भारत का इतिहास 1700- 1857 UNIT 2 CHAPTER 3 SEMESTER 5 THEORY NOTES ब्रिटिश सत्ता का विस्तार और सुदृढ़ीकरण : ब्रिटिश राज की विचारधाराएँ/रणनीतियाँ HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakदिसंबर 11, 2024
प्रस्तावना
"ब्रिटिश राज" के नाम से जाना जाने वाला भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन 18वीं सदी के मध्य से 20वीं सदी तक चला। इस शासन ने भारतीय समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला।ब्रिटिश राज औपनिवेशिक विचारधाराओं पर आधारित था, जिसमें "फूट डालो और राज करो" की नीति और संसाधनों के शोषण का उपयोग किया गया। उन्होंने भारतीय कृषि और उद्योगों को कमजोर कर देश को एक उपभोक्ता बाजार में बदल दिया। हालाँकि, शोषण और अन्याय के बीच, भारतीयों ने प्रतिरोध करते हुए स्वतंत्रता संग्राम को जन्म दिया। ब्रिटिश राज ने भारत के इतिहास को गहराई से प्रभावित किया और स्वतंत्रता आंदोलन की नींव रखी।
औपनिवेशिक विचारधाराएँ
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता और सैन्य ताकत के आधार पर भारतीय समाज को नियंत्रित किया। भारतीय समाज को "पिछड़ा" और अंग्रेजों को "सभ्य निर्माता" के रूप में प्रस्तुत किया गया।
1. ब्रिटिश राज की प्राच्य विचारधारा
ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में प्राच्य विचारधारा (ओरिएंटलिज़्म) भारत को पिछड़े और रहस्यमय के रूप में प्रस्तुत करती थी। यह दृष्टिकोण ब्रिटिश श्रेष्ठता और औपनिवेशिक शासन को वैध ठहराने के लिए इस्तेमाल हुआ। प्राच्य विद्वानों ने भारतीय भाषाओं, इतिहास, और कानूनों का अध्ययन किया, जिससे औपनिवेशिक नीतियाँ बनीं। संस्थाओं जैसे एशियाटिक सोसाइटी और फ़ोर्ट विलियम कॉलेज ने प्रशासकों को भारतीय संस्कृति समझने का प्रशिक्षण दिया। हालाँकि, यह ज्ञान भारतीयों को हीन और अंग्रेजों को सभ्य बताने की नीति का हिस्सा था।
सभ्यता मिशन
ब्रिटिश "सभ्यता मिशन" भारतीय समाज को सुधारने और आधुनिक बनाने का दावा करता था। अंग्रेजों ने इसे भारतीयों के उत्थान का परोपकारी प्रयास बताया, लेकिन इसका असली उद्देश्य औपनिवेशिक शोषण और सांस्कृतिक वर्चस्व को छुपाना था। यह मिशन नस्लीय श्रेष्ठता पर आधारित था और आर्थिक शोषण तथा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता था।
श्वेत व्यक्ति का दायित्व सिद्धांत
इस सिद्धांत ने औपनिवेशिक शासन को एक नैतिक जिम्मेदारी के रूप में प्रस्तुत किया, जिसमें श्वेत पश्चिमी शक्तियों को "पिछड़े" समाजों को सभ्यता और आधुनिकता सिखानी थी। यह विचार नस्लीय पदानुक्रम और शोषण को वैध ठहराता था। भारत में इसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के औचित्य और भारतीय संस्कृति के दमन के लिए उपयोग किया गया।
नस्लीय वर्चस्व
नस्लीय वर्चस्व का अर्थ है एक नस्ल का अन्य नस्लों पर अपनी अंतर्निहित श्रेष्ठता में विश्वास। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, यह विचारधारा ब्रिटिश अधिकारियों और उपनिवेशवादियों के बीच व्यापक थी। उन्होंने भारतीयों को निम्नतर और स्वयं को श्रेष्ठ समझते हुए, भारत में नस्लीय पदानुक्रम और शोषणकारी नीतियों को लागू किया।
