भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce .तक UNIT 4 SEMESTER 1 THEORY NOTES वैदिक और महापाषाण संस्कृतियाँ: एक अवलोकन DU. SOL.DU NEP COURSES

 

भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce .तक UNIT 4 SEMESTER 1 THEORY NOTES वैदिक और महापाषाण संस्कृतियाँ: एक अवलोकन DU. SOL.DU NEP COURSES

वैदिक साहित्य

वैदिक साहित्य भारत की सबसे प्राचीन साहित्यिक परंपरा है, जिसमें भारतीय जीवन और सांस्कृतिक सार निहित माना गया है। इसे इतिहास, दर्शन, गणित, और राजनीति के आरंभ का स्रोत भी माना जाता है, जो भारतीयता का आधार प्रस्तुत करता है। वैदिक साहित्य और इसके प्रभाव को समझने के प्रयासों ने कई विवादों को जन्म दिया है। वैदिक युग की अवधारणा से भारतीय लौह युग, द्वितीय शहरीकरण, और गंगा संस्कृति जैसे उपनाम जुड़े हैं, जो ऐतिहासिक विकास की दिशा को दर्शाते हैं।


ऋग्वेद : भारतीय इतिहास और संस्कृति का प्राचीनतम ग्रंथ

ऋग्वेद को भारोपीय भाषाओं का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है, जो भारतीय साहित्य का आद्यतम स्रोत है। यह संग्रह विभिन्न ऋषियों और कवियों ने अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण, सोम जैसे देवताओं की स्तुतियों के रूप में रचा। यह दस मंडलों का संकलन है, जिनमें से मंडल 2 से 7 सबसे प्राचीन माने जाते हैं और इन्हें "कुल-ग्रंथ" कहा जाता है। पहले और दसवें मंडल को सबसे बाद में जोड़ा गया, जिसमें दसवां मंडल (पुरुष सूक्त) विशेष रूप से उल्लेखनीय है और इसे मूल ऋग्वेद का हिस्सा नहीं माना जाता।

ऋग्वेद और ईरानी ग्रंथ जेंद अवेस्ता में देवताओं और सामाजिक वर्गों के नाम समान हैं, जो संस्कृत और ईरानी संस्कृति के ऐतिहासिक संबंध को दर्शाते हैं। ऋग्वेद का भूगोल मुख्यतः सप्त सैंधव (सात नदियों का क्षेत्र, आधुनिक पंजाब) में माना जाता है। तिथि निर्धारण में विभिन्न सिद्धांत और पुरातात्त्विक साक्ष्य सामने आए हैं, जैसे कि यूराल क्षेत्र की कांस्य युग की कब्रें, गांधार में अश्व-अवशेष, और पश्चिम एशिया के मितानी और कासाइट शिलालेख, जो इसे लगभग 1500-1300 ईसा पूर्व का मानते हैं। भारत में भगवानपुरा, दधेरी, काटपालन, और नागर की खुदाइयों से प्राप्त साक्ष्य भी इसी तिथि का समर्थन करते हैं।


   ऋग्वैदिक काल   

ऋग्वैदिक काल में आर्यों का आगमन भारतीय उपमहाद्वीप की एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। आर्य संभवतः 1500 ईसा पूर्व के आसपास विभिन्न दौरों में आए, और उनका स्थानीय दास, दस्यु आदि निवासियों से संघर्ष हुआ। ऋग्वेद में इंद्र को युद्ध-देवता के रूप में आर्यों का रक्षक बताया गया है, जो इन संघर्षों में नेतृत्व करते हैं। दस्यु, जिन्हें वैदिक साहित्य में आर्यों का दुश्मन माना गया, संभवतः हिंदूकुश क्षेत्र के निवासी थे।

ऋग्वेद के मंडल VII में रावी नदी के तट पर हुए "दस राजाओं की लड़ाई" का उल्लेख है, जिसमें भरतवंश के राजा सुदास ने पांच आर्य और कुछ अनार्य जनजातियों के समूह को पराजित कर अपनी शक्ति स्थापित की। बाद में, भरतवंश और पराजित पुरु जनजाति ने मिलकर "कुरु" जनजाति बनाई, जो उत्तर-वैदिक काल में पांचालों के साथ गठबंधन कर गंगा घाटी पर शासन करने लगे।

