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भारतीय राजनीति और सरकार UNIT 1 SEMESTER 2 THEORY NOTES भारतीय संविधान : भारतीय संविधान में आधारभूत तत्त्व, मौलिक अधिकार और राज्य में नीति निर्देशक तत्त्व के मध्य एक वाद-विवाद Political DU. SOL.DU NEP COURSES

भारतीय राजनीति और सरकार UNIT 1 SEMESTER 2 THEORY NOTES भारतीय संविधान : भारतीय संविधान में आधारभूत तत्त्व, मौलिक अधिकार और राज्य में नीति निर्देशक तत्त्व के मध्य एक वाद-विवाद HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES



 भारतीय संविधान में आधारभूत तत्त्व 

भारतीय संविधान देश की शासन व्यवस्था का आधार है, जो नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन और सामाजिक-आर्थिक सुधार की दिशा प्रदान करता है। यह एक जीवंत दस्तावेज है, जो समय के साथ बदलती आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप संशोधित होता रहता है। संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, जिसके निर्माण में 2 साल 11 महीने 18 दिन लगे। यह संविधान भारतीय लोकतंत्र की मूल विशेषताओं, मूल तत्वों, और न्यायपालिका द्वारा की गई व्याख्याओं को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक है।

 भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषताएँ  

  • लिखित संविधान: भारत का संविधान आधुनिक लोकतांत्रिक देशों (अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस) की तरह लिखित है। ब्रिटेन, जो लिखित संविधान नहीं रखता, विभिन्न कानूनों और परंपराओं से शासित है।
  • विस्तृत संविधान: भारतीय संविधान विश्व का सबसे विस्तृत संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद, 22 भाग, और 12 अनुसूचियाँ शामिल थीं, जो विविधतापूर्ण भारतीय समाज और बहुसांस्कृतिक संरचना के कारण हैं।
  • संप्रभुता: भारत एक संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य है। इसमें शक्ति जनता के हाथों में है, जिसे वे अपने मताधिकार के माध्यम से प्रतिनिधियों को प्रदान करते हैं।
  • धर्मनिरपेक्षता: भारत "एकता में विविधता" का प्रतीक है, जहाँ सभी धर्मों को समान मान्यता दी जाती है। 42वें संशोधन द्वारा "धर्मनिरपेक्षता" शब्द संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया।
  • समाजवादी राज्य: संविधान में "समाजवादी" शब्द 42वें संशोधन (1976) में जोड़ा गया। यह गरीबों और पिछड़े वर्गों के उत्थान के उद्देश्य से सामाजिक-आर्थिक नीतियों पर केंद्रित है।
  • संविधान की सर्वोच्चता: संविधान भारतीय शासन प्रणाली का सर्वोच्च कानून है। इसे केशवानंद भारती केस में मूल संरचना के सिद्धांत द्वारा संरक्षित किया गया।
  • संघीय व्यवस्था: भारतीय संविधान में संघीय और एकात्मक तत्वों का समन्वय है। इसमें शक्तियों का दो स्तरों (केंद्र और राज्य) में विभाजन है।
  • मौलिक अधिकार: संविधान के भाग-III में मौलिक अधिकार दिए गए हैं, जैसे समानता, स्वतंत्रता, शोषण के खिलाफ अधिकार आदि। ये अधिकार न्यायालय द्वारा संरक्षित हैं।
  • राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व: आयरलैंड के संविधान से प्रेरित ये तत्त्व सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
  • मौलिक कर्त्तव्य: 42वें संशोधन (1976) द्वारा अनुच्छेद 51A में मौलिक कर्त्तव्य जोड़े गए। ये नागरिकों के लिए नैतिक दिशा-निर्देश हैं।
  • स्थानीय शासन: 73वें और 74वें संशोधन (1992) द्वारा त्रिस्तरीय पंचायत और शहरी स्थानीय शासन को सशक्त किया गया, जो महात्मा गाँधी के स्वशासन के विचार से प्रेरित है।


 भारतीय संविधान की आलोचना 

  • विशाल आकार: भारतीय संविधान में 395 मूल अनुच्छेद थे, लेकिन संशोधनों के बाद इनकी संख्या 440 से अधिक हो गई है। 70 वर्षों में 100 से अधिक संशोधन किए गए, जबकि अमेरिकी संविधान में 230 वर्षों में केवल 29 संशोधन हुए।
  • उधार का संविधान: आलोचक इसे "उधार का संविधान" कहते हैं, क्योंकि इसमें अमेरिका, ब्रिटेन, वायमर गणराज्य और सोवियत संघ जैसे देशों के संविधानों से विभिन्न प्रावधान लिए गए हैं।
  • जटिलता: संविधान की विविधता और विस्तृत स्वरूप के कारण इसे आम नागरिकों के लिए समझना कठिन है।
  • 1935 के अधिनियम की छाया: भारतीय संविधान में भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रावधानों का व्यापक समावेश है, जिससे इसे "1935 की संशोधित प्रति" कहकर आलोचना की गई है।


 भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना 

भारतीय संविधान निर्माताओं ने मूल संरचना की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की थी। यह अवधारणा समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों से विकसित हुई।

  • शंकरी प्रसाद बनाम भारतीय संघ (1951): न्यायालय ने कहा कि संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने का अधिकार संसद को है।
  • सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1965): न्यायालय ने संशोधन की शक्ति को सीमित मानते हुए कहा कि संसद संविधान की मूल संरचना को नष्ट नहीं कर सकती।
  • गोलकानाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद के पास मौलिक अधिकारों को संशोधित करने की शक्ति नहीं है।
  • इंदिरा गाँधी का "गरीबी हटाओ" अभियान (1970): सामाजिक क्रांति के लिए उन्होंने 24वें और 25वें संशोधन किए। 24वें संशोधन में संसद को संविधान संशोधन का अधिकार दिया गया, और 25वें संशोधन में इसे विस्तारित किया गया।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस ऐतिहासिक फैसले में न्यायालय ने "मूल संरचना सिद्धांत" की स्थापना की। संसद को संविधान में संशोधन की अनुमति दी गई, लेकिन संविधान की मूल संरचना को क्षति पहुँचाने या समाप्त करने का अधिकार नहीं दिया गया।

मूल संरचना सिद्धांत के तत्व:

  • प्रस्तावना में निहित उद्देश्य (संप्रभुता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, लोकतंत्र)।
  • मौलिक अधिकार।
  • विधि का शासन।
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता।
  • शक्तियों का संतुलन।

इस प्रकार, न्यायालय ने संविधान की रक्षा के लिए इसे मूल संरचना सिद्धांत द्वारा सुरक्षित किया।



 मौलिक अधिकार और राज्य में नीति निर्देशक तत्त्व के मध्य एक वाद-विवाद 

अधिकार नागरिकों के गरिमापूर्ण जीवन के लिए आवश्यक हैं, जिनका उल्लेख भारतीय संविधान के भाग-III (अनुच्छेद 12-35) में है। इनमें समता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धार्मिक स्वतंत्रता, संस्कृति व शिक्षा, संपत्ति, और संवैधानिक उपचारों के अधिकार शामिल हैं। संपत्ति के अधिकार को 44वें संविधान संशोधन (1978) के तहत मूल अधिकार से हटाकर अनुच्छेद 300(A) में रखा गया। संविधान में नीति-निर्देशक तत्त्वों को आयरलैंड से लिया गया है, जो सामाजिक न्याय व समानता सुनिश्चित करने के लिए मौलिक अधिकारों के पूरक हैं।

 मौलिक अधिकारों के मुख्य लक्षणों की विवेचना 

  • सकारात्मक और नकारात्मक स्वरूप: मौलिक अधिकार नागरिक और गैर-नागरिक दोनों को प्रदान किए गए हैं, जैसे अनुच्छेद 21 (जीवन और दैहिक स्वतंत्रता)। हालांकि, कुछ अधिकार जैसे अनुच्छेद 20 और 21 आपातकाल में भी स्थगित नहीं किए जा सकते।
  • नागरिक और गैर-नागरिकों के अधिकार: कुछ अधिकार केवल नागरिकों के लिए हैं, जैसे समानता और स्वतंत्रता के अधिकार, जबकि अन्य अधिकार (जैसे जीवन का अधिकार) गैर-नागरिकों को भी उपलब्ध हैं।
  • संविधान की मूल संरचना: केशवानंद भारती केस (1973) के तहत मौलिक अधिकारों को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना गया, जो स्थगित या समाप्त नहीं किए जा सकते।
  • तार्किक प्रतिबंध: समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों पर तार्किक और कानूनी प्रतिबंध लगाए गए हैं। ये अधिकार जातीय भेदभाव के बिना नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों को प्रदान किए जाते हैं।
  • राजनीतिक आयाम: मौलिक अधिकारों में राजनीतिक न्याय और प्रक्रियात्मक न्याय का समावेश है।
  • न्यायिक संरक्षण: मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर नागरिक अनुच्छेद 32 (सर्वोच्च न्यायालय) और अनुच्छेद 226 (उच्च न्यायालय) के तहत न्याय की मांग कर सकते हैं।
  • संबंधित अनुच्छेद: मौलिक अधिकार भारतीय संविधान के भाग III (अनुच्छेद 12-35) में विस्तार से वर्णित हैं। इन अधिकारों में शामिल हैं:

