ईसा की चौथी से सातवीं सदी प्राचीन भारत के इतिहास में संक्रमण की महत्वपूर्ण अवधि है, जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक बदलावों से भरी थी। इस काल से जुड़े मतांतर गुप्त और गुप्तोत्तर भारत के अध्ययन को समृद्ध करते हैं।
ऐतिहासिक प्रवृत्तियाँ
- औपनिवेशिक दृष्टिकोण: ब्रिटिश इतिहासकारों जैसे विंसेंट स्मिथ ने प्राचीन भारत को 'अंधकार युग' कहा, जिससे औपनिवेशिक शासकों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति को वैधता मिली।
- राष्ट्रवादी दृष्टिकोण: राष्ट्रवादी इतिहासकारों, जैसे आर.सी. मजुमदार, ने गुप्त काल को 'स्वर्णयुग' कहा है। उन्होंने इसे राष्ट्रीय एकता, आर्थिक समृद्धि, और सांस्कृतिक उपलब्धियों का प्रतीक माना।
- मार्क्सवादी दृष्टिकोण: आर.एस. शर्मा और अन्य मार्क्सवादी इतिहासकारों ने गुप्त काल को 'भारतीय सामंतवाद' के विकास का समय माना। उन्होंने भूमि अनुदान और ब्राह्मणों व मंदिरों को कर अधिकार देने की प्रक्रिया को आर्थिक और राजनीतिक विकेंद्रीकरण का कारण बताया।
- समाकलनात्मक दृष्टिकोण: बी.डी. चट्टोपाध्याय और हर्मेन कुल्के ने गुप्तकालोत्तर काल में राजनीतिक सत्ता के समाकलनात्मक मॉडल पर जोर दिया, जिसमें छोटे और क्षेत्रीय राज्यों का विकास हुआ।
स्वर्णयुग का मिथक
गुप्त काल को 'स्वर्णयुग' इसलिए माना गया क्योंकि इस समय संस्कृत साहित्य और कला का उत्कर्ष हुआ। इसे 'ब्राह्मणीय पुनर्जागरण' के रूप में भी देखा गया।
- आलोचना: स्वर्णयुग की अवधारणा केवल उच्च वर्ग तक सीमित थी और साधारण लोगों की स्थिति को नजरअंदाज किया गया। पुरातात्त्विक साक्ष्य दर्शाते हैं कि आम जनता का जीवन सामान्य या उससे भी अधिक कठिन था।
- गुप्तकालीन श्रेण्यवाद: गुप्तकाल श्रेण्यवादी (classicism) संस्कृति के विकास का परिणाम था, जो इससे पहले शुरू हो चुकी थी। तकनीकी और साहित्यिक विकास मुख्यतः उच्च वर्ग तक सीमित रहा। पुरातात्त्विक साक्ष्य संकेत देते हैं कि गुप्तकाल से पहले औसत जीवन स्तर संभवतः बेहतर था।
गुप्तों का उद्भव
गुप्त वंश का प्रारंभिक इतिहास स्पष्ट नहीं है। उनका मूल क्षेत्र गंगा के पश्चिमी मैदान में था। कुछ उन्हें वैश्य तो कुछ ब्राह्मण मानते हैं। कुषाणों के पतन के बाद वे एक छोटे राज्य से उभरे।
- चन्द्रगुप्त प्रथम: चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्यारोहण (319-20 ई.) के साथ गुप्त वंश का विस्तार हुआ। लिच्छवी परिवार से विवाह ने उन्हें राजनीतिक मान्यता दी। उनका राज्य मगध, साकेत, और प्रयाग तक फैला था।
- समुद्रगुप्त: समुद्रगुप्त (335-375 ई.) ने अपने विजय अभियानों से गुप्त साम्राज्य को सुदृढ़ किया। उनकी इलाहाबाद प्रशस्ति विभिन्न क्षेत्रों की विजय और कर-स्वीकृति का वर्णन करती है। उन्होंने उत्तर भारत, दक्षिण, और पूर्वी क्षेत्रों पर प्रभुत्व स्थापित किया। उनकी सफलताएँ विविधता में विशिष्ट थीं।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय: चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-415 ई.) ने शकों को पराजित कर पश्चिमी भारत को अपने साम्राज्य में जोड़ा। इससे व्यापारिक मार्ग सुरक्षित हुए। उनका शासन सांस्कृतिक और व्यापारिक उन्नति का काल था।
गुप्त राजाओं ने अपनी सैन्य, सांस्कृतिक, और प्रशासनिक नीतियों से भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया।
वाकटक वंश
वाकटक वंश चौथी से छठी शताब्दी के बीच मध्य भारत और उत्तरी दक्कन में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति था। इसका विकास तीन दौरों में विभाजित किया जा सकता है:
- प्रारंभिक दौर: विंध्यशक्ति से रुद्रसेन द्वितीय तक (चौथी सदी) वाकटक शासकों का शासन रहा। उन्होंने विदर्भ और उसके आसपास प्रभाव स्थापित किया।
- प्रभावती गुप्त का शासन: चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त ने रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु के बाद अपने पुत्र के संरक्षक के रूप में शासन किया। उनके काल में गुप्तों का वाकटक दरबार पर प्रभाव बढ़ा।
- प्रवरसेन द्वितीय का दौर: प्रवरसेन द्वितीय के शासनकाल में क्षेत्रीय और राजनीतिक एकीकरण हुआ। भूमि-अनुदानों से स्थानीय सरदारों को शामिल कर विदर्भ को मजबूत किया गया।
सांस्कृतिक योगदान : वाकटक काल स्थापत्य और चित्रकला के क्षेत्र में प्रसिद्ध रहा। अजंता गुफाएँ इस कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
गुप्त प्रशासन
गुप्तकाल में प्रशासन प्रणाली केंद्रीकृत की अपेक्षा विकेंद्रीकृत थी। राजा प्रशासन का केंद्र था, लेकिन स्थानीय अधिकारियों और परिषदों को अधिक स्वतंत्रता दी गई।
1.राजकीय उपाधियाँ
गुप्त राजाओं ने भव्य उपाधियाँ, जैसे महाराजाधिराज और परमेश्वर, धारण कीं। हालांकि, समय के साथ इनका महत्त्व कम हो गया। इन उपाधियों में उत्तर-पश्चिम के शासकों का प्रभाव दिखता है, जिनमें देवत्व का पुट भी था।
2. प्रशासनिक संरचना
- केंद्र और प्रांत: गुप्तों का सीधा नियंत्रण गंगा घाटी पर था। प्रांतों (भुक्ति) को कई जिलों (विषय) में विभाजित किया गया था, जिनका संचालन राजकुमार (उपराजा) करते थे। स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी अधिकांश निर्णय स्वतंत्र रूप से लेते थे।
- ग्रामीण और शहरी प्रशासन: गाँवों में प्रशासन ग्राम-अध्यक्ष या कुटुम्बी के अधीन था। नगर प्रशासन एक परिषद के माध्यम से संचालित होता था, जिसमें नगर श्रेष्ठी, सार्थवाह, प्रथम-कुलिक, और प्रथम-कायस्थ शामिल थे।
3. आर्थिक नीति
गुप्त राज्य की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित थी।गुप्त काल में राजा ने बंजर भूमि को खेती योग्य बनाने और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए भूमि-अनुदान दिए। ये अनुदान विशेष रूप से गंगा क्षेत्र के बाहर के इलाकों को कृषीय गतिविधियों में शामिल करने के उद्देश्य से प्रदान किए गए। स्थानीय स्तर पर इन क्षेत्रों में कृषीय अधिवासों की स्थापना में अनुदान प्राप्तकर्ताओं की सक्रिय भागीदारी आवश्यक थी।
भूमि-अनुदान
गुप्त काल में भूमि-अनुदान धार्मिक, आर्थिक, और राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। यह प्रणाली समय के साथ विकसित हुई और राज्य प्रशासन एवं समाज पर व्यापक प्रभाव डाला।
1. धार्मिक और सामाजिक उद्देश्य:
भूमि को कर-मुक्त अनुदान के रूप में ब्राह्मणों, मठों, और मंदिरों को प्रदान किया जाता था।
