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भारत का इतिहास 300 ई. से 1200 ई. तक UNIT 1 CHAPTER 1 SEMESTER 2 THEORY NOTES स्त्रोतों का सर्वेक्षण HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत का इतिहास 300 ई. से 1200 ई. तक UNIT 1 CHAPTER 1 SEMESTER 2 THEORY NOTES स्त्रोतों का सर्वेक्षण HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES

परिचय 

स्रोत या साक्ष्य अतीत के अवशेष हैं, जो इतिहास के पुनर्निर्माण में मदद करते हैं। इतिहासकार साक्ष्यों की व्याख्या कर अतीत और वर्तमान के बीच संबंध स्थापित करते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में साहित्यिक साक्ष्यों के साथ अभिलेख, सिक्के, कला और वास्तुकला पर भी ध्यान दिया गया। भूतल संग्रह और उत्खनन ने अतीत के महत्त्वपूर्ण तथ्य उजागर किए। साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्य एक-दूसरे के पूरक हैं।


 साहित्यिक साक्ष्य 

 1. धार्मिक साहित्य का महत्त्व 

धार्मिक साहित्य प्राचीन और मध्यकालीन भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक धारणाओं को संरक्षित करता है। यह समाज की धार्मिक रीतियों, व्रतों, त्योहारों और लोकप्रिय मान्यताओं की जानकारी प्रदान करता है।

महत्त्वपूर्ण ग्रंथ

  • पुराण: भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, कालिका पुराण।
  • बौद्ध साहित्य: आर्यमंजुश्रीमूलकल्प।
  • दर्शन शास्त्र: ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र।

विशेषताएँ

  • धार्मिक रीतियों और परंपराओं का वर्णन।
  • समाज की सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं का दस्तावेज।


2. गैर-धार्मिक साहित्य का महत्त्व

गैर-धार्मिक साहित्य ने प्राचीन भारत के राजनीतिक, सांस्कृतिक, और वैज्ञानिक पहलुओं को उजागर किया। यह साहित्य समाज की विविध गतिविधियों और प्रगति को दर्शाता है।

संस्कृत साहित्य

  • कालिदास: अभिज्ञानशाकुन्तलम्, रघुवंश।
  • वराहमिहिर: पंचसिद्धांतिका, बृहत्संहिता।
  • बाणभट्ट: हर्षचरित।

विज्ञान और गणित

  • आर्यभट्ट: आर्यभटीय।
  • ब्रह्मगुप्त: खंडखद्यक।
  • चरक और सुश्रुत: आयुर्वेदिक चिकित्सा के महत्वपूर्ण ग्रंथ।


3. क्षेत्रीय साहित्य

  • तमिल महाकाव्य: शिलप्पादिकरम, मणिमेक्लई।
  • जैन साहित्य: व्यापार, समाज और संस्कृति की जानकारी प्रदान करता है।


4. विदेशी साहित्य का महत्त्व

विदेशी साहित्य भारत की यात्रा करने वाले यात्रियों और लेखकों के कार्यों से प्राप्त होता है। यह भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, और व्यापारिक पहलुओं का सजीव वर्णन प्रस्तुत करता है।

चीनी भिक्षु:

  • फ़ाहियान: फो-क्वो-की (बौद्ध राज्यों का विवरण)।
  • ह्वेन त्सांग: सी-यू-की (भारत का विस्तृत इतिहास)।
  • इत्सिंग: बौद्ध सिद्धांतों और प्रथाओं का विवरण।

अरबी लेखक

  • अल-बिरूनी: तहकीक-ए-हिंद (भारतीय विज्ञान, खगोलशास्त्र और समाज का अध्ययन)।
  • अन्य लेखक: सुलेमान, इब्न बतूता (भारत के व्यापार और सामाजिक जीवन का विवरण)।


 पुरातात्त्विक साक्ष्य 

पुरातात्त्विक साक्ष्य किसी सभ्यता के इतिहास और संस्कृति को जानने के महत्वपूर्ण साधन हैं। इनमें शिलालेख, सिक्के, मुहरें, मृदभांड, मूर्तिकला आदि शामिल हैं। ये साक्ष्य अन्वेषण, सतह संग्रह या खुदाई के माध्यम से प्राप्त होते हैं और अतीत को समझने में सहायक होते हैं।

1. अभिलेख (Inscriptions)

