परिचय
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने भारत के कृषि क्षेत्र में बड़े बदलाव किए, जो मुख्यतः भूमि राजस्व नीतियों और कृषि के वाणिज्यीकरण से प्रेरित थे। कृषि का वाणिज्यीकरण बाजार के लिए उत्पादन पर केंद्रित था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश उद्योगों को सस्ता कच्चा माल प्रदान करना था, न कि भारत के औद्योगिक विकास को बढ़ावा देना। यह प्रक्रिया ब्रिटिश प्लांटर्स, व्यापारियों, और महाजनों के लिए लाभदायक रही, लेकिन भारतीय किसानों के कल्याण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
वाणिज्यीकरण की परिभाषा
वाणिज्यीकरण का अर्थ किसी वस्तु, सेवा या गतिविधि को व्यापारिक या लाभ कमाने के उद्देश्य से संचालित करना है। यह प्रक्रिया वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय बाजार में मुद्रा के माध्यम से करती है, जो उनके मूल्य का निर्धारण करती है।
1. वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया
- मूल्य निर्धारण: किसी वस्तु का मौद्रिक मूल्य तय किया जाता है। इसे "कीमत" कहा जाता है, और वस्तु का लेन-देन उसी के आधार पर होता है।
- व्यापारिक लेन-देन: वस्तुओं और सेवाओं का लेन-देन एक निर्दिष्ट मूल्य पर पैसे की इकाइयों में किया जाता है।
- सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव: वस्तुओं का सांस्कृतिक या पोषणात्मक महत्त्व कम होकर उन्हें केवल बाजार मूल्य के संदर्भ में देखा जाता है।
2. वाणिज्यीकरण के उद्देश्य
- वाणिज्यीकरण का मुख्य उद्देश्य वस्तुओं और सेवाओं को व्यापारिक गतिविधियों में परिवर्तित करना है। इसके माध्यम से आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए वस्तुओं और सामाजिक संपर्कों को व्यावसायिक रूप दिया जाता है। वाणिज्यीकरण बाजार आधारित लेन-देन को प्रोत्साहन देता है, जिससे वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य मौद्रिक शब्दों में तय किया जाता है। यह प्रक्रिया व्यापार और बाजार प्रणाली को सशक्त बनाती है।
3. वाणिज्यीकरण के प्रभाव
- व्यापार का विस्तार: वाणिज्यीकरण व्यापार के दायरे को स्थानीय सीमाओं से आगे बढ़ाकर वैश्विक स्तर तक ले जाता है।
- आर्थिक प्राथमिकता: वस्तुओं का मूल्य अब उनके आर्थिक महत्त्व पर आधारित होता है, न कि उनके सांस्कृतिक या सामाजिक महत्त्व पर।
- सांस्कृतिक बदलाव: बाजार केंद्रित प्रणाली के कारण समाज के सांस्कृतिक मानदंड और जीवनशैली में बदलाव आता है।
- समाज पर निर्भरता: दैनिक जीवन अधिक बाजार-निर्भर हो जाता है, जिससे सभ्यताओं में व्यापक परिवर्तन होते हैं।
औपनिवेशिक काल से पूर्व भारत में वाणिज्यीकरण
उपनिवेशीकरण से पहले भारत वाणिज्यिक गतिविधियों से परिचित था। मुगल काल में किसान नकद कर चुकाने के लिए उपज बाजार में बेचते थे। हालाँकि, गाँव आत्मनिर्भर थे और बाजार पर कम निर्भर थे। ब्रिटिश शासन ने व्यापार पर निर्भरता बढ़ाई, जिससे गाँव की आत्मनिर्भरता टूटी और सामाजिक ढाँचा बदल गया। भारतीय वाणिज्यीकरण परंपरा और आधुनिकता के बीच एक ऐतिहासिक प्रक्रिया रही।
1. ब्रिटिश भारत में वाणिज्यीकरण
ब्रिटिश भारत में वाणिज्यीकरण का मतलब कृषि और उद्योगों में बदलाव से था, जो औपनिवेशिक शासन के दौरान हुआ। ब्रिटिश सरकार ने भारत की अर्थव्यवस्था को अपने फायदे के लिए बदल दिया।
कृषि का वाणिज्यीकरण
भारत में कृषि को एक ऐसी प्रणाली में बदल दिया गया जहाँ फसलें केवल व्यापार और निर्यात के लिए उगाई जाती थीं। यह बदलाव मुख्य रूप से ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति करने के लिए किया गया।
- मुख्य फसलें: कपास, नील, अफीम, और चाय जैसी नकदी फसलें उगाने पर ज़ोर दिया गया।
- परिणाम: भारतीय किसान अपनी जरूरतों की फसलें उगाने के बजाय व्यापारिक फसलें उगाने लगे, जिससे उनकी आजीविका पर असर पड़ा।
ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमिका
- लक्ष्य: ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चा माल सबसे कम कीमत पर उपलब्ध कराना और भारतीय राजस्व को ब्रिटेन भेजना।
- नीति: भारतीय वस्तुओं को सस्ते में खरीदना और उन्हें यूरोप में महंगे दामों पर बेचना।
असर
- पारंपरिक संबंधों में बदलाव: कृषि और हस्तशिल्प के पुराने संबंध टूट गए।
- भारतीय अर्थव्यवस्था पर असर: भारत की अर्थव्यवस्था ब्रिटिश जरूरतों पर आधारित हो गई, जिससे स्थानीय उद्योगों का नुकसान हुआ।
- कर प्रणाली: भारतीय शासक कर का उपयोग स्थानीय विकास में करते थे, लेकिन ब्रिटिश शासन ने इस पैसे को विदेशों में भेजा।
2. भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान, खेती का तरीका बदल गया। पारंपरिक जीविका खेती की जगह नकदी फसलों पर ध्यान दिया जाने लगा। आइए इसे आसान भाषा में समझते हैं:
- कर भुगतान की मजबूरी: ब्रिटिश भू-राजस्व प्रणाली के तहत, किसानों को नकद में कर चुकाना पड़ता था। इसके लिए उन्हें ऐसी फसलें उगानी पड़ीं, जिन्हें बाजार में बेचा जा सके, जैसे कपास, तंबाकू, नील और चाय। ये सभी फसलें ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चा माल बन गईं।
- औद्योगिकीकरण और बुनियादी ढाँचा: ब्रिटिश ने रेलवे, सड़कों और जहाज निर्माण में निवेश किया। इससे खेती का बाजार बढ़ा, और फसलों को दूर तक बेचना आसान हो गया। परंपरागत कृषि श्रमिकों को नई नीतियों के कारण विस्थापन का सामना करना पड़ा, लेकिन रोजगार के कुछ नए अवसर भी पैदा हुए।
- ऋण और निवेश: ब्रिटिश ने भारत में कुछ वर्गों को अमीर बनाया, जैसे बंगाल में जमींदार और पश्चिमी भारत में महाजन। ये लोग किसानों को नकदी फसलों की खेती के लिए ऋण देते थे, क्योंकि इन फसलों के लिए अधिक पैसा लगाना पड़ता था।
- औद्योगिक क्रांति का प्रभाव: इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के कारण कच्चे माल की माँग बढ़ी। भारतीय किसान कपास और अन्य फसलों की खेती करने लगे। अमेरिकी गृहयुद्ध के दौरान जब अमेरिका से कपास की आपूर्ति रुक गई, तो भारतीय कपास की माँग और बढ़ गई।
- वैश्विक घटनाएँ और व्यापार: स्वेज नहर खुलने से परिवहन आसान हुआ। ब्रिटिश ने एकतरफा मुक्त व्यापार नीति अपनाई, जिससे भारतीय बाजारों में ब्रिटिश वस्त्र और अन्य सामान भर गए। इससे किसानों ने नकदी फसलों की ओर रुख किया।
भारत में कृषि वाणिज्यीकरण के क्षेत्रीय आयाम
भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण ने अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न तरीके से असर डाला। इन क्षेत्रीय आयामों को समझने के लिए मुख्य क्षेत्रों की विशेषताओं को देखना उपयोगी है:
1. उत्तर और मध्य भारत
- पंजाब: पश्चिमी और दक्षिण-पूर्वी पंजाब में कम वर्षा और उच्च राजस्व मांगों के कारण खेती मुश्किल थी।किसानों को शोषणकारी ऋण प्रथाओं और भूमि के नुकसान का सामना करना पड़ा, जिसे "दादनी प्रणाली" का स्वरूप कहा जा सकता है।
- केंद्रीय पंजाब में नहर कॉलोनियाँ: 19वीं शताब्दी में नहरों के निर्माण ने सिंचाई की सुविधा दी।कपास और गन्ने जैसी नकदी फसलों की खेती को बढ़ावा मिला। हालांकि, साहूकारों की ताकत किसानों के लिए समस्या बनी रही।
- पश्चिमी भारत कपास खेती का महत्त्व : गुजरात और बॉम्बे-डेक्कन क्षेत्र कपास के निर्यात के केंद्र बने। अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण भारतीय कपास की माँग बढ़ गई। साहूकारों और ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभाव ने किसानों को आर्थिक रूप से कमजोर किया।
2. पूर्वी भारत (बंगाल प्रेसीडेंसी)
- स्थायी बंदोबस्त प्रणाली: जमींदारों को राजस्व बढ़ाने की अनुमति मिली, जिससे किसानों पर भारी बोझ पड़ा। कई किसान कर्ज में डूब गए और अपनी भूमि से वंचित हो गए।
- मौद्रिक लेन-देन का विस्तार: चाँदी और सोने के सिक्कों की उपलब्धता ने व्यापार को बढ़ावा दिया। हालांकि, अधिक राजस्व बोझ और साहूकारों की निर्भरता से किसान कमजोर बने।
3. दक्षिण भारत (मद्रास प्रेसीडेंसी)