परिचय
19वीं शताब्दी में भारत ने सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों का अनुभव किया, जिनका उद्देश्य समाज को आधुनिक और प्रगतिशील बनाना था। ब्रिटिश शासन ने भारतीय संस्कृति, परंपराओं और विश्वासों को गहराई से प्रभावित किया, जिससे आत्म-परीक्षण और सुधार की आवश्यकता महसूस हुई। इन आंदोलनों ने पुराने रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों को त्यागकर समाज को पुनर्गठित करने पर जोर दिया। सुधारकों ने धर्म और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रयास किया, जिससे राष्ट्रीय जागरूकता और स्वतंत्रता की भावना मजबूत हुई।
उपनिवेशी भारत में सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों पर संक्षिप्त ऐतिहासिक दृष्टिकोण
- उपनिवेशी चेतना और आधुनिकता: ब्रिटिश शासन के प्रभाव ने सामाजिक और राजनीतिक संरचना में बदलाव किए। आधुनिकता ने पश्चिमी शिक्षा, तर्क और विज्ञान को अपनाने की प्रेरणा दी। भारतीय सुधारकों को परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाना पड़ा।
- पुनरुद्धारवाद बनाम सुधारवाद: पुनरुद्धारवाद ने भारतीय परंपराओं और सांस्कृतिक गौरव को पुनर्जीवित करने पर जोर दिया, जैसे स्वामी विवेकानंद और आर्य समाज ने वेदांत और वैदिक धर्म को प्रोत्साहित किया। वहीं, सुधारवाद ने समाज में प्रगतिशील बदलाव लाने का प्रयास किया, जैसे राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ और विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह व महिला शिक्षा के पक्ष में कार्य किया। दोनों आंदोलनों ने उपनिवेशी प्रभाव का अपने-अपने दृष्टिकोण से उत्तर दिया।
- उपनिवेशी आधुनिकता का तनाव: पश्चिमी विचार और पारंपरिक प्रथाओं में टकराव हुआ। यह महिलाओं के अधिकार, शिक्षा और सामाजिक सुधारों में स्पष्ट था।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक जागृति
- पश्चिमी प्रभाव और तर्कवाद: पश्चिमी संस्कृति ने भारतीय परंपराओं और अंधविश्वासों को चुनौती देकर तर्कवाद को बढ़ावा दिया। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार ने बौद्धिक जागरण और राजनीतिक चेतना को प्रेरित किया, जिससे समाज में सुधार और आधुनिक सोच का विकास हुआ।
- सुधारवादी और रूढ़िवादी आंदोलनों का उदय: सुधारवादी आंदोलनों जैसे ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, और थियोसोफिकल सोसाइटी ने एकेश्वरवाद, जाति-भेद उन्मूलन, और आधुनिक आध्यात्मिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया। वहीं, रूढ़िवादी आंदोलन जैसे आर्य समाज ने वैदिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने और हिंदू धर्म को शुद्ध करने पर जोर दिया। दोनों ने समाज को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- शिक्षा और साहित्य में बदलाव: अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने पश्चिमी ज्ञान और तर्कशीलता को बढ़ावा दिया। साहित्य में, रवींद्रनाथ टैगोर और राजा राव जैसे लेखकों ने भारतीय और पश्चिमी साहित्य का सम्मिलन करते हुए सांस्कृतिक समृद्धि को नया आयाम दिया।
- परंपरा और आधुनिकता का संघर्ष: सामाजिक सुधार आंदोलनों ने सती प्रथा, बाल विवाह, और जाति-व्यवस्था जैसी कुरीतियों को चुनौती दी, जिससे परंपरा और आधुनिकता के बीच टकराव हुआ। इन प्रयासों ने सामाजिक जागरूकता बढ़ाई और आधुनिक भारत की नींव तैयार की।
1. प्रकृति
ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में गहरे सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक बदलाव लाए। इसके मुख्य पहलू निम्नलिखित हैं:
- पश्चिमी प्रभाव और तर्कवाद: पश्चिमी संस्कृति ने भारतीय परंपराओं और अंधविश्वासों को चुनौती देकर तर्कवाद और आधुनिक विचारों को प्रोत्साहित किया। अंग्रेजी शिक्षा ने बौद्धिक जागरण और राजनीतिक चेतना को प्रेरित करते हुए समाज में सुधार और जागरूकता लाने में अहम भूमिका निभाई।
- सुधारवादी और रूढ़िवादी आंदोलनों का उदय: सुधारवादी आंदोलनों, जैसे ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, और थियोसोफिकल सोसाइटी, ने एकेश्वरवाद, जाति-भेद उन्मूलन, और आध्यात्मिकता के आधुनिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया। दूसरी ओर, रूढ़िवादी आंदोलन, जैसे आर्य समाज, ने वैदिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने और हिंदू धर्म को शुद्ध करने पर जोर दिया। दोनों आंदोलनों ने समाज में बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- शिक्षा और साहित्य में बदलाव: अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रसार ने पश्चिमी ज्ञान और आधुनिक विचारों को भारत में फैलाया। साहित्य के क्षेत्र में रवींद्रनाथ टैगोर और राजा राव जैसे लेखकों ने भारतीय और पश्चिमी साहित्य का सम्मिलन कर सांस्कृतिक समृद्धि को नया स्वरूप दिया।
- परंपरा और आधुनिकता का संघर्ष: सामाजिक सुधार आंदोलनों ने सती प्रथा, बाल विवाह, और जाति-व्यवस्था जैसी कुरीतियों को चुनौती देकर सामाजिक जागरूकता बढ़ाई। इन प्रयासों ने परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन स्थापित करते हुए आधुनिक भारत की नींव रखी।
2. 19वीं सदी के भारतीय सुधार आंदोलनों के कारण
- ब्रिटिश शासन का प्रभाव: प्रशासनिक प्रणाली और पश्चिमी शिक्षा ने बौद्धिक जागृति को प्रेरित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों में बदलाव और 1813 के चार्टर अधिनियम ने मिशनरी गतिविधियों को बढ़ावा दिया।
- मिशनरी गतिविधियाँ: ईसाई धर्म के प्रचार और हिंदू धर्म की आलोचना ने भारतीय बुद्धिजीवियों को अपने धर्म और परंपराओं की रक्षा के लिए प्रेरित किया।
- प्राच्यविदों का योगदान: सर विलियम जोन्स और एचएच विल्सन जैसे विद्वानों ने भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को उजागर किया।
- सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन: सती प्रथा, बाल विवाह, और जातिगत भेदभाव जैसी प्रथाओं के खिलाफ राजा राममोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने सुधार की वकालत की।
- धार्मिक पुनरुत्थान और सांस्कृतिक पुनर्जागरण: स्वामी विवेकानंद और दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने और प्राचीन परंपराओं को बढ़ावा देने का प्रयास किया।
- राष्ट्रवादी भावना का विकास: सुधार आंदोलन ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया।
ब्रह्म समाज
1. राजा राममोहन राय का योगदान: राजा राममोहन राय को "आधुनिक भारत का जनक" कहा जाता है। उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की, जो एकेश्वरवाद को मानता था। सामाजिक सुधारों में उन्होंने सती प्रथा, बाल विवाह और जातिगत भेदभाव का विरोध किया। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया और पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा देकर समाज में प्रगतिशील विचारधारा का संचार किया।
