परिचय
औपनिवेशिकता ने भारत में एक अद्वितीय सामाजिक और आर्थिक संरचना का निर्माण किया, जो ब्रिटेन के पूँजीवादी ढाँचे और पूर्व-औपनिवेशिक भारत की परंपरागत व्यवस्थाओं से भिन्न थी। ब्रिटिश शासन के तहत भारत न तो पूरी तरह से पूँजीवादी बना और न ही पारंपरिक सामंती स्वरूप को बनाए रख सका। इस परिवर्तन का सबसे स्पष्ट प्रभाव कृषि क्षेत्र में दिखा, जहाँ भूमि पर निजी स्वामित्व, कृषि का व्यापारीकरण, और वैश्विक बाजार में समावेशन जैसे पहलुओं ने परंपरागत संरचनाओं को बदल दिया।
उपनिवेशीय राज्य के अधीन आरंभिक भूमि बंटवारा (1765-1793)
1765 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने दीवानी अधिकार प्राप्त कर राजस्व संग्रह पर जोर दिया। भारी कर और शोषण से किसान परेशान होकर खेती छोड़ने लगे। इसे सुधारने के लिए स्थिर कर प्रणाली की आवश्यकता पड़ी।
- प्रमुख राजस्व बंटवारों के प्रयास: 1765 से 1793 तक कंपनी ने अलग-अलग तरीके अपनाए जैसे वार्षिक, पंचवर्षीय, और दसवर्षीय बंटवारे। लेकिन नवाबी शासन और कंपनी अधिकारियों की भ्रष्टाचारपूर्ण नीति के कारण ये प्रयास असफल रहे। इसका परिणाम 1770 के भयानक अकाल के रूप में सामने आया।
- वॉरेन हेस्टिंग्स का प्रयास (1772): वॉरेन हेस्टिंग्स ने एक नई व्यवस्था शुरू की, जिसमें राजस्व संग्रह का अधिकार नीलामी के जरिए सबसे अधिक भुगतान का वादा करने वालों को दिया गया। लेकिन ये अधिकारी दमनकारी तरीके अपनाते थे, जिससे किसानों का शोषण होता था। कई किसान वादा की गई राशि देने में असमर्थ रहने के कारण अपनी भूमि खो बैठते थे।
- लॉर्ड कॉर्नवालिस के सुधार: 1880 के दशक तक राजस्व प्रशासन में भ्रष्टाचार और असफलता जारी रही। लॉर्ड कॉर्नवालिस ने इसे सुधारने के लिए कदम उठाए। 1888 में, उन्होंने अमीनी आयोग की स्थापना की, ताकि कृषि और राजस्व से संबंधित जानकारी एकत्र की जा सके।
बंगाल में स्थायी बंदोबस्त
1. स्थायी बंदोबस्त के कारक
- आर्थिक तर्क: औपनिवेशिक प्रशासन का उद्देश्य स्थायी और सुसंगत राजस्व स्रोत बनाना था। मौजूदा प्रणाली किसानों के लिए कठिन और राजस्व संग्रह के लिए अप्रभावी थी। यह भारतीय वस्तुओं की सस्ती खरीद में भी बाधा डाल रही थी। भ्रष्टाचार और खामियों को देखते हुए, अधिकारियों ने सुधार की माँग की।
- राजनीतिक प्रेरणा: ब्रिटिश शासन को वैधता के लिए एक विश्वसनीय भूस्वामी वर्ग का समर्थन चाहिए था। स्थानीय अभिजात वर्ग से निष्ठा प्राप्त करना दीर्घकालिक स्थिरता के लिए आवश्यक था। सीमित संसाधनों और स्थानीय ज्ञान के कारण, ब्रिटिश सरकार ने बंगाल के जमींदारों को अपने सहयोगी के रूप में चुना, जिससे उन्हें शासन और राजस्व संग्रह में सहायता मिली।
2. ज़मींदार के साथ समझौता
