परिचय
18वीं सदी भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जब मुगल साम्राज्य का पतन हुआ और क्षेत्रीय शक्तियों जैसे बंगाल, अवध, हैदराबाद, मराठा, और सिख संघ का उदय हुआ। इस दौरान यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों ने भारत में अपनी मौजूदगी बढ़ाई, जिससे व्यापारिक प्रतिस्पर्धा और सैन्य संघर्ष तेज हुए। प्लासी (1757) और वांडिवाश (1760) की लड़ाइयों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को प्रमुख शक्ति बना दिया, जिससे भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की नींव पड़ी। यह युग भारतीय राजनीति, समाज, और अर्थव्यवस्था में गहरे बदलावों का प्रतीक था।
पृष्ठभूमि
18वीं सदी भारतीय इतिहास में बदलाव का युग थी। यह समय मुगल साम्राज्य के पतन और नई क्षेत्रीय शक्तियों के उदय का गवाह बना।
- मुगल साम्राज्य का पतन: 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य कमजोर होने लगा। अहमद शाह अब्दाली और नादिर शाह जैसे आक्रमणकारियों, मराठों, जाटों, और सिखों के हमलों ने इसे और कमजोर किया। साम्राज्य की आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी, जिससे शाही दरबार गुटबाजी और षड्यंत्रों का केंद्र बन गया।
- क्षेत्रीय शक्तियों का उदय: 1730 तक मुगल साम्राज्य कई क्षेत्रीय राज्यों में बंट गया। इनमें बंगाल, अवध, हैदराबाद जैसे राज्य उभरे। वहीं, मराठा और जाटों जैसे समूहों ने लंबे संघर्षों के बाद अपनी सत्ता स्थापित की।
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभाव: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्लासी (1757) और वांडिवाश (1760) जैसी लड़ाइयों के बाद भारत में राजनीतिक सत्ता हासिल की। कंपनी धीरे-धीरे भारत पर नियंत्रण स्थापित करती गई।
- सांस्कृतिक और आर्थिक बदलाव: लखनऊ, हैदराबाद, बनारस, और तंजौर जैसे क्षेत्रीय राज्य कला, व्यापार, और शिक्षा के केंद्र बने। बनारस धार्मिक और व्यापारिक केंद्र के रूप में उभरा, जबकि तंजौर धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख स्थल बना।
- अंतिम मुगल और ब्रिटिश शासन: 1857 के विद्रोह के बाद अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर को हटाकर अंग्रेजों ने भारत पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया।
मुग़ल साम्राज्य का पतन
1. मुग़ल साम्राज्य के पतन के राजनीतिक कारण
1. उत्तराधिकार के नियम का अभाव: मुग़ल साम्राज्य की नींव शक्ति पर आधारित थी। बाबर से लेकर औरंगज़ेब तक, सभी शासकों ने सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए बल का सहारा लिया। उत्तराधिकार का कोई निर्धारित नियम न होने के कारण हर शासक की मृत्यु के बाद सत्ता संघर्ष शुरू हो जाता था। यह संघर्ष प्रायः राजपरिवार, दरबारी, और साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि अमीर, सूबेदार और जागीरदार भी इसमें सम्मिलित होते थे। इन गृह युद्धों ने मुग़लों की शक्ति और प्रतिष्ठा को काफी हद तक क्षीण कर दिया। इस क्रम में औरंगज़ेब के बाद सत्ता कमजोर हो गई, जिससे साम्राज्य विघटन की ओर बढ़ा।
2. औरंगज़ेब के दुर्बल उत्तराधिकारी: औरंगज़ेब के बाद मुग़ल साम्राज्य पर दुर्बल और अयोग्य शासकों का कब्ज़ा हो गया। बहादुरशाह प्रथम से लेकर बहादुरशाह ज़फ़र तक के शासक चारित्रिक और प्रशासनिक क्षमता में कमजोर थे। ये शासक भोग-विलास में डूबे रहते और उनके पास सशक्त इच्छाशक्ति का अभाव था। इस कारण साम्राज्य में क्षेत्रीय शक्तियां मजबूत हो गईं। वजीर और अन्य उच्च पदाधिकारियों ने अपने स्वार्थ के लिए बादशाहों को कठपुतली बना दिया। इन घटनाओं ने साम्राज्य को तेज़ी से पतन की ओर धकेल दिया।
3. प्रांतीय सूबेदारों की महत्त्वाकांक्षा: केंद्रीय सत्ता की कमजोरी का लाभ उठाकर प्रांतीय सूबेदारों ने अपनी शक्ति और स्वतंत्रता बढ़ानी शुरू कर दी। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र शासन स्थापित करने का प्रयास किया। मुग़ल साम्राज्य के दक्षिणी हिस्से मराठों के नियंत्रण में आ गए, जबकि हैदराबाद, बंगाल, अवध, और पंजाब जैसे सूबे केंद्रीय नियंत्रण से बाहर हो गए। इससे मुग़ल सत्ता दिल्ली तक सिमट कर रह गई।
4. दरबारी षड्यंत्र और गुटबाज़ी: औरंगज़ेब के अंतिम वर्षों में दरबार में गुटबाज़ी और षड्यंत्रों का दौर शुरू हुआ। दरबार के तूरानी और पर्शियाई गुट आपस में सत्ता के लिए संघर्ष करते थे। इन समूहों के बीच के विवादों ने प्रशासन को कमजोर कर दिया। विदेशी आक्रमणों के दौरान भी ये समूह एकजुट नहीं हो पाए और अक्सर दुश्मनों से मिलकर षड्यंत्र रचते थे। इससे साम्राज्य के पतन की गति तेज़ हो गई।
5. प्रशासनिक भ्रष्टाचार: प्रारंभिक मुग़ल काल में प्रशासन में नियुक्तियां योग्यता के आधार पर होती थीं, लेकिन समय के साथ यह परंपरा खत्म हो गई। मनसब और जागीर जैसे पद धन और सिफारिश के आधार पर दिए जाने लगे। अयोग्य और स्वार्थी अधिकारियों के कारण प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह नष्ट हो गई। जागीरदारी व्यवस्था के दुष्प्रभाव भी प्रशासन पर भारी पड़े। भ्रष्टाचार, लापरवाही और विलासिता के कारण विशाल साम्राज्य को बनाए रखना असंभव हो गया।
6. मुग़लों की विदेशी उत्पत्ति: मुग़ल शासक मध्य एशिया से भारत आए थे, और उन्होंने विदेशी नीतियों और परंपराओं का पालन किया। भारतीय समाज और संस्कृति से उनके रिश्ते कमजोर थे। अकबर ने भारतीयों को मुग़ल शासन का समर्थक बनाने के प्रयास किए, लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने भारतीयों की उपेक्षा की। यह भी मुग़ल साम्राज्य के पतन में योगदान देने वाला एक कारण बना।
7. विदेशी आक्रमण: 18वीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य पर अफ़गान आक्रमणकारियों नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली ने हमला किया। इन आक्रमणों ने साम्राज्य की शेष शक्ति और प्रतिष्ठा को भी नष्ट कर दिया। नादिर शाह ने दिल्ली को लूटा और मुग़ल सत्ता की दयनीय स्थिति उजागर की। अहमद शाह अब्दाली ने मराठों को परास्त कर साम्राज्य को और कमजोर कर दिया।
8. भारत में यूरोपीय शक्तियों का प्रभाव: 16वीं शताब्दी से भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन हुआ। व्यापार के बहाने उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में दखल देना शुरू कर दिया। 18वीं शताब्दी तक अंग्रेज भारत की प्रमुख शक्ति बन चुके थे। बक्सर के युद्ध के बाद मुग़ल सम्राट शाहआलम अंग्रेजों का पेंशनभोक्ता बन गया। 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने औपचारिक रूप से मुग़ल साम्राज्य का अंत कर दिया।
