अंतरराष्ट्रीय संबंधों का परिचय UNIT 3 CHAPTER 5 SEMESTER 5 THEORY NOTES मानवाधिकार POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakदिसंबर 21, 2024
परिचय
मानवाधिकार असमानता और अन्याय से भरी दुनिया में न्याय और सम्मान का प्रतीक हैं। ये नैतिक, कानूनी और सामाजिक ढाँचों के माध्यम से समाज को अधिक न्यायसंगत और मानवीय दिशा में ले जाते हैं। हालाँकि, उनके कार्यान्वयन में जटिलताएँ और विरोधाभास मौजूद हैं। यह पाठ मानवाधिकारों की बहुमुखी प्रकृति, उनकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जड़ों, और नैतिकता, कानून व सक्रियता में उनकी अभिव्यक्तियों का विश्लेषण करता है। साथ ही, यह मानवीय हस्तक्षेप की दुविधा और वैश्विक मानवाधिकार एजेंडे को आगे बढ़ाने की चुनौतियों पर विचार करता है।
मानवाधिकार : अर्थ और परिभाषा
मानवाधिकार वे बुनियादी अधिकार हैं जो हर व्यक्ति को समान और गरिमापूर्ण जीवन के लिए मिलते हैं। ये नैतिक सिद्धांतों पर आधारित हैं और अंतरराष्ट्रीय समझौतों तथा राष्ट्रीय कानूनों के माध्यम से संरक्षित हैं। इनका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि व्यक्ति या समूह के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार हो और अधिकारों का हनन करने वालों को जवाबदेह ठहराया जाए। जैसे -
सार्वभौमिक अधिकार: मानवाधिकार सभी के लिए समान और अनिवार्य हैं।
प्राकृतिक और कानूनी पक्ष: इन्हें प्राकृतिक अधिकार माना जाता है, लेकिन इनकी रक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं।
राजनीतिक आयाम: ये सामाजिक न्याय और परिवर्तन के लिए भी इस्तेमाल किए जाते हैं।
विमर्श का विषय: कुछ विद्वान इन्हें एक सामाजिक निर्माण मानते हैं, जो राजनीतिक और आर्थिक हितों से प्रभावित हो सकते हैं।
मानवाधिकार की मूल धारणाएँ
मानवाधिकार, एक ऐसी अवधारणा है जो हर व्यक्ति के लिए बुनियादी अधिकार और स्वतंत्रता की बात करती है। यह सार्वभौमिक और समान अधिकारों का समर्थन करती है, लेकिन इसे लेकर कई विवाद और चुनौतियाँ हैं। इसे बेहतर तरीके से समझने के लिए तीन मुख्य धारणाओं पर ध्यान दिया जा सकता है:
1. परिवर्तनशील और प्रगतिशील स्वभाव
मानवाधिकार समाज में बदलाव और प्रगति का प्रतीक हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन्हें औपचारिक रूप मिला, जिससे राज्य की जवाबदेही तय हुई। गुलामी खत्म करने और महिलाओं-बच्चों के अधिकार बढ़ाने में सफलता मिली, लेकिन आलोचक इन दावों को अधूरा मानते हैं, क्योंकि 20वीं सदी में भी इनका व्यापक उल्लंघन हुआ।
2. सार्वभौमिकता की धारणा
मानवाधिकारों को सभी के लिए समान माना जाता है, लेकिन यह धारणा कई बार गलत साबित होती है। उपनिवेशवाद और यूरोपीय सोच ने इसकी सार्वभौमिकता को प्रभावित किया। आज भी शरणार्थियों और हाशिए पर रहने वाले समूहों के अधिकारों का उल्लंघन जारी है। आलोचकों का कहना है कि सार्वभौमिकता का दावा अक्सर भेदभाव और पूर्वाग्रह को छिपाने का काम करता है।
3. ‘अन्य’ का विचार
मानवाधिकार हर व्यक्ति को स्वायत्त और समान मानते हैं, लेकिन विद्वानों के अनुसार, इसमें 'अन्य' का भी स्थान है। 'अन्य' वे लोग हैं जो मुख्यधारा से बाहर हैं, जैसे गरीब, शरणार्थी, या अलग पहचान वाले समूह।‘अन्य’ के साथ भेदभाव के तीन तरीके देखे गए हैं:
आत्मसातीकरण (Assimilation): 'अन्य' को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए उनकी संस्कृति और पहचान को बदलने की कोशिश।
भिन्नता पर ज़ोर (Essentialization): ‘अन्य’ को अलग और कमतर मानना।
अधिकारों से वंचित करना (Exclusion): ‘अन्य’ को अधिकारों से पूरी तरह बाहर कर देना।
आज, कठोर आव्रजन कानून और शरणार्थियों के प्रति भेदभाव इस समस्या को और बढ़ाते हैं।