सामाजिक पदानुक्रम: ब्रिटिश उपनिवेशवादी समाज नस्ल के आधार पर विभाजित था। यूरोपीय लोग सबसे ऊँचे पायदान पर थे, उनके बाद यूरेशियन और फिर भारतीय। यह रोजगार, शिक्षा, और सार्वजनिक सेवाओं में भेदभाव के रूप में दिखा।
कानूनी भेदभाव: कानूनों और नियमों में भारतीयों के साथ नस्लीय आधार पर भेदभाव किया गया। यूरोपीय लोगों के लिए विशेष अधिकार और भारतीयों के लिए भेदभावपूर्ण प्रतिबंध आम थे।
सांस्कृतिक आधिपत्य: ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय परंपराओं को हाशिए पर डालते हुए पश्चिमी मूल्यों और संस्थानों को थोपने का प्रयास किया। अंग्रेजी भाषा को सांस्कृतिक श्रेष्ठता का प्रतीक बनाया गया, जबकि भारतीय भाषाओं और प्रथाओं को बदनाम या दबा दिया गया।
आर्थिक शोषण: नस्लीय वर्चस्व ने भारतीय संसाधनों और श्रम के शोषण को उचित ठहराया। ब्रिटिश उद्योगों और व्यापार को बढ़ाने के लिए भारतीय कल्याण और विकास की उपेक्षा की गई।
पितृसत्ता
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में पितृसत्ता एक शासकीय दृष्टिकोण था, जिसमें औपनिवेशिक प्रशासक खुद को भारतीयों के "उदार पिता" के रूप में प्रस्तुत करते थे। यह दृष्टिकोण भारतीयों की राय और सहमति को महत्व दिए बिना निर्णय लेने पर आधारित था।
प्रमुख विशेषताएँ:
सत्तावादी शासन: प्रशासकों ने बिना स्थानीय राय के अपने अधिकार का प्रयोग किया।
सीमित राजनीतिक भागीदारी: भारतीयों को राजनीतिक निर्णयों और प्रशासन में भागीदारी से वंचित रखा गया।
सामाजिक इंजीनियरिंग: भारतीय समाज को पश्चिमी मानदंडों के अनुसार ढालने की कोशिश की गई, जैसे शिक्षा और कानूनी सुधार।
सांस्कृतिक आत्मसात: भारतीयों को अंग्रेजी शिक्षा, पश्चिमी पोशाक और शिष्टाचार अपनाने को प्रोत्साहित किया गया।
शोषण का औचित्य: औपनिवेशिक आर्थिक शोषण को भारतीयों के "कल्याण" के नाम पर उचित ठहराया गया।
2. ब्रिटिश राज की उपयोगितावादी विचारधारा
औपनिवेशिक भारत में उपयोगितावाद का सिद्धांत, जिसका नेतृत्व जेम्स मिल और जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे विचारकों ने किया, औपनिवेशिक शासन की नीतियों को गहराई से प्रभावित करता था। उपयोगितावाद का मूल सिद्धांत "समग्र खुशी को अधिकतम करना" था, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और परंपरागत अधिकारों की कीमत पर लागू किया गया।
उपयोगितावाद और औपनिवेशिक नीतियाँ
राजस्व प्रणाली का पुनर्गठन: उपयोगितावादियों ने भारतीय राजस्व प्रणाली को सुधारने का प्रयास किया। उनका मानना था कि जमींदार केवल भूमि के स्वामित्व से अधिशेष अर्जित करते हैं, इसलिए राज्य को भूमि का पूर्ण स्वामी होना चाहिए। रैयतवारी प्रणाली को अपनाने की वकालत की गई, जिसमें किसानों के अधिकार स्पष्ट रूप से परिभाषित और संरक्षित थे।
कानूनी सुधार और प्रशासन: उपयोगितावादियों ने कानून की सर्वोच्चता पर जोर दिया। उनका मानना था कि प्रभावी शासन के लिए कानून, कर प्रणाली, और प्रशासनिक तंत्र का वैज्ञानिक ढंग से पुनर्निर्माण आवश्यक है। उन्होंने 'अधिकारों का रिकॉर्ड' जैसे दस्तावेजीकरण की जरूरत बताई, जिससे भूमि और संपत्ति के अधिकार स्पष्ट हों।