1793 में लागू स्थायी बंदोबस्त ने भूमि राजस्व प्रणाली में बड़ा बदलाव लाया। इसमें किसानों से सीधे राजस्व लेने के बजाय, ज़मींदारों को मध्यस्थ बनाया गया। ज़मींदारों को भूमि का स्वामित्व देकर उनसे निश्चित कर वसूला गया।
- ज़मींदारों का स्वामित्व: ज़मींदारों को अपनी ज़मीन का मालिकाना हक दिया गया। वे ज़मीन बेच सकते थे, गिरवी रख सकते थे, या हस्तांतरित कर सकते थे।
- कर की निश्चितता: ज़मींदारों को हर साल सरकार को तय कर चुकाना पड़ता था। भुगतान न करने पर उनकी ज़मीन नीलाम कर दी जाती थी।
- किसानों की स्थिति: किसान ज़मींदारों के किरायेदार बन गए। किरायेदारों को लिखित पट्टे दिए जाने चाहिए थे, लेकिन यह अक्सर नहीं हुआ, जिससे किसानों का शोषण बढ़ा।
- भारी कर और शोषण: ज़मीन पर भारी कर लगाए गए, जिसमें अधिकांश उपज सरकार और ज़मींदारों को मिलती थी। किराया वसूलने में ज़मींदार अक्सर हिंसा और उत्पीड़न का सहारा लेते थे।
- नतीजा: यह व्यवस्था ज़मींदारों के लिए फायदेमंद लेकिन किसानों के लिए शोषणकारी साबित हुई। किसानों पर आर्थिक और सामाजिक दबाव बढ़ा, जिससे उनकी स्थिति और कमजोर हो गई।
3. किसानों की स्थिति
स्थायी बंदोबस्त ने किसानों को ज़मींदारों के नियंत्रण में किरायेदार बना दिया, जिससे उनकी स्थिति कमजोर हो गई।
- पट्टे की कमी: कॉर्नवॉलिस ने किसानों के लिए लिखित पट्टे (समझौते) अनिवार्य किए, परंतु जमींदारों ने अक्सर इन्हें जारी नहीं किया। इससे किसान ज़मींदारों के शोषण के प्रति असुरक्षित हो गए।
- भारी कर का बोझ: किसानों पर उपज का बड़ा हिस्सा कर के रूप में वसूला जाता था। जॉन शोर के अनुसार, 100 रुपये की फसल में से केवल 40 रुपये किसान के पास बचते थे, जबकि 45 रुपये सरकार और 15 रुपये जमींदार को जाते थे।
- शोषणकारी रणनीतियाँ: किराया न चुकाने पर जमींदारों को किसानों की संपत्ति जब्त करने का अधिकार था। अवैध तरीके, जैसे शारीरिक हिंसा और उत्पीड़न, आम थे।
- परिणाम: किसानों पर आर्थिक और सामाजिक दबाव बढ़ा। उनकी दुर्दशा के बीच, जमींदार और ब्रिटिश सरकार को असंगत लाभ मिला, जिससे किसानों की स्थिति और खराब हो गई।
4. स्थायी बंदोबस्त का प्रभाव
- ज़मींदारों की स्थिति में परिवर्तन: स्थायी बंदोबस्त में ज़मींदारों को वंशानुगत और हस्तांतरणीय स्वामित्व अधिकार मिले। उन्हें किराए का 10/11 हिस्सा राज्य को देना होता था और 1/11 हिस्सा अपने पास रख सकते थे। समय पर राजस्व न देने पर उनकी भूमि जब्त हो सकती थी।
- किसानों की स्थिति में गिरावट: किसानों की स्थिति में गिरावट तब हुई जब उनके पारंपरिक अधिकार, जैसे चरागाह और सिंचाई नहरों तक पहुंच, छीन लिए गए। 1799 और 1812 के विनियमों ने उनकी भूमि के अधिकार खत्म कर दिए। ज़मींदारों की बढ़ती जबरदस्ती ने उनकी हालत को और बदतर बना दिया।
