भारत का इतिहास 1700- 1857 UNIT 2 CHAPTER 2 SEMESTER 5 THEORY NOTES ब्रिटिश सत्ता का विस्तार और सुदृढ़ीकरण : बंगाल, मैसूर, मराठा, पंजाब (1700-1857) HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES

 
भारत का इतिहास 1700- 1857 UNIT 1 CHAPTER 1 SEMESTER 5 THEORY NOTES ब्रिटिश सत्ता का विस्तार और सुदृढ़ीकरण : बंगाल, मैसूर, मराठा, पंजाब (1700-1857) HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES


परिचय

भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक विस्तार 18वीं शताब्दी के मध्य में प्रारंभ होकर 1856 में अवध के विलय तक जारी रहा। इन सौ वर्षों के दौरान, भारत में ब्रिटिश शासन का विस्तार और मजबूती दोनों हुई। इस अवधि में, ब्रिटिश विजय की प्रक्रियाएँ विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न थीं, लेकिन कुछ समान विशेषताएँ भी थीं। विशेष रूप से अवध के विलय की परिस्थितियाँ विशिष्ट थीं, जिसने ब्रिटिश नीतियों और भारतीय राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला। 1857 के विद्रोह के बाद, ब्रिटिश राज ने भारतीय राजाओं के साथ नई रणनीतियों को अपनाया, जिससे भारत में रियासतों का अस्तित्व स्वतंत्रता और विभाजन तक कायम रहा।

 अंग्रेजी व्यापार का विकास 

भारत में अंग्रेजी व्यापार की शुरुआत 1600 में हुई, जब रानी एलिज़ाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापार करने का अधिकार दिया। 1608 में कंपनी सूरत पहुँची और मुग़ल दरबार से व्यापार की अनुमति माँगी। शुरुआत में पुर्तगालियों के विरोध के कारण यह संभव नहीं हुआ, लेकिन 1612 में पुर्तगालियों को हराने के बाद सम्राट जहाँगीर ने सूरत में कारखाने लगाने की अनुमति दी।

1615-1618 के बीच, सर थॉमस रो ने मुग़ल दरबार से कंपनी के लिए कई सुविधाएँ हासिल कीं। इसके बाद कंपनी ने सूरत, आगरा, अहमदाबाद और मद्रास जैसे शहरों में व्यापारिक अड्डे बनाए। 1668 में बॉम्बे को कंपनी का मुख्यालय बना दिया गया। मद्रास में सेंट जॉर्ज किले का निर्माण और दक्षिण से उत्तर की ओर व्यापार का विस्तार अंग्रेजी व्यापार के विकास में महत्वपूर्ण कदम थे।


 ब्रिटिश विस्तार के रुझान 

1. दक्षिण में ब्रिटिश और फ्रांसीसियों के बीच प्रतिद्वंद्विता

भारत में ब्रिटेन और फ्रांस के बीच संघर्ष उनके यूरोपीय विवादों का विस्तार था। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में फ्रांसीसी गतिविधियाँ कम थीं, लेकिन 1720-1740 के बीच फ्रांसीसी व्यापार बढ़ा, जिससे अंग्रेज चिंतित हुए। यूरोप में चल रहे संघर्षों ने भारत में इन दोनों के बीच दुश्मनी को और बढ़ा दिया।

2. कर्नाटक युद्ध

कर्नाटक युद्ध ब्रिटेन और फ्रांस के बीच यूरोपीय युद्धों का भारतीय विस्तार था। इन युद्धों ने भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई।

