अंतरराष्ट्रीय संबंधों का परिचय UNIT 3 CHAPTER 6 SEMESTER 5 THEORY NOTES वैश्विक शासन और जलवायु परिवर्तन वार्ता POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakदिसंबर 21, 2024
परिचय
यह पाठ वैश्विक शासन और जलवायु परिवर्तन वार्ताओं की पड़ताल करता है, जो हमारे ग्रह के भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण हैं। वैश्विक शासन साझा समस्याओं के समाधान के लिए एक जटिल ढाँचा तैयार करता है, और जलवायु वार्ताएँ राष्ट्रों, संगठनों, और अन्य कर्ताओं को जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए एक मंच प्रदान करती हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) इन वार्ताओं का केंद्र है। यहाँ विकसित और विकासशील देशों के बीच असमानताएँ, वित्तपोषण, और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण जैसे मुद्दे प्रमुख हैं। "सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियाँ" (सी.बी.डी.आर.) का सिद्धांत चर्चा को दिशा देता है। हालाँकि, अंतरराष्ट्रीय सहयोग कानूनी बाध्यताओं और भू-राजनीतिक दबावों के कारण कमजोर है। हाशिए पर मौजूद समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए टिकाऊ और न्यायपूर्ण भविष्य के लिए ठोस प्रयास आवश्यक हैं।
वैश्विक शासन और जलवायु परिवर्तन वार्ता
वैश्विक शासन और जलवायु परिवर्तन वार्ताएँ आधुनिक वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने की दिशा में एक जटिल प्रयास का प्रतिनिधित्व करती हैं। वैश्विक शासन उन अंतःक्रियाओं और संस्थानों का जाल है, जो जलवायु परिवर्तन जैसी आम चिंताओं को संबोधित करने के लिए विभिन्न राष्ट्र-राज्यों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और गैर-राज्य कर्ताओं के प्रयासों में मध्यस्थता करते हैं।
UNFCCC और COP: जलवायु वार्ताओं का मुख्य मंच संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC)और इसके तहत पार्टियों के वार्षिक सम्मेलन (COP) है, जहाँ ग्रीनहाउस गैसों में कमी, जलवायु प्रभावों को कम करने, और सामाजिक-आर्थिक लचीलेपन को बढ़ाने पर चर्चा होती है।
विकसित बनाम विकासशील देश: विकसित देश ऐतिहासिक जिम्मेदारी और सख्त उत्सर्जन कटौती पर जोर देते हैं, जबकि विकासशील देश आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन को प्राथमिकता देते हुए लचीले उत्सर्जन लक्ष्यों की माँग करते हैं। इन असमानताओं को पाटने के लिए "सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियाँ" (CBDR) सिद्धांत लागू किया जाता है।
वित्तपोषण और तकनीकी सहायता: विकासशील देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वित्तीय सहायता और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की माँग करते हैं, लेकिन वित्तीय वादों की पूर्ति और उनका क्रियान्वयन अब भी चुनौती बना हुआ है।
पेरिस समझौता और इसकी चुनौतियाँ: पेरिस समझौता एक ऐतिहासिक पहल है, जिसका लक्ष्य वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5-2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है। हालांकि, कानूनी बाध्यता की कमी के कारण अनुपालन और जवाबदेही सुनिश्चित करना इसकी प्रमुख चुनौती है।
ऐतिहासिक अन्याय और न्याय का मुद्दा: औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी विरासतें न्याय और क्षतिपूर्ति की माँग को जन्म देती हैं। हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए एक समावेशी और न्यायसंगत दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
