भारत का इतिहास 1700- 1857 UNIT 3 CHAPTER 6 SEMESTER 5 THEORY NOTES औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का निर्माण : औपनिवेशिक भारत में विऔद्योगीकरण (1700-1857) HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakदिसंबर 12, 2024
परिचय
17वीं सदी में भारत और यूरोप के व्यापार में भारत का पलड़ा भारी था। भारतीय कपास वस्त्र पश्चिमी देशों में प्रमुख आयात बन गए, जिससे वस्त्र उद्योग को बढ़ावा और रोजगार मिला। प्लासी की लड़ाई (1757) के बाद स्थिति बदल गई, जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय संसाधनों का शोषण शुरू किया। कंपनी ने स्थानीय बाजारों पर एकाधिकार स्थापित कर उत्पादकों को कम कीमत पर सामान बेचने को मजबूर किया। ब्रिटिश नीतियों और सस्ते आयातित वस्त्रों ने भारतीय शिल्प उद्योग को नुकसान पहुँचाया। भूमि राजस्व और आर्थिक नीतियों ने भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दिया, जिससे गरीबी और असमानता बढ़ी। इन नीतियों ने भारत की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना पर गहरा असर डाला।
भारत में ब्रिटिश औद्योगिकीकरण और उसका प्रभाव
ब्रिटिशों ने भारत में औद्योगिकीकरण को व्यवस्थित रूप से लागू किया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा।
स्थानीय उद्योगों का विनाश: ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय उद्योगों को कमजोर किया, खासकर वस्त्र उद्योग। सब्सिडी वाले ब्रिटिश आयातों ने भारतीय वस्त्र उद्योग को प्रतिस्पर्धा में हरा दिया।
भारी टैक्स और शुल्क: भारतीय निर्मित वस्तुओं पर भारी कर लगाए गए, जबकि ब्रिटिश उत्पादों को बिना शुल्क के भारत में प्रवेश दिया गया, जिससे भारतीय उद्योगों को नुकसान हुआ।
कच्चे माल का निष्कर्षण: भारत से कपास, नील, और चाय जैसी नकदी फसलों का निर्यात ब्रिटिश उद्योगों के लिए बढ़ावा दिया गया, जबकि स्थानीय उद्योगों को हतोत्साहित किया गया।
अवसंरचना विकास: रेलवे और बंदरगाह जैसे अवसंरचना का विकास केवल कच्चे माल के निर्यात और ब्रिटिश वस्तुओं के आयात के लिए किया गया, न कि भारतीय उद्योगों के विकास के लिए।
आर्थिक नीतियाँ और विनियम: ब्रिटिश नीतियाँ भारतीय उद्यमियों को प्रतिबंधित करती थीं और स्थानीय उद्योगों में निवेश को हतोत्साहित करती थीं, जिससे भारतीय उद्योग कमजोर हुए।
बाजार नियंत्रण: भारतीय बाजार को ब्रिटिश उत्पादों के लिए अनुकूल बनाया गया, जिससे उपभोक्ताओं को ब्रिटिश वस्तुएँ खरीदने के लिए मजबूर किया गया और स्थानीय उद्योगों को और नुकसान हुआ।
भारत में औद्योगिकीकरण पर विमर्श
भारत में औद्योगिकीकरण पर विमर्श विभिन्न दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करता है और औपनिवेशिक नीतियों के आर्थिक प्रभावों पर गहराई से विचार करता है।
मॉरिस डी. मॉरिस का दृष्टिकोण: मॉरिस डी. मॉरिस ने तर्क दिया कि ब्रिटिश नीतियाँ भारत में औद्योगिकीकरण का कारण बनीं। हालांकि, उन्होंने भारतीय उद्योगों के व्यवस्थित विघटन और ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के नकारात्मक प्रभाव को भी उजागर किया।
दादाभाई नौरोजी और आर.सी. दत्त:
1.दादाभाई नौरोजी: अपनी पुस्तक "Poverty and Un-British Rule in India" में उन्होंने ब्रिटिश नीतियों को भारत की गरीबी का मुख्य कारण बताया।