1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)

2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)

4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)

5. संस्कृति और शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 29-30)

6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)


1. समता का अधिकार 

  •  कानून के समक्ष समानता (अनुच्छेद 14): सभी व्यक्तियों को कानून की दृष्टि में समानता और विधि के समान संरक्षण का अधिकार प्राप्त है। यह सभी नागरिकों को समान मानता है, चाहे वह प्रधानमंत्री हो या कोई आम नागरिक।
  • धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 15): राज्य धर्म, जाति, लिंग, भाषा या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा। सार्वजनिक संसाधनों में भेदभाव निषिद्ध है, और EWS वर्ग को 10% आरक्षण (103वां संशोधन) प्रदान किया गया है।
  • राजकीय सेवाओं में समान अवसर (अनुच्छेद 16): सरकारी नौकरियों में सभी नागरिकों को समान अवसर दिया गया है। किसी भी प्रकार का भेदभाव निषिद्ध है, और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए 10% आरक्षण प्रदान किया गया है।
  • अस्पृश्यता का अंत (अनुच्छेद 17): अस्पृश्यता को समाप्त कर इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। इसे रोकने के लिए 1955 का अस्पृश्यता अपराध अधिनियम लागू किया गया, जिसे 1976 में और कठोर बनाया गया।
  • उपाधियों का निषेध (अनुच्छेद 18): शैक्षणिक और सैन्य उपाधियों को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की उपाधियों पर रोक लगाई गई है। भारत रत्न और पद्म पुरस्कार जैसे अलंकरण केवल सम्मान के लिए हैं, लेकिन इन्हें नाम के साथ उपयोग नहीं किया जा सकता।


2. अनुच्छेद 19: नागरिकों को स्वतंत्रताएँ

नागरिकों को 6 मुख्य स्वतंत्रताएँ दी गई हैं:

  • वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता 
  • शांतिपूर्ण सभा करने की स्वतंत्रता 
  • समुदाय या संघ बनाने की स्वतंत्रता 
  • भारत में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता।
  • किसी भी जगह रहने और बसने की स्वतंत्रता।
  • व्यापार, व्यवसाय, या नौकरी करने की स्वतंत्रता।

कानूनी सुरक्षा ( अनुच्छेद 20)

  • किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक दंड नहीं दिया जाएगा। अपराध के समय जो कानून लागू था, दंड उसी के अनुसार दिया जाएगा। इसके अलावा, किसी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाही देने (आत्मसाक्ष्य) के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता ( अनुच्छेद 21)

  • प्राण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही छीना जा सकता है। इसमें निजता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, और गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार शामिल हैं।

गिरफ्तारी और हिरासत से सुरक्षा (अनुच्छेद 22)

अनुच्छेद 22 के तहत नागरिकों को गिरफ्तारी और हिरासत से सुरक्षा प्रदान की गई है। इसमें शामिल हैं:

  • गिरफ्तारी का कारण जानने का अधिकार।
  • विधि व्यवसायी (वकील) से परामर्श लेने का अधिकार।
  • गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए जाने का अधिकार।
  • निवारक हिरासत कानून (जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, आतंकवाद निरोधक अधिनियम) के तहत अपवाद स्वीकार्य हैं।


 न्यायपालिका द्वारा मौलिक अधिकारों की व्याख्या 

भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर मौलिक अधिकारों की व्याख्या करते हुए उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की है।

  • शंकरी प्रसाद बनाम भारतीय संघ (1951): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 13(2) साधारण कानूनों पर लागू होता है, संवैधानिक संशोधनों पर नहीं। संसद को मौलिक अधिकारों को संशोधित करने की असीमित शक्ति दी गई।
  • सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1964): न्यायालय ने पहले के फैसले को बरकरार रखा और संसद की संशोधन शक्ति को वैध ठहराया।
  • गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद को मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार नहीं है। इसे संविधान की सीमित शक्ति करार दिया गया।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): "मूल संरचना सिद्धांत" की स्थापना की गई। संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार दिया गया, लेकिन संविधान की मूल संरचना को नष्ट करने की अनुमति नहीं दी गई।

मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद

  • अनुच्छेद 27: किसी भी व्यक्ति को धार्मिक कार्यों के लिए कर चुकाने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
  • अनुच्छेद 28: पूरी तरह राज्य पोषित शैक्षणिक संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती।
  • अनुच्छेद 29: अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि, और संस्कृति की सुरक्षा का अधिकार।
  • अनुच्छेद 30: अल्पसंख्यकों को अपने बच्चों को अपनी भाषा में शिक्षा देने और शैक्षणिक संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का "आत्मा और हृदय" कहा। यह अनुच्छेद नागरिकों को यह अधिकार प्रदान करता है कि यदि उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो वे सर्वोच्च न्यायालय में इसके संरक्षण की अपील कर सकते हैं।