- जमींदारी वर्ग में बदलाव: जमींदारी वर्ग में बदलाव आया, जहां पुराने जमींदार वित्तीय संकट के कारण खत्म हो गए। उनकी जगह एक नया जमींदार वर्ग उभरा, जिसमें व्यापारी, सरकारी अधिकारी और छोटे जमींदार शामिल थे।
- अनुपस्थित ज़मींदारी: अनुपस्थित ज़मींदारी के कारण कई ज़मींदार शहरों में बस गए, जिससे किसान शोषण के प्रति असुरक्षित हो गए। उनकी शिकायतें अनसुनी रह जाती थीं, जिससे उनकी स्थिति और खराब हो गई।
- कृषि और सामाजिक प्रभाव: स्थायी बंदोबस्त के कारण कृषि और समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। कृषि उत्पादन घटने लगा क्योंकि उपज का बड़ा हिस्सा जमींदार ले लेते थे। इसके परिणामस्वरूप, ग्रामीण समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया—विशेषाधिकार प्राप्त ज़मींदार और भूमिहीन मजदूर।
- उप-सामंतवाद का उदय: उप-सामंतवाद के उदय में ज़मींदारों ने किराया संग्रह के लिए बिचौलियों को नियुक्त किया, जिससे काश्तकारों की स्थिति और बदतर हो गई। यह समस्या विशेष रूप से पूर्वी बंगाल में अधिक प्रचलित थी।
- राजस्व और प्रशासनिक समस्याएँ: निश्चित राजस्व प्रणाली के कारण सरकार को वित्तीय घाटे का सामना करना पड़ा। साथ ही, ज़मींदारों ने भूमि सुधार में रुचि नहीं ली, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
परिणाम:
स्थायी बंदोबस्त ने ज़मींदारों को सशक्त बनाया, लेकिन किसानों की स्थिति को अत्यधिक खराब कर दिया। इसका कृषि, समाज और अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
5. स्थायी बंदोबस्त से निराशा
जब कॉर्नवॉलिस ने बंगाल में स्थायी बंदोबस्त लागू किया, तो इसे अन्य ब्रिटिश क्षेत्रों में भी अपनाने की उम्मीद की गई। मद्रास सरकार ने इसे लागू करने का प्रयास किया, लेकिन इसकी खामियाँ जल्द ही उजागर हो गईं।
- कराधान में वृद्धि की सीमा: स्थायी बंदोबस्त ने कर में किसी भी वृद्धि की अनुमति नहीं दी, जिससे सरकार का राजस्व स्थिर रहा और भविष्य में वृद्धि की संभावना खत्म हो गई।
- जमींदारों के प्रति नरमी: अधिकारियों ने महसूस किया कि 1793 में जमींदारों को अत्यधिक रियायतें दी गईं, जिससे उन्हें अनुचित लाभ मिला।
- भूमि सर्वेक्षण की कमी: बिना गहन भूमि सर्वेक्षण के स्थायी बंदोबस्त लागू करने को लंदन के अधिकारियों ने 1811 तक एक बड़ी गलती माना और भविष्य में इसे दोहराने से मना किया।
नतीजा:
स्थायी बंदोबस्त की खामियों के कारण ब्रिटिश प्रशासन ने इस प्रणाली को अन्य क्षेत्रों में अपनाने पर पुनर्विचार किया और राजस्व नीति में सुधार की आवश्यकता महसूस की।
रैयतवाड़ी व्यवस्था