  • प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-1748): यह युद्ध ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध का हिस्सा था। फ्रांसीसियों ने मद्रास पर कब्जा कर लिया, लेकिन ऐक्स-ला-शेपैल की संधि (1748) के तहत मद्रास अंग्रेजों को वापस कर दिया गया।
  • द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-1754): डुप्ले ने दक्षिण भारत की राजनीति में हस्तक्षेप किया। उसने अनवरुद्दीन को हराकर चंदा साहिब को कर्नाटक का शासक बनाया। अंग्रेजों ने मुहम्मद अली का समर्थन किया, और रॉबर्ट क्लाइव ने आर्कोट पर कब्जा कर लिया। डुप्ले को हार का सामना करना पड़ा और फ्रांस वापस बुला लिया गया।
  • तृतीय कर्नाटक युद्ध (1756-1763): यह युद्ध सात वर्षीय युद्ध का हिस्सा था। अंग्रेजों ने वांडिवाश की लड़ाई (1760) में फ्रांसीसियों को हराया। पांडिचेरी पर कब्जा कर फ्रांसीसी शक्ति खत्म कर दी गई। पेरिस की संधि (1763) ने भारत में ब्रिटिश वर्चस्व को पक्का कर दिया।


 भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना और विस्तार 

भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना 17वीं शताब्दी में शुरू हुई। 1633 में उड़ीसा में उनकी पहली बस्तियाँ स्थापित हुईं, और 1651 में बंगाल के हुगली में कारखाने बने। 1717 में अंग्रेजों को शाही फरमान से शुल्क मुक्त व्यापार की अनुमति मिली, जिससे बंगाल के नवाब से तनाव बढ़ा।1757-1765 के बीच उन्होंने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में प्रभाव बढ़ाया। अंग्रेजों ने मराठा, मैसूर, सिखों और अन्य भारतीय शासकों से संघर्ष करते हुए सैन्य और कूटनीतिक तरीकों से अपना नियंत्रण बढ़ाया। 1857 तक ब्रिटिश शासन भारत में पूरी तरह स्थापित हो गया।

बंगाल में ब्रिटिश सत्ता का सुदृढ़ीकरण

  • प्लासी का युद्ध (1757): प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को लड़ा गया, जिसमें सिराजुद्दौला की कमजोर स्थिति, मीर जाफर और घसीटी बेगम जैसे विरोधियों के षड्यंत्र, और अंग्रेजों द्वारा दस्तक के अधिकार के दुरुपयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युद्ध में मीर जाफर के विश्वासघात के कारण सिराजुद्दौला की हार हुई, जिसके बाद उनकी हत्या कर दी गई। इस घटना ने अंग्रेजों को बंगाल पर नियंत्रण स्थापित करने और अपनी शक्ति को मजबूत करने का अवसर प्रदान किया।
  • बक्सर का युद्ध (1764): बक्सर का युद्ध 22 अक्टूबर 1764 को हुआ, जिसके मुख्य कारण मीर कासिम का अंग्रेजों से टकराव, देशी व्यापारियों को समर्थन देना, और अंग्रेजों के सैन्य हस्तक्षेप थे। इस युद्ध में अंग्रेजों ने मीर कासिम, अवध के नवाब शुजा-उद-दौला और मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना को हराया। इस विजय ने अंग्रेजों को बंगाल, अवध, और मुगल साम्राज्य पर अपने प्रभुत्व को और मजबूत करने का अवसर दिया।
  • इलाहाबाद की संधि (1765): 1765 की इलाहाबाद की संधि के तहत अंग्रेजों ने मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय से बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी अधिकार प्राप्त किए। इसके साथ ही शुजा-उद-दौला को इलाहाबाद और कड़ा के क्षेत्र मुगल सम्राट को सौंपने पड़े। इस संधि के परिणामस्वरूप अंग्रेज व्यापारी से प्रशासक बन गए और भारत में अपने राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व को और मजबूत किया।।
  • बंगाल में दोहरा शासन (1765-1772): बंगाल में दोहरा शासन (1765-1772) प्रणाली के तहत, अंग्रेजी कंपनी ने राजस्व संग्रह (दीवानी) का कार्य संभाला, जबकि प्रशासनिक जिम्मेदारी नवाब को सौंपी गई। यह व्यवस्था विफल साबित हुई, क्योंकि कानून-व्यवस्था की स्थिति खराब हो गई और भ्रष्टाचार बढ़ गया। के.एम. पणिक्कर ने इसे "लूट का काल" के रूप में वर्णित किया, क्योंकि अंग्रेजों के आर्थिक शोषण और प्रशासनिक अक्षमता के कारण बंगाल की स्थिति बिगड़ गई।
  • प्रभाव और परिणाम: दोहरे शासन के परिणामस्वरूप अंग्रेजों का भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप तेजी से बढ़ा। इस व्यवस्था ने प्रशासनिक और आर्थिक ढाँचे को कमजोर कर दिया, जिससे कानून-व्यवस्था और जनता की स्थिति दयनीय हो गई। हालांकि, इसने बंगाल में ब्रिटिश शासन का आधार मजबूत किया, जो आगे चलकर भारत पर उनके लंबे शासन की नींव बन गया।


