भारतीय राजनीति और सरकार UNIT 2 SEMESTER 2 THEORY NOTESराज्य निर्माण और राष्ट्र निर्माण : रियासतों का एकीकरण एवं राज्यों का भाषाई आधार पर पुनर्गठन Political DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakदिसंबर 29, 2024
परिचय
संस्कृति मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें बोली-भाषा, रीति-रिवाज, पहनावा, और इतिहास शामिल हैं। यह मानव के भावनात्मक पक्ष से जुड़ी होती है और इसके संरक्षण के लिए लोग जीवन बलिदान तक देते हैं। इतिहास में संस्कृति की सुरक्षा के कारण युद्ध, देशों के विभाजन (जैसे भारत-पाकिस्तान), और क्षेत्रों के नाम परिवर्तन हुए हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत में भाषा और संस्कृति के पुनर्गठन का लंबा इतिहास रहा है।
राज्यों के गठन का इतिहास
स्वतंत्रता के बाद भारत का गठन एक राष्ट्र और राज्य के रूप में हुआ। हालांकि, भारत में प्रांतों का अस्तित्व प्राचीन और मध्यकाल से ही देखने को मिलता है:
प्राचीन काल: बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय में 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।
मध्यकाल: मध्यकाल में अकबर के समय 12 सूबे थे, जो औरंगजेब के शासनकाल में बढ़कर 21 हो गए।
ब्रिटिश काल: ब्रिटिश काल में प्रशासनिक सुविधा के लिए प्रांतों का गठन किया गया। शुरुआत में चार प्रमुख प्रेसीडेंसी (बंगाल, मद्रास, बंबई, और कलकत्ता) थीं। धीरे-धीरे रजवाड़ों का अधिग्रहण कर प्रांतों का विस्तार हुआ। 1919 और 1935 के अधिनियमों में प्रांतीय शासन की व्यवस्था की गई।
स्वतंत्रता के पूर्व का इतिहास
मुगल साम्राज्य से ब्रिटिश शासन तक: भारत में आधुनिक काल की शुरुआत मुगल साम्राज्य के पतन और ब्रिटिश शासन के आगमन से हुई। ब्रिटिशों ने भारत को प्रशासनिक, सैनिक, और राजनीतिक सुविधा के आधार पर ब्रिटिश प्रांतों और देशी रजवाड़ों में विभाजित किया।
प्रांतों का गठन: शुरुआत में भारत को तीन प्रेसीडेंसी (मद्रास, मुंबई, बंगाल) में विभाजित किया गया। 1833 में आगरा प्रेसीडेंसी का गठन हुआ, जिसे 1836 में पश्चिमोत्तर प्रांत नाम दिया गया। 1856 में अवध का विलय कर, 1877 में इसे आगरा-अवध संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) कहा गया।
ब्रिटिश अधिनियम: 1919 और 1935 के अधिनियमों में प्रांतीय शासन की व्यवस्था की गई। 1935 के अधिनियम के तहत 11 प्रांत बनाए गए: असम, बंगाल, बिहार, मुंबई, सेंट्रल प्रोविंस, मद्रास, नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर, उड़ीसा, पंजाब, सिंध, और संयुक्त प्रांत।
भाषाई आधार पर राज्यों की माँग: 1917 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में इस मुद्दे पर चर्चा हुई। 1920 के नागपुर अधिवेशन में भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग स्वीकार की गई। 1927 में कांग्रेस ने साइमन कमीशन के समक्ष भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का सुझाव दिया और उत्कल, आंध्र, सिंध, और कर्नाटक जैसे राज्यों के गठन का प्रस्ताव रखा।
स्वतंत्रता के पश्चात् देशी रियासतों का विलय
1. रियासतों की स्थिति स्वतंत्रता से पहले:
ब्रिटिश शासन काल में भारत में दो प्रकार के प्रांत थे:
देशी रियासतें: जिनके आंतरिक प्रशासन पर स्थानीय राजाओं का अधिकार था।
ब्रिटिश प्रांत: सीधे ब्रिटिश सरकार द्वारा शासित।
भारत में लगभग 600 देशी रियासतें थीं, जिनके भविष्य को लेकर कैबिनेट मिशन योजना और माउंटबेटन योजना अस्पष्ट रहीं। इन रियासतों को स्वतंत्रता, भारत, या पाकिस्तान में विलय का विकल्प दिया गया।
2. स्वतंत्र रियासतों का खतरा
रियासतों की स्वतंत्रता भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा थी। रियासतों की प्रजा ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत भारतीय संघ का हिस्सा बनने की इच्छा जताई। कांग्रेस ने 1920 से उत्तरदायी सरकार की माँग की और प्रजा मंडलों को समर्थन दिया।
