अंतरराष्ट्रीय संबंधों का परिचय UNIT 1 CHAPTER 1 SEMESTER 5 THEORY NOTES अंतरराष्ट्रीय संबंध विषय का इतिहास POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES


अंतरराष्ट्रीय संबंधों का परिचय  UNIT 1 CHAPTER 1 SEMESTER 5 THEORY NOTES अंतरराष्ट्रीय संबंध विषय का इतिहास POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES


परिचय

अंतरराष्ट्रीय संबंधों और इतिहास का गहरा संबंध मानव सभ्यता जितना पुराना है। थ्यूसीडाइड्स के "पेलोपोनेसियन युद्ध का इतिहास" से लेकर आधुनिक भू-राजनीतिक विश्लेषण तक, ऐतिहासिक घटनाओं का अध्ययन अंतरराष्ट्रीय मामलों को समझने की आधारशिला रहा है। इतिहास कूटनीति, संघर्ष समाधान, और वैश्विक बातचीत की जटिलताओं को समझने के लिए अमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।20वीं सदी में, इतिहास और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में विभिन्न दृष्टिकोण उभरे। कुछ दृष्टिकोणों ने इतिहास को अपनाया, जबकि उत्तर-आधुनिकतावाद ने इसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाया। बावजूद इसके, यथार्थवाद, रचनावाद, और आदर्शवाद जैसे सिद्धांतों में इतिहास की प्रासंगिकता बनी रही।यह पाठ अंतरराष्ट्रीय संबंधों के इतिहास, सिद्धांतों, और परंपरागत से समकालीन मुद्दों तक की यात्रा का पता लगाता है, यह समझने के लिए कि बदलती दुनिया में दोनों कैसे जुड़े हुए हैं।


 अंतरराष्ट्रीय संबंध 

अंतरराष्ट्रीय संबंध (International Relations) एक ऐसा अनुशासन है जो देशों, उनके संस्थानों, और अन्य वैश्विक कर्ताओं के बीच आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सुरक्षा से जुड़े अंतःक्रियाओं का अध्ययन करता है। यह समझने का प्रयास करता है कि राष्ट्र और उनके नेता वैश्विक मुद्दों, संघर्षों, और सहयोग के माध्यम से कैसे कार्य करते हैं।

अंतरराष्ट्रीय संबंध की परिभाषाएँ

  • हंस मोर्गेधाऊ: अंतरराष्ट्रीय संबंध को "राज्यों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष" के रूप में परिभाषित किया।
  • थॉमस हॉब्स: इसे "सभी के खिलाफ सभी के युद्ध" की स्थिति में समझाया।
  • केनेथ वाल्ट्ज: इसे "राजनीतिक गतिविधि का एक क्षेत्र" बताया, जिसमें राज्य और अन्य कर्ता परस्पर क्रिया करते हैं।


 अंतरराष्ट्रीय संबंध का महत्त्व 

  • वैश्विक सहयोग और संघर्ष का अध्ययन: यह देखता है कि देश जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, या व्यापार जैसे मुद्दों पर कैसे सहयोग करते हैं या असहमत होते हैं।
  • अराजकता और शक्ति संतुलन: यह समझता है कि केंद्रीय शासन की अनुपस्थिति में देश कैसे सुरक्षा और न्याय के बीच संतुलन बनाते हैं।
  • दैनिक जीवन पर प्रभाव: अंतरराष्ट्रीय संबंध व्यापार, तकनीकी उत्पादन, और संघर्षों के माध्यम से हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, स्मार्टफोन निर्माण में विभिन्न देशों का योगदान वैश्विक व्यापार के जटिल नेटवर्क को दर्शाता है।
  • शांति और समृद्धि: फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों के संबंधों में सुधार ने क्षेत्रीय शांति और विकास को बढ़ावा दिया है।

मुख्य अवधारणाएँ

  • कर्ताओं की भूमिका: इसमें व्यक्तिगत नेता, राज्य, और गैर-राज्य संस्थाएँ शामिल हैं।
  • विश्लेषण के स्तर: व्यक्तिगत, राज्य और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अध्ययन किया जाता है।


 एक विषय के रूप में अंतरराष्ट्रीय संबंधों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

