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भारत का इतिहास 300 ई. से 1200 ई. तक UNIT 4 SEMESTER 2 THEORY NOTES राष्ट्रकूट, पाल और प्रतिहार : त्रिपक्षीय संघर्ष HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत का इतिहास 300 ई. से 1200 ई. तक UNIT 4 SEMESTER 2 THEORY NOTES राष्ट्रकूट, पाल और प्रतिहार : त्रिपक्षीय संघर्ष  HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES


 परिचय 

आठवीं से तेरहवीं शताब्दी का काल भारत में राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक परिवर्तनों का दौर था। इस अवधि में राष्ट्रकूट, पाल, और प्रतिहार जैसे शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ। इन राज्यों के बीच कन्नौज पर नियंत्रण के लिए संघर्ष और विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न राजनीतिक प्रक्रियाएँ देखी गईं। यह काल दिल्ली सल्तनत की स्थापना से पहले भारत के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण था।

 प्रारंभिक मध्यकालीन भारत में राजनीतिक प्रक्रियाएँ 

प्रारंभिक मध्यकालीन भारत वह दौर है जब गुप्त साम्राज्य का पतन हो चुका था और दिल्ली सल्तनत का उदय नहीं हुआ था। यह काल प्राचीन काल से मध्यकाल तक संक्रमण की अवधि है। पहले इसे "डार्क एज" कहा जाता था क्योंकि इस समय कोई केंद्रीय अखिल भारतीय शक्ति नहीं थी। हालांकि, बाद के शोधों ने इस अवधि को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के दौर के रूप में चिह्नित किया है।

  • राज्यों का उदय: इस अवधि में प्रतिहार, पाल, राष्ट्रकूट, चोल, चंदेल, चाहमान जैसे कई राज्यों का उद्भव हुआ। कुछ राज्यों ने व्यापक क्षेत्रों पर शासन किया, जबकि अन्य छोटे क्षेत्रों तक सीमित रहे। हालांकि, राजनीतिक एकता की कमी के कारण यह काल खंडित शक्ति संरचना का प्रतीक बना।
  • सामंतवाद और भूमि-अनुदान: इस काल की राजनीति में 'सामंतवाद' का विकास एक प्रमुख प्रक्रिया थी। भूमि-अनुदान प्रथा के माध्यम से शासकों ने प्रशासनिक, राजस्व और न्यायिक अधिकार स्थानीय सामंतों को सौंप दिए। यह प्रथा पुजारियों से शुरू होकर योद्धाओं और अधिकारियों तक फैल गई। सामंतों को अनिवार्य सैन्य सेवा और कर के बदले स्वायत्तता दी गई। इससे शासन का विकेंद्रीकरण हुआ।
  • सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: सामंतवाद के उदय से स्थानीय और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। शहरी जीवन और वाणिज्य में गिरावट आई, सिक्के दुर्लभ हो गए। किसानों और मजदूरों की गतिशीलता पर प्रतिबंध लग गया। सामाजिक रूप से, 'कलियुग' की अवधारणा ने वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने का प्रयास किया।
  • क्षेत्रीय राजनीतिक मॉडल: दक्षिण भारत में बर्टन स्टीन ने 'सेगमेंटरी स्टेट मॉडल' की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसमें सत्ता का सीधा नियंत्रण केवल कोर क्षेत्र तक सीमित था, जबकि परिधीय क्षेत्र राजा के प्रति नाममात्र निष्ठा रखते थे। इसके विपरीत, बी.डी. चट्टोपाध्याय और हरमन कुलके ने राजनीतिक संरचनाओं को 'एकीकृत राजनीति' के रूप में देखा, जहाँ सत्ता स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर विकसित हुई।