2. मुग़ल साम्राज्य के पतन के आर्थिक कारण
1. कमजोर आर्थिक व्यवस्था
मुग़ल साम्राज्य की आर्थिक व्यवस्था का पतन, विशेष रूप से जागीरदारी और कृषि व्यवस्था के संकट, एक प्रमुख कारण था।
- जागीरदारी व्यवस्था का संकट: इतिहासकार सतीश चंद्र के अनुसार, जागीरदारों की संख्या बढ़ने के बावजूद जागीरें सीमित थीं। मनसबदारों को जागीरों से अपनी सेना का खर्च और अन्य प्रशासनिक कार्यों को चलाना होता था। औरंगज़ेब के शासनकाल में जागीरदारी व्यवस्था कमजोर हो गई और इसे स्थायी रूप से बनाए रखना असंभव हो गया। जागीरदारी प्रणाली की इस विफलता ने मुग़ल प्रशासन को कमजोर कर दिया।
- कृषि व्यवस्था का संकट: किसानों पर राजस्व का भारी बोझ डाला गया। जागीरदार अधिकतम राजस्व वसूलने के प्रयास में किसानों को बुनियादी आवश्यकताओं से भी वंचित कर देते थे। किसानों के विरोध और राजस्व में गिरावट ने मुग़ल साम्राज्य की आर्थिक और सामाजिक संरचना को कमजोर कर दिया। इतिहासकार इरफान हबीब के अनुसार, यह विरोध मुग़ल सत्ता और ग्रामीण समुदाय के बीच संबंधों में खटास का कारण बना।
2. क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं में परिवर्तन
सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक भारत में क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं का विकास हो रहा था।
- स्थानीय उत्पादन और व्यापार का विस्तार: बंगाल, गुजरात, और दक्कन जैसे क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता बढ़ी और व्यापार नेटवर्क विकसित हुआ। कपास और नील जैसी नकदी फसलों ने आर्थिक समृद्धि में योगदान दिया। इन क्षेत्रों ने केंद्रीय मुग़ल प्रशासन पर निर्भरता कम कर दी और क्षेत्रीय शक्तियां उभरने लगीं।
- क्षेत्रीय स्वायत्तता: इन समृद्ध क्षेत्रों ने अपनी आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली, जिससे मुग़ल साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति कमजोर हो गई।
3. पोर्टफोलियो पूंजीपतियों और नवधनाढ्य वर्ग का उदय
अठारहवीं सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापारी, बैंकर और वित्तीय समूहों का प्रभाव बढ़ा।
- आर्थिक और राजनीतिक शक्ति: इन पूंजीपतियों ने क्षेत्रीय शासकों और महत्वाकांक्षी सरदारों को वित्तीय सहायता देकर उन्हें मुग़ल सत्ता को चुनौती देने में सक्षम बनाया।
- व्यापार और निवेश का प्रभाव: इन समूहों ने व्यापार, माल की आवाजाही और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय नेटवर्क को मजबूत किया। उनकी आर्थिक ताकत ने उन्हें क्षेत्रीय शासकों पर प्रभाव डालने और अपनी शर्तों पर निर्णय लेने की क्षमता दी।
4. क्षेत्रीय शक्तियों का आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व
पोर्टफोलियो पूंजीपतियों की आर्थिक मदद से हैदराबाद और मैसूर जैसे शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ।
- निज़ाम और हैदर अली का समर्थन: स्थानीय शासक इन व्यापारियों और बैंकरों पर अत्यधिक निर्भर थे। इससे केंद्रीय मुग़ल प्रशासन कमजोर हुआ और आर्थिक और राजनीतिक शक्ति क्षेत्रीय स्तर पर स्थानांतरित हो गई।
- स्थानीय संसाधनों का बेहतर उपयोग: क्षेत्रीय शासक अपने स्थानीय संसाधनों का अधिक कुशलता से उपयोग करने लगे, जिससे आर्थिक विकास को गति मिली।
3. औरंगजेब की भूमिका
- कठोर नीतियां और विद्रोहों का उदय: औरंगजेब की कठोर और अदूरदर्शी नीतियों ने साम्राज्य को कमजोर किया। राजपूतों, मराठों, और जाटों के प्रति उसका सख्त रवैया विद्रोहों का मुख्य कारण बना। छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में मराठा शक्ति का उदय और जाट विद्रोह साम्राज्य के लिए बड़े संकट बन गए।
- साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा: औरंगजेब ने बीजापुर और गोलकुंडा पर विजय प्राप्त कर साम्राज्य का विस्तार किया, लेकिन इससे संसाधनों पर भारी दबाव पड़ा। इन विजय अभियानों ने मराठा शक्ति को उभरने का अवसर दिया।
- निरंकुश शासन और अभिजात वर्ग की नाराजगी: औरंगजेब का शासन केंद्रीकृत और निरंकुश था, जिससे अभिजात वर्ग और अधिकारी असंतुष्ट हो गए। उन्होंने अपनी स्थिति और अधिकार खो दिए, जिससे साम्राज्य की प्रशासनिक संरचना कमजोर हो गई।
- गृह संघर्ष और उत्तराधिकार संकट: औरंगजेब ने अपने बेटों के बीच सत्ता संघर्ष को रोकने के लिए साम्राज्य को चार हिस्सों में बाँटा, लेकिन यह योजना विफल रही। उसकी मृत्यु के बाद गृह कलह तेज हो गई, जिसने साम्राज्य को अराजकता में धकेल दिया।
- औरंगजेब की नीतियों के कारण साम्राज्य आंतरिक संघर्षों, कमजोर प्रशासन और बाहरी दबावों के सामने असहाय हो गया। उसकी मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य तेजी से विघटित हो गया।
4. धार्मिक कारण
अकबर के बाद मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति में संकीर्णता बढ़ने लगी, जिससे साम्राज्य को भारी क्षति पहुँची। जहाँगीर, शाहजहाँ, और विशेषकर औरंगजेब की धार्मिक संकीर्णता ने बहुसंख्यक हिंदुओं को मुगलों का विरोधी बना दिया।
- धार्मिक भेदभाव और अत्याचार: शाहजहाँ और औरंगजेब की नीतियों से हिंदुओं को ऐसा महसूस हुआ कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। धार्मिक असहिष्णुता ने समाज में असंतोष और विद्रोह को बढ़ावा दिया।
- विद्रोहों का उदय: राजपूत, मराठा, जाट, सतनामी, और सिख जैसे समुदायों ने मुगल सत्ता के खिलाफ विद्रोह किया। औरंगजेब इन विद्रोहों को दबाने में असफल रहा, जिससे मुगल साम्राज्य कमजोर हो गया।
- जनता की सहानुभूति का अभाव: धार्मिक भेदभाव के कारण मुगलों ने सामान्य जनता की सहानुभूति खो दी। जनता के असंतोष और विरोध ने साम्राज्य की जड़ों को कमजोर कर दिया।
- साम्राज्य का कमजोर होना: धार्मिक कारणों से उपजे विद्रोहों और असंतोष ने मुगल साम्राज्य की नींव हिला दी। औरंगजेब के बाद भी ये विद्रोह जारी रहे, जिससे साम्राज्य का पतन और तेज हो गया।
5. मुगलों की सैन्य दुर्बलताएँ
- मनसबदारी व्यवस्था की कमजोरी: मुगल सेना मनसबदारी व्यवस्था पर आधारित थी, लेकिन समय के साथ यह व्यवस्था कमजोर हो गई। मनसबदारों की वफादारी सम्राट के बजाय व्यक्तिगत लाभ के प्रति हो गई, जिससे सेना का सामूहिक प्रभाव घटने लगा।
- विविधता और एकजुटता का अभाव: मुगल सेना में विभिन्न जातियों, क्षेत्रों और राष्ट्रों के सैनिक शामिल थे, जिनमें राष्ट्रीयता और सामूहिक एकता का अभाव था। संकट की स्थिति में ये सैनिक एकजुट होकर नहीं लड़ पाते थे।
