आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन UNIT 3 CHAPTER 3 SEMESTER 5 THEORY NOTES राज्य और लोकतंत्र : जवाहरलाल नेहरू, दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया और भीमराव रामजी अम्बेडकर POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES

आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन  UNIT 3 CHAPTER 3 SEMESTER 5 THEORY NOTES राज्य और लोकतंत्र : जवाहरलाल नेहरू, दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया और भीमराव रामजी अम्बेडकर POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES


 जवाहरलाल नेहरू 

  • प्रारंभिक जीवन और शिक्षा: जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर 1889 को इलाहाबाद में हुआ। वे एक संपन्न कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए। उन्होंने हैरो, ईटन और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की और इनर टेम्पल से कानून की पढ़ाई की।
  • स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका: भारत लौटने के बाद नेहरू ने वकालत छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड से प्रेरित होकर वे महात्मा गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन में शामिल हुए। 1929 में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पूर्ण स्वराज की माँग का प्रस्ताव पारित कराया।
  • जेल यात्राएँ और समाजवादी दृष्टिकोण: नेहरू ने नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे आंदोलनों में भाग लिया और कई बार जेल गए। वे समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे और भारत को एक समतावादी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए काम किया।
  • स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री: 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, नेहरू पहले प्रधानमंत्री बने। उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना और औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू कीं।
  • शिक्षा और विज्ञान में योगदान: नेहरू ने आईआईटी, आईआईएम, और एम्स जैसी संस्थाओं की स्थापना में योगदान दिया और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहित किया।
  • विदेश नीति और गुटनिरपेक्षता: नेहरू की विदेश नीति गुटनिरपेक्षता पर आधारित थी। उन्होंने पंचशील समझौता किया और गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी। हालांकि, 1962 के चीन युद्ध ने उनकी नीति को चुनौती दी।
  • परिवार और विरासत: नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का निधन 1936 में हुआ। उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा गाँधी को राजनीति में प्रेरित किया। 27 मई 1964 को नेहरू का निधन हुआ, लेकिन उन्होंने भारतीय समाज में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच को मजबूत किया।

राज्य पर नेहरू के विचार

जवाहरलाल नेहरू का राज्य संबंधी दृष्टिकोण आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, और लोकतंत्र पर आधारित था। उन्होंने राज्य को सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने और एक समावेशी समाज बनाने का माध्यम माना।

  • धर्मनिरपेक्षता और राज्य: नेहरू के अनुसार, राज्य को धर्म से अलग रहना चाहिए और सभी धर्मों के प्रति निष्पक्ष होना चाहिए। उन्होंने संविधान में धर्मनिरपेक्षता को महत्व दिया और धार्मिक संघर्षों को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए।
  • आर्थिक नीति और राज्य: नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की वकालत की, जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों की भूमिका हो। पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से उन्होंने कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्रों में विकास को प्राथमिकता दी और आर्थिक असमानता को कम करने पर जोर दिया।
  • सामाजिक न्याय और राज्य: नेहरू का मानना था कि राज्य का कर्तव्य सामाजिक असमानताओं को खत्म करना है। उन्होंने दलितों और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का समर्थन किया और शिक्षा व रोजगार के क्षेत्र में समान अवसर प्रदान किए।
  • लोकतंत्र और राज्य: नेहरू ने लोकतंत्र को केवल राजनीतिक व्यवस्था नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक प्रगति का आधार माना। वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक समानता को लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक मानते थे।
  • शिक्षा और राज्य: नेहरू ने शिक्षा को समाज के विकास की कुंजी माना। उन्होंने आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों की स्थापना की। उनके अनुसार, शिक्षा से आत्मानुशासन और नैतिकता का विकास होता है, जो लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
  • अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण और राज्य: नेहरू ने विश्व शांति, सहअस्तित्व, और गुटनिरपेक्षता का समर्थन किया। उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) में प्रमुख भूमिका निभाई और भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक स्वतंत्र और स्वायत्त राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।

लोकतंत्र पर नेहरू के विचार

जवाहरलाल नेहरू भारतीय लोकतंत्र के मजबूत स्तंभ थे। उनके लिए लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक प्रणाली नहीं, बल्कि आर्थिक समानता, सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आधार था।