किसान और जमींदारी व्यवस्था: उपयोगितावादियों ने स्थायी बंदोबस्त की आलोचना की, क्योंकि इसमें किसानों के अधिकार स्पष्ट नहीं थे। वे मानते थे कि किसान को अपनी जमीन का मालिक होना चाहिए और इसे बेचने, गिरवी रखने, या उत्तराधिकारियों को देने का अधिकार होना चाहिए।
आर्थिक सिद्धांत और किराय
एरिक स्टोक्स और डेविड रिकार्डो जैसे उपयोगितावादी अर्थशास्त्रियों ने समझाया कि उपजाऊ भूमि से अधिशेष लाभ (किराया) को राज्य का हिस्सा माना जाना चाहिए। उनका तर्क था कि जमींदार कोई उपयोगी सेवा नहीं देते और परजीवी की तरह समाज पर निर्भर रहते हैं।
आलोचना
पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण: उपयोगितावादी नीतियाँ स्थानीय अधिकारों और परंपराओं को नज़रअंदाज़ करती थीं।
प्रशासनिक सीमाएँ: भारत की जटिल सामाजिक-आर्थिक स्थिति और स्थानीय ज्ञान की कमी ने इन नीतियों को प्रभावी रूप से लागू करने में बाधा डाली।
नैतिक मुद्दे: सामूहिक कल्याण के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन किया गया।
3. ब्रिटिश राज की उदारवादी विचारधारा
ब्रिटिश राज के दौरान, उदारवाद ने शासन और नीतियों को प्रभावित किया, लेकिन यह साम्राज्यवादी हितों और पितृसत्तात्मक दृष्टिकोणों से प्रभावित था। जॉन लॉक और एडम स्मिथ के विचारों से प्रेरित इस विचारधारा ने व्यक्तिगत अधिकारों, मुक्त बाजारों, और सीमित सरकारी हस्तक्षेप पर जोर दिया।
उदारवाद और औपनिवेशिक सुधार
शिक्षा और प्रशासनिक सुधार: अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत और भारतीय सिविल सेवा जैसी संस्थाओं की स्थापना। कानूनों को संहिताबद्ध कर एक समान कानूनी प्रणाली बनाने का प्रयास।
आर्थिक नीतियाँ: उपयोगितावाद से जुड़े उदार सिद्धांतों ने किराए के कानून और भूमि राजस्व प्रणालियों को प्रभावित किया। मुक्त व्यापार को बढ़ावा दिया गया, लेकिन यह भारतीय उद्योगों के विनाश का कारण बना।
विरोधाभास और सीमाएँ
नस्लीय और पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण: भारतीयों को "पिछड़ा" मानते हुए ब्रिटिश शासन को सभ्य बनाने का मिशन बताया गया।
भारतीय किसानों की स्थिति: भूमि राजस्व प्रणालियों ने किसानों को बेदखल और गरीब बना दिया।
राजनीतिक भागीदारी पर प्रतिबंध: भारतीयों की राजनीतिक भागीदारी सीमित थी, जिससे सामाजिक और जातिगत पदानुक्रम मजबूत हुआ।
ब्रिटिश राज की रणनीति
भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन (18वीं-20वीं सदी) ने सत्ता बनाए रखने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाईं, जैसे सैन्य विजय, प्रशासनिक सुधार, आर्थिक शोषण और सांस्कृतिक प्रभाव। यहाँ उनकी प्रमुख रणनीतियों का सार दिया गया है:
1. कूटनीतिक जुडाव