गैर-राज्य कर्ताओं की भूमिका: शहर, व्यवसाय, और नागरिक समाज संगठन विकेंद्रीकृत जलवायु कार्रवाई में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।
कोविड-19 का प्रभाव: महामारी ने उत्सर्जन में अस्थायी कमी लाई, लेकिन असमानताएँ बढ़ा दीं। रिकवरी प्रयासों में जलवायु लचीलापन और सामाजिक समानता को प्राथमिकता देना आवश्यक है।
वैश्विक शासन के तरीके
वैश्विक शासन का विकास द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की उथल-पुथल से हुआ, जब राष्ट्रों ने वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने के लिए समन्वित दृष्टिकोण अपनाया। परंपरागत वेस्टफेलियन मॉडल से अब शासन का एक अधिक जटिल, बहुआयामी और समावेशी रूप उभरा है।
पारंपरिक से आधुनिक परिवर्तन: पारंपरिक "वेस्टफेलियन संप्रभुता" आधारित राज्य-केंद्रित शासन अब अधिक समावेशी हो गया है, जहाँ गैर-सरकारी संगठन, सार्वजनिक-निजी भागीदारियाँ, और अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क सक्रिय भूमिका निभाते हैं। "नया बहुपक्षवाद" और "कोपरनिकन विश्व" जैसे मॉडल बदलती वैश्विक संरचनाओं को दर्शाते हैं।
गैर-राज्य कर्ताओं की बढ़ती भूमिका: गैर-सरकारी संगठन (NGO), नेटवर्क, और सार्वजनिक-निजी भागीदारी नीति निर्माण, निगरानी, और अनुपालन में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, गावी (वैक्सीन गठबंधन), जिसमें सरकारें, वैश्विक संस्थान, और निजी संस्थाएँ शामिल हैं, शासन में प्रभावशाली योगदान देती हैं।
शासन के तरीके: शासन के विभिन्न तरीके पदानुक्रमित, नेटवर्क, और बाजार मॉडल में विभाजित हैं। पदानुक्रमित मॉडल केंद्रीकृत नियंत्रण और शीर्ष-से-नीचे दृष्टिकोण पर आधारित है, जबकि नेटवर्क मॉडल बराबरी के बीच सहयोग और बातचीत को प्रोत्साहित करता है। बाजार मॉडल विकेंद्रीकृत प्रोत्साहनों पर निर्भर करता है। वास्तविकता में, ये मॉडल अक्सर एक-दूसरे के पूरक होते हैं और मिश्रित रूप में कार्य करते हैं, जिससे शासन अधिक प्रभावी और समावेशी बनता है।
भू-राजनीतिक और तकनीकी प्रभाव: शासन के तरीके भू-राजनीतिक तनाव, आर्थिक बदलाव, और तकनीकी प्रगति से प्रभावित होते हैं। वैश्विक शासन की जटिलता में प्रभावशीलता और मानकों की प्रासंगिकता प्रमुख मुद्दे बने रहते हैं।
संभावनाएँ और चुनौतियाँ: 21वीं सदी की जटिलताओं के लिए शासन के नए रूप बेहतर अनुकूलन का संकेत देते हैं। हालांकि, शक्ति असंतुलन, अल्पकालिक हितों, और समावेशिता की सीमाएँ अब भी बड़ी चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
राज्य और वैश्विक शासन
वैश्विक मुद्दों की बढ़ती जटिलता और सीमा पार मामलों में विभिन्न कर्ताओं की भागीदारी ने संरचित सहयोग की आवश्यकता को उजागर किया है। हालांकि, वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए सामंजस्यपूर्ण रणनीतियों का अभाव और अलग-अलग राष्ट्रीय नीतियाँ मानवता के अस्तित्व संबंधी खतरों का समाधान करने में अपर्याप्त साबित हो रही हैं।
राज्यों की केंद्रीय भूमिका: संप्रभुता वैश्विक शासन में राज्यों की बातचीत का आधार है। अंतर सरकारी संगठन (IGOs) सहयोग को बढ़ावा देते हैं और संघर्षों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
श्विक बाजार और राज्य: व्यापार विवादों और IMF ऋण जैसी प्रक्रियाओं में राज्यों और बहुराष्ट्रीय निगमों (MNCs) की प्रभावशाली भूमिका नजर आती है। हालांकि, यह प्रभाव अक्सर तदर्थ उपायों तक सीमित रहता है।
संस्थागत चुनौतियाँ: IGOs का विकास वैश्विक चुनौतियों के समाधान की गति से पीछे है। G20 जैसे तदर्थ मंच संकट के समय उभरते हैं, लेकिन स्थायी समाधान प्रदान करने में असमर्थ रहते हैं। यूरोपीय संघ का अनुभव दिखाता है कि विविध राष्ट्रीय हितों के बीच प्रभावी समन्वय करना एक जटिल चुनौती है।
लोकतांत्रिक विभाजन: IGOs में निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है। अंतरराज्यीय निर्णय अक्सर बंद दरवाजों के पीछे होते हैं, जिससे लोकतांत्रिक जाँच और संतुलन कमजोर हो जाता है।
गैर-राज्य कर्ताओं का प्रभाव: बहुराष्ट्रीय निगम (TNCs) और अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन (INGOs) वैश्विक शासन में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। ये संस्थाएँ एजेंडा तय करने, नियम बनाने, और नीतिगत परिणामों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण योगदान करती हैं।
वैश्विक शासन संबंधी खामियाँ
वैश्विक शासन की खामियाँ इसके कामकाज में मौजूद कमजोरियों और सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं। ये खामियाँ वैश्विक सहयोग, प्रभावी नीति निर्माण, और अंतरराष्ट्रीय समझौतों के अनुपालन सुनिश्चित करने में प्रमुख बाधाएँ उत्पन्न करती हैं।
ज्ञान अंतर: विभिन्न क्षेत्रों और मुद्दों पर असमान जानकारी प्रभावी नीति निर्माण और अंतरराष्ट्रीय सहयोग में बाधा डालती है। जलवायु परिवर्तन और परमाणु प्रसार जैसे विवादास्पद मुद्दों पर समग्र समझ का अभाव इन चुनौतियों को और जटिल बनाता है।
मानदंडों की स्वीकृति: सांस्कृतिक मतभेदों के कारण मानवाधिकार जैसे सार्वभौमिक सिद्धांतों पर असहमति उत्पन्न होती है, जिससे वैश्विक मानकों को स्थापित करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इन मानकों को स्थापित करने में नागरिक समाज की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
नीतियों का निर्माण और कार्यान्वयन: पर्यावरणीय समझौतों जैसे क्योटो प्रोटोकॉल और अन्य वैश्विक संधियों की प्रभावशीलता राजनीतिक और तार्किक बाधाओं पर निर्भर करती है। नीतियों का निर्माण और उनका कार्यान्वयन अक्सर धीमा और विवादास्पद प्रक्रिया होती है।
संस्थागत सीमाएँ: वैश्विक संस्थानों के पास आवश्यक अधिकार और संसाधनों की कमी है। शांति स्थापना और मानवाधिकार प्रवर्तन जैसे क्षेत्रों में संस्थागत जनादेश और व्यावहारिक क्षमताओं के बीच का अंतर प्रभावी वैश्विक सहयोग में बाधा बनता है।
अनुपालन और प्रवर्तन की कमी: अंतरराष्ट्रीय समझौतों का पालन सुनिश्चित करने के लिए प्रवर्तन तंत्र और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी एक बड़ी बाधा है। यह कमी जलवायु परिवर्तन और परमाणु प्रसार जैसी गंभीर वैश्विक समस्याओं से प्रभावी ढंग से निपटने में रुकावट पैदा करती है।
जलवायु परिवर्तन शासन
हाल के दशकों में जलवायु परिवर्तन शासन में महत्त्वपूर्ण बदलाव हुआ है, जिसमें प्राधिकरण का विकेंद्रीकरण और गैर-राज्य कर्ताओं की बढ़ती भागीदारी इसकी प्रमुख विशेषताएँ बन गई हैं। यह पारंपरिक शीर्ष-से-नीचे दृष्टिकोण से हटकर अधिक समावेशी, लचीले और विकेंद्रीकृत ढाँचे की ओर बढ़ने का प्रतीक है।
1. शासन का विकास
क्योटो प्रोटोकॉल: क्योटो प्रोटोकॉल एक शीर्ष-से-नीचे के पदानुक्रमित मॉडल पर आधारित था। इसमें स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) और कार्बन ऑफसेट बाजार जैसे प्रावधान शामिल थे, जो विकसित देशों को विकासशील देशों में उत्सर्जन कटौती परियोजनाओं में निवेश की अनुमति देते थे।
पेरिस समझौता: पेरिस समझौता नीचे से ऊपर के दृष्टिकोण पर आधारित है, जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) के माध्यम से राज्य अपनी जलवायु नीतियाँ तय करते हैं। इसमें गैर-राज्य और उप-राष्ट्रीय कर्ताओं की भूमिकाओं को भी प्रमुखता दी गई है। साथ ही, अनुच्छेद 6 के तहत अंतरराष्ट्रीय कार्बन बाजारों को प्रोत्साहित किया गया है।
2.गैर-राज्य और उप-राष्ट्रीय कर्ताओं की भागीदारी
नगरपालिकाएँ, गैर-सरकारी संगठन (NGOs), और व्यवसाय अब जलवायु नीतियों में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। इन कर्ताओं की भागीदारी ने शासन को अधिक लचीला और समावेशी बनाया है, जो पारंपरिक अंतर-सरकारी प्रक्रियाओं को पूरक करता है।
3.सीबीडीआर (CBDR) का सिद्धांत
"साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियाँ" (CBDR) सिद्धांत के तहत विकसित देशों को उत्सर्जन कटौती में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए बाध्य किया गया। हालांकि, चीन और भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के तेजी से बढ़ते उत्सर्जन ने इस सिद्धांत को चुनौती दी है।
4.भूराजनीतिक गतिशीलता
2014 में अमेरिका-चीन की संयुक्त प्रतिबद्धता ने प्रमुख उत्सर्जकों के बीच सहयोग के लिए एक नया मार्ग प्रशस्त किया। घरेलू नीति कार्रवाई और कार्बन बाजार जैसे उपायों ने अंतरराष्ट्रीय समझौतों की आवश्यकता को संतुलित करने में मदद की।
5.बाजार-आधारित समाधान
कार्बन बाजार, जैसे यूरोपीय संघ उत्सर्जन व्यापार प्रणाली (EU-ETS) और चीन का राष्ट्रीय कार्बन बाजार, जलवायु शासन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं। हालांकि, इनकी प्रभावशीलता पर सवाल उठते हैं, खासकर जब ये उत्सर्जन कटौती के लिए पर्याप्त परिणाम नहीं देते।
6.चुनौतियाँ और समय सीमा
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सीमित करने के लिए 2050 तक वैश्विक उत्सर्जन को शुद्ध शून्य तक लाना आवश्यक है। तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित करने के लिए उपलब्ध समय तेजी से समाप्त हो रहा है।
स्वच्छ ऊर्जा और वैश्विक शासन
स्वच्छ ऊर्जा शासन का उद्देश्य ऊर्जा प्रणालियों को स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए अधिक टिकाऊ बनाना है। यह विकेन्द्रीकृत ढाँचे और विभिन्न कर्ताओं के बीच सहयोग के माध्यम से नीतियों, नेटवर्क, और प्रथाओं को स्थापित और कार्यान्वित करने पर आधारित है।
1.स्वच्छ ऊर्जा की परिभाषा और उद्देश्य
स्वच्छ ऊर्जा उन तकनीकों और प्रक्रियाओं को संदर्भित करती है जो ऊर्जा खपत को कम करती हैं और नवीकरणीय स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा देती हैं। इसका मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभावों को कम करना है।
2.स्वच्छ ऊर्जा: इतिहास और विकास
1980-1990: ओपेक प्रतिबंध और ग्लोबल वार्मिंग की चिंताओं ने वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों में रुचि बढ़ाई। हालांकि, जीवाश्म ईंधन पर भू-राजनीतिक निर्भरता के कारण स्वच्छ ऊर्जा सहयोग सीमित रहा।
1990-2010: 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन की विफलता के बावजूद, स्वच्छ ऊर्जा के लिए अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क और साझेदारी का विस्तार हुआ।
2010-2017: अंतरराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी (IRENA) और सतत विकास लक्ष्यों (SDG) जैसी पहलों ने स्वच्छ ऊर्जा शासन को औपचारिक रूप दिया।
3.विकेंद्रीकृत शासन
पारंपरिक पदानुक्रमित ढाँचे (जैसे IEA और UNFCCC) अब नेटवर्क, बाजार, और सार्वजनिक-निजी साझेदारी जैसे हाइब्रिड तंत्रों से पूरित हो रहे हैं। IRENA और स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) जैसे निकायों ने सहयोग को बढ़ावा दिया है। साथ ही, कार्बन ट्रेडिंग जैसे बाजार-आधारित तंत्र स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
4.कर्ताओं का विविधीकरण
गैर-राज्य कर्ता, जैसे व्यवसाय, गैर-सरकारी संगठन (NGO), और विशेषज्ञ नेटवर्क, स्वच्छ ऊर्जा के प्रचार में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। ये कर्ता तकनीकी विशेषज्ञता, वित्तपोषण, और प्रोत्साहन के माध्यम से शासन और नीतियों को प्रभावित करते हैं।
5.चुनौतियाँ और बाधाएँ
पारंपरिक अंतर-सरकारी ढाँचे (जैसे पेरिस समझौता) में ऊर्जा संक्रमण को पर्याप्त प्राथमिकता नहीं दी गई। घरेलू राजनीति, सहयोग की अनिश्चितता, और नियामक विवाद नीति निर्माण और कार्यान्वयन में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। साथ ही, विकेन्द्रीकृत शासन की जटिलता समन्वय और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने में एक प्रमुख चुनौती बनी हुई है।
स्वच्छ ऊर्जा के लिए विकेंद्रीकृत शासन
स्वच्छ ऊर्जा प्रशासन में विकेंद्रीकृत शासन एक उभरता हुआ आदर्श है, जो नेटवर्क, पदानुक्रम, और हाइब्रिड व्यवस्थाओं के परस्पर क्रियाशील ढाँचे पर आधारित है। यह पारंपरिक एकीकृत प्रणालियों से हटकर विभिन्न कर्ताओं और तंत्रों की भागीदारी को प्रोत्साहित करता है, जिससे स्वच्छ ऊर्जा के विकास और कार्यान्वयन को अधिक प्रभावी और समावेशी बनाया जा सकता है।
विकेंद्रीकृत शासन की संरचना: विकेंद्रीकृत शासन में सार्वजनिक और निजी तंत्र, नौकरशाही पदानुक्रम, अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क, और अनौपचारिक उपकरणों का सम्मिश्रण शामिल है। यह हाइब्रिड प्रशासन स्वच्छ ऊर्जा के मुद्दों से निपटने के लिए अधिक लचीला और समावेशी दृष्टिकोण प्रदान करता है।
भू-राजनीतिक भूमिका: IEA और UNFCCC जैसे पारंपरिक ढाँचों में स्वच्छ ऊर्जा के समावेशन में शुरुआत में बाधाएँ थीं। पेरिस समझौते जैसे ऐतिहासिक प्रयासों ने स्वच्छ ऊर्जा शासन में योगदान दिया, लेकिन ऊर्जा परिवर्तन पर स्पष्ट और प्राथमिक ध्यान नहीं दिया गया।
कर्ताओं का विविधीकरण: निजी संस्थाएँ, गैर-राज्य कर्ता, और संस्थागत निकाय स्वच्छ ऊर्जा शासन को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये कर्ता मानकों की स्थापना, ज्ञान साझा करने, और वित्तीय व तकनीकी प्रोत्साहन प्रदान करने में सक्रिय रूप से योगदान देते हैं।
नेटवर्क और बाजार की भूमिका: नेटवर्क और बाजार-आधारित तंत्र विशेषज्ञता, वित्तपोषण, और प्रौद्योगिकी-आधारित परियोजनाओं को लागू करने में प्रभावी हैं। ये तंत्र प्राथमिकताओं को अद्यतन करने और हितधारकों के बीच सीखने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं।
घरेलू राजनीति का प्रभाव: घरेलू राजनीति नीति-निर्माण और विनियमन पर गहरा प्रभाव डालती है। राजनीतिक उद्यमी गठबंधन बनाने और कार्रवाई के नए अवसरों को पहचानने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
औपचारिक संस्थागतकरण: IRENA जैसे निकायों का गठन और संयुक्त राष्ट्र के स्वच्छ ऊर्जा प्रस्ताव औपचारिक संस्थागतकरण के प्रमुख उदाहरण हैं। यह औपचारिकता विकेंद्रीकृत शासन को अधिक संगठित और प्रभावी बनाने में सहायक है।