  • राजनीतिक और आर्थिक लोकतंत्र: नेहरू के अनुसार, राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है; इसके साथ आर्थिक समानता भी जरूरी है। उनका मानना था कि भूखे और दरिद्र समाज में लोकतंत्र का कोई महत्व नहीं है। वे सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर कर न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था के समर्थक थे।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक प्रगति: नेहरू ने बोलने, अभिव्यक्ति, और संघ बनाने की स्वतंत्रता को लोकतंत्र की नींव माना। उनका दृष्टिकोण था कि व्यक्तिगत और नागरिक स्वतंत्रता के बिना समाज की प्रगति असंभव है।
  • नैतिक मानदंड और पारस्परिक सद्भावना: नेहरू ने लोकतंत्र को नैतिक मानदंडों और पारस्परिक सद्भावना पर आधारित बताया। वे अनुशासन, सहिष्णुता और दूसरों की स्वतंत्रता के आदर को लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक मानते थे।
  • समाज का आत्मानुशासन: नेहरू लोकतंत्र को समाज का आत्मानुशासन मानते थे। उन्होंने शिक्षा को आत्मानुशासन के विकास का आधार बताया। उनका मानना था कि जब समाज आत्मानुशासन अपनाता है, तो लोकतंत्र स्वतः सफल होता है।
  • लोकतांत्रिक ढंग और नैतिक चरित्र: नेहरू संविधान और कानूनी साधनों के माध्यम से लोकतांत्रिक निर्णयों को लागू करने में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि नैतिकता और उच्च चरित्र लोकतंत्र की सफलता के लिए अनिवार्य हैं।
  • समग्र दृष्टिकोण: नेहरू ने लोकतंत्र को एक समग्र प्रणाली के रूप में देखा, जो राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक स्वतंत्रता को एकीकृत करती है। उनके अनुसार, सच्चे लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनावी प्रक्रिया नहीं, बल्कि न्याय और समानता सुनिश्चित करना है।


 दीनदयाल उपाध्याय (1916-1968) 

  • प्रारंभिक जीवन: दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को मथुरा जिले के नगला चंद्रभान गाँव में हुआ। माता-पिता के निधन के बाद उनका पालन-पोषण मामा-मामी ने किया। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा राजस्थान के सीकर में प्राप्त की और बी.ए. की डिग्री सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से ली।
  • संघ से जुड़ाव: उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े और डॉ. हेडगेवार के साथ काम करते हुए राष्ट्रवादी विचारधारा को फैलाया। संघ के प्रचारक के रूप में उन्होंने संगठन में विभिन्न स्तरों पर काम किया।
  • भारतीय जनसंघ का नेतृत्व: 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा स्थापित भारतीय जनसंघ के महासचिव बने। उनके नेतृत्व में जनसंघ ने तेजी से विस्तार किया और एक प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में उभरा।
  • एकात्म मानववाद का सिद्धांत: उपाध्याय ने 'एकात्म मानववाद' का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जो भारतीय समाज के समग्र विकास और आत्मनिर्भरता पर आधारित था। उन्होंने समाज के सभी वर्गों के विकास और नैतिक मूल्यों पर जोर दिया।
  • साहित्यिक योगदान: दीनदयाल उपाध्याय ने कई पुस्तकें लिखीं और 'राष्ट्र धर्म', 'पांचजन्य' और 'स्वदेश' पत्रिकाओं का संपादन किया। उनके लेखों में भारतीय संस्कृति, राजनीति और समाज के प्रति उनके गहन विचार झलकते हैं।
  • निधन और विरासत: 11 फरवरी 1968 को उनकी मृत्यु मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर रहस्यमय परिस्थितियों में हुई। उनका जीवन सादगी और राष्ट्र सेवा का प्रतीक है। 'एकात्म मानववाद' आज भी भारतीय राजनीति में राष्ट्रवादी संगठनों की विचारधारा का मूल आधार है।

लोकतंत्र पर दीनदयाल उपाध्याय के विचार

दीनदयाल उपाध्याय ने लोकतंत्र को केवल शासन प्रणाली नहीं, बल्कि समाज को सशक्त और समृद्ध बनाने का माध्यम माना। उनके लोकतांत्रिक विचार भारतीय संस्कृति और परंपराओं पर आधारित थे और समाज को न्यायपूर्ण, समरस और समान बनाने पर केंद्रित थे।