 राष्ट्रकूट 

  • उदय और प्रारंभिक शासक: राष्ट्रकूट शक्ति का उदय बादामी के चालुक्यों के पतन के बाद हुआ। इसका संस्थापक दन्तिदुर्ग था, जिसने चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय को हराकर बादामी पर कब्जा कर लिया। उनके उत्तराधिकारी, कृष्ण I, को एलोरा में प्रसिद्ध कैलाश मंदिर के निर्माण का श्रेय दिया जाता है।
  • ध्रुव का शासन: ध्रुव ने गंगा, पल्लव, और वेंगी के शासकों को हराकर दक्कन का निर्विवाद अधिपति बन गया। उसने उत्तर भारत में कन्नौज के प्रतिहार शासक वत्सराज और पाल शासक धर्मपाल को हराया। हालांकि, वह कन्नौज पर अपनी जीत बनाए नहीं रख सका।
  • गोविंद III: गोविंद तृतीय राष्ट्रकूटों का सबसे महान शासक माना जाता है। उसने पल्लवों, प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय, और दक्षिण के चोल-पांड्य गठबंधन को हराया। उसकी सेनाओं ने कन्नौज से केप कोमोरिन (कन्याकुमारी) तक और बनारस से ब्रोच तक के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।
  • अमोघवर्ष I: अमोघवर्ष प्रथम ने मान्यखेत (आधुनिक मालखेड) को अपनी नई राजधानी बनाया। वे एक सक्षम शासक और कला के महान संरक्षक थे।
  • पतन और प्रभाव: बाद के शासक उतने प्रभावशाली नहीं थे, और दसवीं सदी के अंत में चालुक्यों ने राष्ट्रकूटों को सत्ता से हटा दिया। 753 से 975 ई. तक का काल दक्कन के इतिहास का सबसे शानदार अध्याय था। राष्ट्रकूटों ने उत्तर में प्रतिहार और पाल तथा दक्षिण में चोल और चालुक्यों जैसी शक्तियों को पराजित कर दक्कन में अपना वर्चस्व स्थापित किया।


 पाल वंश का उदय और प्रारंभिक शासक: 

पाल वंश की स्थापना गोपाल ने बंगाल में अराजकता समाप्त करने के लिए की। आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक उन्होंने बंगाल और बिहार पर शासन किया, जिसका आधार उपजाऊ भूमि और दक्षिण-पूर्व एशिया के व्यापारिक संबंध थे।

1. धर्मपाल और साम्राज्य विस्तार

धर्मपाल, गोपाल के उत्तराधिकारी, ने प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों से संघर्ष करते हुए कन्नौज पर कब्जा जमाया। उनका साम्राज्य तीन हिस्सों में बँटा था:

  • नाभिक क्षेत्र - बंगाल और बिहार।
  • निर्भर राज्य - कन्नौज।
  • जागीरदार राज्य - राजपूताना, मालवा आदि।

2. देवपाल का शासन

  • धर्मपाल के उत्तराधिकारी देवपाल ने साम्राज्यवादी नीति को आगे बढ़ाया। उन्होंने प्रतिहार शासकों और दक्षिण के चोलों को हराया। देवपाल कला के संरक्षक थे और उनके शासन में बोधगया के महाबोधि मंदिर का निर्माण हुआ।

3.पतन और पुनरुत्थान

  • दो महान शासकों, धर्मपाल और देवपाल, के बाद पाल साम्राज्य कमजोर हो गया। महीपाल ने साम्राज्य को पुनर्जीवित किया, लेकिन अंततः सेन वंश ने बारहवीं शताब्दी में पाल वंश का स्थान ले लिया।

4. प्रशासन और सांस्कृतिक योगदान

  • पाल शासन में "सामंतचक्र" के माध्यम से जागीरदारों का प्रभाव था। उन्होंने नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों का संरक्षण किया। महायान बौद्ध धर्म ने बंगाल में तांत्रिक रूप ग्रहण किया और तिब्बत व दक्षिण-पूर्व एशिया तक इसका प्रभाव फैल गया। पाल कला और वास्तुकला का प्रभाव भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखा गया।


गुर्जर-प्रतिहार

1. उदय और इतिहास

  • गुर्जर-प्रतिहार राजपूत क्षत्रिय थे, जिन्हें हरिश्चंद्र का वंशज माना जाता है। प्रतिहार नाम लक्ष्मण के "रक्षक" बनने से जुड़ा है। ये बहुदेववादी थे और विष्णु, शिव व भगवती की पूजा करते थे। आठवीं शताब्दी में कन्नौज पर कब्जा कर अपनी शक्ति बढ़ाई।