रैयतवाड़ी व्यवस्था 1792 में अलेक्जेंडर रीड ने शुरू की और 1801 में थॉमस मुनरो ने इसे आगे बढ़ाया। इसमें कर सीधे किसानों (रैयत) से वसूला जाता था, और उन्हें भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व का अधिकार दिया गया। राज्य को भूमि का सर्वोच्च मालिक मानते हुए विस्तृत सर्वेक्षण और मूल्यांकन के आधार पर कर तय किया जाता था। हालांकि, कर अक्सर अनुचित और अत्यधिक होता था, जिससे किसानों पर बोझ बढ़ा और कई ने भूमि छोड़ दी। सर्वेक्षण में बड़ी कठिनाइयों और प्रशासनिक खामियों के कारण यह प्रणाली 1807 में समाप्त हो गई।
1. रैयतवाड़ी प्रणाली का मूल्यांकन
- रैयतवाड़ी प्रणाली किसानों को जमींदारी शोषण से मुक्त करने में विफल रही, क्योंकि इसमें जमींदारों की जगह ब्रिटिश सरकार ने स्वयं को शोषक के रूप में स्थापित कर लिया। अत्यधिक भूमि कर और सरकारी अधिकारों ने किसानों पर आर्थिक दबाव बढ़ा दिया। प्राकृतिक आपदाओं के बावजूद, किसानों को भूमि कर का भुगतान करना अनिवार्य था, जिससे उनकी पहले से ही खराब आर्थिक स्थिति और अधिक बिगड़ गई। इस प्रणाली ने किसानों की परिस्थितियों में कोई महत्वपूर्ण सुधार नहीं किया।
2. मद्रास में रैयतवाड़ी प्रणाली
1820 में गवर्नर थॉमस मुनरो ने मद्रास प्रेसीडेंसी में रैयतवाड़ी प्रणाली लागू की। उन्होंने इसे स्थानीय भूमि स्वामित्व प्रथाओं और परिस्थितियों के अनुरूप बताया।
- प्रणाली का कार्यान्वयन: रैयतवाड़ी प्रणाली भूमि के विस्तृत सर्वेक्षण पर आधारित थी, लेकिन बाद में कई क्षेत्रों में इसे बिना सर्वेक्षण के लागू किया गया। किसानों (रैयतों) से सीधे कर वसूली की जाती थी, लेकिन कर निर्धारण अनियमित और शोषणकारी था।
- कर निर्धारण: अनिर्णित भूमि पर उपज का लगभग आधा हिस्सा और सिंचित भूमि पर पाँचवाँ हिस्सा कर के रूप में लिया गया। कर में क्षेत्रीय और गाँवों के बीच असमानता थी। किसानों को कर भुगतान के लिए जबरदस्ती और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था।
- कृषि पर प्रभाव: किसान गरीब होते गए और ऋण के बोझ तले दब गए।भूमि बाजार ठप हो गया क्योंकि भूमि खरीदने का मतलब भारी करों का सामना करना था।
- बिचौलियों का प्रभाव: बिचौलियों को हटाने में प्रणाली विफल रही। मीरासदारों के विशेषाधिकार सुरक्षित रहे और उन्होंने राजस्व प्रशासन में भ्रष्टाचार और किसानों के शोषण को बढ़ाया।
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव: छोटे किसानों की स्थिति और खराब हो गई। कुछ जिलों में पारंपरिक मीरासदारी अधिकार कमजोर हुए, लेकिन समग्र रूप से ग्रामीण शासकों की शक्ति बढ़ी।
3. बॉम्बे में रैयतवाड़ी प्रणाली
बॉम्बे प्रेसिडेंसी में रैयतवाड़ी प्रणाली 1803 में गुजरात में लागू हुई। शुरू में कर वसूली स्थानीय अधिकारियों, जैसे देसाई और पटेल, की मदद से की गई, लेकिन 1813 के बाद किसानों से सीधे कर वसूली शुरू हुई। 1818 में पेशवा के क्षेत्रों में माउंटस्टुअर्ट एल्फिंस्टोन ने इसे लागू किया। हालांकि, इस प्रणाली में अधिक कर वसूली और राजस्व बढ़ाने के लिए सख्ती जैसी समस्याएँ जल्द ही उभर आईं।