हालाँकि, कुछ इतिहासकार, जैसे आर.एस. शर्मा, का मानना है कि आर्य-अनार्य संघर्ष को जरूरत से ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों में बड़े पैमाने पर संघर्ष के प्रमाण नहीं मिले हैं, जिससे इस संघर्ष की व्यापकता पर संदेह जताया गया है।


ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था

  • ऋग्वैदिक काल की अर्थव्यवस्था मुख्यत : पशुपालन पर आधारित थी। ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है कि इस काल के लोग मूलतः पशुचारी थे, हालांकि पुरातात्त्विक साक्ष्य संकेत देते हैं कि कृषक समाज की भी प्रारंभिक झलकियाँ थीं।
  • पशुचारिता का महत्त्व : ऋग्वैदिक समाज में गाय को सर्वाधिक प्रिय और सम्मानित पशु माना जाता था। 'गौ' शब्द का प्रयोग 176 बार हुआ है, और गाय को धन का प्रतीक माना जाता था। ‘गोमत’ शब्द धनी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता था।अश्व भी आर्यों के लिए महत्त्वपूर्ण पशु था और इसे शक्ति और प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था। घोड़े से संबंधित शब्द ऋग्वेद में 215 बार आता है। अश्व को देवताओं से भी जोड़ा गया है, जैसे कि इंद्र और मरुत।
  • पशुपालन का संकेत देने वाले शब्द : ऋग्वेद में 'पस्त्य' और 'व्रज' जैसे शब्दों का उपयोग बार-बार हुआ है, जो पशुचारिता और चारागाह की व्यवस्था का संकेत देते हैं। व्रज का अर्थ गौशाला है, और यह 45 बार प्रयोग हुआ है। भगवानपुरा, दधेरी जैसे स्थलों से मिली पशु-अस्थियाँ पशुपालन का प्रमाण देती हैं। इनमें मवेशियों और भेड़-बकरियों की जली हड्डियाँ मिली हैं, जो कि उनके भोजन का हिस्सा थीं।
  • कृषि का उल्लेख : ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख सीमित रूप में हुआ है, लेकिन यह संकेत मिलता है कि ऋग्वैदिक लोग खेती से परिचित थे। 'कृष' शब्द जोतने के लिए प्रयोग होता था, और 'हल-रेखा' का भी जिक्र मिलता है। ऋग्वेद के काल में जौ (यव) की खेती होती थी। यह फसल जल्दी पकती थी और कम पानी में भी अच्छी उपज देती थी। जौ का उपयोग आहार और पशुओं के चारे के रूप में होता था।
  • कृषि तकनीक और सीमाएँ : हल का प्रयोग ऋग्वेद में नहीं मिलता, लेकिन आरंभिक मंडलों में 'लांगल' और 'सीर' शब्द आए हैं। ये हल संभवतः काष्ठ से बने होते थे और ऊर्वर भूमि जोतने के लिए उपयोग किए जाते थे। प्रारंभिक कृषि तकनीक और फसलें सीमित होने के कारण, ऋग्वैदिक समाज पूर्ण कृषक समाज का रूप नहीं धारण कर सका। उनके साधन बड़े पैमाने पर लोगों का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं थे।


ऋग्वैदिक समाज

ऋग्वैदिक समाज मुख्यतः जनजातीय और पशुचारण-आधारित था। 'व्र', 'व्रत', 'व्रज', 'श्रद्धा', और 'ग्राम' जैसे शब्दों से समाज की टोली प्रणाली का संकेत मिलता है, जिनका उद्देश्य लूट और पशुपालन से जीविका चलाना था। ये टोलियाँ धीरे-धीरे स्थायी कुटुंबी समूहों में विकसित हुईं। इतिहासकार आर.एस. शर्मा और रोमिला थापर इस जनजातीय संरचना की पुष्टि करते हैं और इसे वंश-आधारित मानते हैं।