सरदार वल्लभभाई पटेल: सरदार पटेल ने कुशल कूटनीति और दबाव के माध्यम से अधिकांश रियासतों को दो चरणों में भारतीय संघ में विलय किया। उन्होंने ट्रावनकोर, भोपाल, और हैदराबाद जैसे राज्यों को प्रलोभन और जन आंदोलनों के जरिए भारत में शामिल किया।
प्रजा आंदोलन: रियासतों में लोकतांत्रिक व्यवस्था की माँग को लेकर जनता ने आंदोलन किए, जिससे राजाओं को झुकना पड़ा। कई रियासतों में प्रजा मंडलों के नेतृत्व में ये आंदोलन सफल हुए।
प्रमुख रियासतों का विलय:हैदराबाद, जूनागढ़, और जम्मू-कश्मीर प्रारंभ में स्वतंत्र रहना चाहते थे, लेकिन बाद में भारतीय संघ में विलय किया गया। अन्य रियासतें मैसूर, बड़ौदा, और इंदौर जैसी रियासतें स्वेच्छा से संविधान सभा में शामिल हुईं।
15 अगस्त, 1947 तक सभी रजवाड़े भारत में शामिल हो गए केवल हैदराबाद, जूनागढ़ तथा जम्मू और कश्मीर को छोड़कर। बाद में इन तीनों को भी भारतीय संघ में शामिल होना पड़ा।
जूनागढ़ का विलय: जूनागढ़, काठियावाड़ प्रायद्वीप की रियासत थी, जहाँ मुस्लिम नवाब का शासन था, लेकिन जनता हिंदू बहुल थी। नवाब मोहब्बत खान ने 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा की, जिसे पाकिस्तान ने स्वीकार कर लिया। जन आंदोलन और भारत के दबाव के चलते नवाब कराची भाग गया। दीवान शाहनवाज भुट्टो ने शासन भारत सरकार को सौंप दिया। 20 फरवरी 1948 को जनमत संग्रह में 91% जनता ने भारत में विलय का समर्थन किया, जिससे जूनागढ़ भारत का हिस्सा बन गया।
हैदराबाद का विलय: हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जिसकी जनसंख्या 1.7 करोड़ थी। निजाम उस्मान अली स्वतंत्र रहना चाहते थे और अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास कर रहे थे। सितंबर 1948 में "ऑपरेशन पोलो" के तहत भारतीय सेना ने हस्तक्षेप किया, जिससे निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया। हैदराबाद भारतीय संघ में शामिल हो गया। भारत सरकार ने निजाम को राज्य प्रमुख का दर्जा और प्रिवी पर्स की सुविधा प्रदान की।
जम्मू-कश्मीर का विलय: जम्मू-कश्मीर एक संवेदनशील रियासत थी, जिसकी सीमा पाकिस्तान, चीन, और तिब्बत से लगती थी। महाराजा हरिसिंह स्वतंत्र रहना चाहते थे और किसी भी देश में विलय से बचते रहे। 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कबायली पठानों के जरिए कश्मीर पर हमला किया। हरिसिंह ने भारत से सैन्य सहायता मांगी और 26 अक्टूबर 1947 को भारत में विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए। शेख अब्दुल्ला को प्रशासनिक प्रमुख बनाया गया। संविधान में अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया, जिसे 2019 में समाप्त कर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया गया।
राज्यों के गठन का संवैधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान ने संघीय व्यवस्था के तहत राज्यों का गठन और पुनर्गठन के लिए स्पष्ट प्रावधान किए हैं।
अनुच्छेद 1: भारत को "राज्यों का संघ" कहा गया है। यह संघ राज्यों के बीच किसी समझौते का परिणाम नहीं है, जैसा कि अमेरिका में है। इसलिए कोई भी राज्य संघ से अलग नहीं हो सकता।
अनुच्छेद 2: संसद को अधिकार है कि वह भारत संघ में नए राज्यों को प्रवेश दे या उनकी स्थापना करे, जिन पर वह उचित शर्तें और प्रतिबंध लगा सकती है।
अनुच्छेद 3: संसद विधि द्वारा निम्नलिखित कार्य कर सकती है:
1. नए राज्यों का निर्माण।
2. राज्यों का विलय या विभाजन।
3. राज्यों की सीमाएँ बढ़ाना या घटाना।
4. राज्यों के नामों में परिवर्तन।
शर्त: राज्य की सीमा में परिवर्तन के लिए राष्ट्रपति की सिफारिश के बाद ही विधेयक संसद में प्रस्तुत किया जा सकता है।
अनुच्छेद 4: अनुच्छेद 2 और 3 के तहत किसी राज्य के गठन, सीमा, या नाम में परिवर्तन से संबंधित विधि को संविधान संशोधन नहीं माना जाएगा। इसे साधारण विधि की तरह पारित किया जा सकता है।