नैतिकता, कानून और सामाजिक सक्रियता में मानवाधिकार
मानवाधिकारों का विमर्श नैतिकता, कानून और सामाजिक सक्रियता के बीच संतुलन पर आधारित है। इसके तीन मुख्य पहलू हैं:
1. नैतिक सरोकार:
मानवाधिकार न्याय, सहानुभूति और गरिमा जैसे नैतिक सिद्धांतों पर आधारित हैं। यह अमर्त्य सेन जैसे दार्शनिकों के विचारों से प्रेरित है, जो तर्क और जाँच को महत्व देते हैं। ये केवल कानूनी अधिकारों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि मानव गरिमा और स्वतंत्रता की व्यापक अवधारणाओं को भी शामिल करते हैं।
2. कानूनी तंत्र:
मानवाधिकारों को संरक्षित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संस्थान बनाए गए हैं, जैसे:
अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC): नरसंहार और युद्ध अपराधों पर मुकदमा चलाता है।
यूरोपीय और अंतर-अमेरिकी मानवाधिकार न्यायालय: क्षेत्रीय स्तर पर अधिकारों की निगरानी करते हैं।
गैर-सरकारी संगठन (जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल) मानवाधिकारों के समर्थन और जागरूकता में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
3. सामाजिक सक्रियता
स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय संगठन जमीनी स्तर पर मानवाधिकारों को लागू करने के लिए प्रयासरत हैं। हालांकि, फंडिंग की कमी, राजनीतिक मतभेद, और दाता-संचालित एजेंडा इनके प्रभाव को सीमित कर देते हैं।
विश्व राजनीति में मानवीय हस्तक्षेप
मानवीय हस्तक्षेप अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक जटिल मुद्दा है, जो संप्रभुता, गैर-हस्तक्षेप, और मानवाधिकारों के सिद्धांतों के बीच टकराव पैदा करता है।
मुख्य मुद्दे:
संप्रभुता बनाम हस्तक्षेप: राज्य का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों की रक्षा करे। लेकिन जब राज्य अत्याचार करता है या उनकी रक्षा करने में विफल रहता है, तो यह सवाल उठता है कि क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय को हस्तक्षेप करना चाहिए और किस हद तक।
शीत युद्ध से बदलाव: शीत युद्ध के दौरान संप्रभुता को प्राथमिकता दी जाती थी, लेकिन 1990 के बाद मानवाधिकार उल्लंघनों के मामलों में अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप बढ़ा। 2011 में लीबिया संकट के दौरान, संयुक्त राष्ट्र ने संकल्प 1973 के तहत जबरन हस्तक्षेप को मंजूरी दी, जो इस बदलाव का प्रमुख उदाहरण है।
सुरक्षा की जिम्मेदारी (R2P):यह सिद्धांत राज्य की जिम्मेदारी पर जोर देता है कि वह अपनी जनता की रक्षा करे। यदि राज्य इस दायित्व में विफल होता है, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय हस्तक्षेप कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने इसे लीबिया, सीरिया और यमन जैसे कई संकटों में लागू किया है।
आलोचनाएँ और चुनौतियाँ:
1. ग्लोबल साउथ की चिंता: हस्तक्षेप का दुरुपयोग शक्तिशाली देशों द्वारा कमजोर देशों पर नियंत्रण के लिए किया जा सकता है।
2. राजनीतिक असहमति: बिना संयुक्त राष्ट्र प्राधिकरण के हस्तक्षेप विवादास्पद रहता है।
मानव हस्तक्षेप का मामला
मानव सुरक्षा: पारंपरिक रूप से सुरक्षा को राज्यों का कार्य माना गया, जो संप्रभुता और गैर-हस्तक्षेप के सिद्धांतों पर आधारित है। यह "वेस्टफेलियन संप्रभुता" प्रणाली पर टिका है, जहाँ राज्य अपने नागरिकों की सुरक्षा के सर्वोत्तम संरक्षक माने जाते थे। हालांकि, व्यवहार में, कई बार राज्य स्वयं असुरक्षा का कारण बनते हैं। 20वीं सदी में सरकारें लाखों लोगों की मौत का कारण बनीं, जिससे मानव सुरक्षा दृष्टिकोण उभरा, जो राज्यों के बजाय व्यक्तियों और समुदायों की सुरक्षा पर केंद्रित है।