2. आत्मीय सभा (1814): आत्मीय सभा की स्थापना 1814 में कोलकाता में हिंदू धर्म की विकृत प्रथाओं, जैसे मूर्ति पूजा, कर्मकांड, और सती प्रथा का विरोध करने के लिए की गई। यह सभा सामाजिक और धार्मिक सुधारों को बढ़ावा देने में सक्रिय रही और प्रगतिशील विचारों का समर्थन किया।
3. ब्रह्म समाज की स्थापना (1828): ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त, 1828 को कोलकाता में हुई। इसका उद्देश्य ईश्वर की सार्वभौमिकता पर जोर देते हुए विभिन्न धर्मों के लोगों को एकजुट करना था। यह समाज जाति, धर्म, और पंथ के भेदभाव से मुक्त था। प्रारंभ में प्रार्थनाएं ईसाई चर्च में होती थीं, लेकिन 1830 में कोलकाता में 'ब्रह्म सभा' नामक प्रार्थना कक्ष खोला गया।
4. ब्रह्म समाज के सिद्धांत:
- एक ईश्वर है जो दुनिया का निर्माण और देखभाल करता है।
- आत्मा अमर है और अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार है।
- मूर्ति पूजा या मानव निर्मित चीजों की पूजा नहीं की जानी चाहिए।
- सत्य ही धर्म है, धार्मिक किताबें तभी मान्य हैं जब वे सत्य के अनुरूप हों।
- प्रेम और आज्ञा से हर दिन ईश्वर की पूजा करें।
- ईश्वर के लिए सभी समान हैं, जाति, रंग, या लिंग के आधार पर भेदभाव गलत है।
- मूर्ति पूजा, बलि और अनुष्ठानों को नहीं मानते।
5. राजा राममोहन राय के धार्मिक सुधार:
- एकेश्वरवाद का प्रसार: उन्होंने इस्लाम, ईसाई धर्म और उपनिषदों का अध्ययन करके एक ईश्वर में विश्वास को बढ़ावा दिया। उन्होंने सभी धर्मों के लोगों को भाईचारे और समानता का संदेश दिया।
- मूर्ति पूजा का विरोध: उनका मानना था कि ईश्वर का कोई भौतिक रूप नहीं है। उन्होंने आध्यात्मिकता, धैर्य, प्रेम, और दया को सच्ची पूजा का आधार बताया।
- धार्मिक सहिष्णुता: ब्रह्म समाज में सभी धर्मों के लोग शामिल हो सकते थे, जिससे विभिन्न धर्मों के बीच बेहतर सामंजस्य स्थापित हुआ।
6. सामाजिक कार्य :
राजा राममोहन राय ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को खत्म करने के लिए कई सामाजिक सुधारों की शुरुआत की। उन्होंने धर्म की आड़ में हो रहे अन्याय का कड़ा विरोध किया। उनके प्रमुख सामाजिक कार्य निम्नलिखित हैं:
- सती प्रथा का उन्मूलन: राजा राममोहन राय ने सती प्रथा की क्रूर परंपरा के खिलाफ जोरदार लड़ाई लड़ी, जिसमें विधवाओं को पति की चिता पर जलाया जाता था। 1829 में, उनकी मेहनत रंग लाई, और ब्रिटिश सरकार ने इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया।
- बहुविवाह का विरोध: उन्होंने बहुविवाह और विवाह के लिए लड़कियों को खरीदने की प्रथा का विरोध किया। राजा राममोहन राय ने विवाह को प्रेम और सम्मान का संबंध माना, न कि व्यापारिक सौदा। उन्होंने हिंदू शास्त्रों के आधार पर बहुविवाह को अनुचित ठहराया।
- जाति व्यवस्था का विरोध: राजा राममोहन राय जाति-आधारित भेदभाव के सख्त विरोधी थे। उन्होंने सभी के साथ समान व्यवहार करने और अंतरजातीय विवाह तथा सामूहिक भोजन को बढ़ावा देने का समर्थन किया। उनका उद्देश्य समाज को जातिगत अन्याय से मुक्त करना था।
7. किसानों का समर्थन :
- राजा राममोहन राय ने अमीर जमींदारों द्वारा किसानों के साथ अन्याय का विरोध किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से ऐसे कानून बनाने की अपील की, जो जमींदारों को किसानों से अत्यधिक किराया वसूलने से रोकें। उनका मानना था कि किसानों और जमींदारों के बीच संतुलित संबंध समाज की भलाई के लिए आवश्यक हैं।
8. प्रेस की स्वतंत्रता :
- राजा राममोहन राय ने स्वतंत्र प्रेस के महत्व को समझा और "मिरातुलअखबार" (फ़ारसी) और "संवाद कौमुदी" (बंगाली) नामक अखबारों की शुरुआत की। उन्होंने 1823 में ब्रिटिश सरकार से प्रेस पर लगाए गए प्रतिबंध हटाने की मांग की। उनके प्रयासों के कारण 1835 में प्रेस के नियमों को खत्म कर दिया गया, जिससे समाचार पत्र स्वतंत्र हो गए।
9. शैक्षिक कार्य :
- पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार: राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा दिया और 1817 में हिंदू कॉलेज की स्थापना में मदद की। उन्होंने पश्चिमी विषयों को पढ़ाने का समर्थन किया।
- महिला शिक्षा: उन्होंने महिला शिक्षा का समर्थन किया और महिलाओं को स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया।
- साक्षरता कार्य: राजा राममोहन राय ने बंगाली में 14 और अंग्रेजी में 10 पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिंदू धार्मिक ग्रंथों का अंग्रेजी, बंगाली और हिंदी में अनुवाद किया और बंगाली लेखन को विकसित किया।
आर्य समाज
1. पृष्ठभूमि: स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। यह ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाज से अलग था क्योंकि यह भारत के प्राचीन वैदिक शास्त्रों और परंपराओं पर आधारित था। आर्य समाज का उद्देश्य हिंदू धर्म को शुद्ध करना और वैदिक काल की परंपराओं को पुनर्जीवित करना था।
2. दयानंद सरस्वती का प्रारंभिक जीवन: स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 को गुजरात के टंकारा में हुआ था। उन्होंने छोटी उम्र में ही मूर्ति पूजा और पारंपरिक हिंदू मान्यताओं पर प्रश्न उठाए। अपने परिवार के सदस्यों की मृत्यु के बाद, उन्होंने संसार छोड़ दिया और ज्ञान की खोज में निकल पड़े। मथुरा में ऋषि विरजानंद के मार्गदर्शन में वेदों का गहन अध्ययन किया और भारत के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक सुधार के लिए काम किया।
3. वेदों की ओर वापसी: दयानंद सरस्वती का मानना था कि वेद ही ज्ञान का सच्चा स्रोत हैं। उन्होंने "सत्यार्थ प्रकाश" नामक पुस्तक में अपने विचार प्रस्तुत किए और कहा कि वैदिक समाज में समानता थी, जाति व्यवस्था या अछूत जैसी कुरीतियाँ नहीं थीं। वे वेदों के माध्यम से हिंदू धर्म और समाज को सुधारने में विश्वास रखते थे
4. आर्य समाज की स्थापना: 10 अप्रैल, 1875 को मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य हिंदू धर्म को शुद्ध करना और समाज को अन्याय, जातिवाद, मूर्ति पूजा, बाल विवाह, और विधवा उत्पीड़न जैसी कुरीतियों से मुक्त करना था। दयानंद सरस्वती ने अपने जीवन को आर्य समाज के प्रचार और एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए समर्पित कर दिया।
मुख्य उद्देश्य:
- वैदिक धर्म और शिक्षाओं का प्रचार।
- जाति व्यवस्था और अछूत प्रथा का उन्मूलन।
- महिलाओं और पुरुषों के लिए समान अधिकार।
- समाज को अंधविश्वास और कुरीतियों से मुक्त करना।
- शिक्षा का प्रसार और सामाजिक जागरूकता बढ़ाना।
5. आर्य समाज के सिद्धांत
आर्य समाज के सदस्य "दस सिद्धांतों" का पालन करते थे, जो समाज और व्यक्ति दोनों के नैतिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए बनाए गए थे:
- ईश्वर: ईश्वर सभी वास्तविक ज्ञान का अंतिम स्रोत है।
- ईश्वर की पूजा: ईश्वर सत्य, ज्ञान और अमरता का प्रतीक है और केवल वही पूजा के योग्य है।
- वेदों का महत्व: वेद ज्ञान के सच्चे भंडार हैं।
- सत्य और असत्य: सत्य को अपनाना और असत्य को अस्वीकार करना चाहिए।
- सही आचरण: सभी कार्य सही और गलत के बारे में विचार करके ही करने चाहिए।
- सामाजिक सुधार: समाज का लक्ष्य भौतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक भलाई में सुधार करना है।
- समानता: सभी के साथ प्रेम और निष्पक्षता से व्यवहार करना चाहिए।
- ज्ञान का प्रसार: अज्ञानता को दूर करके ज्ञान को बढ़ावा देना चाहिए।
- भलाई: व्यक्ति को दूसरों की भलाई के साथ अपनी भलाई का भी ध्यान रखना चाहिए।
- सामूहिक कल्याण: मानवता के सामूहिक कल्याण को व्यक्तिगत भलाई से अधिक प्राथमिकता देनी चाहिए।
6. धार्मिक कार्य
स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म में सुधार के लिए वैदिक धर्म को पुनर्स्थापित करने का प्रस्ताव रखा। उनके प्रमुख धार्मिक सुधार निम्नलिखित हैं:
- मूर्ति पूजा का विरोध: स्वामी दयानंद ने मूर्ति पूजा को खारिज किया, क्योंकि वेदों में इसका समर्थन नहीं है। उन्होंने कहा कि ईश्वर सर्वव्यापी है और मंदिरों या मूर्तियों तक सीमित नहीं हो सकता। उन्होंने धार्मिक कर्मकांड और बलि प्रथाओं की भी निंदा की।
- एकेश्वरवाद: उन्होंने एक ईश्वर में विश्वास को बढ़ावा दिया और कहा कि विष्णु, रुद्र, और अग्नि जैसे देवता एक ही ईश्वर के अलग-अलग रूप हैं। उनका मानना था कि केवल वैदिक धर्म ही सत्य है और अनुयायियों को वेदों की शिक्षाओं का पालन करना चाहिए।
- शुद्धि आंदोलन: आर्य समाज ने धर्मांतरित हिंदुओं को शुद्धिकरण समारोह के माध्यम से हिंदू धर्म में वापस लाने का अभियान चलाया। इसने इस्लाम और ईसाई धर्म के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला किया।
- पुरोहित वर्ग का विरोध: उन्होंने पुरोहित वर्ग की भूमिका को खारिज करते हुए कहा कि व्यक्ति और ईश्वर के बीच किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने पुरोहितों द्वारा शोषण और अज्ञानता की आलोचना की।
- कर्मकांड का विरोध: स्वामी दयानंद ने वैदिक धर्म से इतर सभी अनुष्ठानों, तीर्थयात्राओं, मूर्ति पूजा और अवतारवाद को खारिज किया। उन्होंने केवल वेदों द्वारा समर्थित प्रथाओं को अपनाने की वकालत की।
7. सामाजिक कार्य
स्वामी दयानंद सरस्वती न केवल धार्मिक सुधारक थे, बल्कि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने और समतावादी समाज की स्थापना के लिए प्रयास किए। उनके प्रमुख सामाजिक कार्य निम्नलिखित हैं:
- जाति व्यवस्था का विरोध: स्वामी दयानंद ने जाति व्यवस्था को खारिज किया और दिखाया कि वेदों में अछूत प्रथा का समर्थन नहीं है। उन्होंने कर्म आधारित मूल्य प्रणाली को बढ़ावा दिया और अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित किया।
- समानता का उपदेश: उन्होंने कहा कि सभी लोग समान हैं और उनके कार्य निर्धारित करते हैं कि वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हैं। आर्य समाज में सभी के साथ समान व्यवहार किया गया, चाहे उनकी जाति या धर्म कुछ भी हो।
- बाल विवाह का विरोध: उन्होंने बाल विवाह की प्रथा को समाप्त करने के लिए कड़ी मेहनत की। आर्य समाज ने विवाह के लिए न्यूनतम आयु निर्धारित की—लड़कों के लिए 25 वर्ष और लड़कियों के लिए 16 वर्ष।