  • भारतीय संस्कृति और लोकतंत्र: दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतीय संस्कृति और परंपराएँ लोकतंत्र के मूल तत्वों को पोषित करती हैं। उनके अनुसार, लोकतंत्र सामाजिक समरसता, न्याय और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • सामाजिक समरसता: उन्होंने लोकतंत्र को सामाजिक समानता और न्याय का माध्यम माना। उनका मानना था कि लोकतंत्र असमानताओं को समाप्त कर समाज में समरसता और समानता को बढ़ावा देता है।
  • राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सहयोग: उपाध्याय ने लोकतंत्र को राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सहयोग का प्रमुख आधार माना। उन्होंने सभी वर्गों को एकजुट करने और समाज के समग्र विकास के लिए लोकतंत्र की भूमिका पर जोर दिया।
  • स्वतंत्रता का महत्व: उन्होंने स्वतंत्रता को लोकतंत्र का महत्वपूर्ण घटक बताया। उनके अनुसार, लोकतंत्र केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें व्यक्तिगत, सामाजिक, और आर्थिक स्वतंत्रता भी शामिल है।
  • संविधानिक लोकतंत्र: उपाध्याय ने संविधान को लोकतंत्र का आधार माना और इसकी सर्वोच्चता को स्वीकार किया। उनके अनुसार, संविधान समाज के सभी वर्गों को स्वतंत्रता और न्याय की गारंटी देता है।
  • सामाजिक समानता के लिए संघर्ष: उन्होंने सामाजिक असमानता और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया। उनका मानना था कि लोकतंत्र के माध्यम से समाज में समानता और न्याय स्थापित किया जा सकता है।


 डॉ. राममनोहर लोहिया (1910-1967) 

  • प्रारंभिक जीवन और शिक्षा: डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में हुआ। उनके पिता हीरालाल लोहिया, जो एक शिक्षक और कांग्रेस के समर्थक थे, ने उनकी परवरिश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालय से, फिर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए जर्मनी गए और बर्लिन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उनकी थीसिस 'नमक कर और सत्याग्रह' पर आधारित थी।
  • स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: लोहिया महात्मा गाँधी के अहिंसात्मक संघर्ष से प्रेरित थे और 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के गठन में अहम भूमिका निभाई। भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जनांदोलनों का नेतृत्व किया। उन्होंने अपने लेखन और भाषणों के माध्यम से जनता को जागरूक किया।
  • स्वतंत्रता के बाद का राजनीतिक जीवन: स्वतंत्रता के बाद, लोहिया कांग्रेस से अलग हो गए और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। वे नेहरू सरकार की नीतियों के प्रबल आलोचक थे। उन्होंने 'चौखंभा राज' का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसमें सत्ता के विकेंद्रीकरण को केंद्र से गांव स्तर तक लाने की वकालत की।
  • 'सप्त क्रांति' का सिद्धांत: लोहिया ने जाति व्यवस्था, असमानता, लिंग भेद, हिंसा, और उपनिवेशवाद के खिलाफ 'सप्त क्रांति' का आह्वान किया।
  • व्यक्तिगत जीवन और विरासत: लोहिया का जीवन सादगी और संघर्ष का प्रतीक था। उन्होंने समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाया और भारतीय राजनीति को नई दिशा दी। 12 अक्टूबर 1967 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनके विचार आज भी समाज और राजनीति में प्रासंगिक हैं।


 राज्य पर डॉ. राममनोहर लोहिया के विचार 

डॉ. राममनोहर लोहिया के राज्य संबंधी विचार गहन और समाजवादी दृष्टिकोण पर आधारित थे। उन्होंने राज्य को समाज की प्रगति, समानता और न्याय का माध्यम माना। उनके विचार निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं में प्रस्तुत किए जा सकते हैं:

लोकतंत्र पर डॉ. राममनोहर लोहिया के विचार

डॉ. राममनोहर लोहिया लोकतंत्र को केवल एक शासन प्रणाली नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, और नैतिक दृष्टिकोण के रूप में देखते थे। उन्होंने लोकतंत्र को समाज में न्याय, समानता और स्वतंत्रता स्थापित करने का माध्यम माना। उनके विचार निम्नलिखित बिंदुओं में स्पष्ट किए जा सकते हैं:

  • लोकतंत्र और समाजवाद: लोहिया के अनुसार, समाजवाद के बिना लोकतंत्र अधूरा है। उन्होंने आर्थिक और सामाजिक समानता को लोकतंत्र का आधार माना। उनके विचार में समाजवाद नागरिक अधिकारों और राजनीतिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है।
  • विकेंद्रीकरण और सत्ता का बंटवारा: लोहिया ने सत्ता के विकेंद्रीकरण पर जोर दिया। उनका मानना था कि स्थानीय स्वशासन और पंचायत राज लोकतंत्र की आत्मा हैं, जहाँ लोग अपनी समस्याओं का समाधान खुद कर सकें।
  • चुनावी सुधार: लोहिया ने धन और बाहुबल के प्रभाव को कम करने के लिए चुनाव प्रणाली में सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने निष्पक्ष और पारदर्शी निर्वाचन प्रक्रिया की वकालत की।
  • नागरिक अधिकार और स्वतंत्रता: लोहिया ने अभिव्यक्ति, प्रेस और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लोकतंत्र का आधार माना। उनके अनुसार, जब तक नागरिक स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं होगी, तब तक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता।
  • जाति और वर्ग संघर्ष: लोहिया ने जातिवाद और वर्ग विभाजन को लोकतंत्र के लिए बाधा माना। उन्होंने "जाति तोड़ो आंदोलन" चलाया और समाज के सभी वर्गों के लिए समान अवसरों की वकालत की।
  • महिलाओं की स्थिति: लोहिया ने महिलाओं की शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, और राजनीतिक अधिकारों को लोकतंत्र का अभिन्न अंग माना। उन्होंने महिलाओं की समानता को समाज की प्रगति के लिए आवश्यक बताया।
  • राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक विविधता: लोहिया ने भारतीय लोकतंत्र को राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक विविधता का संरक्षक माना। उन्होंने विविध संस्कृतियों और भाषाओं के सामंजस्य को लोकतंत्र की ताकत बताया।
  • अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण: लोहिया का लोकतंत्र संबंधी दृष्टिकोण वैश्विक था। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय शांति और न्याय के लिए लोकतांत्रिक देशों की सक्रिय भूमिका का समर्थन किया।
  • आर्थिक लोकतंत्र: लोहिया ने राजनीतिक लोकतंत्र को आर्थिक लोकतंत्र का पूरक माना। उनके अनुसार, संसाधनों का समान वितरण, भूमि सुधार, और श्रमिक अधिकार लोकतंत्र को सशक्त बनाते हैं।
  • शिक्षा और बौद्धिक स्वतंत्रता: लोहिया ने शिक्षा को लोकतंत्र का मुख्य आधार माना। उन्होंने शिक्षा के माध्यम से जागरूकता और स्वतंत्रता की भावना को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल दिया।
  • भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष: लोहिया ने भ्रष्टाचार को लोकतंत्र का सबसे बड़ा शत्रु माना। उन्होंने पारदर्शिता और ईमानदारी को प्रशासन का मुख्य मूल्य बताते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कदम उठाने की वकालत की।
  • विकास और पर्यावरण संरक्षण: लोहिया ने सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण को लोकतंत्र की जिम्मेदारी बताया। उनका मानना था कि विकास की नीतियाँ ऐसी होनी चाहिए जो पर्यावरण को नुकसान न पहुँचाएँ।


 डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर (1891-1956) 

  • प्रारंभिक जीवन और शिक्षा: डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू में हुआ। सामाजिक भेदभाव के बावजूद, उन्होंने सतारा और मुंबई में शिक्षा प्राप्त की और अपने समुदाय के पहले मैट्रिक पास व्यक्ति बने। कोलंबिया विश्वविद्यालय से एम.ए. और पीएच.डी., तथा लंदन से डी.एस.सी. और बार-एट-लॉ की डिग्री हासिल की।
  • समाज सुधार और आंदोलन: अम्बेडकर ने भारत लौटकर वकालत शुरू की और दलित अधिकारों के लिए संघर्ष किया। 1927 के 'महाड़ सत्याग्रह' से अछूतों के जलस्रोत उपयोग के अधिकार की मांग की और 'मूकनायक', 'बहिष्कृत भारत', व 'जनता' पत्रिकाओं से उनकी आवाज बुलंद की।
  • संविधान निर्माण: अम्बेडकर संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष बने और भारत का संविधान तैयार किया। उन्होंने समानता, स्वतंत्रता, और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को संविधान में शामिल किया और जातिवाद और छुआछूत के खिलाफ सख्त प्रावधान बनाए।
  • हिंदू कोड बिल और बौद्ध धर्म: उन्होंने हिंदू कोड बिल तैयार किया, जो महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करता था। राजनीतिक असहमतियों के कारण, उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया और लाखों दलितों के साथ दीक्षित हुए, इसे सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक कदम माना।
  • विरासत: 6 दिसंबर 1956 को अम्बेडकर का निधन हुआ। उनके विचार और कार्य आज भी भारतीय समाज और दलितों के लिए प्रेरणा हैं। वे एक महानायक थे जिन्होंने अपने संघर्ष और साहस से शोषित वर्गों को अधिकार और सम्मान दिलाया।