रिंग फेंस नीति: रिंग फेंस नीति वॉरेन हेस्टिंग्स द्वारा शुरू की गई एक रणनीति थी, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश-शासित क्षेत्रों के चारों ओर बफर जोन बनाना था। इस नीति के तहत पड़ोसी रियासतों और आदिवासी क्षेत्रों को ब्रिटिश प्रभाव में लाया गया ताकि बाहरी आक्रमणों और आंतरिक विद्रोहों को रोका जा सके। यह नीति ब्रिटिश क्षेत्रों की सीमाओं को सुरक्षित करने और संभावित विद्रोही गतिविधियों को अलग-थलग करने में महत्वपूर्ण थी, जिससे औपनिवेशिक शासन को स्थिरता और मजबूती मिली।
सहायक संधि: सहायक संधि ब्रिटिश गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेस्ली द्वारा शुरू की गई एक नीति थी, जिसका उद्देश्य भारतीय रियासतों पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करना था। इसके तहत, रियासतों में ब्रिटिश सेना तैनात की जाती थी, उनकी देशी सेनाओं को विघटित किया जाता था, और ब्रिटिश हितों के अनुसार कठपुतली शासकों को नियुक्त किया जाता था। रियासतों को तैनात ब्रिटिश सैनिकों का वित्तीय भार भी उठाना पड़ता था, जिससे उनकी आर्थिक निर्भरता बढ़ जाती थी। इस नीति ने रियासतों की स्वायत्तता को समाप्त कर दिया और उनकी आंतरिक राजनीति में ब्रिटिश प्रभाव को निर्णायक बना दिया, जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश नियंत्रण का विस्तार हुआ।
व्यपगत सिद्धांत (हड़प नीति): व्यपगत सिद्धांत लॉर्ड डलहौजी द्वारा शुरू की गई एक नीति थी, जिसके तहत किसी रियासत के शासक की मृत्यु बिना प्राकृतिक उत्तराधिकारी के होने पर उस राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल कर लिया जाता था। इस सिद्धांत के तहत कई महत्वपूर्ण रियासतों का विलय हुआ, जैसे 1848 में सतारा, 1853 में झांसी, 1854 में नागपुर, और 1856 में अवध, जिसे कुशासन के आधार पर हड़प लिया गया। इस नीति ने ब्रिटिश क्षेत्र का विस्तार किया, लेकिन स्थानीय शासकों और जनता में गहरा असंतोष पैदा किया। इस असंतोष ने 1857 के विद्रोह को भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
2. फूट डालो और राज करो: ब्रिटिश औपनिवेशिक रणनीति
"फूट डालो और राज करो" की नीति ब्रिटिश शासन की एक प्रमुख रणनीति थी, जिसका उद्देश्य भारतीय समाज के भीतर विभाजन को बढ़ावा देकर उपनिवेशवाद को बनाए रखना और प्रतिरोध को कमजोर करना था। इस नीति ने धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीय भेदभाव को गहरा किया, जिससे भारतीयों के लिए एकजुट होकर औपनिवेशिक शासन का विरोध करना कठिन हो गया।
धार्मिक और जातीय विभाजन को बढ़ावा देना:ब्रिटिश शासन के दौरान धार्मिक और जातीय विभाजन को बढ़ावा देने की रणनीति अपनाई गई, जिससे भारतीय समाज में अविश्वास और दुश्मनी फैलाई गई। हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच जानबूझकर विभाजन किया गया, ताकि वे एकजुट होकर ब्रिटिश शासन का विरोध न कर सकें। ब्रिटिश अधिकारियों ने कुछ समुदायों या समूहों को विशेष वरीयता दी, जिससे अन्य समूहों में असंतोष और तनाव बढ़ा। इस नीति ने समाज में गहरे विभाजन को जन्म दिया, जिसका प्रभाव भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और बाद की सामाजिक संरचना पर पड़ा।