- अनाथालय और आश्रय: आर्य समाज ने पंजाब के फिरोजपुर में पहला अनाथालय स्थापित किया और विधवाओं व गरीब महिलाओं के लिए आश्रय बनाए। इन स्थानों पर उन्हें सुरक्षा, कौशल प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए मदद मिली।
8. स्वदेशी आंदोलन: स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्वदेशी का समर्थन करते हुए लोगों को भारत में बनी वस्तुओं का उपयोग करने और विदेशी सामान का बहिष्कार करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने लोकतंत्र और स्वशासन की पुरजोर वकालत की।
9. विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहन: उन्होंने सती प्रथा की निंदा की और विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया। स्वामी दयानंद ने विधवाओं के लिए "नियोग" पद्धति का समर्थन किया, ताकि वे नई शुरुआत कर सकें और समाज में सम्मानपूर्वक जीवन जी सकें।
10.राष्ट्रीय जागरण: स्वामी दयानंद ने ब्रिटिश शासन की आलोचना की, यह कहते हुए कि इससे भारतीयों को कोई लाभ नहीं हुआ। आर्य समाज ने लोगों को राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति जागरूक किया और स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया। इसने लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानंद और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं को तैयार किया, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख स्तंभ बने।
11. शैक्षिक कार्य
स्वामी दयानंद सरस्वती का मानना था कि शिक्षा समाज और धर्म को सुधारने का सबसे प्रभावी साधन है। उन्होंने शिक्षा, विशेषकर वैदिक ज्ञान, के प्रसार के लिए कई प्रयास किए। उनके प्रमुख शैक्षिक कार्य निम्नलिखित हैं:
- दयानंद एंग्लो-वैदिक कॉलेज (DAV): उनके अनुयायियों ने लाला हंसराज के नेतृत्व में 1 जुलाई 1886 को लाहौर में पहला DAV कॉलेज खोला। यह कॉलेज भारतीय संस्कृति के संरक्षण के साथ-साथ पश्चिमी और वैज्ञानिक शिक्षा का मिश्रण प्रदान करता था। इसका उद्देश्य हिंदू साहित्य, संस्कृत और वेदों के अध्ययन को बढ़ावा देना था।
- गुरुकुल: पारंपरिक आर्यन तरीके से शिक्षा देने के लिए आर्य समाज ने गुरुकुलों की स्थापना की। हरिद्वार के पास कांगड़ी में स्थापित गुरुकुल, जिसे लाला मुंशी राम ने शुरू किया था, वैदिक शिक्षा का प्रमुख केंद्र बना। छात्रों को सादगी, अनुशासन, और समर्पण के साथ आठ से सोलह वर्षों तक शिक्षा दी जाती थी।
- महिला शिक्षा को प्रोत्साहन: स्वामी दयानंद ने महिलाओं की शिक्षा का समर्थन किया, यह कहते हुए कि वैदिक काल में महिलाएं शिक्षित और सम्मानित थीं। उन्होंने लड़कियों को समान शिक्षा देने और सैन्य कौशल सिखाने का सुझाव दिया। आर्य समाज ने पंजाब में लड़कियों के लिए कई स्कूल और कॉलेज स्थापित किए।
रामकृष्ण मिशन
रामकृष्ण मिशन प्राचीन भारतीय शिक्षाओं और आधुनिक पश्चिमी विचारों का संगम है। इसकी प्रेरणा रामकृष्ण परमहंस से ली गई, लेकिन स्वामी विवेकानंद ने 5 मई 1897 को इसकी स्थापना की। मिशन का उद्देश्य आध्यात्मिकता, सेवा, और मानव कल्याण को बढ़ावा देना है।
1. रामकृष्ण परमहंस: रामकृष्ण परमहंस, जो बंगाल में जन्मे थे, ने विभिन्न धर्मों के सार की खोज की और सभी धर्मों की एकता पर बल दिया। उनका मानना था कि मानवता की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है।
2. विश्व धर्म संसद और स्वामी विवेकानंद :