  • सामाजिक संरचना : ऋग्वैदिक समाज की सबसे बड़ी इकाई जनजाति थी, जिसमें रिश्तेदारी पर आधारित इकाइयाँ एकजुट होती थीं। समाज में पुनर्वितरण की परंपरा थी, जिसमें लूट का माल समुदाय में बांटा जाता था। मुख्य लूट की वस्तुएँ—पशु, भेड़-बकरी, अश्व, हथियार, और दासियाँ होती थीं। 'विश' शब्द का प्रयोग प्रवासी जीवनशैली का संकेत देता है, जो कि उनके यायावरी और पशुपालक समाज को दर्शाता है।
  • महिलाओं की स्थिति : ऋग्वैदिक समाज में महिलाओं का स्थान सम्मानित था। 'दुहित्र' शब्द से महिलाओं की दूध दुहने की भूमिका और बुनाई में योगदान का संकेत मिलता है। 'दंपति' शब्द पति-पत्नी के बीच समान संपत्ति हिस्सेदारी को दर्शाता है। कुछ नाम मातृवंशीय परंपरा का संकेत देते हैं, जैसे 'मामतेय'। हालाँकि, समाज में पितृसत्ता का प्रभाव बढ़ने से पुत्रों पर जोर दिया गया और पुरुष देवताओं, विशेषकर इंद्र, को प्रधानता दी गई।


ऋग्वैदिक समाज में श्रम आधारित विभाजन

ऋग्वैदिक समाज मुख्यतः पशुपालन और जनजातीय था, जिसमें प्रारंभिक स्तर पर श्रम का विभाजन दिखता है। अतिरिक्त उत्पादन की कमी के कारण वर्ग आधारित विभाजन नहीं हुआ, लेकिन जनजातीय सरदारों और अधिकारियों की पहचान के लिए विशपति, जनस्य, गोप, राजा, गणपति जैसे पद अस्तित्व में आए।

  • सामाजिक और आर्थिक विभाजन : समाज पूर्णतः समतावादी नहीं था; उच्च वर्ग का उदय जनजातीय श्रम पर आधारित था। ऋग्वेद के दसवें मंडल में पुरुष सूक्त के माध्यम से वर्ण व्यवस्था का उल्लेख मिलता है, जो बाद में सैद्धांतिक रूप से विकसित हुआ। पेशे आधारित विभाजन प्रारंभिक स्तर पर था, जहाँ परिवार के सदस्य विभिन्न कार्यों में लगे होते थे, जैसे कि कवि, चिकित्सक, या अनाज पीसने वाले।
  • श्रम विभाजन के संकेत : ऋग्वेद में ब्राह्मण और क्षत्रिय का उल्लेख मिलता है, लेकिन शूद्र का केवल दसवें मंडल में जिक्र है। इस काल में कोई शोषण आधारित वर्ण व्यवस्था नहीं थी। समाज में घरेलू दासों का उल्लेख है, लेकिन वेतनभोगी वर्ग या भिखारियों का नहीं, जिससे श्रम विभाजन सरल और जरूरतों के अनुसार था।
  • जनजातीय और समता आधारित समाज : ऋग्वैदिक समाज में प्रमुख रूप से जनजातीय लक्षण थे। कर वसूली या भूमि के आधार पर कोई सामाजिक विभाजन नहीं था। सीमित उत्पादन दबावों के कारण समाज समता मूलक और जनजातीय स्वरूप में ही बना रहा, जहाँ सामाजिक विभाजन प्राथमिक स्तर पर था।


ऋग्वैदिक राजव्यवस्था : जनजातीय और सैन्य संरचना

ऋग्वैदिक काल की राजव्यवस्था मुख्यतः जनजातीय और सैन्य तत्त्वों पर आधारित थी। नृप (राजन) सत्ता का केंद्र था, खासकर युद्ध में उसकी भूमिका के कारण, लेकिन उसकी शक्ति जनजातीय संगठनों—सभा और समिति—द्वारा सीमित रहती थी।

1. राजा का चयन और कर्तव्य: प्रारंभ में राजा का चयन वीरता और सदगुणों के आधार पर होता था, लेकिन समय के साथ यह वंशानुगत बन गया। राजा का मुख्य कार्य जनजाति और उनके पशुओं की रक्षा, युद्ध में नेतृत्व, और जनजातीय प्रार्थनाओं का संचालन करना था।