भारत का अविनाशी संघ: संविधान में प्रावधान है कि भारत का संघ अविनाशी है, जबकि राज्यों की सीमाएँ और नाम विनाशी हो सकते हैं। राज्यों की सहमति की आवश्यकता नहीं, लेकिन उनकी राय लेना अनिवार्य है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: राज्यों के गठन और सीमाओं में परिवर्तन का प्रावधान 1935 के भारत सरकार अधिनियम के खंड 290 और ऑस्ट्रेलियाई संविधान से प्रेरित है। बी.एन. राव ने 1947 में संविधान सभा में इसे लागू करने का सुझाव दिया। अंततः संविधान सभा ने यह अधिकार केंद्र को दिया कि वह राष्ट्रपति की अनुशंसा पर राज्यों के गठन और उनकी सीमाओं में परिवर्तन कर सके।
संसद की शक्ति: संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत जटिल प्रक्रिया के बिना, संसद साधारण विधेयक के माध्यम से राज्यों का गठन, सीमा और नाम परिवर्तन कर सकती है।
भाषा के आधार पर नए राज्यों के गठन की माँग
पृष्ठभूमि: भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार 600 से अधिक भाषाएँ प्रचलन में हैं, जिनमें से 300 भाषाएँ आमतौर पर उपयोग होती हैं। स्वतंत्रता से पहले ही भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की माँग उठने लगी थी। कांग्रेस ने 1920 के नागपुर अधिवेशन में इस माँग का समर्थन किया।
स्वतंत्रता पूर्व की माँगें: स्वतंत्रता से पहले भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की माँग शुरू हुई। 1917 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में इस पर चर्चा हुई। 1920 में नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने भाषाई राज्यों के गठन का समर्थन किया। 1927 में साइमन कमीशन के समक्ष उत्कल, आंध्र, सिंध, और कर्नाटक जैसे राज्यों के गठन का सुझाव दिया गया।
स्वतंत्रता के बाद की स्थिति: स्वतंत्रता के बाद विभाजन से उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक, और प्रशासनिक समस्याओं के कारण भाषाई राज्यों की माँग को प्राथमिकता नहीं दी गई। 1948 में कांग्रेस ने नेहरू, पटेल, और सीतारमैया की जेवीपी समिति बनाई। समिति ने सुझाव दिया कि भाषाई आधार पर राज्यों का गठन राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है।
पोट्टी श्रीरामुलु और आंध्र प्रदेश का गठन:1952 में तेलुगु भाषी आंध्र राज्य की माँग को लेकर पोट्टी श्रीरामुलु ने आमरण अनशन किया। 56 दिनों के अनशन के बाद उनकी मृत्यु हो गई, जिससे व्यापक हिंसा भड़क उठी। इसके परिणामस्वरूप, 1 अक्टूबर 1953 को आंध्र प्रदेश का गठन हुआ, जो भाषा के आधार पर बना भारत का पहला राज्य था।
राज्य पुनर्गठन आयोग: 1953 में सरकार ने फजल अली आयोग का गठन किया। आयोग ने सुझाव दिया कि राज्यों का पुनर्गठन केवल भाषा के आधार पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता, प्रशासनिक सुविधा, और आर्थिक व वित्तीय कारकों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।
प्रारंभिक राज्यों का वर्गीकरण (1950):
राज्यों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया:
1. श्रेणी A: पूर्ण विधानसभाएँ (उदाहरण: असम, बिहार, मद्रास)।
2. श्रेणी B: रियासतों के समूह (उदाहरण: हैदराबाद, राजस्थान)।
3. श्रेणी C: चीफ कमिश्नर शासित प्रांत (उदाहरण: दिल्ली, मणिपुर)।
4. श्रेणी D: अंडमान और निकोबार द्वीप समूह।
राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट (1955)
भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश के गठन के बाद, नए राज्यों की माँग और आंदोलनों के कारण राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया। आयोग ने दो वर्षों के विचार-विमर्श के बाद अपनी संस्तुतियाँ दीं, जिनके आधार पर राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 पारित किया गया।
आयोग की प्रमुख संस्तुतियाँ