प्रणाली का विकास
- पहला चरण (आर. के. प्रिंगल का सर्वेक्षण): भूमि का वर्गीकरण और मूल्यांकन रिकार्डियन सिद्धांतों पर हुआ।लेकिन यह गलत साबित हुआ, और ज्यादा कर वसूली के कारण किसान भागकर निजाम की जमीन पर चले गए।
- दूसरा चरण (विंगेट और गोल्डस्मिथ की सुधार योजना): मिट्टी की गुणवत्ता और भूमि की स्थिति के आधार पर सही कर दरें तय की गईं। 1847 तक, यह नई प्रणाली दक्षिण के अधिकतर हिस्सों में लागू हुई।
परिणाम
- रैयतवाड़ी प्रणाली के तहत किसानों को "रैयत" का दर्जा मिला, लेकिन जमींदार भी रैयत बन सकते थे, जिससे असमानता बढ़ी। शुरुआत में ऊँचे करों के कारण साहूकारों ने जमीन जब्त करने में रुचि नहीं दिखाई। लेकिन सुधारित दरों के बाद जमीन की कीमत बढ़ने लगी, और साहूकारों ने किसानों से जमीन छीनना शुरू कर दिया। यह स्थिति 1875 के डेक्कन दंगों का प्रमुख कारण बनी।
4.रैयतवाड़ी बंदोबस्त का प्रभाव
सामाजिक प्रभाव
- किसानों को जमीन का स्वामित्व: रैयतवाड़ी व्यवस्था में खेती करने वाले किसानों को ज़मीन का मालिक ("रैयत") माना गया। इससे उनकी भूमि पर अधिकार सुरक्षित हुआ।
- जमींदारों और असमानता: गैर-खेती करने वाले जमींदारों को भी भूमि का मालिक बनाया गया, जबकि असली खेती किरायेदारों और मज़दूरों ने की। इससे किसानों में धन और सामाजिक स्थिति में असमानता बढ़ी।
- कर का भारी बोझ: कर इतना ज्यादा था कि किसान अपनी ज़मीन छोड़ने पर मजबूर हो जाते थे। फिर भी, साहूकारों ने जमीन अधिग्रहण में ज्यादा रुचि नहीं दिखाई, क्योंकि कर देनदारी बहुत अधिक थी।
आर्थिक प्रभाव
- भूस्वामियों को लाभ: धीरे-धीरे करों का बोझ कम हुआ, और ज़मीन की बिक्री का मूल्य बढ़ने लगा। भूस्वामी ज़मीन से मुनाफा कमाने की उम्मीद करने लगे।
- साहूकारों का दबदबा: साहूकारों ने किसानों की कर्ज न चुका पाने की स्थिति में उनकी जमीन ज़ब्त कर ली। इससे किसानों को अपनी ज़मीन से बेदखल होना पड़ा,और कई किसान किरायेदार बन गए।
अन्य परिणाम
- डेक्कन विद्रोह: जमीन की जब्ती और सामाजिक असमानता ने 1875 में बॉम्बे के डेक्कन क्षेत्र में बड़े विद्रोह को जन्म दिया।
- गांव का ढाँचा बदला: जमीन अब व्यक्तिगत संपत्ति बन गई, जिससे सामुदायिक भावना कमजोर हुई और सामाजिक गतिशीलता बढ़ी।
नुकसान
- किसानों को कर चुकाने के लिए साहूकारों से कर्ज लेना पड़ा, जिससे उनकी ज़मीन बिक गई या गिरवी पड़ गई अत्यधिक कर ने कृषि उत्पादन को प्रभावित किया। कर वसूलने में अधिकारी क्रूर तरीके अपनाते थे, जैसे किसानों को भूखा रखना।
लाभ
- ज़मींदार वर्ग का विकास नहीं हो सका।ज़मीन से जुड़े अधिकारों का रिकॉर्ड तैयार हुआ, जिससे ज़मीन का दस्तावेजीकरण हुआ।
महालवाड़ी बंदोबस्त
