ADS468

ADS

भारत का इतिहास 300 ई. से 1200 ई. तक UNIT 6 SEMESTER 2 THEORY NOTES चोल : राज्य और प्रशासन, अर्थव्यवस्था और संस्कृति HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत का इतिहास 300 ई. से 1200 ई. तक UNIT 6 SEMESTER 2 THEORY NOTES चोल : राज्य और प्रशासन, अर्थव्यवस्था और संस्कृति HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES

प्रस्तावना

चोल राजवंश भारतीय इतिहास में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों में से एक था। राजराजा चोल और राजेंद्र चोल जैसे शासकों के नेतृत्व में चोलों ने दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में सैन्य, आर्थिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में अपनी पहचान बनाई। उनकी नौसेना ने बंगाल की खाड़ी पर नियंत्रण स्थापित किया, जिसे विद्वानों ने "चोल झील" कहा। चोल इतिहास के अध्ययन के लिए शिलालेख, भव्य मंदिर, और तमिल भक्ति साहित्य प्रमुख साक्ष्य हैं। नौवीं से तेरहवीं शताब्दी तक चोलों ने तमिलनाडु की उपजाऊ कावेरी घाटी को अपने साम्राज्य का आधार बनाकर एक विस्तारित राज्य का निर्माण किया। चोल इतिहास चार कालखंडों में विभाजित है, जिसमें प्रारंभिक चोल, उदय, और उत्तरकालीन चोल शामिल हैं।

 प्रारंभिक चोल शासक 

संगम साहित्य में प्रारंभिक चोल राजाओं का उल्लेख मिलता है, जिनका काल दूसरी या पहली शताब्दी का माना जाता है। संगम युग के अंत के बाद तीन शताब्दियों तक तमिल देश में पल्लव और पांड्य शासकों का प्रभुत्व रहा। छठी शताब्दी में, पल्लवों और पांड्यों ने कालाभरों को हराकर तमिल क्षेत्र पर पुनः अपना नियंत्रण स्थापित किया।

1.चोल साम्राज्य का उदय

  • विजयालय चोल (848-870): चोल साम्राज्य के संस्थापक विजयालय ने 850 ईस्वी में तंजौर पर कब्जा कर इसे राजधानी बनाया।
  • आदित्य I (891-907): विजयालय के पुत्र आदित्य ने पल्लव और पश्चिमी गंगाओं को हराकर चोल साम्राज्य का विस्तार किया।
  • परांतक I (907-955): उन्होंने मदुरई पर कब्जा कर "मदुरईकोंडा" की उपाधि धारण की और तमिल देश का अधिकांश हिस्सा अपने प्रभुत्व में लिया।

2. राजराजा चोल (985-1014)

  • चोल साम्राज्य ने एक शक्तिशाली सेना और नौसेना का गठन किया। 994 ईस्वी में कंदलूर युद्ध में चेरा राजा को हराकर श्रीलंका के उत्तरी भाग पर कब्जा कर लिया और मालदीव पर भी विजय प्राप्त की। व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए चोलों ने चीन में शिष्टमंडल भेजा। 1010 ईस्वी में तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण किया गया, जो आज यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल है।

3. राजेंद्र चोल (1014-1044)

  • चोल साम्राज्य ने 1017 में श्रीलंका पर आक्रमण कर पूरे द्वीप पर कब्जा कर लिया। 1019 में गंगा नदी तक अपनी सेना भेजकर बंगाल के पाल शासक महिपाल को हराया। 1025 में श्रीविजय साम्राज्य पर आक्रमण कर मलेशिया और इंडोनेशिया में चोल प्रभाव स्थापित किया। गंगईकोंड चोलपुरम को अपनी राजधानी बनाया और "गंगईकोंड" की उपाधि धारण की। इसके अलावा, भारत की सबसे बड़ी कृत्रिम झीलों में से एक का निर्माण किया।


 चोल राज्य और प्रशासन 

चोल शासन ने शक्तिशाली केंद्रीय प्रशासन और स्वायत्त स्थानीय निकायों का अनोखा संयोजन प्रस्तुत किया, जो दक्षिण भारत में लंबे समय तक प्रभावी रहा।

1. चोल राज्य की प्रकृति

  • चोल राज्य को नीलकंठ शास्त्री ने "केंद्रीयकृत" और बर्टन स्टीन ने "सेगमेंटरी स्टेट" कहा। हालांकि, स्थानीय स्वशासन और ब्राह्मण गाँवों की अनदेखी के कारण इस मॉडल की आलोचना हुई। राजाओं ने मंदिरों और पौराणिक परंपराओं के सहारे अपनी शक्ति को वैधता दी।