- राजपूतों का अलगाव: प्रारंभ में मुगलों की सेना का मुख्य आधार राजपूत थे, लेकिन उन्हें अलग कर मुगलों ने अपनी सैन्य शक्ति को कमजोर कर लिया।
- अनुशासनहीनता और विलासिता: सेना में अनुशासनहीनता, विलासिता, और सेनापतियों के आपसी विवाद बढ़ गए। यह मुगल सेना की क्षमताओं को कमजोर करने वाला मुख्य कारण बना।
- रणनीतिक और तकनीकी कमजोरियाँ: मुगल सेना पुराने अस्त्र-शस्त्रों पर निर्भर थी और नौसेना का अभाव था। यह सेना केवल मैदानी युद्धों में कुशल थी और छापामार युद्ध जैसी आधुनिक रणनीतियों से अनभिज्ञ थी।
- लगातार युद्धों का प्रभाव: उत्तराधिकार संघर्षों और अनावश्यक युद्धों ने मुगल सेना की ताकत और संसाधनों को बुरी तरह क्षीण कर दिया।
6. नए सामाजिक समूहों का उदय
मुगल साम्राज्य के पतन के साथ, नए सामाजिक और राजनीतिक समूहों का उदय हुआ, जिन्होंने क्षेत्रीय राजनीति और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- क्षेत्रीय शक्तियों का उभार: मुगल सत्ता के कमजोर होने से स्थानीय सरदार, जमींदार, और व्यापारी वर्ग मजबूत हुए। उन्होंने अपनी सैन्य शक्तियाँ और प्रशासनिक संरचनाएँ विकसित कीं, जिससे मुगलों की केंद्रीय सत्ता और कमजोर हो गई।
- क्षेत्रीय इकाइयों की स्थापना: इन समूहों ने कई बार अर्ध-स्वायत्त या स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की।
1. मराठा: पश्चिमी भारत में मराठाओं ने प्रभावी क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभर कर मुगलों को चुनौती दी।
2. सिख: पंजाब में सिखों ने अपनी राजनीतिक और सैन्य शक्ति बढ़ाई।
3. जाट: उत्तरी भारत में जाटों ने विद्रोह कर अपने अधिकार क्षेत्र बनाए।
- व्यापारिक और जमींदार वर्ग का प्रभाव: व्यापारियों और जमींदारों ने आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत की। ये वर्ग क्षेत्रीय शक्तियों को समर्थन देकर राजनीतिक इकाइयों के निर्माण में योगदान देने लगे।
7. क्षेत्रीय अधिशेष संसाधनों को विनियोजित करने में विफलता
मुगल साम्राज्य के पतन में क्षेत्रीय अधिशेष संसाधनों को प्रभावी ढंग से विनियोजित करने की विफलता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- जागीरदारी प्रणाली की अक्षमता: मुगल राजस्व प्रणाली जागीरदारी व्यवस्था पर आधारित थी, जो समय के साथ भ्रष्ट और अक्षम हो गई। स्थानीय अभिजात वर्ग ने अधिक शक्ति प्राप्त कर ली, और केंद्रीय प्रशासन राजस्व संग्रह में असफल होने लगा।
- वित्तीय संकट और कमजोर प्रशासन: राजस्व संग्रह में गिरावट के कारण मुगल प्रशासन को अपनी सेना और नौकरशाही बनाए रखने में कठिनाई हुई। यह वित्तीय कमजोरी बाहरी खतरों और आंतरिक विद्रोहों से निपटने में बाधा बनी।
- भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता: राजस्व नियंत्रण के कमजोर होने से व्यापक भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता बढ़ गई, जिससे मुगल शासन की प्रभावशीलता घट गई।
- क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं की आत्मनिर्भरता: स्थानीय अर्थव्यवस्थाएँ अधिक आत्मनिर्भर हो गईं और क्षेत्रीय अभिजात वर्ग स्वतंत्रता की ओर अग्रसर हुआ। यह स्थिति मुगल साम्राज्य की केंद्रीय सत्ता के कमजोर होने का मुख्य कारण बनी।
- अन्य कारक: साम्राज्य की विशालता और संचार की कमी, दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था, शांति-सुरक्षा का अभाव, बौद्धिक गिरावट, और औरंगजेब की अदूरदर्शी नीतियों ने मुगल साम्राज्य को कमजोर कर दिया।
18वीं शताब्दी में क्षेत्रीय शक्तियों का उदय
18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य की कमजोर केंद्रीय सत्ता के कारण क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ। स्थानीय गवर्नरों ने अपनी स्वायत्तता घोषित कर ली और बंगाल, अवध, हैदराबाद जैसे उत्तराधिकारी राज्यों का गठन किया। मराठा, अफगान, जाट और सिख विद्रोहों ने अन्य राज्यों की नींव रखी। इन राज्यों ने मुगल प्रशासन के कुछ संस्थानों को अपनाया, लेकिन राजस्व और सैन्य विस्तार की नई नीतियाँ लागू कीं। इतिहासकारों के अनुसार, यह प्रक्रिया मुगल साम्राज्य की गिरावट और क्षेत्रीय आकांक्षाओं का स्वाभाविक परिणाम थी। इसके साथ ही विदेशी शक्तियों, विशेष रूप से अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी, ने इस राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाया।
1. मराठा साम्राज्य
मराठा साम्राज्य ने 17वीं और 18वीं शताब्दी में भारतीय राजनीति में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरकर मुग़ल साम्राज्य को चुनौती दी। शिवाजी महाराज और बाद में पेशवा जैसे नेताओं के नेतृत्व में मराठाओं ने न केवल एक विशाल क्षेत्रीय साम्राज्य का निर्माण किया, बल्कि भारत में राजनीतिक और प्रशासनिक विकेंद्रीकरण का एक नया अध्याय भी शुरू किया।
1.मराठा साम्राज्य की स्थापना और प्रारंभिक नेतृत्व
- शिवाजी महाराज: शिवाजी ने छत्रपति बनकर मराठा साम्राज्य की नींव रखी। उनकी गुरिल्ला युद्ध नीति, कुशल प्रशासन, और जनता के सहयोग ने मुगल सत्ता को कमजोर किया।
- संभाजी और राजाराम: शिवाजी के बाद संभाजी ने नेतृत्व किया। 1689 में उनकी मृत्यु के बाद राजाराम ने संघर्ष जारी रखा। राजाराम की मृत्यु के बाद उनकी विधवा ताराबाई ने मुगलों के खिलाफ मोर्चा संभाला।
2. साहू का राज्याभिषेक और पेशवा प्रणाली का उदय
- साहू का आगमन: औरंगजेब की मृत्यु के बाद साहू को रिहा किया गया। 1708 में उनके राज्याभिषेक ने मराठा नेतृत्व को एक नई दिशा दी।
- पेशवा बालाजी विश्वनाथ का प्रभाव: बालाजी विश्वनाथ ने मराठा शासन को संगठित और सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने पेशवा पद को वंशानुगत बनाया और सैयद बंधुओं से समझौता कर साहू को शिवाजी के गृह राज्य के राजा के रूप में मान्यता दिलाई।
- चौथ और सरदेशमुखी: मुगलों के दक्षिणी प्रांतों से चौथ और सरदेशमुखी वसूलने की अनुमति मराठों की आर्थिक शक्ति का आधार बनी।
3. मराठा शक्ति का शिखर: बाजीराव प्रथम का नेतृत्व
- हिंदू पादशाही का विचार: बाजीराव प्रथम ने "हिंदू पादशाही" के विचार को बढ़ावा देकर अन्य हिंदू क्षत्रपों को मराठा आंदोलन में शामिल किया।
- सैन्य कौशल: बाजीराव को गुरिल्ला युद्ध का महान प्रवर्तक माना जाता है। उनके नेतृत्व में मराठा साम्राज्य ने कटक से अटक तक विस्तार किया।
- 1760 में दिल्ली पर कब्जा: मराठाओं ने दिल्ली पर कब्जा कर मुगलों की शेष सत्ता को खत्म कर दिया।
4.पानीपत की तीसरी लड़ाई और पतन की शुरुआत