2. जनजातीय संगठन : सभा, समिति, और विदथ

  • सभा: यह बुद्धिमान जनों की परिषद थी जो सामाजिक और धार्मिक मामलों पर निर्णय लेती थी।
  • समिति: प्रशासकीय और राजनीतिक कार्यों का संचालन करती थी। कभी-कभी महिलाओं की भागीदारी भी होती थी।
  • विदथ: इसका कार्य वितरण और पुनर्वितरण था, जिससे आर्थिक और राजनीतिक संतुलन बनाए रखा जाता था।

3. प्रशासनिक पदाधिकारी

  • पुरोहित: राजा का मुख्य सहयोगी, जो स्तुतियाँ करता था और बदले में पशु, वस्त्र, आदि प्राप्त करता था।
  • सेनानी: युद्ध में मुख्य पदाधिकारी, जो भाले और तलवार का उपयोग करता था।
  • कर संग्रह: कोई स्थायी कर प्रणाली नहीं थी; राजा को स्वैच्छिक बलि और युद्ध में विजित धन मिलता था।

4. न्याय और सैन्य संगठन: न्याय व्यवस्था का कोई औपचारिक पद नहीं था, लेकिन चोरी और सेंधमारी जैसे अपराधों का उल्लेख है। राजा की स्थायी सेना नहीं होती थी; युद्ध के समय नागरिकों को एकत्र कर सेना बनाई जाती थी, जो विभिन्न जनजातीय समूहों द्वारा संचालित होती थी।

5. जनजातीय शासन तंत्र और यायावरी जीवन : ऋग्वैदिक राजव्यवस्था एक जनजातीय शासन प्रणाली थी जिसमें सैन्य तत्त्व प्रमुख थे। स्थायी प्रशासनिक व्यवस्था का अभाव था, जो उनकी यायावरी जीवन शैली और युद्ध-केंद्रित समाज का परिणाम था।


ऋग्वैदिक धर्म: प्रकृति पूजन और देवताओं का मानवीकरण

ऋग्वैदिक धर्म का विकास जनजातीय परिवेश में हुआ, जहाँ प्राकृतिक शक्तियों की पूजा मानवीकरण के माध्यम से की जाती थी। ऋग्वैदिक आर्य प्राकृतिक घटनाओं जैसे वर्षा, सूर्य, नदियाँ, और पर्वतों को समझने में असमर्थ थे, इसलिए उन्होंने इन शक्तियों को देवताओं का रूप दिया और उनमें मानवीय और पशु गुणों की कल्पना की।

1. प्रमुख देवता और उनके महत्व

  • इंद्र: ऋग्वेद का सबसे महत्वपूर्ण देवता, जिसे पुरंदर (दुर्ग-विध्वंसक) कहा जाता था। इंद्र युद्ध और वर्षा का देवता था, जिसने पाणियों और दैत्यों से आर्यों को विजय दिलाई। उसकी स्तुति 250 से अधिक सूक्तों में की गई है।
  • अग्नि: दूसरा प्रमुख देवता, जो जंगल जलाने, खाना पकाने, और देवताओं व मनुष्यों के बीच मध्यस्थ का कार्य करता था। अग्नि की स्तुति 200 सूक्तों में की गई है, और उसे देवताओं तक अर्ध्य पहुँचाने का माध्यम माना जाता था।
  • वरुण: जल और प्राकृतिक व्यवस्था के रक्षक देवता। वरुण की स्तुति दो दर्जन सूक्तों में की गई है, और उसे संसार में संतुलन बनाए रखने वाला माना गया था।
  • सोम: पेड़-पौधों का देवता, जो एक मादक पेय से जुड़ा था। ऋग्वेद में 114 सूक्त सोम को समर्पित हैं। सोम यज्ञ में इसका उपयोग होता था, और इसे पीकर इंद्र ने सूर्य को आकाश में प्रकट किया।
  • मरुत: पवन देवता, जिसका उल्लेख 33 सूक्तों में है। मरुत देवी रोदसी से जुड़े हुए थे और उन्हें सुंदर दुल्हन के रूप में वर्णित किया गया है।

2. देवियाँ: ऋग्वेद में देवियों का भी उल्लेख है, जैसे उषा (प्रातः की देवी), अदिति, और सूर्या। उषा का उल्लेख 20 सूक्तों में मिलता है, लेकिन देवियों का स्थान देवताओं की तुलना में कम महत्वपूर्ण था।