मैसूर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद, मैसूर वाडेयार राजवंश के अधीन एक स्वायत्त राज्य के रूप में उभरा। हैदर अली की रणनीतिक क्षमता और दक्षिण भारत में इसकी केंद्रीय स्थिति ने इसे विस्तार का अवसर दिया। 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद मराठों के प्रभाव में कमी आई, जिससे हैदर अली के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ। एक साधारण सैनिक से, हैदर अली ने 1788 तक मैसूर पर राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया।

  • प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-1769): ब्रिटिश हस्तक्षेप और हैदर अली के खिलाफ मराठों व निजाम के गठबंधन के कारण हुआ। हैदर अली ने कुशल रणनीति से गठबंधन को अपने पक्ष में कर लिया और मद्रास पर आक्रमण किया। युद्ध के अंत में 1769 की संधि के तहत विजित भूमि लौटाई गई और रक्षात्मक गठबंधन हुआ।
  • दूसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-1784): 1769 की संधि के उल्लंघन और अंग्रेजों के प्रति अविश्वास के कारण हुआ। हैदर अली ने मराठों व निजाम के साथ मिलकर अंग्रेजों से संघर्ष किया। 1782 में हैदर अली की मृत्यु के बाद टीपू सुल्तान ने युद्ध संभाला। अंततः 1784 में मैंगलोर की संधि के तहत युद्ध समाप्त हुआ और कब्जाई गई भूमि लौटाई गई।
  • तीसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-1792): त्रावणकोर पर टीपू सुल्तान के आक्रमण से शुरू हुआ। अंग्रेजों, निजाम और मराठों ने मिलकर टीपू को हराया। 1792 में श्रीरंगपट्टनम की संधि के तहत टीपू को अपनी आधी भूमि और तीन करोड़ रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में देना पड़ा।
  • चौथा आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799): टीपू सुल्तान के फ्रांसीसियों से गठबंधन और अफगान राजा से समर्थन लेने के प्रयास के कारण हुआ। अंग्रेजों ने मराठों और निजाम के साथ मिलकर टीपू पर हमला किया। 4 मई 1799 को श्रीरंगपट्टनम पर कब्जा किया गया और टीपू सुल्तान मारे गए। इसके बाद मैसूर का अधिकांश भाग अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया और वाडेयार राजवंश को अधीनस्थ शासक के रूप में पुनः स्थापित किया गया।


मराठा साम्राज्य

मुगल साम्राज्य के पतन के बाद मराठा भारत में प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे। शिवाजी के समय से ही मराठा-मुगल संघर्ष चलता रहा। 18वीं शताब्दी में पेशवाओं बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव प्रथम, और नाना साहब के कुशल नेतृत्व ने मराठा साम्राज्य को बढ़ाया। हालांकि, 1761 में पानीपत के तीसरे युद्ध में हार ने मराठा शक्ति को गहरा आघात पहुँचाया। इसके बाद अंग्रेजों ने उनकी शक्ति को समाप्त करने की कोशिश की।