2. केंद्रीय प्रशासन

  • चोल शासन राजतंत्रीय था, जिसमें राजा सर्वोच्च शक्ति का केंद्र था। राजधानी तंजावुर से गंगईकोंड चोलपुरम स्थानांतरित हुई। मंदिर पूजा के साथ-साथ आर्थिक और राजनीतिक केंद्र भी थे। राजस्व विभाग ने कर संग्रह और प्रशासन को व्यवस्थित किया।

3. प्रांतीय प्रशासन

  • साम्राज्य को मंडलम (प्रांत), वल्लनाडु (डिवीजन), नाडु (जिला), कोट्टम (ग्राम समूह), और कुर्म (गाँव) में विभाजित किया गया। नाडु प्रशासन की आधारभूत इकाई थी। भूमि सर्वेक्षण और पुनर्गठन राजराजा I के समय हुआ। न्याय प्रणाली में स्थानीय स्तर पर विवाद निपटाए जाते थे।

4. स्वायत्त स्थानीय प्रशासन

स्थानीय प्रशासन तीन इकाइयों में विभाजित था:

  • उर : साधारण गाँवों के करदाता निवासी।
  • सभा : ब्राह्मणों द्वारा प्रशासित गाँव।
  • नगरम : व्यापार केंद्र और कस्बे।

प्रतिनिधियों का चयन लॉटरी से होता था। कर संग्रह, विवाद निपटारा, और लेखा-जोखा जैसे कार्य समितियों द्वारा प्रबंधित होते थे।

5. विशेष गाँव और उनकी भूमिका

चोल शासन में विशेष गाँव महत्वपूर्ण थे:

  • ब्रह्मादेय: ब्राह्मणों को दिए गए गाँव।
  • देवदान: मंदिरों को समर्पित गाँव।

ये गाँव कर संग्रह और प्रशासन में मंदिरों के साथ सक्रिय भूमिका निभाते थे।


 चोल साम्राज्य की सैन्य व्यवस्था 

  • चोल राजाओं के पास एक संगठित और पेशेवर सेना थी, जिसमें राजा सर्वोच्च सेनापति के रूप में कार्य करता था। सेना के चार मुख्य भाग थे: घुड़सवार सेना, हाथी वाहिनी, पैदल सेना, और नौसेना। 
  • तलवारधारी सैनिक सबसे भरोसेमंद माने जाते थे, जबकि तीरंदाज और युद्ध हाथी सेना की ताकत को बढ़ाते थे। 
  • चोल नौसेना प्राचीन भारत की सबसे शक्तिशाली नौसेना मानी जाती थी। इस कुशल सेना के बल पर चोल राजाओं ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया और समुद्री शक्ति को मजबूत किया। 
  • विद्वान स्पेंसर जे ने चोल सेना की छापामार रणनीतियों और उसकी भूमिका को खास तौर पर रेखांकित किया है।


 चोल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था 

चोल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, व्यापार, और उद्योगों पर आधारित थी। यह साम्राज्य अपने राजस्व संग्रह, सिंचाई व्यवस्था और समुद्री व्यापार के लिए प्रसिद्ध था।

  • आय के स्रोत: चोल साम्राज्य की आय के प्रमुख स्रोत भू-राजस्व (कृषि), व्यापार कर (घरेलू व विदेशी व्यापार), और सोने, चाँदी, ताँबे के सिक्कों का प्रचलन थे।
  • कृषि: चोल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी, जिसके लिए सिंचाई प्रणाली को उन्नत किया गया। कुएँ, तालाब, नहर, और बाँध जैसे साधन बनाए गए। कावेरी नदी पर पत्थर के बाँध और नहरों ने खेती को बढ़ावा दिया, जबकि राजेंद्र चोल ने एक विशाल कृत्रिम झील का निर्माण करवाया।
  • शिल्प और उद्योग: चोल साम्राज्य में शिल्प और उद्योग अत्यधिक विकसित थे। बुनाई उद्योग में सालियार और काइकोलर समुदायों ने कपड़ा उत्पादन में योगदान दिया, और कांचीपुरम रेशम का प्रमुख केंद्र बना। धातु और आभूषण निर्माण में उच्च गुणवत्ता के उत्पाद बनाए गए। साथ ही, समुद्री नमक का व्यापक स्तर पर उत्पादन भी हुआ।
  • विदेशी व्यापार: चोल साम्राज्य का विदेशी व्यापार अत्यधिक व्यापक और संगठित था। उनके प्रमुख व्यापारिक भागीदारों में चीन (सांग राजवंश), श्रीविजय साम्राज्य (सैलेंद्र वंश), और अब्बासिद खलीफा (बगदाद) शामिल थे। समुद्री व्यापार ने दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन में चोल प्रभाव को मजबूत किया। व्यापारिक गिल्ड्स ने विदेशी व्यापार को सुव्यवस्थित और संगठित किया।