3. पूजा और अनुष्ठान: ऋग्वैदिक धर्म में देवताओं की पूजा मुख्यतः प्रार्थना और बलिदान के माध्यम से की जाती थी। ये प्रार्थनाएँ संतान, पशु, भोजन, संपत्ति, और स्वास्थ्य जैसी आवश्यकताओं के लिए की जाती थीं। अनुष्ठान सरल थे और प्रकृति के प्रति सम्मान दर्शाते थे। उत्तर-वैदिक काल में जटिल अनुष्ठानों और मंत्रों की आवश्यकता महसूस हुई।

4. धार्मिक उद्देश्य: ऋग्वैदिक काल में लोग जीवन का आनंद लेने और सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए देवताओं की पूजा करते थे, और धार्मिक अनुष्ठानों में कोई कठोरता नहीं थी।


   उत्तर-वैदिक काल  

उत्तर-वैदिक काल का अध्ययन मुख्यतः वैदिक ग्रंथों और पुरातात्त्विक सामग्रियों से किया जाता है। इस काल के मुख्य साहित्यिक स्रोत हैं सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, और अन्य वैदिक संहिताएँ। इन ग्रंथों में धार्मिक अनुष्ठानों, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं का वर्णन है। इसके अलावा, चित्रित धूसर मृदभांड (PGW) और लौह उपयोग संस्कृति के प्रमाण भी इस काल की भौतिक पृष्ठभूमि को समझने में सहायक हैं।

स्रोत 

साहित्यिक स्रोत

  • सामवेद: संगीत पर आधारित और ऋग्वेद की प्रार्थनाओं को गायन के उद्देश्य से धुनों में बाँधने वाला वेद।
  • यजुर्वेद: जटिल अनुष्ठानों का वर्णन करने वाला वेद, जो धार्मिक परंपराओं के साथ सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि को दर्शाता है।
  • अथर्ववेद: वैदिक और अवैदिक परंपराओं का मिश्रण, जिसमें विपत्तियों से बचाव के तंत्र-मंत्र और जादू-टोने का उल्लेख है।
  • ब्राह्मण और आरण्यक: इन ग्रंथों में धार्मिक अनुष्ठानों के साथ सामाजिक, आर्थिक, और दार्शनिक विचारों का विस्तार से वर्णन मिलता है।
  • उपनिषद: दार्शनिक विचारों और जटिल धार्मिक सिद्धांतों का संग्रह, जो आत्मा और ब्रह्म के संबंधों पर विवेचन करता है।

पुरातात्त्विक स्रोत

उत्तर-वैदिक काल की भौतिक संस्कृति के अध्ययन में चित्रित धूसर मृदभांड (PGW) और लौह उपकरणों की प्रमुख भूमिका रही है। इनकी उपस्थिति सतलज और गंगा की ऊपरी घाटियों में अधिक पाई जाती है।

  • चित्रित धूसर मृदभांड : ये विशेष मिट्टी के बर्तन जम्मू से लेकर बिहार के वैशाली तक पाए गए हैं। सतलज और गंगा के क्षेत्रों में PGW के लगभग 750 स्थल मिले हैं, जो इस क्षेत्र में आबादी के अधिक घनत्व का संकेत देते हैं।
  • लौह उपकरण : इस क्षेत्र से लौह निर्मित हथियार और औजार भी बड़ी मात्रा में प्राप्त हुए हैं, जिससे जीवनयापन के स्थायी साधनों का संकेत मिलता है।


लौह तकनीकी और उत्तर-वैदिक समाज पर इसका प्रभाव

उत्तर-वैदिक काल में लौह तकनीकी के विकास ने समाज और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव लाए। चित्रित धूसर मृदभांड (PGW) काल के पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि लगभग 800 ईसा पूर्व से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लौह हथियारों का उपयोग सामान्य हो गया था। वाणाग्र (तीर की नोक), बरछी, और भाले जैसे हथियारों ने कुरु अंचल को सैन्य बढ़त दिलाई, जिससे उन्होंने अपने शत्रुओं पर राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित किया।

1. कृषि में लौह उपकरणों का योगदान

  • जंगलों की सफाई : गंगा की ऊपरी घाटी में जंगलों को साफ करने के लिए लौह कुठार का उपयोग किया गया, जिससे अधिक भूमि कृषि के लिए उपलब्ध हो सकी। शतपथ ब्राह्मण में भी लौह उपकरणों की कृषि में अत्यधिक उपयोगिता का उल्लेख मिलता है।
  • लौह हल और कृषि विकास: इस काल में कृषि में लोहे के हल का उपयोग हुआ, जिसमें छह, आठ, बारह, और चौबीस बैल जोतने का उल्लेख मिलता है। इससे खेती अधिक व्यवस्थित और उत्पादनशील बनी। ब्राह्मण ग्रंथों में हल जोतने से जुड़े अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है, जो कृषि के धार्मिक और सामाजिक महत्व को दर्शाता है।

2. लोहे का पूर्वी क्षेत्रों में प्रसार : उत्तर-वैदिक काल के अंत तक लौह तकनीकी पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के विदेह क्षेत्र में भी फैल गई। यहाँ खुदाई में प्राप्त लौह उपकरणों को ईसा पूर्व सातवीं सदी का माना गया है, जो लोहे की तकनीकी का व्यापक प्रसार दर्शाते हैं।

3. साहित्य में लोहे का उल्लेख: ब्राह्मण ग्रंथों में लोहे का उल्लेख बढ़ गया। अथर्ववेद और ऐतरेय ब्राह्मण में इसे श्यामअयस या कृष्णअयस (काला धातु) कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण ने लोहे को कृषि में अत्यधिक महत्व के साथ वर्णित किया है, इसे कृषकों की रीढ़ के रूप में प्रस्तुत किया गया, जो कृषि में इसके बढ़ते महत्व को दर्शाता है।


उत्तर-वैदिक अर्थव्यवस्था : कृषि, शिल्प, और व्यापार का विस्तार

उत्तर-वैदिक काल की अर्थव्यवस्था में कृषि, शिल्प, और व्यापार का विस्तार हुआ। वैदिक ग्रंथों और पुरातात्त्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि इस काल में कृषि का प्रमुख विकास हुआ, जिसमें जौ के साथ गेहूँ, चावल और दालों की खेती भी की जाने लगी। ऐतरेय ब्राह्मण में छह प्रकार के चावल का उल्लेख मिलता है, जो चावल की बढ़ती प्रमुखता को दर्शाता है। अतरंजीखेड़ा में चित्रित धूसर मृदभांड के साथ मिले जौ, गेहूँ और चावल, इस काल में कृषि के प्रसार का प्रमाण हैं।

1. कृषि का विकास

  • फसलों का विस्तार: इस काल में तिल, मसा, बाजरा जैसी फसलों की खेती के साथ-साथ चावल का उत्पादन भी बढ़ गया। गंगा की ऊपरी घाटी में चावल की खेती पर्याप्त वर्षा के कारण संभव हो सकी, जो इस क्षेत्र में कृषि को बढ़ावा देती थी।

  • कृषि उपकरण और तकनीकी विकास: शतपथ ब्राह्मण में हल में छह से चौबीस बैलों के प्रयोग का उल्लेख है। हल की फाल लकड़ी की और सिरे पर लोहे का इस्तेमाल होता था, जो गंगा की मिट्टी में उपयोग के लिए उपयुक्त था।

  • अतिरिक्त उत्पादन: उत्तर-वैदिक कृषकों ने अपनी आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन करना शुरू किया, जिससे पुरोहितों, राजाओं, और उभरते पेशेवर समूहों का भरण-पोषण संभव हो सका।

2. शिल्प और धातुकर्म का विकास

  • धातुकर्म: इस काल में लोहे और ताँबे का शिल्प प्रमुखता से विकसित हुआ। लोहे के हथियार और औजार जैसे वाणाग्र (तीर की नोक) और बरछी का उपयोग सैन्य और राजनीतिक प्रभुत्व में सहायक था। ताम्रकर्मियों का भी उल्लेख मिलता है, जो ताँबे के औजार बनाते थे, जो युद्ध, आखेट और आभूषण निर्माण में काम आते थे।
  • मृदभांड: उत्तर-वैदिक काल में लाल और काले पॉलिशदार मृदभांड, चित्रित धूसर मृदभांड (PGW), और अन्य प्रकार के मृदभांडों का प्रचलन था। इनमें से चित्रित धूसर मृदभांड इस काल की विशिष्ट पहचान बने।
  • बुनाई और चूड़ियाँ: बुनाई, काष्ठकर्म, चर्मकर्म, और चूड़ियाँ बनाने जैसे शिल्प भी इस काल में महत्वपूर्ण हुए। जौहरियों का उल्लेख भी मिलता है, जो संपन्न वर्ग के श्रृंगार की आवश्यकताओं को पूरा करते थे।