  • प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782): मराठा साम्राज्य की आंतरिक कलह और ब्रिटिश हस्तक्षेप के कारण हुआ। पेशवा के उत्तराधिकार विवाद में रघुनाथ राव ने अंग्रेजों से समर्थन मांगा, जिसके परिणामस्वरूप 1775 में सूरत की संधि हुई। हालांकि, युद्ध जारी रहा और विभिन्न संघर्षों के बाद 1782 में सालबाई की संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसने मराठों और अंग्रेजों के बीच 20 वर्षों की शांति स्थापित की। इस युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने मैसूर पर दबाव बनाने में रणनीतिक लाभ प्राप्त किया।
  • द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805): महादजी सिंधिया और नाना फड़नवीस की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य में सत्ता संघर्ष के कारण हुआ। इस दौरान पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए 1802 में अंग्रेजों के साथ सहायक संधि पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद सिंधिया और भोंसले को अंग्रेजों के हाथों हार का सामना करना पड़ा। देवगांव और सुर्जी अर्जुनगाँव की संधियों के माध्यम से अंग्रेजों ने अहमदनगर, भरूच और अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप मराठा संघ कमजोर हो गया और भारतीय राजनीति में अंग्रेजों का प्रभाव और अधिक बढ़ गया।
  • तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818): मराठों द्वारा अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने के प्रयास के कारण हुआ। इस संघर्ष में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम प्रयास किया, लेकिन किरकी की लड़ाई में हार गए। इसके बाद सिंधिया, होल्कर, और नागपुर के सरदार भी अंग्रेजों के हाथों पराजित हुए।इस युद्ध के परिणामस्वरूप पेशवा ने आत्मसमर्पण कर दिया और पेशवा की उपाधि को हमेशा के लिए छोड़ दिया। उन्हें बिठूर में बसाया गया, और सतारा राज्य को शिवाजी के वंशजों के अधीन रखा गया। इस युद्ध ने मराठा संघ के अंत और भारत में ब्रिटिश सत्ता की पूर्ण स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।


पंजाब

18वीं शताब्दी के मध्य में सिखों का उदय हुआ। मुगलों और अफगानों के खिलाफ संघर्ष करते हुए, सिख संगठित होकर मिस्ल नामक दस्तों में विभाजित हुए। रणजीत सिंह ने, सुकरचकिया मिस्ल के सरदार के रूप में, सभी मिस्लों को एकजुट कर एक सिख राज्य की स्थापना की। उनकी मृत्यु (1839) के बाद, सिख साम्राज्य अराजकता में डूब गया।

आंग्ल-सिख युद्ध

  • प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-1846): रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिख साम्राज्य कमजोर हो गया। 1843 में नाबालिग महाराजा दिलीप सिंह सिंहासन पर बैठे, लेकिन रानी जिंदन की संरक्षकता और सेना का हस्तक्षेप प्रशासनिक विफलताओं को रोक नहीं सका। 1846 की संधि के तहत ब्रिटिश रेजिडेंट सर हेनरी लॉरेंस के नेतृत्व में शासी परिषद बनी।
  • द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-1849): मुल्तान के गवर्नर दीवान मुलराज ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। सिखों ने उनका समर्थन किया, जिससे अंग्रेजों ने युद्ध छेड़ दिया। रामनगर, चिलियाँवाला, और गुजरात की निर्णायक लड़ाइयों के बाद 29 मार्च, 1849 को पंजाब पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। महाराजा दिलीप सिंह और रानी जिंदन को इंग्लैंड भेज दिया गया।
  • तृतीय आंग्ल-सिख युद्ध (1849): यह अंतिम संघर्ष चिलियाँवाला (13 जनवरी) और डेराजाट (21 फरवरी) में हुआ। सिख सेना को पूरी तरह पराजित किया गया, और रावलपिंडी में उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके साथ ही सिख साम्राज्य समाप्त हो गया।








एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.