- 1761 की हार: अहमद शाह अब्दाली के खिलाफ पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठा सेना को भारी नुकसान हुआ। इस हार ने उनकी सैन्य और राजनीतिक शक्ति को कमजोर कर दिया।
- पुनरुत्थान: पेशवा माधवराव के शासनकाल में महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठाओं ने 1771 में फिर से दिल्ली पर कब्जा कर अपनी प्रतिष्ठा बहाल की।
5. एंग्लो-मराठा युद्ध और अंग्रेजों का उदय
- प्रथम एंग्लो-मराठा युद्ध (1776-82): इस युद्ध ने मराठा शक्ति को कमजोर किया, और इसे सलाबाई की संधि के माध्यम से समाप्त किया गया।
- द्वितीय एंग्लो-मराठा युद्ध (1803-05): बाजीराव द्वितीय के शासनकाल में अंग्रेजों ने मराठा क्षेत्रों पर नियंत्रण मजबूत किया।
- तीसरा एंग्लो-मराठा युद्ध (1817-18): इस युद्ध ने मराठा शक्ति को समाप्त कर दिया। पेशवा का पद खत्म कर बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों ने कानपुर के पास बिठूर भेज दिया।
6. मराठा साम्राज्य की शक्ति और संगठन
- प्रशासनिक दक्षता: मराठाओं ने कुशल राजस्व प्रणाली और नकदी फसलों की खेती से अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत किया।
- विकेंद्रीकृत राजनीति: मराठा संघ का आधार विकेंद्रीकृत संरचना में निहित था। सरदारों और स्थानीय नेताओं के पास व्यापक स्वतंत्रता थी।
- सैन्य कौशल: मराठाओं ने गुरिल्ला युद्ध को नई ऊंचाई पर पहुँचाया और जल्दी से सैनिकों और संसाधनों को जुटाने की क्षमता विकसित की।
2. अवध
- मुगल शासन के दौरान अवध: अवध में बनारस, इलाहाबाद, और कानपुर के आसपास के हिस्से शामिल थे। 1724 में सआदत खान की मृत्यु के बाद उनके भतीजे सफदर जंग ने सत्ता संभाली और स्वतंत्र रूप से शासन किया।
- सफदर जंग का शासन: 1748 में वे दिल्ली के वज़ीर बने, परंतु अफ़गानों और दरबारियों के षड्यंत्रों के कारण 1753 में अवध लौटने को मजबूर हुए, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। उनके पुत्र शुजाउद्दौला ने पद संभाला।
- शुजाउद्दौला और बदलाव: शुजाउद्दौला ने 18वीं शताब्दी में अवध को बदलते राजनीतिक परिदृश्य का केंद्र बनाया। उन्होंने शाह आलम द्वितीय को समर्थन दिया, लेकिन 1763 में अंग्रेजों से हार के बाद अवध का स्वतंत्र शासन कमजोर हो गया।
- आर्थिक और प्रशासनिक सुधार: सआदत खान और शुजाउद्दौला के नेतृत्व में अवध में कृषि, कपड़ा, और विलासिता वस्त्रों का उत्पादन बढ़ा। नवाबों ने सिंचाई और सड़क निर्माण में निवेश कर क्षेत्र की उत्पादकता और स्वायत्तता को बढ़ावा दिया।
3. सिख
- गुरु गोविंद सिंह और बंदा बहादुर का नेतृत्व: 1708 में गुरु गोविंद सिंह की हत्या के बाद बंदा बहादुर ने सिखों का नेतृत्व संभाला। उन्होंने सरहिंद पर कब्जा किया और स्वतंत्र शासन स्थापित किया। हालांकि, 1715 में मुगलों ने उन्हें पकड़कर मौत की सजा दी।
- सिखों का पुनरुत्थान और संघर्ष: कपूर सिंह के नेतृत्व में सिखों ने फिर से संगठित होकर संघर्ष जारी रखा। नादिर शाह और अब्दाली के आक्रमणों ने पंजाब में मुगल सत्ता को कमजोर किया, जिससे सिखों को अपनी स्थिति मजबूत करने का अवसर मिला।
- अमृतसर में सिख राज्य की घोषणा (1764): सिखों ने अमृतसर में पहला स्वतंत्र राज्य घोषित किया और अपने सिक्के ढाले। अब्दाली के भारत से लौटने के बाद, उन्होंने पंजाब में अपने क्षेत्र का विस्तार किया।
- महाराजा रणजीत सिंह का सिख साम्राज्य: रणजीत सिंह ने पंजाब में एक संगठित और आधुनिक सिख राज्य की स्थापना की। उन्होंने सेना को आधुनिक बनाया, बुनियादी ढांचे में सुधार किया, और व्यापार को बढ़ावा दिया।
- ब्रिटिश कब्जा (1849): 29 मार्च, 1849 को लॉर्ड डलहौजी ने सिख राज्य पर कब्जा कर इसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
- सिखों का योगदान: सिखों ने धार्मिक, सामाजिक, और सैन्य एकता के बल पर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। उनकी शक्ति का आधार खालसा और पंजाब की समृद्धि थी, जिसने उन्हें मुगलों और अफगानों को चुनौती देने में सक्षम बनाया।
4. रुहेला या रोहिल्ला
- शुरुआत और उदय: रोहिलखंड, एक प्रमुख अफगान बस्ती, दाऊद नामक अफगान सैनिक द्वारा बसाई गई। अली मोहम्मद खान ने 18वीं शताब्दी में अपनी जागीर का विस्तार कर बरेली और आसपास के क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित किया।
- सत्ता का विस्तार: अली मोहम्मद ने मुगलों के लिए राजस्व वसूलने के साथ-साथ अपने सैन्य बल को मजबूत किया। उन्होंने मुरादाबाद के गवर्नर राजा हरनंद अरोड़ा को हराकर अपनी शक्ति बढ़ाई और 1748 तक बिजनौर पर कब्जा कर लिया।
- अंतर्गत संघर्ष और गिरावट: अली मोहम्मद की मृत्यु के बाद रोहिलखंड में आंतरिक कलह शुरू हो गई। सफदर जंग ने इस स्थिति का लाभ उठाकर रोहिल्लाओं को कमजोर किया।
- पानीपत और उसके बाद: 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में रोहिल्लाओं ने अहमद शाह अब्दाली का समर्थन किया और कुछ जागीरें प्राप्त कीं। हाफिज रहमत खाँ के नेतृत्व में 1768 तक शांति रही।
- अंग्रेजों के साथ संघर्ष: मराठों और अवध के नवाब से संघर्ष के बीच, ईस्ट इंडिया कंपनी ने रोहिल्लाओं पर हमला किया। हार के बाद, उनकी अधिकांश भूमि अवध के नवाब ने छीन ली। रामपुर में रोहिलखंड का छोटा हिस्सा फैजल खान के अधीन छोड़ दिया गया।
- रोहिल्लाओं का योगदान: रोहिल्ला शासकों ने रोहिलखंड की राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका प्रभाव 18वीं शताब्दी के उत्तर भारत में अफगान शक्ति का प्रतीक था।
5. बुंदेला
- छत्रसाल बुंदेला का नेतृत्व: छत्रसाल बुंदेला ने बुंदेलखंड राज्य की स्थापना की और औरंगजेब के शासन के अंतिम दिनों में इस क्षेत्र को स्वतंत्र कर लिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद, उन्होंने मुगल आदेशों को अनदेखा करना शुरू किया। बाद में, बहादुर शाह से संबद्धता स्थापित कर उन्हें मनसबदारी प्राप्त हुई।
- मोहम्मद खान बंगश का आक्रमण: 1720 में, मोहम्मद खान बंगश को इलाहाबाद का प्रशासक नियुक्त किया गया। उसने बुंदेलखंड पर कब्जा करने की कोशिश की, जिससे बुंदेलों और मुगलों के बीच संघर्ष हुआ। छत्रसाल ने विद्रोह कर दिलेर खान और मोहम्मद खान को हराया।
- पेशवा बाजीराव का समर्थन: मुगलों के खिलाफ संघर्ष में छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव से मदद मांगी। बाजीराव की सहायता से छत्रसाल ने मोहम्मद खान बंगश को निर्णायक रूप से हराया और खोया हुआ क्षेत्र वापस जीत लिया।
- राज्य का विभाजन और पतन: छत्रसाल की मृत्यु (82 वर्ष की उम्र) के बाद, उनके पुत्रों हरदे राज और जगत राज ने राज्य को विभाजित कर लिया। इसके साथ ही बुंदेलों की शक्ति और प्रतिष्ठा धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी।
6. जाट
- प्रारंभिक विद्रोह और नेतृत्व: औरंगजेब के शासनकाल में जाटों ने दिल्ली और आगरा के बीच विद्रोह किया और कई क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया। राजाराम, भज्जा, और चूड़ामन जैसे नेताओं ने 1721 तक जाट शक्ति को बनाए रखा। हालाँकि, सवाई जय सिंह द्वितीय द्वारा चूड़ामन की हार ने उनकी स्थिति कमजोर कर दी।
- बदन सिंह और एकता: चूड़ामन के भतीजे बदन सिंह ने बिखरे हुए जाट वंशों को एकजुट कर सामूहिक पहचान और शासन को मजबूत किया। उनके नेतृत्व ने जाटों को एक संगठित सामुदायिक शक्ति में बदल दिया।
- सूरजमल का युग: बदन सिंह के बाद सूरजमल ने सत्ता संभाली। उन्हें "जाटों का प्लेटो" कहा जाता है। उन्होंने आगरा, धौलपुर, मैनपुर, हाथरस, और मेरठ जैसे क्षेत्रों में जाट साम्राज्य का विस्तार किया। उनकी सैन्य कुशलता ने अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण और पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों के साथ सहयोग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- राज्य निर्माण और प्रशासन: सूरजमल ने शासन को संगठित करने के लिए मुगल राजस्व प्रणाली को अपनाया। उनकी किलेबंदी और रणनीतिक सूझबूझ ने जाट साम्राज्य को मजबूत बनाया।
- पतन: 1763 में सूरजमल की मृत्यु के बाद जाट राज्य बिखर गया और छोटे जमींदारियों में विभाजित हो गया। इसके साथ ही उनकी राजनीतिक शक्ति की समाप्ति शुरू हो गई।
7. जयपुर और अन्य राजपूत राज्य
- जयपुर (आमेर) और सवाई जय सिंह का शासन: पूर्वी राजस्थान में कछवाहा वंश का शासन था। सवाई जय सिंह ने 1700 के दशक में अपनी जागीर को संगठित किया और कृषि आधारित राजस्व संग्रह प्रणाली को अपनाया। उन्होंने अपने शासन को आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत किया। उनके नाम पर जयपुर की स्थापना हुई, और वे अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण राजपूत शासक बन गए।
- अन्य राजपूत राज्य: अन्य राजपूत राज्य, जैसे मारवाड़, आंतरिक संघर्षों और पारिवारिक कलह से कमजोर हो गए। उदाहरण के लिए, अजीत सिंह की हत्या उनके बेटे द्वारा की गई।
- मराठों और आर्थिक चुनौतियाँ: 1750 के दशक में मराठों के बढ़ते प्रभाव ने जयपुर पर दबाव डाला। फसल विफलताओं और राजस्व में गिरावट ने आर्थिक संकट को बढ़ा दिया। जयपुर को मराठों, विशेष रूप से महादजी सिंधिया का सामना करना पड़ा, जिससे उनकी राजनीतिक स्थिति कमजोर हो गई।
- व्यापार और रणनीतिक सीमाएँ: जयपुर जैसे राज्यों का व्यापारिक महत्व बना रहा, लेकिन समुद्र तक पहुँच न होने के कारण वे कमजोर हो गए। अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी, जो समुद्री व्यापार पर आधारित थी, ने इस कमजोरी का फायदा उठाया।
8. हैदराबाद और कर्नाटक
- हैदराबाद: स्वायत्तता की नींव 1724 में चिन किलिच खान ने हैदराबाद राज्य की स्थापना की और निजाम-उल-मुल्क आसफ जाह की उपाधि धारण की। उन्होंने दिल्ली से स्वतंत्रता का खुला ऐलान नहीं किया, लेकिन व्यवहार में स्वायत्तता स्थापित की। उन्होंने जमींदारों और आर्थिक रूप से प्रभावशाली हिंदुओं को नियंत्रित किया और अपने शासन को समर्थन देने के लिए एक शक्तिशाली कुलीन वर्ग बनाया।
- आर्थिक और प्रशासनिक सुधार: हैदराबाद ने अपनी समृद्ध कृषि, व्यापार मार्गों, और वस्त्र, हीरे, और मसालों के व्यापार पर आधारित एक मजबूत अर्थव्यवस्था विकसित की। आसफ जाह ने प्रभावी राजस्व प्रणाली और स्थिर नौकरशाही के माध्यम से प्रशासन को संगठित किया, जिससे राज्य की स्थिरता बढ़ी।
- संघर्ष और पुनरुत्थान: आसफ जाह की मृत्यु के बाद, हैदराबाद को मराठों और मैसूर के अतिक्रमणों का सामना करना पड़ा। हालाँकि, 1762 में निजाम अली खान के नेतृत्व में राज्य ने राजनीतिक स्थिरता और सीमाओं पर नियंत्रण प्राप्त किया।
- कर्नाटक: अस्थिरता और विदेशी हस्तक्षेप: कर्नाटक, जो हैदराबाद के निजाम के अधीन था, ने धीरे-धीरे दक्षिण के वायसराय से स्वतंत्रता का दावा किया। 1740 के बाद आंतरिक संघर्षों और सत्ता की खींचतान ने इसे कमजोर कर दिया। इस अस्थिरता ने यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों, विशेष रूप से अंग्रेजों और फ्रांसीसियों, को हस्तक्षेप का अवसर प्रदान किया।
9. मैसूर
- शुरुआत और हैदर अली का उदय: मुगल साम्राज्य के पतन के बाद, मैसूर एक स्वतंत्र राज्य के रूप में उभरा। प्रारंभ में सत्ता हिंदू राजवंश के नाममात्र के शासक और प्रधानमंत्री (दलवाई) के हाथों में थी। हैदर अली ने अपने साहस, दृढ़ संकल्प, और चतुराई से नानीराज देलवाई को हटाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया। उन्होंने सुंडा, बेदनोर, कनारा और गुटी पर विजय प्राप्त कर राज्य का विस्तार किया और मैसूर को एक मजबूत क्षेत्रीय शक्ति बना दिया।
- हैदर अली और टीपू सुल्तान का शासन: हैदर अली और उनके पुत्र टीपू सुल्तान के अधीन, मैसूर ने सैन्य, आर्थिक, और सामाजिक क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की। दोनों शासकों ने आधुनिक सैन्य तकनीकों को अपनाया और स्थानीय उद्योगों को प्रोत्साहित किया।
- व्यापार और वाणिज्य: मैसूर ने अपने रणनीतिक स्थान और रेशम व चंदन उद्योगों से आर्थिक लाभ उठाया।
- कृषि और सिंचाई: राज्य ने सिंचाई प्रणाली में निवेश किया, जिससे कृषि उत्पादन बढ़ा।
- स्थानीय उद्योग: स्थानीय उद्योगों के विकास और व्यापारिक गतिविधियों ने राज्य को आर्थिक स्थिरता प्रदान की।
- सैन्य नवाचार और शक्ति: हैदर अली और टीपू सुल्तान ने यूरोपीय सैन्य तकनीकों को अपनाया और एक सशक्त सेना का निर्माण किया। टीपू सुल्तान ने रॉकेट तकनीक का विकास किया, जिससे मैसूर ब्रिटिश और अन्य पड़ोसी राज्यों के लिए एक गंभीर सैन्य प्रतिद्वंद्वी बन गया।
10. त्रावणकोर राज्य
- त्रावणकोर राज्य के शासक मार्तण्ड वर्मा (1729-1758) ने अपने शासन को सुदृढ़ करने के लिए कई कदम उठाए। उन्होंने (i) 50,000 सैनिकों की स्थायी सेना बनाई, (ii) नायर अभिजात वर्ग के प्रभाव को सीमित किया, और (iii) उत्तरी सीमा को "त्रावणकोर लाइन" से मजबूत किया। व्यापार में, उन्होंने सीरियाई ईसाइयों का समर्थन किया और शाही एकाधिकार स्थापित करते हुए व्यापार के लिए लाइसेंस अनिवार्य किया। उनके उत्तराधिकारी राम वर्मा (1758-1798) ने इन नीतियों को जारी रखा और मैसूर के खतरे से राज्य की रक्षा की।
11. बंगाल
- मुर्शिद कुली खान का शासन (1717-1727): मुर्शिद कुली खान (1717-1727) बंगाल के पहले शासक थे जिन्होंने निज़ाम और दीवान दोनों पद संभाले। उन्होंने कुशल राजस्व व्यवस्था स्थापित की, जिससे बंगाल को मुगल साम्राज्य से लगभग स्वतंत्रता प्राप्त हो गई। उनकी नीतियों के तहत जमींदार राजस्व संग्रहकर्ता बने, जबकि व्यापारी और साहूकार एक नए प्रभावशाली वर्ग के रूप में उभरे।
- शुजा-उद-दीन और अलीवर्दी खान का शासन (1727-1756): 1727 में मुर्शिद कुली खान की मृत्यु के बाद उनके दामाद शुजा-उद-दीन ने बंगाल का शासन संभाला। उनके बाद, अलीवर्दी खान ने शुजा-उद-दीन के बेटे सरफ़राज़ को हटाकर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। अलीवर्दी खान के शासनकाल में बंगाल में शांति स्थापित हुई और व्यापार-उद्योग का विकास हुआ। हालांकि, मराठों के लगातार आक्रमणों ने व्यापार और अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुँचाया।
- मराठा समस्या और समझौता: मराठों के बार-बार आक्रमणों के कारण अलीवर्दी खान ने उनके साथ समझौता किया, जिसमें उन्हें चौथ देने और उड़ीसा को छोड़ने पर सहमति जताई। इन आक्रमणों ने बंगाल के व्यापार, विशेष रूप से उत्तरी भारत के साथ होने वाले व्यापार, को गंभीर नुकसान पहुँचाया।
- प्लासी की लड़ाई (1757): 1756 में अलीवर्दी खान ने अपने पोते सिराजुद्दौला को बंगाल का नवाब बनाया। सिराजुद्दौला का कमजोर प्रशासन और आंतरिक संघर्ष ने अंग्रेजों को हस्तक्षेप का अवसर प्रदान किया। 1757 में प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला की हार हुई, जिसके बाद अंग्रेजों ने बंगाल पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और यह उनके भारत में सत्ता विस्तार की शुरुआत बनी।
- बंगाल की समृद्धि: बंगाल अपनी उपजाऊ डेल्टा भूमि के कारण कृषि में, विशेष रूप से चावल उत्पादन में, बहुत समृद्ध था। नदी नेटवर्क और सक्रिय व्यापार ने इसे आर्थिक रूप से सशक्त बनाया। वस्त्र उद्योग और धनी व्यापारी वर्ग ने बंगाल की समृद्धि को मजबूती प्रदान की और इसे एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बना दिया।
- मुगल साम्राज्य का पतन और क्षेत्रीय शक्तियों का उदय: बंगाल, हैदराबाद, मैसूर, सिख, और जाट जैसे क्षेत्रीय राज्यों का उदय मुगल साम्राज्य के पतन और विकेंद्रीकरण का प्रमुख कारण बना। इन राज्यों ने प्रशासनिक सुधार, स्थानीय अर्थव्यवस्था को सशक्त किया और सैन्य शक्ति बढ़ाकर अपनी स्वतंत्रता स्थापित की। उनकी मजबूती ने क्षेत्रीय स्वायत्तता को बढ़ावा दिया और मुगल साम्राज्य के केंद्रीय नियंत्रण को कमजोर कर दिया।
ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना 17वीं और 18वीं सदी की राजनीति की सबसे अहम घटनाओं में से एक है। यह घटना भारतीय इतिहास में एक नए युग की शुरुआत मानी जाती है। आइए देखें कि अंग्रेज भारत में कैसे आए और कैसे उन्होंने अपना प्रभाव बढ़ाया।
1. व्यापारिक कंपनी से राजनीतिक शक्ति तक
- ईस्ट इंडिया कंपनी की शुरुआत: 31 दिसंबर, 1600 को इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना एक व्यापारिक संगठन के रूप में हुई। पहले यह केवल व्यापार तक सीमित थी।
- राजनीतिक शक्ति बनना: 18वीं सदी में कंपनी ने व्यापार के साथ राजनीतिक ताकत बनने की ओर कदम बढ़ाए। भारत में पुर्तगाल और डच के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए कंपनी ने मुगल दरबार में अपनी पकड़ मजबूत की।
- प्लासी की लड़ाई (1757): प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब पर जीत हासिल करना कंपनी के साम्राज्य की शुरुआत का बड़ा कदम था। इस जीत ने कंपनी को बंगाल के राजस्व और व्यापार पर नियंत्रण दिया।
2. दक्षिण भारत में संघर्ष
- कर्नाटक युद्ध (1744-1763): दक्षिण भारत में अंग्रेजों और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच लंबे समय तक कर्नाटक युद्ध हुए। इन युद्धों में अंग्रेजों ने अपनी सैन्य ताकत और कूटनीतिक कौशल को साबित किया।
- फ्रांसीसी कंपनी को हराना: कर्नाटक युद्ध के बाद फ्रांसीसी कंपनी कमजोर हो गई, और भारत में अंग्रेजों का एकमात्र प्रमुख प्रतिद्वंद्वी खत्म हो गया।
3. साम्राज्य विस्तार के कारण
- मुगल साम्राज्य का पतन: मुगल साम्राज्य कमजोर हो गया था, जिससे अंग्रेजों और अन्य यूरोपीय कंपनियों को अपने प्रभाव बढ़ाने का मौका मिला।
- अधिक राजस्व की जरूरत: ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने व्यापार, सेना और प्रशासन चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी। बंगाल पर कब्जा करके कंपनी ने राजस्व के नए स्रोत प्राप्त किए।
- बंगाल की संपत्ति: बंगाल के माल और राजस्व पर कब्जा करने से कंपनी की आय तेजी से बढ़ी। 1765 में बंगाल से 4 लाख पाउंड मूल्य का माल आया, जो 1770 के दशक के अंत तक 1 मिलियन पाउंड हो गया।
4. दक्षिण भारत में आंग्ल-फ्रेंच संघर्ष
दक्षिण भारत में आंग्ल-फ्रेंच संघर्ष 18वीं शताब्दी में भारतीय राजनीति में यूरोपीय शक्तियों के हस्तक्षेप और वर्चस्व की दौड़ का परिणाम था। यह संघर्ष तीन मुख्य कर्नाटक युद्धों के रूप में उभरा, जिसने अंग्रेजी और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनियों के बीच सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा को दर्शाया।
- प्रथम कर्नाटक युद्ध (1742-1748): यूरोप में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच युद्ध का प्रभाव भारत तक पहुँचा, जहाँ अंग्रेजों ने फ्रांसीसी जहाजों पर हमला किया और फ्रांसीसियों ने मद्रास पर कब्जा कर लिया। कर्नाटक के नवाब ने मद्रास बचाने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। 1748 में यूरोप में युद्ध समाप्त होने से भारत में अस्थायी शांति हुई, लेकिन अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच वर्चस्व का संघर्ष जारी रहा।
- द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-1754): हैदराबाद और कर्नाटक में सत्ता संघर्ष के कारण यह युद्ध हुआ। फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले ने चंदा साहिब और मुजफ्फर जंग का समर्थन कर प्रारंभिक जीत हासिल की, लेकिन रॉबर्ट क्लाइव ने अर्काट पर कब्जा कर चंदा साहिब को हराया। त्रिचनापल्ली में फ्रांसीसी समर्थन कमजोर पड़ गया, जिससे उनकी स्थिति कमजोर हो गई। अंततः डुप्ले को वापस बुला लिया गया, और अंग्रेजों का प्रभाव बढ़ गया।
- तीसरा कर्नाटक युद्ध (1756-1763): तीसरा कर्नाटक युद्ध यूरोप में चल रहे 7 वर्षीय युद्ध का प्रभाव था। फ्रांस ने काउंट डी लाली के नेतृत्व में भारत में सेना भेजी, लेकिन फ्रांसीसी सेना कमजोर साबित हुई। 1760 में वांडिवाश की लड़ाई में फ्रांसीसियों को निर्णायक हार का सामना करना पड़ा। युद्ध के बाद, 1783 की पेरिस संधि के तहत फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी को केवल व्यापारिक संगठन तक सीमित कर दिया गया। इस युद्ध से भारत में अंग्रेजों की सत्ता और अधिक मजबूत हो गई।
5. बंगाल पर विजय (प्लासी से बक्सर)
- 1757 में प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला की हार के बाद बंगाल ब्रिटिश नियंत्रण में आ गया। मीर कासिम ने कंपनी को जमींदारी सौंपकर राजस्व और वाणिज्यिक विशेषाधिकार दिए। 1764 में बक्सर की लड़ाई में मीर कासिम,अवध के नवाब,और मुगल सम्राट की हार ने कंपनी की शक्ति को और बढ़ाया। 1765 में दोहरी सरकार प्रणाली लागू हुई, जिसमें कंपनी ने राजस्व और प्रशासन का सीधा नियंत्रण हासिल किया। हालाँकि, इस शासन ने भ्रष्टाचार और बंगाल में गरीबी को बढ़ावा दिया, लेकिन कंपनी की स्थिति और मजबूत हो गई।
6. राजनीतिक व्यवस्था का पुनर्गठन
कंपनी के प्रशासन में अनियमितता और कुशासन के कारण, ब्रिटिश सरकार ने पहली बार कंपनी के कामकाज में हस्तक्षेप किया। 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट के तहत बंगाल में गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को बॉम्बे और मद्रास के प्रशासन की देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी गई। कलकत्ता में ब्रिटिश मानकों पर आधारित सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई, और न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने की शुरुआत की गई। इस कदम ने प्रशासन को अधिक व्यवस्थित और प्रभावी बनाने का मार्ग प्रशस्त किया।
1. रेगुलेटिंग एक्ट, 1773
ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन में अनियमितता और कुशासन के कारण ब्रिटिश सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने पहली बार कंपनी के कामकाज को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाया।
- गवर्नर जनरल की नियुक्ति: बंगाल में गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को बॉम्बे और मद्रास के प्रशासन की देखरेख का दायित्व दिया गया।
- सुप्रीम कोर्ट की स्थापना: कलकत्ता में ब्रिटिश मानकों पर आधारित सर्वोच्च न्यायालय स्थापित किया गया।
- न्यायपालिका और कार्यपालिका का अलगाव: न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने की प्रक्रिया शुरू हुई।
2. पश्चिमी संस्थाओं का प्रभाव
- प्रशासनिक तंत्र का औपचारिकरण: रेगुलेटिंग एक्ट, 1773 के तहत कंपनी की पहले से मौजूद व्यवस्थाओं, जैसे सेना, कर संग्रह, और न्यायिक प्राधिकरण को औपचारिक रूप दिया गया, जिससे प्रशासनिक ढाँचा मजबूत हुआ।
- सिविल अदालतों की स्थापना: सिविल अदालतों की स्थापना से न्यायिक प्रणाली को सुदृढ़ किया गया। 19वीं सदी की शुरुआत तक हर साल हजारों मामलों का निपटारा किया जाने लगा, जिससे लोगों को न्याय प्राप्ति में आसानी हुई।
- पुलिस प्रणाली: कॉर्नवॉलिस के कार्यकाल में एक व्यवस्थित पुलिस प्रणाली बनाई गई, जिसने कानून-व्यवस्था बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई और प्रशासन को अधिक प्रभावी बनाया।
3.भारतीय प्रशासन पर ब्रिटिश प्रभाव
- परंपराओं में बदलाव: शुरुआती दौर में कंपनी ने मुगलकालीन राजस्व संग्रह और पारंपरिक तरीकों को अपनाया। लेकिन समय के साथ, ब्रिटिश प्रशासन ने इन परंपराओं को बदलकर अपना नियंत्रण बढ़ाया और भारतीय प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत की।
- नवाबों का अधिकार कमजोर: नवाबों और उनके सहयोगियों का प्रभाव धीरे-धीरे कम कर दिया गया। उनकी सत्ता नाममात्र की रह गई, जिससे कंपनी का प्रशासनिक और राजनीतिक नियंत्रण पूरी तरह स्थापित हो गया।
4. औपनिवेशिक शासन की स्थापना
- ब्रिटिश नियंत्रण का विस्तार: ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों पर अपना नियंत्रण बढ़ाया और भारतीय प्रशासन को अपने साम्राज्यवादी हितों के अनुरूप ढाल दिया।
- साम्राज्यवादी प्रणाली की नींव: स्वदेशी शासन प्रणाली को समाप्त कर ब्रिटिश शासन की औपनिवेशिक व्यवस्था लागू की गई, जिसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन के विस्तार और सुदृढ़ीकरण की नींव रखी।
भारत में अठारहवीं शताब्दी की अर्थव्यवस्था
अठारहवीं शताब्दी भारत में आर्थिक अस्थिरता और परिवर्तन का समय था। इस दौरान राजनीतिक उथल-पुथल और लगातार युद्धों ने अर्थव्यवस्था को गहरा प्रभावित किया। सिंचाई प्रणालियों के विनाश, मवेशियों की जब्ती और लोगों के जबरन पलायन ने कृषि और उत्पादन को बाधित किया। जबकि दिल्ली और आगरा जैसे क्षेत्रों में गिरावट देखी गई, बंगाल, हैदराबाद और मैसूर जैसे क्षेत्रों में विकास हुआ।
- कृषि और व्यापार: अंतरराज्यीय युद्धों ने कृषि पर नकारात्मक प्रभाव डाला, लेकिन भूमि और श्रम प्रबंधन ने इसे संतुलित किया। किसानों को नकदी फसलें उगाने के लिए मजबूर किया गया, जिससे खाद्य उत्पादन घटा। अंतर्देशीय व्यापार फला-फूला, लेकिन यूरोपीय प्रतिस्पर्धा के कारण निर्यात व्यापार और भारतीय व्यापारियों को नुकसान हुआ।
- शहरीकरण और वाणिज्य: पुराने वाणिज्यिक केंद्र, जैसे सूरत और मसूलीपट्टनम, कमजोर पड़ गए, जबकि बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता जैसे औपनिवेशिक बंदरगाह उभरे। क्षेत्रीय राजधानियों जैसे लखनऊ और हैदराबाद का महत्व बढ़ा।
- बदलती युद्ध प्रणाली और आर्थिक प्रभाव: 1750 के बाद, युद्ध अधिक विनाशकारी और महँगे हो गए। आग्नेयास्त्रों और भाड़े के सैनिकों के बढ़ते उपयोग ने नागरिक जीवन और आर्थिक उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव डाला।
- औपनिवेशिक प्रभाव: बंगाल के राजस्व पर कंपनी के नियंत्रण से धन का प्रवाह बदल गया। सोने-चाँदी का प्रवाह कम हुआ और नकदी फसलों पर जोर ने किसानों को और कमजोर कर दिया। कुल मिलाकर, 18वीं सदी में अर्थव्यवस्था राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद कृषि और व्यापार में कुछ क्षेत्रों में प्रगति का गवाह बनी।
अठारहवीं सदी में भारत का सामाजिक संदर्भ
अठारहवीं सदी में भारतीय समाज पारंपरिक परंपराओं से प्रभावित था और कई परतों में विभाजित था। धर्म, जाति, क्षेत्र, जनजाति, भाषा और वर्ग के आधार पर समाज में भिन्नताएँ स्पष्ट थीं।
