष बहुमत से पारित होने के बाद प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजा जाता है, जो न्यायाधीश को हटाने का आदेश जारी करते हैं।
3.उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार
भारत का उच्चतम न्यायालय विश्व के सबसे शक्तिशाली न्यायालयों में से एक है, जो संविधान की सीमाओं के भीतर काम करता है। यह न केवल संघीय न्यायालय है, बल्कि अपील का अंतिम न्यायालय और संविधान का संरक्षक भी है। इसके मुख्य न्याय क्षेत्र निम्नलिखित हैं:
1. मूल क्षेत्राधिकार
उच्चतम न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार संविधान के अनुच्छेद 131 और 32 के तहत निर्धारित है। अनुच्छेद 131 के अनुसार, यह केंद्र और राज्य/राज्यों के बीच या दो या अधिक राज्यों के बीच संघीय विवादों की सुनवाई करता है। वहीं, अनुच्छेद 32 के तहत, यह मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए रिट जारी करने का अधिकार रखता है।
2.अपीलीय क्षेत्राधिकार
- संवैधानिक मामले (अनुच्छेद 132): उच्च न्यायालय के फैसलों के खिलाफ अपील।
- दीवानी मामले (अनुच्छेद 133): सामान्य महत्व के मामलों में उच्च न्यायालय से अपील।
- आपराधिक मामले (अनुच्छेद 134): सजा-ए-मौत जैसे गंभीर मामलों में अपील।
- विशेष अनुमति अपील (अनुच्छेद 136): किसी भी न्यायालय/पंचायत के निर्णय पर विशेष अनुमति।
3. सलाहकार क्षेत्राधिकार (अनुच्छेद 143)
- राष्ट्रपति, सार्वजनिक महत्व के कानूनी या संवैधानिक प्रश्नों पर न्यायालय से सलाह ले सकते हैं। उच्चतम न्यायालय का मत केवल परामर्श के रूप में होता है, जिसे मानना अनिवार्य नहीं है।
4. न्यायिक समीक्षा
- उच्चतम न्यायालय विधायी और कार्यकारी आदेशों की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है। असंवैधानिक पाए जाने पर वह उन्हें रद्द करने का अधिकार रखता है। साथ ही, अपने निर्णयों पर पुनर्विचार याचिका सुनने का भी अधिकार होता है।
5. अन्य शक्तियाँ
- उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन विवादों का निपटारा करता है। यह उच्च न्यायालयों के लंबित मामलों को स्थानांतरित करने का अधिकार रखता है। अनुच्छेद 141 के तहत इसके निर्णय सभी न्यायालयों के लिए बाध्यकारी होते हैं। इसके अलावा, देश के सभी न्यायालयों और पंचायतों पर न्यायिक अधीक्षण का अधिकार भी इसके पास है।
न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका (PIL):
न्यायिक सक्रियता का उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और न्याय को बढ़ावा देने के लिए न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को दर्शाता है। इसका विकास 1970 के दशक में हुआ, जहाँ न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्णा अय्यर और न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती ने इसकी नींव रखी।
- अर्थ: न्यायिक सक्रियता का मतलब है कि न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका को उनके संवैधानिक दायित्वों के पालन के लिए बाध्य करती है। जनहित याचिका (PIL) इसका मुख्य साधन है, जहाँ कोई व्यक्ति समाज या गरीब वर्गों के हित में अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है, भले ही वह सीधे प्रभावित न हो।
- विकास: 1979 में, न्यायालय ने पहली बार किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दाखिल याचिका को स्वीकार किया, जिससे जनहित याचिका की अवधारणा शुरू हुई। न्यायालय ने पर्यावरण सुरक्षा, कैदियों के अधिकार, और समाज के गरीब वर्गों की समस्याओं पर ध्यान दिया।
- प्रभाव:
1. सकारात्मक:
- सकारात्मक पहलुओं में अधिकारों का विस्तार शामिल है, जैसे स्वच्छ हवा, पानी और जीवन के अधिकार की रक्षा। यह एक लोकतांत्रिक न्याय प्रणाली को सशक्त बनाता है, जो कमजोर वर्गों को न्याय दिलाने में मदद करता है। साथ ही, यह कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाते हुए चुनाव सुधार और पारदर्शिता सुनिश्चित करता है।
2. नकारात्मक
- नकारात्मक पहलुओं में न्यायालयों का बोझ बढ़ना शामिल है, साथ ही कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्रों में हस्तक्षेप के कारण सरकार के तीनों अंगों के बीच संतुलन प्रभावित होता है।
उच्च न्यायालय
भारतीय संविधान के भाग VI, अध्याय V (अनुच्छेद 214-231) के तहत उच्च न्यायालयों का प्रावधान है। प्रत्येक राज्य में एक उच्च न्यायालय होता है। वर्तमान में भारत में 24 उच्च न्यायालय हैं, जिनमें 6 साझा उच्च न्यायालय शामिल हैं।
1.संयुक्त उच्च न्यायालय:
संसद दो या अधिक राज्यों के लिए एक उच्च न्यायालय स्थापित कर सकती है। उदाहरण के लिए, पंजाब और हरियाणा का साझा उच्च न्यायालय है। इसी प्रकार, असम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, और त्रिपुरा का भी एक उच्च न्यायालय है। इसके अलावा, कुछ केंद्रशासित प्रदेश अन्य उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, जैसे दिल्ली का अपना उच्च न्यायालय है, जबकि मद्रास उच्च न्यायालय का अधिकार पांडिचेरी पर है।
2.गठन: