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भारत का इतिहास 300 ई. से 1200 ई. तक UNIT 3 SEMESTER 2 THEORY NOTES 1. प्रारंभिक मध्यकाल की ओर : गुप्तोत्तर राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था तथा समाज में परिवर्त्तन HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत का इतिहास 300 ई. से 1200 ई. तक UNIT 3  SEMESTER 2 THEORY NOTES  1. प्रारंभिक मध्यकाल की ओर : गुप्तोत्तर राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था तथा समाज में परिवर्त्तन  HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES


परिचय 

इतिहास निरंतरता और परिवर्तन का वृत्तांत है, जिसमें लंबी अवधि की विशिष्ट प्रवृत्तियाँ और परिवर्तन शामिल होते हैं। भारतीय इतिहास को तीन प्रमुख कालों - प्राचीन, मध्यकाल और आधुनिक - में विभाजित किया गया है। इतिहासकारों ने मध्यकाल के आरंभ और सामंतवाद के उदय पर गहराई से विचार किया है, हालांकि मतभेद अब भी बने हुए हैं। इस इकाई में गुप्त काल के बाद की राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और सांस्कृतिक विकास का अध्ययन किया गया है।


 आरंभिक मध्यकालीन भारत की राजव्यवस्था 

भारत की आरंभिक मध्यकालीन राजव्यवस्था, प्राचीन काल की तुलना में भिन्न और जटिल थी। यह मौर्य साम्राज्य जैसे केंद्रीकृत और गुप्त साम्राज्य के संक्रमण के साथ विकसित हुई। इस काल के राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक ढाँचे ने भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त किया।

  • विकेंद्रीकरण का उदय: आरंभिक मध्यकालीन राजव्यवस्था विकेंद्रीकृत थी और सामंतवादी ढाँचे पर आधारित थी। मौर्य साम्राज्य में शासन पूरी तरह केंद्रीकृत था, जहाँ अशोक जैसे शासक हर घटना पर नज़र रखते थे। इसके विपरीत, गुप्त साम्राज्य और उसके पश्चात काल में विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी, जहाँ राजा केवल केंद्रीय क्षेत्रों पर सीधा नियंत्रण रखते थे, जबकि शेष क्षेत्रों का संचालन अधीनस्थ शासकों द्वारा किया जाता था।
  • राजकीय उपाधियों का प्रभाव: इस काल में शासकों ने अपनी राजनीतिक स्थिति और धार्मिक महत्व को प्रदर्शित करने के लिए भव्य और अलंकृत उपाधियाँ धारण कीं, जैसे 'महाराजाधिराज', 'परमभट्टारक', और 'परमेश्वर'। पल्लव शासक नरसिंह वर्मन द्वितीय ने तो 250 उपाधियाँ ग्रहण कीं। इन उपाधियों का मुख्य उद्देश्य शासकों की शक्ति का प्रदर्शन और स्थानीय जनता की स्वीकृति प्राप्त करना था, साथ ही ये उनके धार्मिक झुकाव को भी उजागर करती थीं।
  • सामंतवाद का विकास: सामंत प्रणाली इस काल की प्रमुख विशेषता थी। सामंत शासकों के सहायक के रूप में कार्य करते थे, सैनिक सेवाएँ प्रदान करते थे, और अधिपतियों के अभियानों में सहयोग करते थे। हालांकि, कमजोर केंद्रीय शासन का लाभ उठाते हुए कुछ सामंत स्वतंत्र शासक बन गए। इसका उदाहरण राष्ट्रकूटों द्वारा चालुक्य साम्राज्य का अधिग्रहण है, जो सामंतों की बढ़ती स्वतंत्रता को दर्शाता है।
  • प्रशासन और पदाधिकारियों की भूमिका: इस काल में प्रशासन पर शाही नियंत्रण कमजोर हुआ और स्थानीय पदाधिकारियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। नए पदनाम, जैसे 'महादंडनायक' और 'महासंधि विग्राहिका', प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा बने। भूमि-अनुदान प्रणाली के बढ़ते प्रचलन के कारण प्रशासनिक नौकरशाही में कमी आई, जिससे स्थानीय शासकों और सामंतों का प्रभाव बढ़ गया।
  • भूमि-अनुदान और स्वायत्तता: इस काल में भूमि-अनुदान प्रणाली के तहत अधिकारियों और धार्मिक संस्थाओं को वेतन के रूप में भूमि दी जाती थी। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वायत्तता बढ़ी और स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक गतिविधियाँ संगठित हुईं। दक्षिण भारत में 'उर', 'सभा', और 'नागरम' जैसी संस्थाएँ स्थानीय स्वशासन का केंद्र बनीं। विशेष रूप से तमिलनाडु में यह प्रणाली अत्यंत संगठित और प्रभावी रूप से कार्यरत थी।
  • क्षेत्रीय भिन्नताएँ: इस काल की राजव्यवस्था में क्षेत्रीय भिन्नताएँ स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थीं। उदाहरण के लिए, सौराष्ट्र में 'ध्रुव अधिकारी' की भूमिका थी, जबकि असम में 'लेखायित्री' और 'शासयित्री' जैसे विशेष पद विकसित हुए। उड़ीसा के कारा राज्य में महिला शासकों का अस्तित्व क्षेत्रीय प्रशासनिक विविधता और महिलाओं की शक्ति को दर्शाता है।
  • परंपराओं का संरक्षण: इस काल में कई प्राचीन परंपराएँ संरक्षित रहीं। शासक नियमित रूप से राज्य का दौरा करते थे, जिससे प्रशासनिक नियंत्रण और जनता से संपर्क बनाए रखा जाता था। विश्रामालयों का निर्माण यात्रा के दौरान सुविधा प्रदान करने के उद्देश्य से किया गया। इसके अलावा, स्थानीय प्रशासन में सहयोग की परंपरा भी जारी रही, जो शासन व्यवस्था को मजबूत बनाने में सहायक थी।


