परिचय
भारत में अंतरराष्ट्रीय संबंध (आई.आर.) विद्वता का विकास ऐतिहासिक और बौद्धिक धाराओं से प्रभावित है। स्वतंत्रता के बाद, शीत युद्ध और उपनिवेशवाद के प्रभाव में भारतीय विद्वान यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए विदेश नीति की जटिलताओं को समझने में जुटे। पश्चिमी विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित नई पीढ़ी और संस्थानों जैसे एस.आई.एस. ने इस क्षेत्र में बदलाव लाया। शीत युद्ध के बाद, उत्तर-प्रत्यक्षवादी सिद्धांतों और विविध दृष्टिकोणों ने पारंपरिक ढाँचों को चुनौती दी। आज, भारत की बढ़ती वैश्विक भूमिका और गैर-राज्य कर्ताओं के उदय ने आई.आर. में इसके योगदान को नया आकार दिया है। यह अध्ययन भारत की कूटनीति, शिक्षा, और सैद्धांतिक प्रयासों को समझने की दिशा में एक झलक प्रदान करता है।
अंतरराष्ट्रीय संबंध में भारतीय योगदान
भारत में अंतरराष्ट्रीय संबंध (आई.आर.) का विकास मुख्य रूप से दो चरणों में हुआ, जो भारत के ऐतिहासिक, राजनीतिक और शैक्षणिक संदर्भों को दर्शाता है।
1. पहला चरण: स्वतंत्रता के बाद (1947-1980)
- ब्रिटिश प्रभाव: प्रारंभिक भारतीय विद्वान ब्रिटिश अकादमिक परंपराओं से प्रभावित थे। भारत की विदेश नीति उपनिवेशवाद से मुक्ति और शीत युद्ध पर केंद्रित रही, जहाँ व्यावहारिकता के कारण हंस मोर्गेथाऊ के यथार्थवाद को प्राथमिकता दी गई।
- विद्वानों का योगदान: भारतीय विद्वानों ने वैश्विक समस्याओं पर ध्यान दिया, लेकिन सैद्धांतिक नवाचार सीमित रहा। उनका अध्ययन मुख्य रूप से क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता पर केंद्रित था।
2. दूसरा चरण: 1980 के बाद
- शीत युद्ध के बाद का दौर: शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के पतन ने यथार्थवाद की सीमाओं को उजागर किया। उत्तर-प्रत्यक्षवादी सिद्धांत और नई पद्धतियाँ उभरीं। क्षेत्रीय अध्ययन को अंतरराष्ट्रीय संबंधों से जोड़ते हुए इसे "अंतरराष्ट्रीय अध्ययन" के रूप में विकसित किया गया।
- शैक्षणिक और बौद्धिक बदलाव: भारतीय विद्वानों ने अधिक विविध दृष्टिकोण अपनाए। नए थिंक टैंक, अनुसंधान संस्थान, और विस्तारित पाठ्यक्रमों ने आई.आर. अध्ययन को व्यापक बनाया। हालांकि, सैद्धांतिक विकास की तुलना में ऐतिहासिक विवरणों पर अधिक ध्यान दिया गया।
3. वर्तमान दौर: 21वीं सदी का भारत
- वैश्विक भूमिका: भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था और वैश्विक भागीदारी ने उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर अधिक सक्रिय बनाया है। भारत अब वैश्विक प्रशासन और भू-राजनीतिक विमर्श में अपनी भूमिका को मजबूत कर रहा है।
- अंतरराष्ट्रीय संबंध अध्ययन में बदलाव: पारंपरिक यथार्थवादी दृष्टिकोण से हटकर अधिक सूक्ष्म और विविध दृष्टिकोण अपनाए जा रहे हैं। नए सिद्धांत और विमर्श ने भारतीय अंतरराष्ट्रीय संबंध अध्ययन को अधिक समृद्ध और वैश्विक बनाया है।
राज्य-केंद्रित 'ऑन्टोलॉजी' की पड़ताल
भारतीय अंतरराष्ट्रीय संबंध समुदाय में राज्य की धारणा अब 'राष्ट्रीय-क्षेत्रीय समग्रता' से हटकर इसकी गतिशील सामाजिक-राजनीतिक प्रकृति को पहचानने की ओर बढ़ रही है। यह बदलाव तीन प्रमुख आयामों में स्पष्ट है:
- गैर-राज्य कर्ताओं का उदय: भारतीय विदेश नीति और वैश्विक गतिविधियों पर कॉर्पोरेट संस्थाएँ, मीडिया, नागरिक समाज, और भारतीय प्रवासी जैसे गैर-राज्य तत्वों का प्रभाव बढ़ा है। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण ने कॉर्पोरेट क्षेत्र को विदेश नीति के एक प्रमुख कारक के रूप में उभारा। विश्व व्यापार संगठन पर भारत के रुख और वैश्विक आई.टी. क्षेत्र में उसकी उपस्थिति ने इस बदलाव को मजबूत किया।
- मीडिया का प्रभाव: मीडिया अब केवल सरकार का मुखपत्र न रहकर विदेश नीति विमर्श का एक प्रभावशाली हिस्सा बन गया है। कॉर्पोरेट विज्ञापन और बढ़ते मध्यम वर्ग के कारण मीडिया जनमत को आकार देने और सरकारी नीतियों को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