- जातिगत संरचना: हिंदू समाज कई जातियों में विभाजित था, जहाँ जाति जन्म से सामाजिक स्थिति निर्धारित करती थी। जाति आधारित पेशे और अंतर्जातीय विवाह परंपरागत रूप से प्रतिबंधित थे। हालांकि, कुछ सामाजिक और व्यावसायिक गतिशीलता उभरी, जैसे ब्राह्मणों का व्यापार में शामिल होना। मुसलमान समाज भी नस्ल, जाति और धार्मिक मतभेदों से विभाजित था, और धर्मांतरित लोग अपनी जाति की पहचान बनाए रखते थे।
- महिलाओं की स्थिति: महिलाओं की भूमिका पारिवारिक सीमाओं तक सीमित थी। उच्च वर्गों में पर्दा प्रथा और बाल विवाह आम थे। बहुविवाह और दहेज प्रथा प्रचलित थी। सती प्रथा और विधवाओं के प्रति अमानवीय व्यवहार समाज की गंभीर समस्याएँ थीं।
- शिक्षा प्रणाली: शिक्षा पारंपरिक विषयों जैसे साहित्य, धर्म, और तर्क पर केंद्रित थी, लेकिन भौतिक विज्ञान और तकनीकी शिक्षा की कमी थी। उच्च शिक्षा मुख्यतः संस्कृत और फारसी में थी, जबकि महिलाओं और निचली जातियों के लिए शिक्षा सुलभ नहीं थी।
- इस प्रकार, अठारहवीं सदी का समाज धार्मिक और जातिगत बंधनों से जकड़ा हुआ था, जहाँ प्रगतिशील विचारों और समानता की दिशा में सीमित प्रयास ही दिखाई देते थे।
अठारहवीं सदी का सांस्कृतिक परिवेश
हालाँकि अठारहवीं सदी को भौतिक और सांस्कृतिक गिरावट का समय माना जाता है, यह धारणा पूरी तरह से सही नहीं है। इस दौर में सांस्कृतिक क्षेत्र में कई उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हुईं।
- साहित्य और कला: दिल्ली ने शाह वलीउल्लाह और मीर तकी मीर जैसे कवियों और विचारकों को जन्म दिया। क्षेत्रीय दरबारों जैसे अवध, बीकानेर, लाहौर और तंजावुर ने संगीत, चित्रकला और साहित्य को संरक्षित और प्रोत्साहित किया। तंजावुर में कर्नाटक संगीत की परंपरा त्यागराज, मुत्तुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री जैसे महान संगीतकारों के साथ फली-फूली। यहाँ एक अनूठी चित्रकला शैली भी विकसित हुई।
- लोक संस्कृति और धर्म: संगीत, रंगमंच और साहित्य में लोक संस्कृति का प्रभाव देखा गया। तीर्थयात्राओं और त्योहारों ने हिंदू और इस्लामिक परंपराओं का सम्मिश्रण किया। वाराणसी से रामेश्वरम तक लंबी तीर्थयात्राएँ और धार्मिक सहभागिता ने सांस्कृतिक समरसता को बढ़ावा दिया।
- सांस्कृतिक गतिशीलता: कला, संगीत और विद्वानों ने उभरते राजनीतिक केंद्रों जैसे लाहौर और मैसूर को समृद्ध किया। कांगड़ा में वैष्णव विषयों पर आधारित चित्रकला शैली और पंजाबी व फ़ारसी साहित्य का विकास हुआ।
- धार्मिक सहिष्णुता: धर्मों के बीच पारस्परिक सम्मान के उदाहरण जैसे मराठों द्वारा अजमेर की दरगाह का समर्थन, टीपू सुल्तान द्वारा श्रृंगेरी मंदिर को संरक्षण, और त्योहारों में सभी धर्मों की भागीदारी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक थे।
18वीं शताब्दी: अंधकार युग या परिवर्तन का समय
18वीं शताब्दी को अक्सर अराजकता और अव्यवस्था का युग कहा जाता है, जो मुगल साम्राज्य के पतन और क्षेत्रीय शक्तियों के संघर्ष से चिह्नित था। परंपरागत रूप से इसे "अंधकार युग" के रूप में देखा गया, जहाँ स्थिरता ब्रिटिश शासन के आगमन के साथ जोड़ी गई। हालाँकि, इस धारणा को हाल के वर्षों में कई विद्वानों ने चुनौती दी है।
- मुगल साम्राज्य का प्रभाव और क्षेत्रीय शक्तियों का उदय: मुगल साम्राज्य का प्रभाव उतना व्यापक नहीं था जितना माना जाता है। इस काल में विभिन्न क्षेत्रीय शक्तियों जैसे मराठा, अवध, मैसूर और पंजाब का उदय हुआ, जिन्होंने अपने क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। इन शक्तियों ने स्थानीय शासन और सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को आकार दिया, जिससे विकेंद्रीकरण और क्षेत्रीय संस्कृतियों का विकास हुआ।
- राजनीतिक विविधता और गतिशीलता: क्षेत्रीय शक्तियों के गठजोड़ और प्रतिद्वंद्विता ने भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्य को पुनर्गठित किया। यह काल सत्ता संबंधों की गतिशीलता और परिवर्तनशीलता का प्रतीक था, जो इसे पूरी तरह अराजक और अस्थिर कहना अनुचित बनाता है।
भारत में अठारहवीं शताब्दी का इतिहास
अठारहवीं शताब्दी भारतीय इतिहास में एक जटिल और बहुआयामी काल थी, जिसे ऐतिहासिक रूप से "अंधकार युग" के रूप में देखा गया। यह धारणा मुगल साम्राज्य के पतन, क्षेत्रीय शक्तियों के संघर्ष और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की शुरुआत पर आधारित है। हालाँकि, विभिन्न इतिहासकारों ने इस युग की प्रकृति और प्रभाव पर अलग-अलग व्याख्याएँ दी हैं, जो इसे केवल अराजकता या स्थिरता से रहित काल मानने के विचार को चुनौती देती हैं।
- राष्ट्रवादी दृष्टिकोण: राष्ट्रवादी इतिहासकार, जैसे आर.सी. मजूमदार, ने इस अवधि को पतन और विघटन का समय माना। उनका तर्क है कि मुगल सत्ता के पतन और राजनीतिक शून्यता ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के लिए मार्ग प्रशस्त किया। हालाँकि, वे इस बात पर जोर देते हैं कि भारतीय समाज ने अपनी सांस्कृतिक और सभ्यतागत निरंतरता बनाए रखी। यह दृष्टिकोण स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय गौरव और एकता को प्रेरित करने का प्रयास करता है।
- कैम्ब्रिज स्कूल: कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकार, जैसे अनिल सील और जॉन गैलाघर, ने अठारहवीं सदी को केवल पतन का युग मानने के विचार को खारिज किया। उनका तर्क है कि यह परिवर्तन और अनुकूलन का समय था। क्षेत्रीय अभिजात वर्ग ने राज्य निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाई और ब्रिटिश प्रभुत्व का उदय केवल विजय का परिणाम नहीं था, बल्कि यह स्थानीय अभिजात वर्ग और ब्रिटिशों के बीच जटिल वार्ता का नतीजा था।
- अलीगढ़ स्कूल: अलीगढ़ स्कूल, जिसमें इरफान हबीब और अथर अली जैसे इतिहासकार शामिल हैं, ने इस काल की आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं पर ध्यान केंद्रित किया। उनका तर्क है कि मुगल साम्राज्य का पतन मुख्य रूप से कृषि संकट और आर्थिक शोषण के कारण हुआ। वे औपनिवेशिक शोषण को समाज और अर्थव्यवस्था की गिरावट का प्रमुख कारक मानते हैं।
- पुनरीक्षणवादी दृष्टिकोण: पुनरीक्षणवादी इतिहासकारों ने पारंपरिक आख्यानों को चुनौती दी है और अठारहवीं सदी की जटिलता और विविधता को रेखांकित किया है। वे महिलाओं, हाशिए पर रहने वाले समुदायों और गैर-अभिजात वर्ग की भूमिका पर जोर देते हैं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने इस काल के सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास और समाज की जीवंतता को उजागर किया है।