प्रस्तावना
स्वराज शब्द को दादाभाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के उद्देश्य के रूप में प्रमुखता दी। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में, यह शब्द स्वतंत्रता आंदोलन में लोकप्रिय हुआ। महात्मा गाँधी ने इसे नए संदर्भ में प्रस्तुत कर स्वदेशी की व्यापक व्याख्या की, जिससे यह सामूहिक स्वतंत्रता और राष्ट्रवादी भावना का प्रतीक बन गया।
स्वराज की अवधारणा
- स्वराज का प्राचीन और आधुनिक संदर्भ: प्राचीन भारतीय चिंतन में स्वराज का अर्थ व्यक्ति की आत्मनिर्भरता, आत्म-समर्पण, और नैतिक उन्नति से जुड़ा था। आधुनिक काल में महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक ने इसे राजनीतिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनाया।
- महात्मा गाँधी का स्वराज: गाँधी के अनुसार, स्वराज का अर्थ अंग्रेजी शासन से मुक्ति के साथ-साथ आत्मनिर्भरता और आत्मशक्ति की प्राप्ति है। उन्होंने इसे "अंग्रेजी शासन के बिना अंग्रेजी शासन" के रूप में परिभाषित किया, जो बाह्य स्वतंत्रता के साथ आंतरिक आत्मनिर्भरता पर जोर देता है।
- लोकमान्य तिलक का स्वराज: तिलक ने स्वराज को "जन्मसिद्ध अधिकार" कहा और इसे राजनीतिक, आध्यात्मिक, और सामाजिक स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित किया। उनका मानना था कि स्वराज्य भारतीयों की आत्मा है और इसे प्राप्त करने के लिए जन-ऊर्जा और राष्ट्रवादी भावना को प्रज्वलित करना आवश्यक है।
- तिलक का योगदान: तिलक ने 'गणपति उत्सव' और 'शिवाजी उत्सव' के माध्यम से जनजागृति लाई और "गीता रहस्य" की रचना कर भारतीयों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया।
- स्वराज की आध्यात्मिकता: स्वराज केवल राजनीतिक अवधारणा नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति की आत्मा और सृजनात्मकता की स्वायत्तता का प्रतीक है। तिलक ने इसे आध्यात्मिक अनिवार्यता के रूप में देखा, जो आंतरिक स्वतंत्रता और आनंद की अनुभूति कराती है।
- आधुनिक संदर्भ में स्वराज: तिलक का स्वराज आज भी प्रासंगिक है। उनकी विचारधारा युवा पीढ़ी को भौतिक सुखों के मोह से मुक्त होकर राष्ट्रोत्थान में योगदान देने की प्रेरणा देती है।
बाल गंगाधर तिलक और स्वराज
- स्वराज का अर्थ: तिलक का राजनीतिक दर्शन 'स्वराज' पर केंद्रित था, जिसका अर्थ है 'जनता का शासन'। यह केवल विदेशी सत्ता से मुक्ति नहीं, बल्कि एक उत्तरदायी लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रतीक था। तिलक ने इसे "प्राकृतिक अधिकार" और "व्यक्ति की आत्मा का जीवन" माना। उनके अनुसार, स्वराज का उद्देश्य सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में स्वतंत्रता सुनिश्चित करना था।
- स्वराज की अवधारण: तिलक ने स्वराज को भारतीय शास्त्रों से प्रेरित बताते हुए इसे केवल राजनीतिक अधिकार नहीं, बल्कि एक धर्म और नैतिक जिम्मेदारी माना। उन्होंने कहा कि सत्ता जनता में केंद्रित होनी चाहिए और शासन की संप्रभुता का आधार जनता हो।
- सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक आधार: तिलक ने स्वराज को राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक और नैतिक प्रगति के लिए आवश्यक बताया। उन्होंने कहा कि "स्वतंत्रता मनुष्य के नैतिक और बौद्धिक विकास के लिए अनिवार्य है।" उन्होंने स्वराज के संदेश को लोकप्रिय बनाने के लिए होमरूल लीग और 1916 में "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" का नारा दिया।
- स्वदेशी और बहिष्कार का महत्त्व
तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार को स्वराज के लिए प्रभावी रणनीति माना।
1. स्वदेशी: भारतीय वस्त्र और उत्पादों को अपनाने पर बल दिया।
2. बहिष्कार: विदेशी वस्त्रों और ब्रिटिश शासन का विरोध किया।
3. राष्ट्रीय शिक्षा: पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना का आग्रह किया।
- निष्क्रिय प्रतिरोध: तिलक ने निष्क्रिय प्रतिरोध को स्वराज के लिए एक प्रभावी साधन माना। हालाँकि, उन्होंने अहिंसा के गाँधीवादी सिद्धांत का समर्थन नहीं किया। उनके अनुसार, निष्क्रिय प्रतिरोध शक्ति और साहस का प्रतीक होना चाहिए।
- तिलक का प्रभाव: तिलक को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चरमपंथी गुट का नेता माना गया। उन्होंने स्वराज को राष्ट्रीय आंदोलन का केंद्र बिंदु बनाया। दादाभाई नौरोजी ने भी उनके विचारों का समर्थन करते हुए कहा कि स्वराज कांग्रेस का लक्ष्य होना चाहिए।
मोहनदास करमचंद गाँधी और स्वराज
- स्वराज की अवधारणा: गाँधी ने स्वराज को केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं रखा। उनकी पुस्तक "हिंद स्वराज" (1909) में इसे "अंग्रेजों के बिना अंग्रेजी शासन" से परे आत्म-शासन और आत्म-नियंत्रण के व्यापक अर्थ में परिभाषित किया गया। स्वराज का अर्थ अमानवीय संस्थाओं पर नियंत्रण, आत्म-सम्मान, आत्म-उत्तरदायित्व, और आत्म-साक्षात्कार की क्षमताओं का विकास है।