- एन.जी.ओ. और सामाजिक आंदोलन: मानवाधिकार, पर्यावरण संरक्षण, और लैंगिक समानता जैसे मुद्दों पर एन.जी.ओ., नागरिक समाज समूह, और सामाजिक आंदोलनों की भूमिका बढ़ी है। ये संगठन नीति निर्माण में भागीदारी करते हैं, शांति-निर्माण पहल का समर्थन करते हैं, और वैश्विक नेटवर्क के साथ साझेदारी के माध्यम से भारत के दृष्टिकोण को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करते हैं।
अंदर-बाहर के द्विआधारी IRT को चुनौती देना
भारतीय अंतरराष्ट्रीय संबंध (आई.आर.) अध्ययन में पारंपरिक 'अंदर-बाहर' द्वंद्व, जिसमें विदेश नीति के बाहरी आयामों पर ध्यान केंद्रित था, अब बदल रहा है। हाल के दशकों में, भारत की विदेश नीति निर्माण के घरेलू पहलुओं और विभिन्न हितधारकों जैसे सेना, प्रवासी, और मध्यम वर्ग की भूमिकाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए साहित्य का विस्तार हुआ है। नेहरूवादी विरासत और विदेश नीति की नेतृत्व-निर्भर प्रकृति पर भी आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है।
- वैश्वीकरण और जटिलताएँ: वैश्वीकरण ने भारतीय राज्य के प्रभाव पर विद्वानों में बहस छेड़ी है। कुछ इसे राज्य को सशक्त बनाने वाला मानते हैं, जबकि अन्य इसे संप्रभुता को कमजोर करने वाला और सामाजिक असमानताओं को बढ़ाने वाला मानते हैं। सामाजिक आंदोलन वैश्वीकरण को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और सामाजिक समावेशन के लिए चुनौती मानते हैं।
- राज्य को समस्याग्रस्त बनाना: भारतीय आई.आर. में नव-यथार्थवादी दृष्टिकोण, जो राज्य को एक निश्चित इकाई मानता है, अब सवालों के घेरे में है। विद्वानों ने भारतीय राज्य के औपनिवेशिक अतीत, आंतरिक सामाजिक संरचनाओं और संघर्षों को ध्यान में रखते हुए इसकी जटिलता को उजागर किया है। वणिक और नंदी जैसे विचारकों ने राज्य की सामाजिक और वर्गीय गतिशीलता तथा राज्य प्रायोजित हिंसा पर प्रकाश डाला है, जिससे 'तटस्थ राष्ट्रीय हित' की धारणा को खारिज किया गया है।
- भविष्य की दिशा: विद्वान अब पारंपरिक भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विताओं से आगे बढ़कर रणनीतिक साझेदारियों, परमाणु कूटनीति, और स्थानीय व क्षेत्रीय मुद्दों की जाँच कर रहे हैं। यह बदलाव अधिक सैद्धांतिक गहराई और बारीक विश्लेषण की माँग करता है, जो भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंध अध्ययन को और समृद्ध करेगा।
भारत 'और' विश्व
पिछले दो दशकों में भारतीय अंतरराष्ट्रीय संबंध (आई.आर.) अध्ययन ने विविध दृष्टिकोणों और विषयों को अपनाकर उल्लेखनीय प्रगति की है। आतंकवाद, शक्ति गतिशीलता, बहुपक्षीय कूटनीति, सुरक्षा, पर्यावरण शासन, मानवाधिकार, और क्षेत्रवाद जैसे विषयों पर भारतीय विद्वानों ने महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान की है।
- बहुपक्षीय कूटनीति: भारतीय विद्वानों ने बहुपक्षीय कूटनीति के विभिन्न आयामों, जैसे जलवायु वार्ता, वैश्विक आर्थिक शासन, परमाणु अप्रसार, और अंतरराष्ट्रीय कानून का विश्लेषण किया है। इसमें भारत की रणनीतियों और इसके वैचारिक व व्यावहारिक दृष्टिकोण पर गहराई से विचार किया गया है। साथ ही, 'नए बहुपक्षवाद' की अवधारणा पर जोर दिया गया है, जो जमीनी स्तर के आंदोलनों और वैकल्पिक वैश्विक जुड़ाव को समझने का प्रयास है।
- शक्ति की धारणा: भारत के वैश्विक उदय को सामग्री, मानक, और विचारशील दृष्टिकोणों के माध्यम से देखा गया है। जबकि कुछ इसे एक उदीयमान शक्ति मानते हैं, अन्य इसकी महान शक्ति की स्थिति और भू-राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं का विश्लेषण करते हैं। भारत की वैश्विक स्थिरता में भूमिका और इसकी सतर्क व्यावहारिकता पर विद्वानों के विचार विभाजित हैं।
- सैद्धांतिक विकास: भारतीय आई.आर. अध्ययन में सैद्धांतिक ढाँचों की ओर बढ़ता रुझान विषय की परिपक्वता को दर्शाता है। यह बदलाव, जो पहले की उपेक्षा से हटकर है, भारतीय शिक्षा जगत में आई.आर. विमर्श को एक नई दिशा देता है।