2. आर.सी. दत्त: उनकी "The Economic History of India" ने ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीय आर्थिक संरचनाओं पर नकारात्मक प्रभाव को विस्तार से रेखांकित किया।
आधुनिक दृष्टिकोण:
आधुनिक इतिहासकार और अर्थशास्त्री ब्रिटिश नीतियों और औद्योगिकीकरण के प्रभावों का पुनर्मूल्यांकन कर रहे हैं। नए प्रमाणों के साथ, यह विमर्श स्थानीय उद्योगों के विनाश, असमान टैक्स, और कच्चे माल के निष्कर्षण जैसी नीतियों के जटिल प्रभावों को उजागर करता है।
यूरोप के साथ प्रारंभिक व्यापार
1813 से पहले भारत का ब्रिटिश वाणिज्यिक शोषण वणिकवाद पर आधारित था। ईस्ट इंडिया कंपनी का उद्देश्य सस्ते में भारतीय उत्पाद खरीदकर ब्रिटेन और अन्य बाजारों में उन्हें अधिक लाभ पर बेचना था। इसने भारतीय निर्यात उद्योग, विशेष रूप से कपड़ा उद्योग, को गंभीर नुकसान पहुँचाया।
स्वदेशी उद्योगों पर प्रभाव: कंपनी ने भारतीय वस्त्रों की लागत कम करने के लिए बुनकरों को बंधुआ मजदूर बना दिया, जिससे उन्हें बाजार मूल्य से कम दरों पर उत्पाद बेचने के लिए मजबूर किया। ब्रिटिश सरकार ने 1720 से भारतीय रेशम और कैलिको पर आयात प्रतिबंध और उच्च कर लगाए।
व्यापार पर नियंत्रण: ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार हाशिए पर पड़े व्यापारियों और ब्रिटिश निर्माताओं के विरोध का कारण बना। भारतीय कपास वस्त्रों के निर्यात में गिरावट और कच्चे माल के निर्यात में वृद्धि हुई।
संपत्ति और संसाधनों का शोषण: उपनिवेशी प्रशासन ने भारतीय प्राकृतिक संसाधनों और कच्चे माल का व्यवस्थित शोषण किया, जिससे स्थानीय उद्योग कमजोर हो गए।
औपनिवेशिक राज्य और धन का निष्कासन
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, भारतीय अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं ने भारत से इंग्लैंड के लिए धन के व्यवस्थित निष्कासन और उसके परिणामस्वरूप बढ़ती गरीबी पर चिंता व्यक्त की।
1. ड्रेन थ्योरी (धन निष्पादन का सिद्धांत):
दादाभाई नौरोजी: दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक "Poverty and Un-British Rule in India" में 'ड्रेन थ्योरी' प्रस्तुत की, जिसमें उन्होंने भारत से इंग्लैंड को धन के बहिर्वाह को भारतीय गरीबी का मुख्य कारण बताया। नौरोजी ने इसे 'भौतिक और नैतिक ड्रेन' तथा 'ब्लीडिंग ड्रेन' जैसे शब्दों से समझाया। उनके अनुसार, 1883-1892 के बीच लगभग 359 करोड़ रुपये का धन भारत से बाहर गया।
अन्य विद्वानों के अनुमान:जॉर्ज विंगेट ने 1834-1851 के बीच प्रति वर्ष 4.2 मिलियन पाउंड और विलियम डिग्बी ने 1757-1815 के बीच 500-1000 मिलियन पाउंड धन निष्पादन का अनुमान लगाया। यह सिद्धांत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा भारत के आर्थिक शोषण को उजागर करता है।
2. धन निष्कासन के कारक:
औपनिवेशिक स्थिति: ब्रिटिश शासन ने भारतीय संसाधनों का शोषण किया और देश को एक उपभोक्ता बाजार में बदल दिया।
महंगा प्रशासन: भारतीय राजस्व से ब्रिटिश सैन्य और प्रशासनिक खर्च वहन किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार:भारत से कच्चे माल का निर्यात और इंग्लैंड से तैयार उत्पादों का आयात भारत को आर्थिक रूप से कमजोर करता गया।
