परिचय
आठवीं से तेरहवीं शताब्दी का काल भारत में राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक परिवर्तनों का दौर था। इस अवधि में राष्ट्रकूट, पाल, और प्रतिहार जैसे शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ। इन राज्यों के बीच कन्नौज पर नियंत्रण के लिए संघर्ष और विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न राजनीतिक प्रक्रियाएँ देखी गईं। यह काल दिल्ली सल्तनत की स्थापना से पहले भारत के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण था।
प्रारंभिक मध्यकालीन भारत में राजनीतिक प्रक्रियाएँ
प्रारंभिक मध्यकालीन भारत वह दौर है जब गुप्त साम्राज्य का पतन हो चुका था और दिल्ली सल्तनत का उदय नहीं हुआ था। यह काल प्राचीन काल से मध्यकाल तक संक्रमण की अवधि है। पहले इसे "डार्क एज" कहा जाता था क्योंकि इस समय कोई केंद्रीय अखिल भारतीय शक्ति नहीं थी। हालांकि, बाद के शोधों ने इस अवधि को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के दौर के रूप में चिह्नित किया है।
- राज्यों का उदय: इस अवधि में प्रतिहार, पाल, राष्ट्रकूट, चोल, चंदेल, चाहमान जैसे कई राज्यों का उद्भव हुआ। कुछ राज्यों ने व्यापक क्षेत्रों पर शासन किया, जबकि अन्य छोटे क्षेत्रों तक सीमित रहे। हालांकि, राजनीतिक एकता की कमी के कारण यह काल खंडित शक्ति संरचना का प्रतीक बना।
- सामंतवाद और भूमि-अनुदान: इस काल की राजनीति में 'सामंतवाद' का विकास एक प्रमुख प्रक्रिया थी। भूमि-अनुदान प्रथा के माध्यम से शासकों ने प्रशासनिक, राजस्व और न्यायिक अधिकार स्थानीय सामंतों को सौंप दिए। यह प्रथा पुजारियों से शुरू होकर योद्धाओं और अधिकारियों तक फैल गई। सामंतों को अनिवार्य सैन्य सेवा और कर के बदले स्वायत्तता दी गई। इससे शासन का विकेंद्रीकरण हुआ।
- सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: सामंतवाद के उदय से स्थानीय और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। शहरी जीवन और वाणिज्य में गिरावट आई, सिक्के दुर्लभ हो गए। किसानों और मजदूरों की गतिशीलता पर प्रतिबंध लग गया। सामाजिक रूप से, 'कलियुग' की अवधारणा ने वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने का प्रयास किया।
- क्षेत्रीय राजनीतिक मॉडल: दक्षिण भारत में बर्टन स्टीन ने 'सेगमेंटरी स्टेट मॉडल' की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसमें सत्ता का सीधा नियंत्रण केवल कोर क्षेत्र तक सीमित था, जबकि परिधीय क्षेत्र राजा के प्रति नाममात्र निष्ठा रखते थे। इसके विपरीत, बी.डी. चट्टोपाध्याय और हरमन कुलके ने राजनीतिक संरचनाओं को 'एकीकृत राजनीति' के रूप में देखा, जहाँ सत्ता स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर विकसित हुई।
राष्ट्रकूट
- उदय और प्रारंभिक शासक: राष्ट्रकूट शक्ति का उदय बादामी के चालुक्यों के पतन के बाद हुआ। इसका संस्थापक दन्तिदुर्ग था, जिसने चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय को हराकर बादामी पर कब्जा कर लिया। उनके उत्तराधिकारी, कृष्ण I, को एलोरा में प्रसिद्ध कैलाश मंदिर के निर्माण का श्रेय दिया जाता है।
- ध्रुव का शासन: ध्रुव ने गंगा, पल्लव, और वेंगी के शासकों को हराकर दक्कन का निर्विवाद अधिपति बन गया। उसने उत्तर भारत में कन्नौज के प्रतिहार शासक वत्सराज और पाल शासक धर्मपाल को हराया। हालांकि, वह कन्नौज पर अपनी जीत बनाए नहीं रख सका।
- गोविंद III: गोविंद तृतीय राष्ट्रकूटों का सबसे महान शासक माना जाता है। उसने पल्लवों, प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय, और दक्षिण के चोल-पांड्य गठबंधन को हराया। उसकी सेनाओं ने कन्नौज से केप कोमोरिन (कन्याकुमारी) तक और बनारस से ब्रोच तक के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।
- अमोघवर्ष I: अमोघवर्ष प्रथम ने मान्यखेत (आधुनिक मालखेड) को अपनी नई राजधानी बनाया। वे एक सक्षम शासक और कला के महान संरक्षक थे।
- पतन और प्रभाव: बाद के शासक उतने प्रभावशाली नहीं थे, और दसवीं सदी के अंत में चालुक्यों ने राष्ट्रकूटों को सत्ता से हटा दिया। 753 से 975 ई. तक का काल दक्कन के इतिहास का सबसे शानदार अध्याय था। राष्ट्रकूटों ने उत्तर में प्रतिहार और पाल तथा दक्षिण में चोल और चालुक्यों जैसी शक्तियों को पराजित कर दक्कन में अपना वर्चस्व स्थापित किया।
पाल वंश का उदय और प्रारंभिक शासक:
पाल वंश की स्थापना गोपाल ने बंगाल में अराजकता समाप्त करने के लिए की। आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक उन्होंने बंगाल और बिहार पर शासन किया, जिसका आधार उपजाऊ भूमि और दक्षिण-पूर्व एशिया के व्यापारिक संबंध थे।
1. धर्मपाल और साम्राज्य विस्तार
धर्मपाल, गोपाल के उत्तराधिकारी, ने प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों से संघर्ष करते हुए कन्नौज पर कब्जा जमाया। उनका साम्राज्य तीन हिस्सों में बँटा था:
- नाभिक क्षेत्र - बंगाल और बिहार।
- निर्भर राज्य - कन्नौज।
- जागीरदार राज्य - राजपूताना, मालवा आदि।
2. देवपाल का शासन
- धर्मपाल के उत्तराधिकारी देवपाल ने साम्राज्यवादी नीति को आगे बढ़ाया। उन्होंने प्रतिहार शासकों और दक्षिण के चोलों को हराया। देवपाल कला के संरक्षक थे और उनके शासन में बोधगया के महाबोधि मंदिर का निर्माण हुआ।
3.पतन और पुनरुत्थान
- दो महान शासकों, धर्मपाल और देवपाल, के बाद पाल साम्राज्य कमजोर हो गया। महीपाल ने साम्राज्य को पुनर्जीवित किया, लेकिन अंततः सेन वंश ने बारहवीं शताब्दी में पाल वंश का स्थान ले लिया।
4. प्रशासन और सांस्कृतिक योगदान
- पाल शासन में "सामंतचक्र" के माध्यम से जागीरदारों का प्रभाव था। उन्होंने नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों का संरक्षण किया। महायान बौद्ध धर्म ने बंगाल में तांत्रिक रूप ग्रहण किया और तिब्बत व दक्षिण-पूर्व एशिया तक इसका प्रभाव फैल गया। पाल कला और वास्तुकला का प्रभाव भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखा गया।
गुर्जर-प्रतिहार
1. उदय और इतिहास