अभिलेखों का अध्ययन पुरालेख अध्ययन (Epigraphy) कहलाता है। ये शिलाओं, धातु की पट्टियों, ईंटों और लकड़ी जैसे माध्यमों पर उत्कीर्ण होते थे। अभिलेख एक समय विशेष की घटनाओं और व्यवस्थाओं का प्रमाण प्रदान करते हैं।

  • भाषा और लिपि का विकास: तीसरी शताब्दी तक संस्कृत प्रमुख अभिलेखीय भाषा थी। गुप्त काल में क्षेत्रीय भाषाओं और लिपियों का विकास हुआ। दक्षिण भारत में तमिल अभिलेखों का विशेष महत्व है।
  • भूमि अनुदान पत्र: शासकों द्वारा ब्राह्मणों और धार्मिक प्रतिष्ठानों को दिए गए भूमि अनुदान, जैसे अग्रहार और ब्रह्मदेय, अक्सर ताम्रपत्र पर अंकित होते थे।
  • महत्व: प्रशासनिक और राजस्व प्रणालियों, सामाजिक संरचनाओं, और धार्मिक व्यवस्थाओं को समझने के लिए ये अभिलेख महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

2. सिक्के (Coins)

सिक्कों का अध्ययन मुद्राशास्त्र (Numismatics) कहलाता है। ये न केवल आर्थिक लेन-देन के साधन थे बल्कि राजाओं की राजनीतिक और धार्मिक पहचान के परिचायक भी थे।

  • गुप्तकाल के सिक्के: गुप्त राजाओं ने सोने के सुंदर सिक्के (दीनार) जारी किए। इन पर राजा को वीणा बजाते या अश्वमेध यज्ञ करते हुए दिखाया गया है।
  • क्षेत्रीय विशेषताएँ: दक्षिण भारत में चोल और पल्लव राजाओं के सिक्कों पर बाघ और शेर जैसे प्रतीक होते थे। मध्यकालीन भारत में मिश्र धातु के सिक्कों का प्रचलन बढ़ा।
  • महत्व: सिक्कों से न केवल आर्थिक व्यवस्था बल्कि शासकों की धार्मिक और सांस्कृतिक नीतियों का भी पता चलता है।

3. अन्य पुरातात्त्विक अवशेष

मंदिर, मठ, और अन्य स्थापत्य अवशेष, विशेष रूप से धार्मिक प्रकृति के, उस काल की सांस्कृतिक धरोहर को समझने में सहायक हैं।

प्रमुख स्थल:

  • अहिच्छत्र: यहाँ गुप्तकाल का सीढ़ीदार मंदिर मिला।
  • कुम्रहार (पटना): बौद्ध मठ के अवशेष।
  • महास्थानगढ़ (बांग्लादेश): पकी हुई ईंट की संरचनाएँ।
  • बसाद: यहाँ बड़ी संख्या में मुहरें पाई गई हैं।

विशेषताएँ:

गुप्त काल की संरचनाएँ प्राचीन ईंटों से बनी होती थीं, जबकि शुंग और कुषाण काल में नई ईंटों का उपयोग प्रचलित था।


पुरातात्त्विक साक्ष्यों का महत्व

  • इतिहास की पुनर्रचना: ये साक्ष्य प्राचीन और मध्यकालीन भारत की सामाजिक, राजनीतिक, और धार्मिक संरचनाओं को समझने में मदद करते हैं।
  • स्थायित्व का लाभ: साहित्यिक साक्ष्यों की तुलना में, पुरातात्त्विक साक्ष्य अधिक स्थायी होते हैं।
  • व्यापार और धर्म: मठों और व्यापार केंद्रों की उपस्थिति धर्म और आर्थिक गतिविधियों के बीच के संबंध को दर्शाती है।
  • सामाजिक संरचना: जाति और वर्ग के इतिहास का अध्ययन इन साक्ष्यों के माध्यम से किया जा सकता है।


 साक्ष्यों की सीमाएँ 

इतिहास-लेखन में साक्ष्यों का विश्लेषण महत्वपूर्ण है, लेकिन इनकी कुछ सीमाएँ होती हैं:

  • तारीख की अनिश्चितता: साहित्यिक साक्ष्य और अभिलेख सटीक तारीख व लेखकों की जानकारी देने में असमर्थ होते हैं, जिससे घटनाओं की पहचान चुनौतीपूर्ण हो जाती है।
  • पुरातात्त्विक साक्ष्य: अव्यवस्थित खुदाई, क्षतिग्रस्त संरचनाएँ, और अवशेषों के मूल स्थान पर न मिलने से उनका संदर्भ और महत्व तय करना कठिन होता है।

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