 आरंभिक मध्यकालीन भारत की अर्थव्यवस्था 

आरंभिक मध्यकालीन भारत की अर्थव्यवस्था प्राचीन काल से एक संक्रमण काल का प्रतीक है। भूमि-अनुदानों, पुरातात्त्विक साक्ष्यों, सिक्कों और साहित्यिक स्रोतों से इसके आर्थिक पहलुओं को समझा जा सकता है। कृषि, व्यापार, शिल्प उत्पादन और नगरीकरण में इस दौर में बड़े बदलाव हुए।

1. कृषि का विस्तार और विकास

  • भूमि-अनुदान: भूमि-अनुदान प्रणाली के तहत ब्राह्मणों और मंदिरों को भूमि दी गई। इससे कृषि का विस्तार हुआ और सामाजिक-धार्मिक संस्थाएँ सशक्त हुईं।
  • कृषि-सुविधाएँ: कश्मीर के राजा ललितादित्य ने पनचक्कियों का वितरण किया, और पल्लव व पांड्य राज्यों ने सिंचाई प्रणालियाँ बनाईं। इससे उत्पादन और अर्थव्यवस्था में वृद्धि हुई।
  • कृषि का प्रभाव: कृषि के विस्तार ने नए राज्यों और समुदायों का निर्माण किया, जिससे सामाजिक-आर्थिक संरचना में बदलाव आया।


2. भूपतियों का उदय और कृषकों की स्थिति

  • भूपतियों का निर्माण: भूमि-अनुदान प्रणाली से भूपति वर्ग का उदय हुआ। धार्मिक संस्थाओं और व्यक्तियों को भूमि देकर उन्हें प्रशासन, राजस्व संग्रह और स्थानीय शासन की जिम्मेदारी सौंपी गई।
  • कृषकों की स्थिति: कृषकों की स्थिति पर मतभेद हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि सामंतवाद के कारण कृषक कमजोर हुए और सामंतों के अधीन आ गए। जबकि अन्य के अनुसार, अधिकांश कृषक स्वतंत्र रहे और भूमि पर उनके अधिकार बने रहे।