- असली स्वराज का उद्देश्य: गाँधी के लिए स्वराज केवल अंग्रेजों से मुक्ति नहीं, बल्कि आत्म-शासन के माध्यम से सामाजिक, आध्यात्मिक, और नैतिक सुधार प्राप्त करना था। उन्होंने कहा, "जब हम अपने ऊपर शासन करना सीखते हैं, वही स्वराज है।"
- आत्म-शासन और लोकतंत्र: गाँधी ने आत्म-शासन को ऐसी व्यवस्था माना, जिसमें व्यक्ति और समुदाय बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त हों। यह औपनिवेशिक शासन, निरंकुशता, और राजतंत्र के अंत का प्रतीक था। उन्होंने इसे गणराज्य, लोकतंत्र, और राष्ट्रवाद के लिए मूलभूत सिद्धांत बताया।
1. गाँधी के स्वराज की संकल्पना
- स्वराज का अर्थ: गाँधी के लिए स्वराज केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि हर प्रकार की पराधीनता से मुक्ति और आत्म-शासन का प्रतीक था। उन्होंने कहा कि स्वराज जनता के आत्म-सम्मान, आत्म-उत्तरदायित्व, और आत्म-साक्षात्कार की क्षमताओं के विकास का प्रयास है। सच्चा स्वराज तभी संभव है जब जनता सत्ता का दुरुपयोग रोकने और उसे नियंत्रित करने में सक्षम हो।
- पूर्ण स्वराज और जनजागृति: गाँधी के अनुसार, पूर्ण स्वराज का अर्थ है जनता के बीच जागरूकता और आत्मनिर्भरता। यह न केवल आंतरिक और बाहरी आक्रमण से मुक्ति है, बल्कि आम लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार और सभी के लिए समान अधिकार भी है। उनके लिए स्वराज में कोई भेदभाव नहीं था; यह सभी—भूखे, मेहनतकश और अपंग सहित, सबका था।
2. नैतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता
गाँधी ने नैतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता के लिए अनासक्ति और अभय को आवश्यक माना।
- अनासक्ति: गीता के कर्मयोग के आधार पर उन्होंने परिणाम की इच्छा से मुक्त होकर कार्य करने का महत्व बताया।
- अभय: ईश्वर के प्रति समर्पण के माध्यम से भयमुक्त होकर सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी।
- प्रौद्योगिकी और स्वतंत्रता: गाँधी ने आधुनिक युग की तकनीकी सभ्यता की आलोचना की, लेकिन उन्हें विश्वास था कि नैतिक पुनर्जागरण के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। उनके अनुसार, स्वतंत्रता, समानता, और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों के माध्यम से ईश्वर के राज्य की स्थापना संभव है।
राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों पर आधारित स्वराज की संकल्पना
1. राजनीतिक अधिकार और स्वराज
गाँधी का स्वराज केवल सत्ता परिवर्तन तक सीमित नहीं था, बल्कि वह जनता की भागीदारी और उनकी इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार की स्थापना में विश्वास करते थे।
- किसानों और मजदूरों के अधिकार: गाँधी ने चम्पारण (1917), खेड़ा (1918), और अहमदाबाद (1918) जैसे आंदोलनों में किसानों और मजदूरों के अधिकारों की वकालत की।
- साम्राज्यवाद का विरोध: उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत की राजनीतिक और आर्थिक दुर्दशा का कारण मानते हुए स्वतंत्रता की आवश्यकता पर बल दिया।
- सरकार का उद्देश्य: गाँधी का मानना था कि सरकार लोगों की सेवा के लिए है, न कि लोग सरकार के अधीन रहने के लिए।
2. सामाजिक अधिकार और स्वराज
गाँधी ने स्वराज को सामाजिक एकजुटता और नैतिक सुधार का माध्यम माना।
- समाज सुधार: उन्होंने असमाजिकता, जातिवाद, और भेदभाव के उन्मूलन को स्वराज की आधारशिला माना।
- अनुशासन और कष्ट सहन: गाँधी के अनुसार, राजनीतिक स्वतंत्रता सामाजिक अनुशासन, एकता, और कष्ट सहन के बिना असंभव है। स्वराज केवल त्याग और संघर्ष के माध्यम से प्राप्त हो सकता है।
3. आर्थिक अधिकार और स्वराज
गाँधी के लिए आर्थिक स्वतंत्रता राजनीतिक स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा थी।
- आत्मनिर्भरता: गाँधी ने व्यापक जनसंख्या के लिए रोजगार की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने लिखा, "जब तक लोग यह न जानें कि बेरोजगारी को कैसे दूर करें, तब तक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है।"
- स्वदेशी और कुटीर उद्योग: गाँधी ने ग्रामीण रोजगार और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया, ताकि भारत की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित हो सके।
4. स्वराज की नैतिक और अनुशासनिक नींव
गाँधी का स्वराज अनुशासन, नम्रता, और सत्य पर आधारित था।
- नैतिकता और अनुशासन: गाँधी ने कहा कि स्वराज एक उपहार नहीं, बल्कि संघर्ष और त्याग से प्राप्त होने वाला अधिकार है।
- सामाजिक एकता: स्वराज का लाभ केवल संगठित और एकजुट समाज को ही प्राप्त हो सकता है।
5. स्वतंत्रता का उद्देश्य