2.प्रमुख शासक और विजय

  • नागभट्ट I: उन्होंने अरबों की घुसपैठ को रोककर प्रतिहार साम्राज्य को एक मजबूत नींव प्रदान की। उनके शासनकाल में मालवा, गुजरात और राजपुताना के कुछ हिस्सों पर अधिकार स्थापित हुआ।
  • वत्सराज: वत्सराज ने बंगाल के पाल शासक धर्मपाल को हराया और उत्तर भारत के वर्चस्व के लिए त्रिकोणीय संघर्ष (पाल, राष्ट्रकूट, प्रतिहार) में भाग लिया। हालांकि, राष्ट्रकूट शासक ध्रुव के हाथों हारने के बाद उनकी शक्ति सीमित हो गई।
  • नागभट्ट II: उन्होंने मालवा, काठियावाड़ और विदर्भ पर विजय प्राप्त की और कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। हालांकि, राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष में हारने के कारण उनका साम्राज्य कमजोर हो गया।
  • मिहिर भोज: प्रतिहार वंश के सबसे शक्तिशाली शासक मिहिर भोज ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया और उत्तर भारत में एक मजबूत साम्राज्य का निर्माण किया। उन्होंने पाल और राष्ट्रकूट शासकों से संघर्ष किया और गुजरात, काठियावाड़ और पंजाब तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
  • महेन्द्रपाल: भोज के पुत्र महेन्द्रपाल ने अपने राज्य का पूर्व में विस्तार किया और कला एवं संस्कृति का संरक्षण किया।
  • पतन: महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद कमजोर शासकों के कारण साम्राज्य विघटित होने लगा। 1018 में महमूद गज़नी के आक्रमण ने इसे कमजोर कर दिया, और 1090 में राठौरों ने कन्नौज पर कब्जा कर लिया।
  • योगदान: गुर्जर-प्रतिहारों ने अरबों के आक्रमण रोके, कला व संस्कृति को संरक्षण दिया, और कन्नौज के माध्यम से उत्तर भारत में स्थायित्व बनाए रखने का प्रयास किया।


 पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूटों के त्रिपक्षीय संघर्ष 

1.कन्नौज का महत्व

  • कन्नौज, हर्षवर्धन के समय से प्रतिष्ठित, अपने सामरिक और भौगोलिक कारणों से सत्ता का केंद्र बन गया। यह दोआब के मध्य स्थित होने के कारण पूर्वी और पश्चिमी गंगा घाटी पर नियंत्रण का प्रतीक था। इसके भूमि और जल मार्गों से जुड़े होने के कारण तीन प्रमुख शक्तियों – पाल, प्रतिहार, और राष्ट्रकूट – ने इसे नियंत्रित करने के लिए संघर्ष किया।

2. संघर्ष की शुरुआत

आठवीं शताब्दी के अंत तक, प्रतिहार (उत्तर-पश्चिम), पाल (पूर्व), और राष्ट्रकूट (दक्षिण) शक्तिशाली राजवंश के रूप में उभरे।

  • वत्सराज (प्रतिहार): राजस्थान और उत्तर-पश्चिम भारत पर नियंत्रण।
  • गोपाल और धर्मपाल (पाल): बंगाल से पश्चिम की ओर विस्तार।
  • ध्रुव (राष्ट्रकूट): गंगा के मैदान पर आक्रमण कर वत्सराज और धर्मपाल को हराया।

3. शक्ति संतुलन

  • धर्मपाल ने कन्नौज पर अधिकार किया लेकिन नागभट्ट (वत्सराज के पुत्र) ने इसे जीत लिया। राष्ट्रकूट राजा गोविंद तृतीय ने भी कन्नौज पर आक्रमण किया। धर्मपाल के पुत्र देवपाल ने प्रतिहार और राष्ट्रकूट दोनों पर प्रभाव बढ़ाया।

4. सत्ता का केंद्र

  • नौवीं शताब्दी में प्रतिहार राजा भोज और महेंद्रपाल ने कन्नौज को शक्ति का केंद्र बनाए रखा। हालांकि, राष्ट्रकूट और पाल कमजोर पड़ने लगे।

5.संघर्ष का अंत और विदेशी आक्रमण

  • दसवीं शताब्दी के अंत तक प्रतिहार कन्नौज को बचाने में सफल रहे, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी। मुहम्मद गज़नी के आक्रमण (1001-1027 ई.) ने राजनीतिक व्यवस्था को और कमजोर किया, जिससे अंततः तुर्कों ने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया।




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