सुरक्षा खतरों का विस्तार: मानव सुरक्षा ने सुरक्षा खतरों की परिभाषा को व्यापक बनाया। गरीबी, मानवाधिकारों का उल्लंघन, लैंगिक हिंसा, गृह युद्ध, और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को अंतरराज्यीय युद्धों से अधिक खतरनाक माना गया। साथ ही, यह दृष्टिकोण राज्य को खतरे का प्राथमिक स्रोत मानता है, खासकर जब वे अपनी आबादी का दमन करते हैं।
कानूनी तर्क: मानवीय हस्तक्षेप के कानूनी तर्क दो दावों पर आधारित हैं:
1. संयुक्त राष्ट्र चार्टर राज्यों को मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बाध्य करता है।
2. प्रथागत अंतरराष्ट्रीय कानून में मानवीय हस्तक्षेप का अधिकार मौजूद है।
3. कुछ वकील कहते हैं कि मानवाधिकारों की रक्षा बल प्रयोग के मानवीय अपवाद के तहत आ सकती है। ऐतिहासिक उदाहरण, जैसे 1827 में ग्रीस और 1991 में इराक में हस्तक्षेप, इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।
नैतिक तर्क: कानूनी दावों से परे, नैतिक दृष्टिकोण हस्तक्षेप को नागरिकों को नरसंहार और अत्याचार से बचाने का कर्तव्य मानता है। यह तर्क देता है कि संप्रभुता नागरिकों की सुरक्षा पर निर्भर है, और विफल होने पर राज्य का संप्रभु अधिकार समाप्त हो जाना चाहिए। न्यायसंगत युद्ध सिद्धांत और वैश्विक मानवता की भावना इस नैतिक कर्तव्य को समर्थन देते हैं।
चुनौतियाँ और चिंताएँ: हालाँकि, मानवीय हस्तक्षेप का दुरुपयोग एक बड़ी चिंता है। मानवतावादी कारणों को युद्धों को उचित ठहराने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। साथ ही, यह तय करना मुश्किल है कि संकट कितना गंभीर होना चाहिए कि हस्तक्षेप को सही ठहराया जा सके। मानवीय आपातकाल को रोकने के लिए पहले से बल प्रयोग करने का प्रश्न भी विवादास्पद है।
मानवीय हस्तक्षेप के विरुद्ध मामला
मानवीय हस्तक्षेप पर सात प्रमुख आपत्तियाँ उठाई गई हैं, जो विभिन्न सिद्धांतों जैसे यथार्थवाद, उदारवाद, नारीवाद, और उत्तर-औपनिवेशिक दृष्टिकोणों पर आधारित हैं।
कानूनी आधार का अभाव: अंतरराष्ट्रीय कानून केवल आत्मरक्षा या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की अनुमति के तहत बल प्रयोग की अनुमति देता है। ऐतिहासिक रूप से, राज्यों ने हस्तक्षेप को आत्मरक्षा या UNSC की स्वीकृति के आधार पर ही उचित ठहराया है।
प्रेरणाओं की विश्वसनीयता: हस्तक्षेप अक्सर मानवतावादी नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। शक्तिशाली राज्य केवल उन्हीं संकटों में हस्तक्षेप करते हैं, जहाँ उनके हित जुड़े होते हैं।
सैनिकों की जान जोखिम में डालना: यथार्थवादी दृष्टिकोण के अनुसार, राज्यों को अपने नागरिकों की सुरक्षा प्राथमिकता देनी चाहिए। विदेशी संकटों के लिए सैनिकों की जान जोखिम में डालने का नैतिक अधिकार नेताओं के पास नहीं है।
दुरुपयोग की संभावना: मानवीय हस्तक्षेप का बहाना कमजोर राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। अतीत में ऐसे झूठे औचित्य देखे गए हैं, जैसे हिटलर द्वारा चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण।
चयनात्मकता: राज्य मानवीय सिद्धांतों को अपने राष्ट्रीय हित के आधार पर चुनिंदा रूप से लागू करते हैं, जिससे प्रतिक्रियाएँ असंगत हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, कोसोवो में हस्तक्षेप हुआ, लेकिन डारफुर जैसे गंभीर संकट में नहीं।
नैतिक असहमति: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह तय करना कठिन है कि किन नैतिक सिद्धांतों का पालन किया जाए। शक्तिशाली राज्य कमजोरों पर अपने सांस्कृतिक मूल्यों को थोप सकते हैं।
अप्रभावीता: हस्तक्षेप अक्सर अपने लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रहते हैं। आंतरिक संघर्षों से उभरे समाधान अधिक टिकाऊ होते हैं। हस्तक्षेप कभी-कभी और अधिक हिंसा और अस्थिरता को जन्म देता है।