नेतृत्व में हस्तक्षेप:ब्रिटिश शासन ने नेतृत्व में हस्तक्षेप की रणनीति अपनाकर समाज में फूट डालने का काम किया। स्थानीय नेताओं और अभिजात वर्ग को अपने हितों के अनुसार समर्थन देकर सामुदायिक एकजुटता को कमजोर किया गया। प्रभावशाली व्यक्तियों को विशेषाधिकार और प्रोत्साहन देकर उनका समर्थन हासिल किया गया, जिससे स्थानीय नेतृत्व पर उनका नियंत्रण बढ़ा। इस हस्तक्षेप ने न केवल समाज में असंतुलन पैदा किया, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के लिए आवश्यक सामूहिक नेतृत्व को भी कमजोर किया।
सांप्रदायिक विभाजन को संस्थागत बनाना:ब्रिटिश शासन ने सांप्रदायिक विभाजन को संस्थागत बनाने के लिए धर्म के आधार पर अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की। इस नीति ने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच राजनीतिक दूरी बढ़ाई और सांप्रदायिक राजनीति को प्रोत्साहित किया। परिणामस्वरूप, भारतीय समाज में विभाजन गहराया और राष्ट्रीय एकता कमजोर हुई। यह रणनीति ब्रिटिश शासन के "फूट डालो और राज करो" सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी।
सांस्कृतिक मतभेदों का शोषण: ब्रिटिश शासन ने सांस्कृतिक मतभेदों का शोषण करते हुए भारतीय समाज में विभाजन को बढ़ावा दिया। पश्चिमी शिक्षा और मूल्यों को प्राथमिकता देकर स्वदेशी परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहर को कमजोर किया गया। साथ ही, क्षेत्रीय और भाषाई भिन्नताओं का उपयोग कर सांस्कृतिक विभाजन को गहराया गया, जिससे भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में एकता की भावना कमजोर पड़ गई। इस नीति ने न केवल सांस्कृतिक अस्मिता पर आघात किया, बल्कि सामाजिक एकजुटता को भी बाधित किया।
सहायक संधियाँ और कठपुतली शासक:ब्रिटिश शासन ने सहायक संधियों और कठपुतली शासकों की नीति अपनाकर भारतीय रियासतों और जनजातीय नेताओं को अपने नियंत्रण में कर लिया। इन संधियों के तहत रियासतों को ब्रिटिश सेना का खर्च वहन करने और उनकी सुरक्षा के बदले स्वतंत्रता त्यागने पर मजबूर किया गया। इसके साथ ही, रियासतों में कठपुतली शासकों को स्थापित कर स्वायत्तता को कमजोर किया गया। यह रणनीति स्वतंत्र रियासतों को विभाजित और कमजोर बनाए रखने में सफल रही, जिससे भारत में ब्रिटिश शासन का विस्तार और प्रभाव मजबूत हुआ।
3. प्रशासनिक केंद्रीकरण
प्रशासनिक केंद्रीकरण का तात्पर्य प्रशासनिक अधिकारों और निर्णय लेने की शक्ति को एक केंद्रीय प्राधिकरण में केंद्रित करने से है। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, यह उनकी शासन प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। ब्रिटिश भारत को प्रांतों और जिलों में विभाजित किया गया, लेकिन अंतिम अधिकार केंद्रीय सरकार के पास था, जो शुरू में कलकत्ता और बाद में दिल्ली में स्थित थी।
प्रमुख विशेषताएँ
केंद्रीकृत नौकरशाही: ब्रिटिश शासन के तहत गवर्नर जनरल और प्रांतीय गवर्नरों को स्थानीय प्रशासकों पर व्यापक अधिकार दिए गए, जिससे प्रशासनिक संरचना पूरी तरह से केंद्र पर निर्भर हो गई।
समान कानून और विनियम: पूरे भारत में समान कानून और नीतियाँ लागू की गईं, जिससे प्रशासनिक प्रक्रिया में एकरूपता आई और क्षेत्रीय असमानताओं को कम किया गया।
राजस्व प्रशासन: भूमि राजस्व और कर प्रणाली केंद्रीकृत की गई। सभी नीतियाँ केंद्रीय स्तर पर बनाई गईं और पूरे देश में समान रूप से लागू हुईं।
बुनियादी ढाँचे का विकास: रेलवे, टेलीग्राफ और डाक सेवाएँ जैसी परियोजनाओं को केंद्रीय प्राधिकरण के तहत क्रियान्वित किया गया। इनका उद्देश्य प्रशासन और व्यापार को सुगम बनाना था।
केंद्रीकृत न्यायिक प्रणाली: शीर्ष पर उच्च न्यायालयों के साथ न्याय व्यवस्था केंद्रीकृत की गई, जिससे कानूनों की व्याख्या और क्रियान्वयन में एकरूपता सुनिश्चित हुई।
शिक्षा और सामाजिक नीतियाँ: अंग्रेजों ने शिक्षा और सामाजिक सुधारों के लिए केंद्रीकृत नीतियाँ लागू कीं। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली और आधुनिक स्वास्थ्य सेवाएँ इन्हीं नीतियों का हिस्सा थीं।
4. आर्थिक शोषण
आर्थिक शोषण का अर्थ किसी क्षेत्र या आबादी से उनके संसाधनों और धन का ऐसा दोहन है, जो शोषित समूह के विकास और कल्याण की कीमत पर प्रभावशाली समूह के लाभ के लिए होता है। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान यह शोषण उनकी शासन प्रणाली का केंद्रीय पहलू था।
प्रमुख विशेषताएँ
संसाधन निष्कर्षण: भारत से कपास, नील, चाय और मसाले जैसे कच्चे माल का भारी मात्रा में दोहन किया गया। इन सामग्रियों को ब्रिटेन भेजकर प्रसंस्करण किया गया और तैयार उत्पाद भारत में ऊंची कीमतों पर बेचे गए, जिससे व्यापार असंतुलन बढ़ा।
भूमि राजस्व प्रणाली: स्थायी बंदोबस्त और रैयतवारी प्रणाली के माध्यम से किसानों पर भारी कर लगाए गए। इससे व्यापक गरीबी, ऋणग्रस्तता और कृषि समुदायों पर भारी बोझ पड़ा। राजस्व का अधिकांश हिस्सा ब्रिटिश खजाने में चला गया।
वाणिज्यिक एकाधिकार: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रमुख उद्योगों और व्यापार मार्गों पर एकाधिकार स्थापित किया। इसने स्थानीय कारीगरों और उद्योगों को नुकसान पहुंचाया, जिससे वे हाशिए पर चले गए।
असमान व्यापार नीतियाँ: ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय उत्पादों की तुलना में ब्रिटिश वस्तुओं को वरीयता दी। इससे भारतीय हस्तशिल्प और उद्योग कमजोर हो गए, जबकि ब्रिटिश उद्योगों को सुरक्षा और बढ़ावा मिला।
वित्तीय निकासी: उपनिवेश से धन को ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार और औद्योगीकरण के लिए ब्रिटेन भेजा गया। कर, टैरिफ और मुनाफे के माध्यम से भारतीय धन का बड़े पैमाने पर निकासी हुई।
ब्रिटिश हितों के लिए बुनियादी ढांचा निवेश: रेलवे, बंदरगाह और सड़कों जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाएँ मुख्यतः ब्रिटिश आर्थिक लाभ के लिए थीं। इनका उद्देश्य भारतीय विकास के बजाय ब्रिटिश व्यापार को सुगम बनाना था।
5. असहमति का दमन
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान असहमति का दमन उनकी सत्ता बनाए रखने की एक प्रमुख रणनीति थी। इस नीति के तहत स्वतंत्रता की आवाज़ों को दबाने और औपनिवेशिक शासन के प्रति किसी भी विरोध को खत्म करने के लिए कठोर और व्यवस्थित कदम उठाए गए।
प्रमुख उपाय
दमनकारी कानूनों का निर्माण: राजद्रोह अधिनियम और प्रेस अधिनियम जैसे कानून बनाए गए, जिनका उद्देश्य भाषण, प्रेस और सभा की स्वतंत्रता को बाधित करना था।
सेंसरशिप: समाचार पत्रों, पुस्तकों और मीडिया पर सेंसरशिप लागू की गई। किसी भी सामग्री को, जिसे ब्रिटिश विरोधी माना जाता था, प्रतिबंधित कर दिया जाता था।
मनमानी गिरफ्तारियाँ: राजनीतिक नेताओं और स्वतंत्रता सेनानियों को बिना मुकदमे के गिरफ्तार किया जाता था और कठोर परिस्थितियों में कैद रखा जाता था।
जासूसी और निगरानी: राजनीतिक असंतोष पर नज़र रखने के लिए जासूसों और मुखबिरों का नेटवर्क तैयार किया गया। यह नेटवर्क संभावित विद्रोहियों को पहचानने और रोकने के लिए सक्रिय था।
निर्वासन और अलगाव: असंतुष्ट नेताओं को उनके समुदायों से निर्वासित कर दिया जाता था, जिससे उनके समर्थकों से संपर्क कट जाता था और आंदोलन कमजोर पड़ जाता था।
बल का प्रयोग: विद्रोह, विरोध और हड़ताल को दबाने के लिए सैन्य बल का इस्तेमाल किया गया। इसके परिणामस्वरूप व्यापक हिंसा और नागरिक हताहत हुए।
6. सेना और पुलिस की भूमिका
18वीं शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार और सुदृढ़ीकरण में सेना और पुलिस का महत्वपूर्ण योगदान था। ये दोनों संस्थाएँ ब्रिटिश सत्ता बनाए रखने के प्राथमिक साधन थीं, जिनका उपयोग नियंत्रण स्थापित करने, विरोध को दबाने और शासन लागू करने में किया गया।
ब्रिटिश सेना
सैन्य अभियान और लड़ाइयाँ: प्लासी (1757) और बक्सर (1764) की लड़ाइयों में विजय ने ब्रिटिशों को बड़े क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने और भारतीय शासकों को हराने में मदद की। यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों, विशेष रूप से फ्रांसीसियों को हराकर ब्रिटिशों ने अपनी प्रमुखता स्थापित की।
किलों और छावनियों की स्थापना: रणनीतिक स्थानों पर फोर्ट विलियम (कलकत्ता) और फोर्ट सेंट जॉर्ज (मद्रास) जैसे किले बनाए गए, जो सैन्य अड्डों और प्रशासनिक केंद्रों के रूप में कार्य करते थे।
स्थानीय भर्ती: भारतीय सिपाहियों की भर्ती ने ब्रिटिश सेना को बड़ा और सस्ता लड़ाकू बल प्रदान किया। स्थानीय सैनिकों के माध्यम से ब्रिटिशों ने बेहतर नियंत्रण और सामरिक लाभ प्राप्त किया।
पुलिस की भूमिका
कानून और व्यवस्था: पुलिस ने स्थानीय विद्रोहों को दबाने, अपराध रोकने, और कर संग्रह तथा राजस्व प्रणाली लागू करने में मदद की।
निगरानी और खुफिया: राजनीतिक और सामाजिक असंतोष पर नज़र रखने के लिए पुलिस ने जासूसों और मुखबिरों का उपयोग किया। यह प्रणाली विद्रोहों को रोकने और दमन सुनिश्चित करने में सहायक रही।
प्रशासनिक नियंत्रण: पुलिस ने स्थानीय शासकों को ब्रिटिश पर्यवेक्षण के तहत शासन करने में मदद की और यह सुनिश्चित किया कि वे ब्रिटिश हितों के प्रति वफादार रहें।
सेना और पुलिस के बीच तालमेल
सैन्य से नागरिक प्रशासन में संक्रमण: किसी क्षेत्र पर विजय प्राप्त करने के बाद सेना प्रशासनिक नियंत्रण पुलिस को सौंपती थी, जो कानून व्यवस्था बनाए रखने में अग्रणी भूमिका निभाती।