अंतरराष्ट्रीय संबंधों (आई.आर.) का एक विषय के रूप में विकास प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुआ। इस युद्ध ने व्यापक विनाश और शांति स्थापित करने की आवश्यकता को जन्म दिया। इसके परिणामस्वरूप, राष्ट्र संघ और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जैसे संस्थानों का गठन हुआ, जो बहुपक्षीय सहयोग और वैश्विक शांति को बढ़ावा देने के लिए बने।

1. प्रारंभिक विकास और उद्भव

  • प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव: युद्ध की विभीषिका ने अंतरराष्ट्रीय संघर्षों को रोकने और सहयोग बढ़ाने की पहल की।
  • उदारवादी दृष्टिकोण: सर नॉर्मन एंगेल और वुडरो विल्सन जैसे विचारकों ने सामूहिक सुरक्षा और खुली कूटनीति की वकालत की।
  • यथार्थवादी आलोचना: ई.एच. कार जैसे विद्वानों ने शक्ति संतुलन और अराजकता पर आधारित यथार्थवादी दृष्टिकोण का समर्थन किया।

2. विकास के प्रमुख चरण

  • पद्धतिगत विमर्श: 1960-70 के दशक में व्यवहारवाद और परंपरावाद के बीच बहस हुई, जिससे अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन और गहन हुआ।
  • वैश्वीकरण का प्रभाव: 20वीं सदी के अंत में वैश्वीकरण और वैश्विक शासन जैसे मुद्दों ने विषय के दायरे को विस्तारित किया।
  • संस्थागतरण: वेल्स विश्वविद्यालय (1919) ने पहला अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग स्थापित किया। इसके बाद, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों ने इस अध्ययन को औपचारिक रूप दिया।

3. बौद्धिक नींव

  • प्राचीन योगदान: ध्यूसीडाइड्स, मैकियावेली, और ग्रोटियस जैसे विचारकों ने शक्ति, कूटनीति और शासन के अध्ययन को प्रेरित किया।

विचार की परंपराएँ:

  • यथार्थवाद: शक्ति की राजनीति और अराजक व्यवस्था पर बल।
  • उदारवाद: सहयोग और संस्थानों के माध्यम से प्रगति का दृष्टिकोण।
  • मार्क्सवाद: वर्ग संघर्ष और सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका पर ध्यान।

4. समकालीन विकास

  • वैश्विक चुनौतियाँ: अंतरराष्ट्रीय संबंधों ने जलवायु परिवर्तन, मानवाधिकार, और वैश्विक आर्थिक असमानताओं जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।
  • घरेलू और अंतरराष्ट्रीय राजनीति का संलयन: विद्वानों ने इन दो क्षेत्रों के बीच की सीमाओं को धुंधला होते देखा, जिससे नई समझ विकसित हुई।


 अंतरराष्ट्रीय संबंधों का विकास 

अंतरराष्ट्रीय संबंध (आई.आर.) का विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है, जो राजनयिक इतिहास, शक्ति संघर्ष और वैश्विक सहयोग जैसे तत्वों पर आधारित रही है। इसकी उत्पत्ति और क्रमिक विकास को निम्नलिखित चरणों में समझा जा सकता है:

1. प्राचीन और मध्यकालीन संदर्भ

  • प्राचीन सभ्यताओं जैसे सुमेरियन और ग्रीक शहर-राज्यों के बीच राजनयिक संबंधों और संघर्ष समाधान ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों की नींव रखी। हालाँकि, यह 17वीं शताब्दी में वेस्टफेलिया संधि (1648) के बाद था, जब आधुनिक राष्ट्र-राज्य प्रणाली और संप्रभुता का सिद्धांत उभरा।

2. आधुनिक अंतरराष्ट्रीय प्रणाली का प्रारंभ

  • आधुनिक अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की शुरुआत 1648 की वेस्टफेलिया संधि से हुई, जिसने राज्यों की संप्रभुता और उनके घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करने के सिद्धांत को स्थापित किया। इसके बाद, 1713 की यूट्रेक्ट संधि ने राज्य संप्रभुता की अवधारणा को और मजबूत किया, जिससे आधुनिक अंतरराष्ट्रीय संबंधों की नींव पड़ी।

3. 20वीं सदी का विकास

1. प्रथम विश्व युद्ध के बाद: प्रथम विश्व युद्ध के बाद युद्ध-विरोधी भावना के कारण राष्ट्र संघ और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जैसे संगठनों की स्थापना हुई, जो शांति और संघर्ष समाधान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाए गए थे। इसी दौरान अंतरराष्ट्रीय संबंधों को एक शैक्षणिक विषय के रूप में विकसित किया गया, विशेष रूप से ब्रिटेन, अमेरिका और स्विट्जरलैंड में।

2. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद: यथार्थवादी दृष्टिकोण ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सत्ता और राष्ट्रीय हित को प्रमुखता दी। हंस मोर्गेथाऊ ने शक्ति की राजनीति को समझने के लिए यथार्थवाद के सिद्धांत को मजबूती प्रदान की। 1970 के दशक में केनेथ वाल्ट्ज ने नव-यथार्थवाद का वैज्ञानिक और प्रणालीगत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जिसमें राज्यों को अराजक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में सुरक्षा तलाशने वाले तर्कसंगत कर्ता के रूप में देखा गया।

4. समकालीन विकास

  • वैश्वीकरण, तकनीकी प्रगति, और नए सुरक्षा खतरों ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को नया आकार दिया। रचनावाद, नारीवाद, और उत्तर-आधुनिकतावाद जैसे आलोचनात्मक सिद्धांत उभरे, जिन्होंने मौजूदा संरचनाओं और मानदंडों को चुनौती दी और नए दृष्टिकोण पेश किए।

5. वैश्वीकरण और आलोचनात्मक दृष्टिकोण

1. वैश्वीकरण

  • वैश्वीकरण ने व्यापार, संचार, और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से एक वैश्विक समुदाय का निर्माण किया। हालांकि, आलोचकों ने इस प्रक्रिया में बढ़ती असमानता, सांस्कृतिक वर्चस्व, और मुख्यतः अमीर देशों को होने वाले लाभ पर गहरी चिंता व्यक्त की।

2. आलोचनात्मक सिद्धांत

  • आलोचनात्मक दृष्टिकोण ने सामाजिक रूप से निर्मित पहचान और लैंगिक भूमिकाओं जैसे मुद्दों पर जोर दिया। इसने दमनकारी सामाजिक प्रथाओं से मुक्ति और सत्य की जटिलता को समझने की आवश्यकता पर विशेष ध्यान केंद्रित किया।


 अंतरराष्ट्रीय संबंध में विश्लेषण के स्तर 

  • व्यक्तिगत स्तर: इस स्तर पर व्यक्तिगत नेताओं और उनके व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। इसमें उनके व्यक्तित्व, पूर्वाग्रह, और निर्णय लेने की सीमाओं को देखा जाता है। जैसे, किसी नेता का व्यक्तित्व उसकी विदेश नीति को कैसे प्रभावित करता है। अक्सर नेता सीमित जानकारी और समय के दबाव में "सीमित तर्कसंगतता" के तहत निर्णय लेते हैं, जिसमें वे हमेशा सर्वश्रेष्ठ विकल्प नहीं चुनते, बल्कि जो उचित लगे, वही निर्णय लेते हैं।

  • राज्य स्तर: इस स्तर पर सरकारों, संगठनों और समाजों का अध्ययन किया जाता है। इसमें लोकतंत्र, सैन्य शक्ति, और सामाजिक समूहों जैसे धर्म और जातीयता का प्रभाव देखा जाता है। शोधकर्ता यह भी जांचते हैं कि क्या लोकतांत्रिक देश अधिक शांतिपूर्ण होते हैं। इसके अलावा, इसमें छोटे समूह, जैसे राजनीतिक दल, और बड़े समूह, जैसे अंतरराष्ट्रीय गठबंधन, भी शामिल होते हैं।

  • वैश्विक स्तर: इस स्तर पर पूरे विश्व की व्यवस्था, जैसे शक्ति और संसाधनों के वितरण का अध्ययन किया जाता है। इसमें देशों और समूहों के बीच आपसी संबंध और वैश्विक पैटर्न को समझने पर जोर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर, शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच परमाणु हथियारों ने बड़े पैमाने पर युद्ध को रोकने में भूमिका निभाई।



 अंतरराष्ट्रीय संबंधों में विमर्श 

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में समय के साथ विभिन्न विचारधाराओं और दृष्टिकोणों का विकास हुआ है। इन विचारों ने वैश्विक राजनीति को समझने और व्याख्या करने में मदद की है। इनमें प्रमुख विमर्श यथार्थवाद बनाम आदर्शवाद, परंपरावाद बनाम व्यवहारवाद और अन्य आलोचनात्मक दृष्टिकोण शामिल हैं।