3. शिल्प उत्पादन, व्यापार और नगरीकरण

  • शिल्प और व्यापार: इस दौर में शिल्प और व्यापार में गिरावट आई। ग्रामीण अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर बन गई, और शिल्पकारों ने किसानों के साथ गैर-बाज़ारी लेन-देन शुरू किया। विदेशी व्यापार कमजोर हुआ, विशेषकर पश्चिमी रोमन साम्राज्य और चीन के साथ।
  • नगरीकरण का पतन: शहरी क्षेत्रों में पेशेवरों ने ग्रामीण जीवन अपनाया, जिससे नगरों का पतन हुआ। व्यापार और सिक्कों का उपयोग घटा, जिससे शहरी अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ गई।


4. नगरीकरण और व्यापार पर विवाद

  • नगरीकरण और व्यापार की गिरावट पर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ इसे अस्वीकार करते हैं, जबकि अन्य इसे सीमित पैमाने पर मानते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, यह गिरावट गंगा घाटी तक सीमित नहीं थी, बल्कि व्यापक प्रभाव था।


5. बंद अर्थव्यवस्था की अवधारणा

  • ग्रामीण इकाइयाँ आत्मनिर्भर बन गईं और स्थानीय लेन-देन तक सीमित रहीं। हालांकि, कुछ विद्वान मानते हैं कि व्यापार और नगरीकरण में निरंतरता थी, जो क्षेत्रीय व्यापारिक गतिविधियों में दिखती है।


6. आर्थिक अंतर्विरोध और शोध की आवश्यकता

  • व्यापार, नगरीकरण और सिक्कों की कमी पर मतभेद हैं। अर्थव्यवस्था के संतुलित दृष्टिकोण के लिए कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के गहन शोध की आवश्यकता है।



 आरंभिक मध्यकालीन भारत का समाज 

आरंभिक मध्यकालीन भारत सामाजिक परिवर्तन का समय था। जाति व्यवस्था का विस्तार, स्त्रियों की स्थिति में बदलाव और नए सामाजिक वर्गों का उदय इसकी मुख्य विशेषताएँ थीं। राजनीतिक और आर्थिक बदलावों ने समाज को नई दिशा दी।

1. जाति-व्यवस्था का विस्तार और परिवर्तन

  • जातियों का संघटन: जाति-व्यवस्था और गहरी हो गई। प्रत्येक जाति ने अपने भीतर ही वैवाहिक संबंध बनाए रखे। यह व्यवस्था न केवल सामाजिक संगठन बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को भी प्रभावित करती थी।
  • नए जातीय समूह: हूण, गुर्जर, और कलचूरी जैसे समुदाय भारतीय समाज में शामिल हुए। गुर्जरों ने छोटे कृषक वर्ग और गुर्जर-प्रतिहार जैसे शासकों के रूप में अपनी पहचान बनाई। शबर और अन्य कबीलाई समूह समाज का हिस्सा बनकर इसकी विविधता बढ़ाने में योगदान दिया।
  • कायस्थों का अभ्युदय: कायस्थ एक पेशेवर वर्ग से जातीय समूह में परिवर्तित हुए। यह वर्ग प्रशासनिक और लेखन कार्यों में सक्रिय था। ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण समुदायों के विलय से यह प्रभावशाली समूह उभरा।


2. अस्पृश्यता और जातीय भेदभाव

  • अस्पृश्य जातियाँ: आरंभिक मध्यकालीन समाज में अस्पृश्य जातियाँ एक कठोर सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा थीं। चांडाल और श्वपच जैसे वर्ग इस व्यवस्था को दर्शाते हैं। चीनी यात्रियों ह्वेनसांग और फाहियान के विवरणों से अस्पृश्यता से जुड़े नियमों और भेदभाव की जानकारी मिलती है। इसके साथ ही, कई आदिवासी समूहों को शूद्र या अस्पृश्य जातियों में शामिल कर उनकी स्थिति और निम्न कर दी गई।
  • दास-प्रथा: गुप्तकाल से आरंभिक मध्यकाल तक दास-प्रथा में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।