3. प्लासी की लड़ाई के बाद धन निष्कासन
1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद भारत से धन निष्कासन की प्रक्रिया शुरू हुई। बंगाल से जबरन धन निकाला गया और ब्रिटेन भेजा गया। अफीम व्यापार और वार्षिक शुल्कों ने इस धन निष्कासन को और तेज कर दिया। दादाभाई नौरोजी ने लॉर्ड कॉर्नवालिस और अन्य ब्रिटिश प्रशासकों के बयानों का हवाला देते हुए इस धन बहिर्वाह को प्रमाणित किया। यह प्रक्रिया औपनिवेशिक शासन के आर्थिक शोषण का प्रमुख उदाहरण है।
4. धन के निष्कासन केकारण और प्रभाव
कारण: धन निष्कासन के प्रमुख कारणों में सार्वजनिक ऋण, लाभांश वितरण, प्रशासनिक व सैन्य खर्च, और अफीम व्यापार शामिल हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय राजाओं को हटाने और अवसंरचना निर्माण के लिए ऋण लिया। कंपनी के शेयरधारकों को लाभांश वितरित किया गया। भारत कार्यालय और ब्रिटिश सैन्य खर्च भारत से भेजे धन से पूरे हुए, और चीन के साथ अफीम व्यापार से अर्जित धन इंग्लैंड स्थानांतरित किया गया।
आंतरिक आर्थिक शोषण: धन निष्कासन में घरेलू उत्पादन पर कर लगाकर संसाधनों का दोहन, असंतुलित निर्यात से आंतरिक धन का बहिर्वाह, और साम्राज्यवादी उद्देश्यों के लिए रेलवे और सड़क निर्माण पर खर्च शामिल था।
प्रभाव: ब्रिटिश शोषण के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में गरीबी, कृषि अस्थिरता, भूमि कर बढ़ोतरी, कर्ज, और औद्योगिकीकरण में गिरावट हुई। दादाभाई नौरोजी ने इन आर्थिक कठिनाइयों की आलोचना की और इसे भारत की आर्थिक दुर्दशा का मुख्य कारण बताया।
5. ब्रिटिश भारत में धन की निकासी की प्रक्रिया
ब्रिटिश शासन में भारत से धन की निकासी भारतीय संसाधनों के शोषण और ब्रिटेन की समृद्धि के लिए हस्तांतरण पर आधारित थी। गृह शुल्क, ब्रिटिश अधिकारियों के खर्च, और कर्ज चुकाने के लिए बड़ी मात्रा में धन ब्रिटेन भेजा गया। ब्रिटिश कानूनों ने भारतीय उद्योगों को कमजोर कर देश को ब्रिटिश वस्तुओं का बाजार बनाया। इस दुष्चक्र से विकास ठप हो गया, गरीबी बढ़ी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था तबाह हुई, बेरोजगारी बढ़ी और जनता में असंतोष फैला।
स्वदेशी उद्योगों की अवनति
हस्तशिल्प उद्योग पर प्रभाव: ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के स्वदेशी उद्योग, विशेष रूप से हस्तशिल्प, का पतन हुआ। ब्रिटेन से आयातित मशीन निर्मित वस्त्रों ने भारतीय बाजारों को सस्ते उत्पादों से भर दिया, जिससे भारतीय हस्तशिल्प उद्योग प्रतिस्पर्धा नहीं कर सका।
औद्योगिकीकरण का प्रभाव: ब्रिटिश औद्योगिकीकरण ने भारत में आयातित वस्त्रों को बढ़ावा दिया। ब्रिटिश व्यापार नीतियों और मुक्त व्यापार के सिद्धांतों ने भारतीय उद्योगों पर आर्थिक दबाव डाला।
1813 के चार्टर अधिनियम का प्रभाव: 1813 के चार्टर अधिनियम ने ईस्ट इंडिया कंपनी के वाणिज्यिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, भारतीय वस्त्र उद्योग को भारी नुकसान हुआ, और भारत एक प्रमुख निर्यातक से आयातक बन गया।
प्राथमिकता शुल्क नीतियां (1878-1895): ब्रिटिश सरकार ने प्राथमिकता शुल्क नीतियों को लागू किया, जिससे भारत को ब्रिटिश उत्पादों के लिए बाजार बनाया गया। रेलवे नेटवर्क ने इस प्रक्रिया को सुगम किया, जिससे भारतीय कारीगरों को अपनी परंपरागत आजीविका छोड़नी पड़ी।