विद्रोहों का दमन: सेना ने बड़े विद्रोह (जैसे 1857 का सिपाही विद्रोह) को कुचला, जबकि पुलिस ने छोटे विरोधों को संभाला और व्यवस्था बहाल की।
भारत में ब्रिटिश राज का संस्थागत तंत्र
ब्रिटिश राज के संस्थागत तंत्र ने लगभग 200 वर्षों के औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय समाज, प्रशासन और सामाजिक ढाँचों को गहराई से प्रभावित किया। इन तंत्रों का उद्देश्य ब्रिटिश नियंत्रण को मजबूत करना, भारत के संसाधनों का दोहन करना और साम्राज्यवादी हितों के अनुसार सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना था। इनमें सिविल सेवा, कानूनी ढाँचे और शैक्षिक नीतियों का अहम योगदान था।
1. भारतीय सिविल सेवाएँ
भारतीय सिविल सेवा (ICS) ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की एक मुख्य आधारशिला थी, जो भारत में प्रशासन और नीतियों को लागू करने के लिए स्थापित की गई थी। लॉर्ड कॉर्नवालिस को इसका जनक माना जाता है। 1857 के विद्रोह के बाद 1858 में शुरू की गई इस सेवा में योग्यता-आधारित भर्ती प्रक्रिया थी, लेकिन इसमें ब्रिटिश अधिकारियों का वर्चस्व था। शिक्षा प्रणाली पर ब्रिटिश नियंत्रण ने सिविल सेवकों को ब्रिटिश मूल्यों और दृष्टिकोण से प्रभावित किया, जिससे औपनिवेशिक शासन के प्रति उनकी निष्ठा सुनिश्चित हुई। इस प्रकार, ICS ने भारत में ब्रिटिश नीतियों और हितों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
2. कानूनी ढाँचा
भारत में ब्रिटिश राज का कानूनी ढाँचा औपनिवेशिक शासन को मजबूत करने के लिए बनाया गया था। इसने भारतीय प्रथागत कानूनों को हटाकर ब्रिटिश आम कानून पर आधारित संहिताबद्ध कानून लागू किए। उच्च न्यायालयों के साथ एक केंद्रीकृत न्यायपालिका स्थापित की गई, जिसने कानूनों की एकरूपता सुनिश्चित की लेकिन इन्हें अक्सर ब्रिटिश हितों के पक्ष में लागू किया जाता था। राजद्रोह अधिनियम और प्रेस अधिनियम जैसे कानून असहमति को दबाने के लिए इस्तेमाल किए गए। भूमि स्वामित्व प्रणाली में बदलाव और सामाजिक पदानुक्रमों को संहिताबद्ध कर इस ढाँचे ने औपनिवेशिक शोषण और ब्रिटिश प्रभुत्व को मजबूत किया।
शैक्षिक नीतियाँ
ब्रिटिश राज ने भारत में शैक्षिक नीतियाँ मुख्यतः अपने शासन को मजबूत करने के उद्देश्य से लागू कीं। 1813 के चार्टर एक्ट के तहत हर साल शिक्षा के लिए 1 लाख रुपये का प्रावधान किया गया, जो अंग्रेजों द्वारा शिक्षा के महत्व की पहली आधिकारिक स्वीकृति थी। इसका उद्देश्य भारतीयों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना था जो ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार हो और प्रशासन में सहायता कर सके। संस्कृत और अरबी कॉलेजों की स्थापना ने पारंपरिक भाषाओं के अध्ययन को बढ़ावा दिया, लेकिन शिक्षा मुख्य रूप से पश्चिमी प्रणाली पर केंद्रित रही। इन नीतियों ने प्रशासन के लिए शिक्षित भारतीय तैयार किए, लेकिन साथ ही भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में भी योगदान दिया।