- ब्राह्मणों को अनुदान: यह उनकी धार्मिक विशेषज्ञता को सम्मानित करने और राजवंश को वैधता प्रदान करने के लिए दिया जाता था।
- मठ और मंदिर: ये स्थानीय प्रशासन का हिस्सा बन गए और धार्मिक पंथों को संगठित करने में सहायक सिद्ध हुए।
2. आर्थिक उद्देश्य
गुप्त काल में भूमि-अनुदान का उद्देश्य बंजर और जंगली भूमि पर कृषि को बढ़ावा देना था।
- कृषि उन्नति: ब्राह्मणों ने कृषि पुस्तिकाओं का अध्ययन कर खेती की तकनीकों को उन्नत किया।
- शिल्प और वाणिज्य: शिल्पी संघों और वाणिज्यिक संस्थाओं को प्रोत्साहन देकर आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया गया।
3.राजनीतिक उद्देश्य
गुप्त काल में भूमि-अनुदान को राजस्व संग्रह के विकल्प के रूप में उपयोग किया गया।
- पदाधिकारियों को अनुदान: सैनिक और प्रशासनिक सेवाओं के लिए पदाधिकारियों को भूमि-अनुदान प्रदान किया जाता था।
- विकेंद्रीकरण: यह प्रक्रिया स्थानीय स्तर पर शक्ति बढ़ाने का कारण बनी और राजनीतिक विकेंद्रीकरण को प्रोत्साहित किया।
सामंतवाद और सत्ता का विकेंद्रीकरण
1. सामंत व्यवस्था
गुप्त काल में पराजित शासकों को अधीनस्थ शासक या सामंत के रूप में नियुक्त किया गया।
- सामंतों की शक्ति: समय के साथ सामंतों की शक्ति बढ़ने लगी, जिससे राजाओं की केंद्रीय सत्ता कमजोर हुई।
- केंद्रीय सत्ता को चुनौती: सामंत शासकों ने अपने संसाधनों और शक्ति का उपयोग केंद्रीकृत सत्ता को चुनौती देने के लिए किया।
2. विकेंद्रीकरण
भूमि-अनुदान की प्रथा ने केंद्रीय सत्ता को कमजोर किया। शक्तिशाली अनुदान-ग्राही सीमांत क्षेत्रों में अपनी स्वायत्तता स्थापित करते हुए राजा के रूप में उभर सकते थे।
3. धार्मिक और सामाजिक प्रभाव
ब्राह्मणों को दिए गए अनुदानों ने धार्मिक प्रचार को बढ़ावा दिया।
- सामंजस्य: पौराणिक संप्रदायों और स्थानीय धर्मों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के प्रयास किए गए।
- परंपराओं का समावेश: धार्मिक अनुष्ठान और वैदिक ब्राह्मणवाद को स्थानीय परंपराओं में समाहित किया गया।
गुप्तकालीन धार्मिक जीवन
- ब्राह्मणवादी पुनर्जागरण: गुप्तकाल को ब्राह्मण धर्म के पुनर्जीवन का काल माना गया। इस समय ब्राह्मणीय ग्रंथों और संस्कृत साहित्य को प्रोत्साहन मिला। संस्कृत भाषा का प्रभाव बढ़ा लेकिन यह मुख्यतः शिक्षित और अभिजात वर्ग तक सीमित रही।
- अन्य धर्मों की स्थिति
1. बौद्ध धर्म: गुप्तकाल में भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होने लगा। यह तांत्रिक परंपराओं से प्रभावित होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ, जहाँ देवी "तारा" की पूजा प्रमुख हो गई।
2. जैन धर्म: जैन धर्म को व्यापारी समुदाय और दक्षिण भारत में राजकीय संरक्षण मिला। मूर्तिपूजा का विकास हुआ और तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनाईं गईं।
- देवी-पूजा और तांत्रिक परंपराएँ: देवी-पूजा ने गुप्तकाल में प्रमुख धार्मिक स्वरूप ग्रहण किया। देवी को शक्ति, ऊर्जा, और प्रजनन क्षमता का प्रतीक माना गया। तांत्रिक विश्वासों और योगिनियों की पूजा ने धार्मिक जीवन को प्रभावित किया।