प्रशासनिक स्वीकारोक्ति: 1834 में गवर्नर जनरल विलियम बैंटिंक ने स्वीकार किया कि भारतीय बुनकर कठिनाइयों का सामना कर रहे थे। कार्ल मार्क्स ने भी भारतीय हथकरघा उद्योग के पतन के लिए ब्रिटिश हस्तक्षेप को दोषी ठहराया।
रेलवे का प्रभाव: रेलवे ने कच्चे माल की आपूर्ति और ब्रिटिश वस्त्रों के परिवहन को आसान बना दिया। इससे पारंपरिक उद्योगों का और पतन हुआ।
स्वदेशी उद्योगों के विनाश के कारण
ब्रिटिश साम्राज्यवाद और शासकीय संरचना का प्रभाव:ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कारण भारतीय हस्तशिल्प उद्योग, जो शासक राज्यों के संरक्षण पर निर्भर था, समाप्त हो गया। ब्रिटिश प्रशासन और स्थानीय राज्यों के समावेश से इन उद्योगों का संरक्षण खत्म हो गया, जिससे कारीगर बेरोजगार हो गए और उन्हें कृषि पर निर्भर होना पड़ा।
ब्रिटिश व्यापारिक रणनीतियाँ:ब्रिटिश व्यापारिक रणनीतियों के तहत भारतीय किसानों को नकदी फसलें उगाने के लिए मजबूर किया गया, जिससे कारीगरों को कच्चे माल की कमी हुई। बंगाल में कुशल कारीगरों का शोषण किया गया, जिससे कपास और रेशम उद्योग का पतन हुआ। इन नीतियों ने भारतीय उद्योगों को कमजोर कर ब्रिटिश हितों को प्राथमिकता दी।
तकनीकी प्रगति और आयात-निर्यात शुल्क: ब्रिटिश तकनीकी प्रगति ने इंग्लैंड में उन्नत तकनीक का उपयोग कर भारत से कच्चे माल की मांग बढ़ाई। भारतीय वस्त्रों पर उच्च निर्यात शुल्क और ब्रिटिश वस्त्रों पर कम आयात शुल्क ने भारतीय वस्त्र उद्योग को नुकसान पहुंचाया। सस्ते ब्रिटिश वस्त्रों के चलते भारतीय वस्त्र उद्योग की बाजार हिस्सेदारी घट गई।
हस्तशिल्प संघों का पतन: हस्तशिल्प संघों के कमजोर होने से शिल्पकारों की गुणवत्ता में गिरावट आई। घटिया कारीगरी और मिलावट की समस्या ने उनके उत्पादों के मूल्य को कम कर दिया, जिससे उनका पतन हुआ।
परिवहन के बुनियादी ढांचे का विकास: परिवहन के बुनियादी ढांचे, जैसे सड़कों, रेल और स्वेज नहर के विकास ने यूरोपीय वस्त्रों को भारत के हर कोने में पहुंचाया। सस्ते और निम्न गुणवत्ता वाले यूरोपीय वस्त्र गरीब भारतीयों के लिए सुलभ हो गए, जिससे भारतीय उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ।
1. पारंपरिक शिल्प का पतन
कुटीर उद्योगों का योगदान और पतन:ब्रिटिश शासन से पहले कुटीर उद्योग गाँवों की अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर और स्वतंत्र बनाते थे। बाहरी प्रतिस्पर्धा के अभाव में ये आर्थिक इकाइयाँ स्थिर थीं। ब्रिटिश शासन के दौरान सस्ते मशीन-निर्मित वस्त्रों और परिवहन प्रणालियों के प्रसार ने इन उद्योगों को नष्ट कर दिया। साथ ही, अकालों ने स्थिति और बिगाड़ी, जिससे कारीगरों को मजदूरी जैसे वैकल्पिक रोजगार की ओर रुख करना पड़ा।
हथकरघा उद्योग:हथकरघा उद्योग पर मशीन-निर्मित कपड़ों का गहरा प्रभाव पड़ा, जिससे 1850 के बाद इसमें तेजी से गिरावट आई। गाँधीजी और अखिल भारतीय स्पिनर्स एसोसिएशन ने इसे पुनर्जीवित करने के प्रयास किए, लेकिन उनकी सफलता सीमित रही।