1. यथार्थवाद बनाम आदर्शवाद (उदारवाद):

  • यथार्थवाद: यथार्थवाद का मानना है कि सत्ता और सुरक्षा वैश्विक राजनीति के केंद्रीय तत्व हैं। राज्य प्राथमिक कर्ता होते हैं और सत्ता की चाह मानव स्वभाव का हिस्सा है। यह दृष्टिकोण संघर्ष और शक्ति संतुलन पर केंद्रित है।
  • उदारवाद: उदारवाद सहयोग, मानवाधिकार, और प्रगति पर जोर देता है। यह मानता है कि अंतरराष्ट्रीय संगठन और व्यवस्था सहयोग को बढ़ावा दे सकते हैं और वैश्विक स्थिरता सुनिश्चित कर सकते हैं। यह दृष्टिकोण राज्यों के बीच सहयोग और वैश्विक मुद्दों के समाधान को प्राथमिकता देता है।

2. परंपरावाद बनाम व्यवहारवाद:

  • परंपरावाद: परंपरावादी इतिहास, दर्शन, और अंतरराष्ट्रीय कानून पर आधारित गुणात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे नैतिकता और संदर्भ के महत्त्व को स्वीकारते हुए राजनीति की गहन समझ विकसित करते हैं।
  • व्यवहारवाद: व्यवहारवाद राजनीतिक घटनाओं के अनुभवजन्य और मात्रात्मक विश्लेषण पर केंद्रित है। यह मानव व्यवहार में पैटर्न और नियमितताओं की पहचान करके भविष्यवाणी करने योग्य सिद्धांत विकसित करने का प्रयास करता है।

3. समन्वय और वर्तमान प्रभाव

  • परंपरावाद ने राजनीति की गहराई और जटिलता को उजागर किया, जबकि व्यवहारवाद ने विश्लेषण में कठोरता और सटीकता को जोड़ा। इन दोनों दृष्टिकोणों का संयोजन आज के विद्वानों को वैश्विक राजनीति की एक व्यापक और बहुआयामी समझ विकसित करने में मदद करता है।


 अंतर-प्रतिमान विमर्श 

  • उत्पत्ति और संदर्भ: अंतर-प्रतिमान विमर्श 1960 के दशक में उभरा, जब विद्वानों ने यथार्थवाद की सीमाओं को पहचानना शुरू किया। यथार्थवाद, जो राज्य-केंद्रित और सत्ता की राजनीति पर आधारित था, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का प्रमुख सिद्धांत था। हालाँकि, 1960 के दशक तक, इसे अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की जटिलताओं को समझाने में अपर्याप्त माना जाने लगा।
  • प्रमुख विषय और आलोचनाएँ: इस विमर्श में यथार्थवाद के राज्य-केंद्रित दृष्टिकोण और शक्ति की राजनीति पर अत्यधिक जोर की आलोचना की गई। आलोचकों ने तर्क दिया कि यह गैर-राज्य कर्ताओं, जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों और वैश्विक प्रक्रियाओं, की भूमिका को नजरअंदाज करता है। उन्होंने परस्पर निर्भरता, क्षेत्रीय एकीकरण और सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसे कारकों पर जोर देकर वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किए।
  • प्रतिभागी और दृष्टिकोण:

यथार्थवाद को चुनौती देने वाले प्रमुख दृष्टिकोणों में उदारवाद और मार्क्सवाद शामिल थे।

1. उदारवाद: इसने अंतरराष्ट्रीय संस्थानों, मानदंडों और वैश्विक नेटवर्क की भूमिका को मान्यता दी।

2. मार्क्सवाद: इसने पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, और वर्ग संघर्ष की आलोचना करते हुए वैश्विक व्यवस्था के प्रति वैकल्पिक दृष्टिकोण दिया।

  • निहितार्थ और विरासत: अंतर-प्रतिमान विमर्श ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन को बहुलतावादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया। इसने एक ही सिद्धांत पर निर्भर रहने की बजाय विविध दृष्टिकोणों की आवश्यकता को रेखांकित किया। यह विमर्श सैद्धांतिक लचीलापन और अंतःविषयक संवाद को बढ़ावा देने में सहायक रहा, जिससे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन को अधिक गतिशील और समग्र दृष्टिकोण मिला।



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