प्रस्तावना
भारतीय इतिहास का प्रारंभिक मध्यकाल राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों का महत्त्वपूर्ण युग था। इस अवधि में गुर्जर-प्रतिहार, पाल, राष्ट्रकूट और चोल जैसे साम्राज्यों का उदय हुआ, जो क्षेत्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाले मुख्य शक्तिशाली राज्य बने। इसी समय, क्षत्रिय कबीले के रूप में राजपूतों का उदय हुआ, जिसने विशेष रूप से पश्चिमी और मध्य भारत के इतिहास को गहराई से प्रभावित किया।
'राजपूत' शब्द एक नए योद्धा वर्ग को दर्शाता है, जो पहले अभिलेखों में नहीं मिलता। इनकी उत्पत्ति से जुड़े कई सिद्धांत और विद्वानों की व्याख्याएँ इस काल की एक प्रमुख चर्चा रही हैं। इस इकाई में राजपूतों की उत्पत्ति और उनके ऐतिहासिक महत्त्व पर विचार किया जाएगा।
साक्ष्य
1.साहित्यिक साक्ष्य
गुर्जर-प्रतिहारों के इतिहास को समझने में साहित्यिक साक्ष्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
- 'ख्यात' साहित्य: यह नौवीं-दसवीं शताब्दी में राजस्थान में प्रचलित हुआ। इसमें राजाओं के कार्यों और वंशावलियों का वर्णन है। नैनसीरीख्यात, बांकीदासरीख्यात, और श्यामलदासरीख्यात इसके प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
- चारण साहित्य: यह राजाओं की वीरता और शिष्टता को अतिशयोक्तिपूर्ण रूप से चित्रित करता है। पृथ्वीराजरासो (चंद बरदाई) राजपूतों की उत्पत्ति और पराक्रम का प्रमुख ग्रंथ है।
- महाकाव्य: पृथ्वीराज विजय (जयनक), हम्मीर महाकाव्य (नयचंद सूरी), और आल्हाखंड जैसे मौखिक साहित्य भी ऐतिहासिक और सामाजिक जानकारी देते हैं।
- अन्य ग्रंथ: हर्षचरित (बाणभट्ट), राजतरंगिणी (कल्हण), और वर्णरत्नाकर में राजपूतों और उनके संघर्षों का उल्लेख है।
2.अभिलेखीय साक्ष्य
शिलालेख:
- ग्वालियर शिलालेख: कन्नौज के प्रतिहारों को रामायण के लक्ष्मण का वंशज बताता है।
- पटियाला शिलालेख (837 ईस्वी): गुर्जर-प्रतिहारों की वंशावली और उनके विस्तार का विवरण।
- जोधपुर शिलालेख (861 ईस्वी): प्रतिहारों को ब्राह्मण क्षत्रिय उत्पत्ति से जोड़ता है।
- माउंट आबू शिलालेख (1285 ईस्वी): प्रतिहारों और गुहिल वंश के संबंध का समर्थन करता है।
- बिजोलिया शिलालेख (1169): चाहमानों की वंशावली और उनके सामंत से राजा बनने की प्रक्रिया का उल्लेख करता है।
3. सिक्के
- प्रतिहार शासकों द्वारा जारी सिक्के, जैसे आदि वराह सिक्के, उत्तर भारत में राजपूतों को अन्य शासक परिवारों से जोड़ते हैं।
4. महत्त्व
- इन साक्ष्यों ने गुर्जर-प्रतिहारों की उत्पत्ति, सामाजिक स्थिति, राजनीतिक विस्तार और प्रशासनिक संरचना को समझने में मदद की है। साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य, भले ही कुछ अतिशयोक्ति लिए हों, उस समय के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश के बहुमूल्य स्रोत हैं।
'राजपूत' की परिभाषा
'राजपूत' शब्द क्षत्रिय वर्ण के एक विशेष शासक और सैन्य वर्ग को दर्शाता है। यह 'राजपुत्र' (राजा का पुत्र) का परिवर्तित रूप माना जाता है और सातवीं से दसवीं शताब्दी में उभरे योद्धाओं के लिए प्रयुक्त हुआ, जिन्होंने उत्तर-पश्चिमी भारत में अपना प्रभाव स्थापित किया।
1.ऐतिहासिक संदर्भ
- शुरुआत में 'राजपूत' केवल उन्हीं योद्धाओं के लिए प्रयोग हुआ जो आक्रमणकारियों से मातृभूमि की रक्षा में लड़े। आठवीं शताब्दी में अरब आक्रमणों के दौरान इसका विशेष महत्व बढ़ा।
2.सामाजिक और क्षेत्रीय पहचान
- राजपूतों की उत्पत्ति विभिन्न जातियों और जनजातियों के समामेलन से मानी जाती है। सी. वी. वैद्य ने उन्हें "उच्चतर क्षत्रिय" कहा। समय के साथ, उनकी पहचान क्षेत्रीय हो गई, और उनका क्षेत्र 'राजपुताना' कहलाया।
3. विशेषताएँ और योगदान
- राजपूत मुख्य रूप से अपने योद्धा गुणों के लिए प्रसिद्ध थे।