3. नारी की स्थिति और सती प्रथा

  • स्त्रियों की सामाजिक स्थिति का पतन: आरंभिक मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति कमजोर हो गई। विवाह के बाद उनकी प्राक-वैवाहिक पहचान समाप्त हो गई, और वे केवल पति या परिवार से पहचानी जाने लगीं, जिससे उनकी स्वतंत्रता सीमित हुई।
  • सती प्रथा: सती प्रथा का प्रसार हुआ, जहाँ विधवाओं को पति की चिता पर आत्मदाह के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसे बाणभट्ट जैसे विद्वानों ने अमानवीय कहा, और तांत्रिक परंपराओं ने इसे अस्वीकार किया।
  • धार्मिक स्वतंत्रता: शूद्रों और महिलाओं को धार्मिक ग्रंथ सुनने और पूजा करने का अधिकार दिया गया। इससे उन्हें धार्मिक गतिविधियों में सीमित भागीदारी मिली और धार्मिक संस्थाएँ मजबूत हुईं।
  • विधवा और श्रमिक नारियाँ: उच्च वर्ग की विधवाओं पर सख्त सामाजिक नियम लागू थे, जबकि श्रमिक वर्ग की महिलाएँ तुलनात्मक रूप से स्वतंत्र थीं। उनका आर्थिक योगदान समाज में उनकी सक्रिय भूमिका सुनिश्चित करता था।


4. सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन

  • आदिवासी समाज का समावेश: आरंभिक मध्यकाल में कई आदिवासी समुदाय जातीय समाज में शामिल हुए। कुछ को शूद्र या निम्न जातियों में समाहित किया गया, जबकि कुछ कबीलाई सरदारों ने क्षत्रिय का दर्जा पाने का दावा किया। इससे समाज की संरचना अधिक जटिल और विविध हो गई।
  • पेशों का परिवर्तन: कृषि, जो पहले वैश्यों का कार्य मानी जाती थी, इस काल में शूद्रों का मुख्य पेशा बन गई। यह या तो शूद्रों की प्रगति का संकेत था या कृषि कार्य की प्रतिष्ठा में गिरावट को दर्शाता था।


5. सामाजिक संरचना और विचारधारा

  • वर्ण और जाति के संबंध:वर्ण और जाति के बीच गहरा संबंध था। जातियाँ वर्ण व्यवस्था के अनुसार संगठित थीं। समाज में आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों ने वर्ण और जाति की भूमिका को समय-समय पर प्रभावित और परिभाषित किया।
  • ब्राह्मणवादी समाज की सीमाएँ: ब्राह्मणवादी सिद्धांतों ने स्त्रियों और निम्न वर्गों को नियंत्रित करने का प्रयास किया।स्त्रीधन और धार्मिक अधिकार जैसे सुधार सतही थे।




 2. वर्धन, पल्लव और चालुक्य-सांस्कृतिक विकास 

भारतीय इतिहास में प्राचीन से मध्य काल का संक्रमण, जिसे आरंभिक मध्य काल कहा जाता है, एक महत्वपूर्ण बदलाव का दौर था। इस समय पल्लव, चालुक्य और वर्धन जैसे प्रमुख राजवंशों ने राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में अहम भूमिका निभाई। साथ ही, इन परिवर्तनों ने सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को भी गहराई से प्रभावित किया।


 वर्धन, पल्लव और चालुक्य 

1.वर्धन

  • गुप्त शासन के पतन के बाद छठी सदी में उत्तरी भारत में कई छोटे राज्यों का उदय हुआ, जिनमें थानेश्वर (हरियाणा) में पुष्यभूतियों का शासन प्रमुख था। पुष्यभूति शासक अपने नाम के साथ "वर्धन" लगाते थे, जैसे हर्षवर्धन। हर्ष ने अपनी बहन राज्यश्री के अधिकार की रक्षा करते हुए कन्नौज और थानेश्वर के राज्यों को मिलाकर एक बड़े साम्राज्य की स्थापना की। हर्ष की मृत्यु (647 ई.) के बाद साम्राज्य बिखर गया।
  • ह्वेनसांग के अनुसार, हर्ष ने राज्य आय को चार भागों में बाँटा- सरकारी कार्य, लोक सेवक वेतन, बौद्धिक पुरस्कार और उपहार।