कारीगर वर्ग पर प्रभाव: ब्रिटिश शासन के दौरान कारीगर वर्ग पर गहरा प्रभाव पड़ा। बढ़ई आधुनिक मशीनरी के कारण हाशिए पर आ गए और कुछ ने शहरी रोजगार अपनाया। लोहारों की गाँवों में मरम्मत कार्य की माँग बनी रही, लेकिन कई आधुनिक कार्यशालाओं में काम करने लगे। चमड़ा उद्योग वैश्विक बाजार से जुड़कर श्रमिकों को भूमि मजदूर बना गया, जबकि कुछ शहरी उद्योगों में समाहित हुए। रंगाई उद्योग सस्ते सिंथेटिक रंगों के आयात से नष्ट हो गया। मिट्टी के बर्तन उद्योग अपेक्षाकृत स्थिर रहा, क्योंकि गरीब वर्ग इन्हीं का उपयोग करता था।
कृषि और पूरक आय:ग्रामीण कारीगर कृषि से पूरक आय अर्जित करते थे। स्थानीय कच्चे माल का उपयोग कर टोकरी बुनाई जैसे पारंपरिक शिल्प उन्हें मामूली लाभ प्रदान कर सके।
2. पारंपरिक हस्तशिल्प के विनाश का परिणाम
ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव: कुटीर उद्योगों के पतन ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कृषि और औद्योगिक नींव को कमजोर कर दिया। आत्मनिर्भरता खत्म होने के कारण ग्रामीण इकाइयाँ बाहरी औद्योगिक वस्त्रों और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर निर्भर हो गईं, जिससे वे राष्ट्रीय और वैश्विक अर्थव्यवस्था में एकीकृत हो गईं।
राष्ट्रीय चेतना का उदय: कारीगर आधारित उद्योगों के पतन ने पारंपरिक स्वायत्त गाँवों की संरचना को कमजोर कर दिया, जिससे राष्ट्रीय चेतना और साझा राष्ट्रीय पहचान का विकास हुआ।
उद्योग और कृषि के बीच असंतुलन:हस्तशिल्प उद्योग के पतन के बावजूद स्वदेशी विनिर्माण या आधुनिक उद्योग में कोई खास वृद्धि नहीं हुई। अधिकांश विस्थापित कारीगर कृषि श्रमिक बन गए, जिससे कृषि पर दबाव बढ़ा और आर्थिक स्थिति व कृषि दक्षता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
शहरी केंद्रों पर प्रभाव:ढाका, सूरत, और मुर्शिदाबाद जैसे औद्योगिक केंद्रों को पारंपरिक उद्योगों के पतन के कारण आर्थिक गिरावट और जनसंख्या में कमी का सामना करना पड़ा। निर्माण कौशल और उत्पादन के लिए प्रसिद्ध ये शहर अपनी महत्ता खो बैठे।
समग्र परिणाम: पारंपरिक हस्तशिल्प के पतन ने ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दिया और उद्योग व कृषि के बीच असंतुलन पैदा किया। इस प्रक्रिया ने भारत के सामाजिक और आर्थिक ढाँचे में गहरी और दीर्घकालिक चुनौतियाँ उत्पन्न कीं।
विऔद्योगीकरण का प्रभाव
स्वदेशी उद्योगों का पतन: स्वदेशी शासकों के हटने से पारंपरिक उद्योगों का संरक्षण समाप्त हो गया। ब्रिटिश सरकार ने हथकरघा और वस्त्र उद्योगों को इंग्लैंड के मशीन निर्मित कपड़ों से प्रतिस्थापित कर समाप्त कर दिया। संसाधनों और धन के बहिर्वाह ने इंग्लैंड में निवेश और औद्योगिक क्रांति को गति दी।
शहरी केंद्रों का पतन और प्रवास: मिर्जापुर, मुर्शिदाबाद और मालदा जैसे पुराने शहरों की आर्थिक गतिविधियाँ दिल्ली, बॉम्बे और कलकत्ता जैसे नए वाणिज्यिक केंद्रों की ओर स्थानांतरित हो गईं। शहरी हस्तशिल्प के पतन और शाही संरक्षण की समाप्ति से इन प्राचीन शहरों की जनसंख्या घटी। पारंपरिक नौकरियों से विस्थापित लोग आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हो गए।
परिवहन और व्यापार मार्गों का परिवर्तन: रेलवे के विस्तार ने पारंपरिक व्यापार मार्गों को अप्रासंगिक बना दिया, जिससे मिर्जापुर जैसे शहर अपना महत्त्व खो बैठे। नए वाणिज्यिक केंद्र उभरे, जबकि पारंपरिक शहरी केंद्रों का पतन हुआ।