- वैदिक और पौराणिक धर्म: गुप्तकाल में वैदिक यज्ञ की परंपरा घटने लगी और प्रतिमा-पूजा का प्रचलन बढ़ गया। भक्ति परंपरा का विकास हुआ, जिससे तीर्थ यात्राएँ और धार्मिक अनुष्ठानों में आम लोगों की भागीदारी बढ़ी। इस समय पुराणों की रचना भी हुई।
- दक्षिण भारत और भक्ति आंदोलन: दक्षिण भारत में तमिल भक्ति आंदोलन का विकास हुआ। वैष्णव और शैव संतों (अलवार और नयनार) की कविताएँ प्रसिद्ध हुईं। इन कविताओं का संग्रह "नालयिरा दिव्य प्रबंध" में किया गया।
- शंकराचार्य और नव-वेदांत: शंकराचार्य ने नव-वेदांत दर्शन का प्रतिपादन किया, जिससे ब्राह्मणवाद को पुनर्जीवन मिला। उन्होंने धार्मिक चुनौतियों का सामना करते हुए वैदिक परंपराओं को सशक्त किया।
- मंदिर और स्थापत्य कला: गुप्तकाल में मंदिर सामाजिक और धार्मिक जीवन के केंद्र बन गए। पत्थर के मंदिरों का निर्माण प्रारंभ हुआ। महाबलीपुरम का तटीय मंदिर और ऐहोल के मंदिर स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
कला और संरक्षण (गुप्तकाल)
गुप्तकाल में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई, जो धार्मिक और सांस्कृतिक संरक्षण के तहत विकसित हुई।
- मंदिर स्थापत्य: गुप्तकाल के मंदिरों में गर्भगृह मुख्य कक्ष था, जहाँ देवता की प्रतिमा रखी जाती थी। प्रमुख उदाहरण हैं सांची, ऐहोल, तिगवा, भूमरा, नचना-कुठरा, और देवगढ़। देवगढ़ का दशावतार मंदिर विष्णु को समर्पित है। शैलकृत मंदिरों में अजंता, एलोरा, और उड़ीसा के ललितगिरी, रत्नागिरी, व उदयगिरी प्रमुख हैं।
- गुफा स्थापत्य: अजंता और एलोरा की शैलकृत गुफाएँ मूर्तियों और भित्ति चित्रों से सजी हैं। इन गुफाओं में जातक कथाओं और बुद्ध के जीवन से प्रेरित चित्रण प्रमुख हैं।
- मूर्ति कला: गुप्तकाल में मूर्ति कला का विकास उच्च स्तर पर हुआ। बौद्ध मूर्तियाँ सारनाथ, मथुरा, कुशीनगर, और बोधगया में बनीं। वैष्णव और शैव देवताओं की मूर्तियाँ भी लोकप्रिय थीं। कांस्य मूर्तिकला का उदाहरण सुलतानगंज में मिली बुद्ध की कांस्य प्रतिमा है।
- चित्रकला और भित्तिचित्र: अजंता की गुफाओं में भित्तिचित्र साहित्य और धार्मिक कथाओं को चित्रित करते हैं। इन भित्तिचित्रों और मूर्तिकला में सौंदर्य और श्रेण्य कला का अद्वितीय प्रदर्शन मिलता है।
- लोकप्रिय और सुलभ कला: पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ जनसामान्य में प्रचलित थीं, जबकि पत्थर और कांस्य मूर्तियाँ मुख्यतः संपन्न वर्ग तक सीमित रहीं।
गुप्तकालीन साहित्य
गुप्तकाल में साहित्य और भाषा का व्यापक विकास हुआ, जो इस युग की सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाता है।
1. धार्मिक साहित्य
- पुराण: विष्णु पुराण, वायु पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्मांड पुराण, और हरिवंश पुराण जैसे आरंभिक पुराणों की रचना इस काल में हुई।
- भक्ति भजन: दक्षिण भारत में अलवार और नयनार संतों ने वैष्णव और शैव भक्ति पर आधारित भजनों की रचना की।
- महाकाव्य: रामायण और महाभारत सामाजिक, धार्मिक, और राजनीतिक इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्रोत रहे।
2. सांस्कृतिक और साहित्यिक उपलब्धियाँ