- विदेशी यात्रियों, जैसे फ्रांसीसी यात्री जीन बैप्टिस्ट टवेर्नियर, ने राजपूतों को बहादुर और हथियारों के उपयोग में दक्ष माना।
- बी.डी. चट्टोपाध्याय के अनुसार, 'राजपूत' शब्द क्षत्रिय से अधिक शासक वर्ग की स्थिति का प्रतीक बन गया।
- कृषि और भू-अभिजात वर्ग के विस्तार के साथ 'राजपूतीकरण' की प्रक्रिया विभिन्न क्षेत्रों में फैली।
राजपूतों की उत्पत्ति के प्रमुख सिद्धांत: स्वदेशी और विदेशी
1. स्वदेशी मूल सिद्धांत
- अग्निकुल सिद्धांत: यह सिद्धांत राजपूतों की उत्पत्ति को अग्नि (यज्ञकुंड) से जोड़ता है। चारणों के अनुसार, वशिष्ठ ऋषि ने आबू पर्वत पर एक यज्ञ से प्रतिहार, चालुक्य, परमार और चौहान नामक चार योद्धाओं को उत्पन्न किया। यह प्रतीकात्मक है और राजपूतों की शक्ति को दर्शाता है।
- गोत्राचार और वंश: राजपूत अपने को सूर्यवंशी (सौर क्षत्रिय) या चंद्रवंशी (सोमवंशी) मानते हैं। पृथ्वीराज विजय और हम्मीर महाकाव्य चौहानों को सूर्यवंशी बताते हैं। कुछ स्थानों पर चौहानों को इंद्र से उत्पन्न बताया गया है।
- क्षत्रिय पहचान: राजपूत समाज, विभिन्न वंश और कबीले क्षेत्रीय राजनीति के दौरान प्रमुख योद्धा वर्ग के रूप में उभरे। वे अपने वंश को सम्मानजनक और वैदिक आर्य मूल से जोड़ने का प्रयास करते हैं।
2. विदेशी मूल सिद्धांत
- साम्राज्यवादी व्याख्या: जेम्स टॉड और विन्सेंट स्मिथ जैसे इतिहासकारों ने राजपूतों को शक, कुषाण और हूण जैसी विदेशी जनजातियों का वंशज बताया। उनका मानना था कि ये विदेशी जनजातियाँ ब्राह्मणवादी ढांचे में आत्मसात हो गईं और राजपूत बने।
- भंडारकर का मत: डी. आर. भंडारकर ने कहा कि गुर्जर-प्रतिहार जैसे राजपूत वंश खजर जनजाति (अर्मेनिया) से संबंधित हैं। विदेशी समूहों ने भारतीय संस्कृति को अपनाकर क्षत्रिय का दर्जा प्राप्त किया।
- आलोचना: सी. वी. वैद्य और जी. एच. ओझा जैसे इतिहासकारों ने इस सिद्धांत का खंडन किया। उन्होंने राजपूतों को वैदिक आर्य वंशज माना और विदेशी मूल की व्याख्या को गलत बताया।
राजपूतों की उत्पत्ति हाल के परिप्रेक्ष्य
हालिया दृष्टिकोण राजपूतों की उत्पत्ति को पौराणिक कहानियों और वंशीय दावों से आगे बढ़ाकर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में समझने का प्रयास करता है। विद्वानों ने राजपूतों के उद्भव को राज्य निर्माण, कृषि विस्तार, और सामाजिक गतिशीलता से जोड़ा है।
- राजपूतीकरण की प्रक्रिया: बी. डी. चट्टोपाध्याय ने इसे "राजपूतीकरण की प्रक्रिया" कहा, जो भूमि अधिग्रहण, कृषि विस्तार, और सामाजिक-राजनीतिक उन्नति का परिणाम थी। जनजातीय क्षेत्रों में कृषि का विस्तार और आदिवासी सरदारों का मुख्यधारा में शामिल होना इस प्रक्रिया का हिस्सा था। उदाहरण के लिए, चौहान, गुहिल, और चालुक्य जैसे वंश, जो पहले गुर्जर-प्रतिहारों के अधीनस्थ थे, बाद में स्वतंत्र शासक बन गए।
- भूमि और राजनीतिक विस्तार: कृषि भूमि पर नियंत्रण ने एक नए अभिजात वर्ग को जन्म दिया। भूमि का वितरण, किलों का निर्माण, और वैवाहिक गठबंधन जैसे उपायों ने इन शासकों की राजनीतिक स्थिति को मजबूत किया और उनकी सत्ता को स्थायित्व प्रदान किया।
- पौराणिक और वंशीय दावे: वंशावली और पौराणिक कथाएँ उन शासकों को वैधता प्रदान करने के लिए बनाई गईं जिनकी पृष्ठभूमि अस्पष्ट थी। राजपूत वंशावलियों ने उन्हें सामाजिक और राजनीतिक स्वीकृति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- क्षत्रिय से संप्रभु शासक तक: राजपूतों ने पहले क्षत्रिय का दर्जा प्राप्त किया, फिर सामंती और अंततः स्वतंत्र शासक बने।
- क्षेत्रीय विविधता: राजपूतीकरण की प्रक्रिया हर क्षेत्र में अलग-अलग थी। उदाहरण के लिए, सपादलक्ष क्षेत्र में चौहान (चाहमान) वंश का उदय हुआ, जिसमें जनजातीय भीलों और मीणाओं को विस्थापित कर सत्ता स्थापित की गई।
उत्तरी भारत में राजपूत राज्यों का उद्भव