कृषि पर दबाव और बेरोजगारी: पारंपरिक उद्योगों से विस्थापित कारीगरों ने कृषि में रोजगार की तलाश की, लेकिन कृषि क्षेत्र पहले से दबाव में होने के कारण अतिरिक्त श्रम को समायोजित नहीं कर सका। इससे छिपी हुई बेरोजगारी बढ़ी और कृषि उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
महामारियों और जनसंख्या पर प्रभाव:शहरी ठहराव और खराब स्वच्छता के कारण पुराने शहर प्लेग और हैजा जैसी महामारियों से प्रभावित हुए। इन महामारियों के चलते शहरी पलायन बढ़ा और कई प्राचीन शहरों की जनसंख्या में भारी गिरावट हुई।
सांस्कृतिक और आर्थिक प्रभाव: कला और शिल्प उद्योग के पतन से कारीगरों की बेरोजगारी बढ़ी और भारत की सांस्कृतिक धरोहर को नुकसान पहुँचा। व्यापार और वाणिज्य के विस्तार से नए शहरी केंद्र स्थापित हुए, लेकिन पुराने शहरों की समृद्धि समाप्त हो गई।
भारतीय अर्थव्यवस्था का ग्रामीणकरण
ग्रामीणकरण की प्रक्रिया: औद्योगिक केंद्रों जैसे ढाका, मुर्शिदाबाद और सूरत के पतन के कारण श्रमिक आजीविका की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन कर गए। उन्होंने कृषि को मुख्य आजीविका के रूप में अपनाया, और कृषि उत्पादों व कच्चे माल का उत्पादन प्राथमिकता बन गया। यह कृषि-केंद्रित परिवर्तन भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रामीणकरण या कृषिकरण के रूप में जाना गया।
ब्रिटिश नीतियाँ और हस्तशिल्प का पतन:ब्रिटिश नीतियों का उद्देश्य भारत के स्वदेशी हस्तशिल्प उद्योगों को समाप्त कर इसे ब्रिटेन के औद्योगिक क्षेत्र के लिए कच्चे माल का स्रोत बनाना था। 1769 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कच्चे माल के उत्पादन को प्रोत्साहित किया और घरेलू उद्योगों पर प्रतिबंध लगाए। 1783 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश हितों के अनुरूप पुनर्गठित करने की घोषणा की।
औद्योगिक क्रांति और मुक्त व्यापार पूँजीवाद: ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति ने व्यापारी पूँजीवाद को बदलकर भारत में मुक्त व्यापार पूँजीवाद को बढ़ावा दिया। आर. सी. दत्त के अनुसार, इन ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय स्वदेशी उद्योगों को गंभीर रूप से क्षति पहुँचाई।
ब्रिटिश निवेश और बागान उद्योग: चार्टर एक्ट 1833 ने ब्रिटिश नागरिकों को भारत में आव्रजन और भूमि स्वामित्व की अनुमति दी। इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश निवेश चाय, कॉफी, नील, और जूट जैसे बागान उद्योगों में लगाया गया। असम वेस्टलैंड नियमों जैसे विनियमों के माध्यम से सरकार ने इन नीतियों को समर्थन प्रदान किया।
कृषि पर बढ़ता दबाव: 1815 से 1880 के बीच उद्योग से कृषि की ओर स्थानांतरण के कारण अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर हो गई। हालांकि, कृषि उत्पादकता में कोई समान वृद्धि नहीं हुई, जिससे ग्रामीण गरीबी और असमानता में वृद्धि हुई।
सामाजिक और आर्थिक प्रभाव:भारतीय कृषि का आधुनिकीकरण राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक बाधाओं के कारण रुक गया। 19वीं और 20वीं शताब्दी में बार-बार अकाल और बढ़ती गरीबी इस स्थिति का प्रत्यक्ष परिणाम थे। ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय कृषि और समाज को कमजोर किया, जिससे दीर्घकालिक आर्थिक असमानता और सामाजिक संकट उत्पन्न हुए।