मुख्य बिंदु:-

1. संवैधानिक उपचारों का अधिकार

यदि मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो व्यक्ति अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है। यह न्यायालय को पाँच प्रकार की रिट जारी करने की शक्ति देता है

  • हैबियस कॉर्पस: अवैध हिरासत से मुक्ति।
  • मंडामस: किसी सार्वजनिक अधिकारी को अपने कर्तव्य का पालन करने का आदेश।
  • प्रोहिबिशन: निचली अदालत को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने से रोकना।
  • सर्टिओरारी: निचली अदालत द्वारा दिए गए निर्णय को रद्द करना।
  • क्यू वॉरंटो: किसी पद पर व्यक्ति के वैध अधिकार को चुनौती देना।

2. गोलकनाथ केस (1967)

  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन मौलिक अधिकारों को कम या समाप्त नहीं कर सकती।

3. इंदिरा गांधी और संशोधन

  • 24वाँ संशोधन: अनुच्छेद 13 और 368 के बीच विवाद को सुलझाने का प्रयास किया।
  • 25वाँ संशोधन: मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्त्वों को एक-दूसरे का पूरक बताया।
  • इन संशोधनों को केशवानंद भारती केस (1973) में चुनौती दी गई।

4. केशवानंद भारती केस (1973)

  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन मूल संरचना सिद्धांत के अंतर्गत संविधान की मूल विशेषताओं को नष्ट नहीं कर सकती।


 राज्य में नीति-निर्देशक तत्त्व 

नीति-निर्देशक तत्त्व भारतीय संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36-51) में वर्णित हैं। ये समाजवादी और आर्थिक मूल्यों पर आधारित हैं और आयरलैंड के संविधान से प्रेरित हैं। इनका उद्देश्य भारत को सिर्फ राजनैतिक लोकतंत्र नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना है।

उद्देश्य

  • कल्याणकारी राज्य की स्थापना: समाजवादी और आर्थिक विचारों से प्रेरित।
  • गाँधीवादी विचारधारा: ग्रामीण विकास, कुटीर उद्योगों का प्रोत्साहन, और विकेंद्रीकरण पर बल।
  • उदारवादी सिद्धांत: समान नागरिक संहिता (अनुच्छेद 44) और न्यायपालिका-कार्यपालिका का पृथक्करण।
  • अंतर्राष्ट्रीय शांति: न्यायपूर्ण और समान संबंध स्थापित करने का प्रयास।

महत्वपूर्ण अनुच्छेद

  • अनुच्छेद 38: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय द्वारा लोक कल्याण की अभिवृद्धि।
  • अनुच्छेद 40: ग्राम पंचायतों का गठन और उन्हें स्व-शासन की इकाई के रूप में स्थापित करना।
  • अनुच्छेद 41: बेरोजगारों और नि-शक्तजनों के लिए सहायता।
  • अनुच्छेद 42: मानवोचित कार्य दशाओं और प्रसूति सहायता।
  • अनुच्छेद 43: कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी और शिष्ट जीवन स्तर।
  • अनुच्छेद 45: 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा।
  • अनुच्छेद 47: स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक वस्तुओं पर रोक।
  • अनुच्छेद 48: गाय और अन्य पशुओं की बलि पर रोक।
  • अनुच्छेद 49: ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों का संरक्षण।
  • अनुच्छेद 50: न्यायपालिका और कार्यपालिका का पृथक्करण।
  • अनुच्छेद 51: अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा।

गाँधीवादी दृष्टिकोण

  • ग्राम पंचायतों और कुटीर उद्योगों का प्रोत्साहन (अनुच्छेद 40 और 43)।
  • विकेंद्रीकरण पर जोर।


 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नीति-निर्देशक तत्त्वों की व्याख्या: 

  • चंपकम दोराईराजन बनाम मद्रास राज्य: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नीति-निर्देशक तत्त्व मौलिक अधिकारों के सहायक हैं।
  • गोलकनाथ केस (1967): न्यायालय ने मौलिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्वों पर प्राथमिकता दी।
  • केशवानंद भारती केस (1973): न्यायालय ने मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्त्वों दोनों को संविधान की मूल संरचना का भाग माना।
  • मिनर्वा मिल्स केस (1980): मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि मौलिक अधिकार और नीति-निर्देशक तत्त्व एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।
  • एन.एम. थॉमस बनाम केरल राज्य (1977) और अशोक कुमार बनाम भारत: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मौलिक अधिकार और नीति-निर्देशक तत्त्व विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं।






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