2. पल्लव 

  • पल्लव वंश दक्षिण भारत में तीसरी से आठवीं सदी तक सत्ता में रहा। इनकी राजधानी कांचीपुरम थी। छठी सदी में वे एक बड़ी शक्ति बन गए और पांड्य तथा चालुक्यों से युद्ध करते हुए अपने साम्राज्य की रक्षा की। आठवीं सदी के मध्य में उनकी शक्ति कमजोर हो गई।


3.चालुक्य

  • चालुक्य वंश का उदय छठी सदी में पश्चिमी दक्कन (महाराष्ट्र और कर्नाटक) में हुआ। इनकी राजधानी वातापी (बादामी) थी। आठवीं सदी में राष्ट्रकूटों ने इन्हें पराजित किया। चालुक्यों की पूर्वी शाखा ने आंध्र प्रदेश में पाँच शताब्दियों तक शासन किया।



भारतीय संस्कृति: आरंभिक मध्यकालीन काल का विकास


सांस्कृतिक स्रोत

आरंभिक साहित्य और स्मारक सांस्कृतिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। स्मारकों और साहित्य का अध्ययन ऐतिहासिक, सर्जनात्मक, और वैज्ञानिक उपलब्धियों को समझने में सहायक है।


1. भाषायी विकास

  • मध्य भारतीय-आर्य भाषाएँ: 600 ई. से मध्य भारतीय-आर्य भाषाओं के तीसरे चरण, जिसे अपभ्रंश कहते हैं, का उद्भव हुआ। इसी से हिंदी और मराठी जैसी आधुनिक भारतीय-आर्य भाषाएँ विकसित हुईं। संस्कृत, जो धर्म और राज्य की भाषा थी, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में संप्रेषण का माध्यम बनी रही। इस काल में जैन धर्म ने भी अपनी अर्द्ध-मागधी प्राकृत भाषा को त्यागकर संस्कृत को अपनाया।
  • दक्षिण भारतीय भाषाएँ: तमिल, कन्नड़ और तेलुगु जैसी भाषाओं का विकास जारी रहा। तमिल को भक्ति आंदोलन ने बढ़ावा दिया। छठी सदी में कन्नड़ साहित्य में दुर्विनीत जैसे लेखक उभरे। तेलुगु में साहित्यिक भाषा के रूप में विकास के प्रमाण पाँचवीं और छठी सदी के शिलालेखों से मिलते हैं।


2. धर्म

  • ब्राह्मणवाद और भक्ति आंदोलन: पौराणिक मंदिर-आधारित ब्राह्मण-संप्रदाय, जैसे वैष्णव और शैव, उन्नति पर थे। दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन ने धार्मिक जीवन में भावनात्मक तीव्रता लाई। नयनार (शैव संत) और आलवार (वैष्णव संत) ने धार्मिक प्रसार के लिए यात्रा, गीत, और नृत्य का सहारा लिया। इस आंदोलन ने सामाजिक न्याय की दिशा में योगदान दिया और जातीय कठोरता को कम किया।
  • बौद्ध और जैन धर्म: बौद्ध धर्म ने सौराष्ट्र और नालंदा जैसे क्षेत्रों में अपनी स्थिति बनाए रखी, जबकि दक्षिण भारत में ब्राह्मणवाद के प्रभाव के कारण इसका पतन हुआ। जैन धर्म ने भी कई क्षेत्रों में लोकप्रियता बनाए रखी, लेकिन दक्षिण भारत में यह ब्राह्मणवाद से संघर्ष के कारण कमजोर हो गया।
  • इस्लाम और ईसाई धर्म: इस्लाम का आगमन पश्चिमी तट और सिंध क्षेत्र में हुआ। ईसाई धर्म का प्रसार छठी सदी में मालाबार से प्रायद्वीप के पूर्वी तट तक हुआ।
  • तांत्रिकवाद: तांत्रिकवाद ने नारी दैवी-शक्ति की अवधारणा को रहस्यमय और ऐंद्रजालिक अभ्यासों से जोड़ा। यह धर्म ब्राह्मणवाद और बौद्ध धर्म दोनों में प्रभावशाली था।