1822 में हॉल्ट मैकेंज़ी के नेतृत्व में महालवाड़ी बंदोबस्त उत्तर-पश्चिमी प्रांतों, मध्य भारत, और पंजाब के कुछ हिस्सों में लागू किया गया। इस व्यवस्था के तहत, गाँव (महाल) को राजस्व इकाई माना गया, और ज़मींदार, तालुकदार, और कृषकों के अधिकारों का निर्धारण सर्वेक्षण के जरिए किया गया।हालाँकि, सर्वेक्षण त्रुटिपूर्ण थे और राजस्व बढ़ाने के प्रयास में उच्च दरें लगाई गईं, जिससे ग्राम समुदायों की स्थिति खराब हो गई।
1833 के बाद, विस्तृत सर्वेक्षण छोड़कर हाल के भुगतानों पर आधारित राजस्व अनुमान लगाए गए, लेकिन ये भी बढ़ा-चढ़ाकर बताए जाते थे।इससे तालुकदारों का नियंत्रण कम हुआ और भूमि साहूकारों व व्यापारियों के हाथों में जाने लगी। खेती करने वाले समुदाय गरीब हो गए और बड़ी संख्या में बेदखल हुए। महालवाड़ी बंदोबस्त के दमनकारी प्रभाव ने 1857 के विद्रोह में असंतोष को बढ़ावा दिया।
1. व्यवहार में महालवाड़ी बंदोबस्त
महालवाड़ी बंदोबस्त का व्यावहारिक कार्यान्वयन कई चुनौतियों से भरा था। गणनाएँ अक्सर त्रुटिपूर्ण होती थीं, और कलेक्टर सरकारी राजस्व बढ़ाने के लिए उन्हें गलत तरीके से प्रस्तुत करते थे। अवास्तविक कर निर्धारण ने ग्रामीण समुदायों को लाभ पहुँचाने के बजाय उनके विनाश का कारण बनाया।
1833 में, विस्तृत सर्वेक्षण और अधिकारों के निर्धारण के प्रयास छोड़ दिए गए। इसके स्थान पर, गाँव की कुल राजस्व क्षमता का मोटा अनुमान लगाया गया, जो किरायेदारों द्वारा भूस्वामियों को दिए जाने वाले किराए पर आधारित था। बंदोबस्त अधिकारी ने भूमि की सैद्धांतिक उपज का आकलन कर, उसका आधा हिस्सा सरकार को राजस्व के रूप में निर्धारित किया।
2. महालवाड़ी बंदोबस्त के अंतर्गत विभिन्न भू-स्वामित्व प्रणालियाँ
- मालिकाना हक: इस प्रणाली में भूमि का स्वामित्व एक स्वामी के पास होता था, जिसे "लंबरदार" कहा जाता था। लंबरदार गाँव का प्रतिनिधि होता था और किराए के भुगतान की जिम्मेदारी निभाता था। यह प्रणाली क्षेत्रीय विविधताओं के साथ लागू की गई थी।
- पट्टीदारी काश्तकारी: इसमें गाँव के सह-साझेदारों का रजिस्टर रखा जाता था, जिसमें भूमि स्वामी और किराया वसूलने वाले सभी लोग शामिल होते थे। भूमि को पैतृक शेयरों के आधार पर विभाजित किया जाता था, और राजस्व दायित्व इन्हीं हिस्सों के अनुसार तय होता था।
- मुक़द्दमी काश्तकारी: गोरखपुर मंडल में प्रचलित इस व्यवस्था में "मुक़द्दम" किसानों और ज़मींदारों के बीच मध्यस्थ होता था। मुक़द्दम लगान वसूलता था और इसका एक हिस्सा अपने पास रखता था।
- भाईचारा काश्तकारी: यह पट्टीदारी काश्तकारी का विकसित रूप था, जहाँ भूमि कृत्रिम लॉट में समान रूप से बाँटी जाती थी। सह-साझेदारों के अधिकार पैतृक हिस्से, रीति-रिवाज, या कब्जे के आधार पर तय होते थे। भूमि राजस्व का भुगतान लंबरदार द्वारा किया जाता था।
3. महालवाड़ी बंदोबस्त का प्रभाव