राज्य पर डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचार 

  • राज्य और समाज: अम्बेडकर ने राज्य को समाज का अभिन्न अंग माना। उनका विचार था कि राज्य का मुख्य कार्य समाज के सभी वर्गों, विशेषकर पिछड़े और शोषित वर्गों, के हितों की रक्षा करना है।
  • सामाजिक न्याय और समानता: अम्बेडकर ने सामाजिक न्याय और समानता को राज्य का प्राथमिक उद्देश्य माना। उन्होंने एक ऐसा समाज बनाने पर जोर दिया जहाँ सभी को समान अधिकार, अवसर, और स्वतंत्रता मिले।
  • सामाजिक और आर्थिक असमानता का अंत: अम्बेडकर ने मौजूदा सामाजिक और आर्थिक असमानता को समाप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने सरकारी व्यवस्था को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाने की माँग की।
  • राज्य की स्वतंत्रता: उन्होंने न्यायपूर्ण और पारदर्शी निर्णय लेने के लिए राज्य की स्वतंत्रता का समर्थन किया। राज्य को आम जनता के हित में स्वतंत्र और प्रभावी रूप से कार्य करना चाहिए।
  • अधिकारों की सुरक्षा: अम्बेडकर ने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा को राज्य की प्रमुख जिम्मेदारी माना। उन्होंने भारतीय संविधान में जीवन, स्वतंत्रता, और समानता जैसे अधिकारों का प्रावधान किया।
  • शिक्षा का महत्व: अम्बेडकर ने शिक्षा को सामाजिक और आर्थिक उत्थान का माध्यम माना। उन्होंने शिक्षा के समान अवसरों और संस्थानों की स्थापना पर बल दिया।
  • सामान्य जनता की भागीदारी: अम्बेडकर ने राज्य के निर्माण और समाज में सामान्य लोगों की सक्रिय भागीदारी का समर्थन किया, खासकर शोषित और पिछड़े वर्गों के लिए।

लोकतंत्र पर डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचार 

  • लोकतंत्र की परिभाषा: अम्बेडकर ने लोकतंत्र को एक शासन प्रणाली से अधिक जीवन जीने का तरीका माना। उन्होंने इसे स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारे पर आधारित सामाजिक संगठन बताया।
  • राजनीतिक लोकतंत्र: उन्होंने राजनीतिक लोकतंत्र को लोकतंत्र की नींव माना। भारतीय संविधान में संसदीय प्रणाली का समर्थन करते हुए, उन्होंने नागरिकों को प्रतिनिधित्व और जवाबदेही सुनिश्चित की।
  • सामाजिक लोकतंत्र: अम्बेडकर ने सामाजिक समानता को लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा माना। उन्होंने जातिवाद, छुआछूत, और सामाजिक असमानता को खत्म करने और कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया।
  • आर्थिक लोकतंत्र: अम्बेडकर ने आर्थिक स्वतंत्रता को लोकतंत्र का मुख्य स्तंभ माना। उन्होंने भूमि सुधार, मजदूरों के अधिकार, और रोजगार के अवसरों को बढ़ावा देने पर जोर दिया।
  • राज्य की भूमिका: अम्बेडकर ने राज्य को न्याय, समानता, और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाला संगठन माना। उन्होंने कमजोर वर्गों की उन्नति के लिए राज्य को विशेष कदम उठाने की आवश्यकता पर बल दिया।
  • धर्म और लोकतंत्र: अम्बेडकर ने धर्म और राजनीति को अलग रखने की वकालत की। उन्होंने धर्म को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा माना, लेकिन राज्य के मामलों से इसे दूर रखने का सुझाव दिया।
  • संविधान और लोकतंत्र: अम्बेडकर ने संविधान को लोकतंत्र का रक्षक माना। उन्होंने इसे मौलिक अधिकारों, समानता, और सामाजिक न्याय का साधन बताया। संविधान को एक जीवंत दस्तावेज के रूप में देखा।
  • शिक्षा और लोकतंत्र: उन्होंने शिक्षा को लोकतंत्र का आधार बताया। उन्होंने मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की वकालत की, ताकि समाज के सभी वर्गों को समान अवसर मिल सके।
  • महिला अधिकार और लोकतंत्र: अम्बेडकर ने महिलाओं के अधिकारों को लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा माना। उन्होंने संविधान में महिलाओं के लिए समानता और सामाजिक उन्नति के प्रावधान किए।
  • सांप्रदायिकता और लोकतंत्र: अम्बेडकर ने सांप्रदायिकता को लोकतंत्र के लिए खतरा माना। उन्होंने समाज में सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देने पर जोर दिया।



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