 कला और स्थापत्य 

  • स्थापत्य: प्रस्तर स्थापत्य दो रूपों में विकसित हुआ:

1. शैल निर्मित स्थापत्य: अजंता और एलोरा जैसे शैल-निर्मित मंदिर और मठ, जो कृत्रिम गुफाओं के रूप में बने।

2. संरचनात्मक स्थापत्य: प्रस्तर और ईंट से बने स्वतंत्र ढाँचे, जैसे भीतर गाँव और देवगढ़ के मंदिर।

गुप्तकाल में गर्भगृहों पर शिखर जोड़ने की परंपरा प्रारंभ हुई। 700 ई. तक मंडप (सभा कक्ष) जैसे नए तत्व जुड़ गए। कांचीपुरम के वैकुंठनाथ पेरुमल मंदिर में मध्यकालीन मंदिर की सभी विशेषताएँ मिलती हैं।

  • मूर्तिकला: मूर्तिकला में गोलाकार आयतन और चिकनी रेखाओं की परंपरा जारी रही। हालांकि मध्यकालीन शैली, जिसमें तीखे वक्र और सपाट तले अधिक थे, विकसित हो रही थी। सारनाथ के धामेक स्तूप पर छठी सदी की चित्रावल्लरी इसका प्रमाण है।
  • चित्रकला: इस काल की चित्रकला निजी आवासों, महलों और धार्मिक स्थानों की दीवारों पर देखी जाती थी। अजंता, एलोरा, और बादामी की गुफाएँ उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इन चित्रों में प्रकाश-छाया तकनीक का उपयोग हुआ, जिससे त्रिआयामी चित्रण संभव हुआ। एलोरा की आठवीं सदी की चित्रकारी मध्यकालीन शैली के विकास का संकेत देती है। 



विज्ञान के क्षेत्र में विकास

1. गणित और खगोल शास्त्र

  • ब्रह्मगुप्त: ब्रह्मगुप्त ने गणित में ऋणात्मक संख्याओं को 'ऋण' और सकारात्मक को 'धन' के रूप में परिभाषित किया। उन्होंने पाइथागोरस प्रमेय के प्रमाण और खगोल शास्त्र में चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण व ग्रहों की गति पर शोध किया। उन्होंने एक वेधशाला की स्थापना कर खगोलीय अध्ययन को आगे बढ़ाया।
  • सूर्य सिद्धांत: सूर्य सिद्धांत पाँचवीं सदी से खगोल शास्त्र का मुख्य आधार बना। इसका 628-960 ई. के बीच विकसित संस्करण अत्यधिक लोकप्रिय हुआ और खगोल विज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
  • अन्य खगोलविद: अन्य खगोलविद भास्कर और लल्ला ने खगोल शास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। तमिल क्षेत्र में पुरानी खगोल परंपराएँ सूर्य सिद्धांत की त्रिकोणमितीय विधियों से अलग विकसित होती रहीं।


2. चिकित्सा

  • वाग्भट: वाग्भट दो प्रसिद्ध आयुर्विज्ञानी थे। प्रथम वाग्भट ने 'अष्टांग संग्रह' और द्वितीय वाग्भट ने 'अष्टांग-हृदय-संहिता' की रचना की। दोनों बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में उनका योगदान महत्वपूर्ण है।
  • आयुर्विज्ञान और शिक्षा: नालंदा और विक्रमशिला के विहारों में आयुर्विज्ञान का गहन अध्ययन होता था, जो बौद्ध धर्म और चिकित्सा विज्ञान के गहरे संबंध को दर्शाता है। इस काल में गणित, खगोल शास्त्र और चिकित्सा के क्षेत्र में हुए विकास ने भारत की वैज्ञानिक परंपरा को समृद्ध किया।



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