 समाज 

  • चोल साम्राज्य में समाज संगठित और उन्नत था। पब्लिक वेलफेयर के तहत भूमि दान आम था, जैसे तिरुमुक्कडल शिलालेख में दर्ज विरा चोल के नाम पर अस्पताल का निर्माण। समाज में कृषक वर्ग प्रमुख था, और वेल्लाला कामगारों को उत्तरी श्रीलंका में भेजा गया था।
  • साक्षरता और शिक्षा उच्च स्तर पर थी, जिसे उत्कृष्ट अभिलेखों और दरबारी कवियों द्वारा लिखे गए साहित्य से समझा जा सकता है। तमिल भाषा शिक्षा का माध्यम थी, और धार्मिक मठ (मठ या पटिका) विद्या के केंद्र थे, जिन्हें सरकारी सहायता प्राप्त थी।
  • मंदिर निर्माण केवल धार्मिक कार्य नहीं थे, बल्कि उन्होंने कृषि और सामाजिक विस्तार में भी योगदान दिया। भूमि के अनुदान ने कृषि समाज को बढ़ावा दिया और आर्थिक समृद्धि लाई।


 चोल संस्कृति: कला और वास्तुकला 

चोल राजा न केवल अपने सैन्य कौशल के लिए जाने जाते हैं बल्कि उन्होंने कला और वास्तुकला के क्षेत्र में भी बड़ा योगदान दिया है।

1. मंदिर वास्तुकला

चोल राजा न केवल अपने सैन्य कौशल के लिए बल्कि अपने भव्य मंदिरों और अद्वितीय वास्तुकला के लिए भी प्रसिद्ध थे। चोल काल में मंदिर केवल धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक जीवन के केंद्र थे। कावेरी नदी के किनारे बने शिव मंदिर और अन्य संरचनाएँ उनकी वास्तुकला की भव्यता को दर्शाती हैं।

प्रमुख मंदिर और उनके केंद्र:

  • तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर (1009-10): दक्षिण भारतीय वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना और चोल उपलब्धियों का प्रतीक।
  • गंगईकोंड चोलपुरम का मंदिर (1030): भव्य लेकिन ऊँचाई में बृहदेश्वर मंदिर से कम।

1. दारासुरम में ऐरावतेश्वर मंदिर और त्रिभुवनम में काम्परेश्वरा मंदिर।

2. नरथमालई का विजयालय चोलेश्वर मंदिर।

  • द्रविड़ शैली की विशेषताएँ:

1. मंदिरों में भव्य विमान (टावर) और अलंकृत गोपुरम (प्रवेश द्वार)।

2. मंदिरों के मंडप में ग्राम सभाएँ होती थीं।

3. शहरीकरण के साथ मंदिरों के आसपास व्यापार केंद्रों का विकास हुआ।


2. मूर्तिकला और चित्रकला

चोल काल में मूर्तिकला और चित्रकारी में भी बड़ी प्रगति हुई।

1. मूर्तिकला:

  • चोल मूर्तिकारों ने कांस्य प्रतिमाओं की उत्कृष्ट कला विकसित की।
  • नटराज की कांस्य प्रतिमा विश्व प्रसिद्ध है।
  • कुम्भकोणम और अन्य मंदिरों में अद्भुत सजावटी मूर्तियाँ जैसे पुष्प, पशु, नर्तकी, और पौराणिक आकृतियाँ।

2. चित्रकला:

  • विजयालय चोलेश्वर और राजराजेश्वर मंदिरों की दीवारों पर भित्तिचित्र।
  • तंजावुर और गंगईकोंड चोलपुरम में दीवारों पर विशाल चित्र, जैसे नटराज और त्रिपुरांतक।
  • चोल कला और वास्तुकला ने दक्षिण भारत को न केवल सांस्कृतिक गौरव प्रदान किया, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया की कला और वास्तुकला को भी प्रभावित किया। उनके भव्य मंदिर आज भी भारतीय इतिहास और संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं।



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.