भाषा और राज्य पुनर्गठन: राज्यों के पुनर्गठन में भाषा को एक महत्त्वपूर्ण आधार माना गया, लेकिन प्रशासनिक, आर्थिक, और राष्ट्रीय एकता जैसे पहलुओं पर भी ध्यान देना आवश्यक था। दक्षिण भारत में चार प्रमुख भाषाओं—तेलुगू, तमिल, कन्नड़, और मलयालम—के आधार पर राज्यों की सीमाएँ पुनर्गठित की गईं।
विशेष क्षेत्रीय सुझाव: उत्तर भारत में हिंदी भाषी बड़े राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान) के विभाजन का सुझाव दिया गया। असम और बिहार में अलग आदिवासी राज्यों की माँग का विरोध किया गया। अलग सिख प्रांत और मुंबई प्रांत के विभाजन का भी समर्थन नहीं किया गया।
मुख सिफारिशें लागू:
1. तेलंगाना क्षेत्र को आंध्र प्रदेश में जोड़ा गया।
2. केरल का गठन त्रावणकोर-कोचीन और मालाबार क्षेत्र को मिलाकर किया गया।
3. मैसूर का गठन कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को मिलाकर हुआ, जिसका नाम 1973 में कर्नाटक रखा गया।
4. मुंबई राज्य का विस्तार मराठी और कच्छ-सौराष्ट्र क्षेत्रों को मिलाकर किया गया।
राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956:
1 नवंबर 1956 को लागू इस अधिनियम के तहत भारत में 14 राज्य और 6 केंद्रशासित प्रदेश बनाए गए।
14 राज्यों में आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, जम्मू-कश्मीर, केरल, मध्य प्रदेश, मद्रास (तमिलनाडु), मैसूर (कर्नाटक), उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, और मुंबई शामिल थे।
6 केंद्रशासित प्रदेशों में अंडमान और निकोबार, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, और लक्षद्वीप शामिल थे।
महत्त्व
राज्यों के पुनर्गठन ने भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को सम्मान देते हुए प्रशासनिक दक्षता सुनिश्चित की। यह राष्ट्रीय एकता को मजबूत करते हुए आर्थिक और सामाजिक योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन का आधार बना।
वर्तमान में नए राज्यों के गठन की माँगें
1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के बाद भी नए राज्यों की माँगें खत्म नहीं हुईं। भारत में क्षेत्रीय, भाषाई, और विकास के आधार पर कई नए राज्यों के गठन की माँगें जारी हैं।
प्रमुख माँगें
हरित प्रदेश (पश्चिमी उत्तर प्रदेश): 22 जिलों को मिलाकर अलग प्रदेश बनाने की पुरानी माँग। मुख्य रूप से राष्ट्रीय लोकदल और क्षेत्रीय दलों द्वारा समर्थित।
कुर्ग प्रदेश (कर्नाटक): अलग भाषा, संस्कृति, और विकास के मुद्दे पर कर्नाटक से अलग होने की माँग।
मिथिलांचल (बिहार): मैथिली भाषी क्षेत्र (दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी) को अलग राज्य बनाने की माँग। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा समर्थक।
सौराष्ट्र (गुजरात): गुजरात से अलग सौराष्ट्र को राज्य का दर्जा देने की माँग। सौराष्ट्र संकलन समिति समर्थक।
बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश): आर्थिक पिछड़ेपन के कारण बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की माँग। बुंदेलखंड कांग्रेस के नेतृत्व में आंदोलन।
तुलुनाडु (कर्नाटक और केरल): तुलु भाषी क्षेत्रों को अलग राज्य बनाने की माँग। भाषा और सांस्कृतिक अलगाव के आधार पर।
कौशल राज्य (ओडिशा): ओडिशा के पश्चिमी हिस्से (संभलपुर, बलांगीर) को अलग कर नया राज्य बनाने की माँग। कौशल क्रांति दल समर्थक।
ग्रेटर कूच बिहार (पश्चिम बंगाल): भाषा और संस्कृति के आधार पर अलग राज्य की माँग। सीमित क्षेत्रीय समर्थन।
पूर्वांचल (पूर्वी उत्तर प्रदेश): 35 जिलों को अलग कर नया राज्य बनाने की माँग। जनवादी पार्टी समर्थक।
मरु प्रदेश (पश्चिमी राजस्थान): विकास की कमी के आधार पर 9 जिलों को मिलाकर राज्य की माँग। जयवीर सिंह गोदारा और क्षेत्रीय संगठन समर्थक।
विंध्य प्रदेश (मध्य प्रदेश): रीवा और आसपास के क्षेत्रों को मिलाकर अलग राज्य बनाने की माँग। 1956 में मध्य प्रदेश में विलय के बाद यह माँग पुनः सक्रिय।