3. व्यापार और नगरीकरण की संभावनाएँ

  • वस्तु विनिमय और सीमित व्यापार: उत्तर-वैदिक ग्रंथों में समुद्र और समुद्री यात्रा का उल्लेख मिलता है, जो प्रारंभिक व्यापारिक गतिविधियों का संकेत है। हालाँकि, अर्थव्यवस्था मुख्यतः वस्तु विनिमय पर आधारित थी, जिससे पूर्ण विकसित नगरीकरण संभव नहीं हो सका।
  • नगरीकरण का प्रारंभिक संकेत: हस्तिनापुर और कौशांबी की खुदाइयों से उत्तर-वैदिक काल के अंत में नगरीय जीवन के संकेत मिलते हैं। इन स्थलों को "आद्य-नगरीय" कहा गया, क्योंकि यहाँ पूर्ण विकसित नगरीय संरचना का विकास नहीं हुआ था।


उत्तर-वैदिक राजव्यवस्था: जनजातीय से राजतंत्रीय समाज में परिवर्तन

उत्तर-वैदिक काल में राजनीतिक परिदृश्य में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिससे जनजातीय संरचना का स्थान राजतंत्र ने ले लिया और जनजातीय सभाओं का प्रभाव घट गया। ऋग्वेद के समय में जहां सामूहिकता और जनजातीय समाज मुख्य रूप से शासन प्रणाली का हिस्सा थे, वहीं उत्तर-वैदिक काल में राजतंत्रीय शक्ति का उदय हुआ।

1. प्रमुख राजनीतिक परिवर्तन

  • जनजातीय सभाओं का पतन: इस काल में जनजातीय संगठन, जैसे विदथ, विलुप्त हो गए। सभा और समिति जैसी जनसभाओं पर अब राजा और शक्तिशाली ब्राह्मणों का नियंत्रण हो गया, जिससे उनकी समतामूलक और सहयोगात्मक प्रकृति समाप्त हो गई।
  • राजा का उदय: ऋग्वैदिक काल में राजा का चयन जनजातीय सभाओं द्वारा होता था, लेकिन उत्तर-वैदिक काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया। राजा का अधिकार क्षेत्र भी बढ़ गया और उसने राजनीतिक शक्ति को केंद्रीकृत किया।

2. कर और आर्थिक नियंत्रण

  • कर वसूली: पहले जो स्वैच्छिक उपहार बलि के रूप में दिया जाता था, वह अब आदेशात्मक कर में बदल गया। यह परिवर्तन राजाओं और उदीयमान ब्राह्मण वर्ग द्वारा कृषक समुदाय पर आर्थिक और प्रशासनिक नियंत्रण को दर्शाता है।
  • ब्राह्मण और क्षत्रिय प्रभुत्व: ब्राह्मण ग्रंथों में किसान (विश) को निम्न वर्ग के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में किसानों को नियंत्रित करने की आवश्यकता बताई गई है, ताकि वे विद्रोह न कर सकें। इससे ब्राह्मणों और क्षत्रियों का प्रभुत्व स्थापित हुआ।

3. कर संग्रहण की व्यवस्था

  • हालाँकि कर वसूली की शुरुआत हो चुकी थी, पर उत्तर-वैदिक ग्रंथों में कर संग्रहण के लिए किसी स्थायी प्रशासनिक तंत्र का उल्लेख नहीं मिलता है। "भगदुध" शब्द कर संग्राहक के बजाय वितरक के रूप में प्रयुक्त हुआ है, जिससे कर संग्रह की प्रणाली स्पष्ट नहीं होती।

4. मुद्रा-विहीन समाज

  • उत्तर-वैदिक काल में सोने और चांदी का उपयोग सीमित था, और यह समाज मुख्यतः मुद्राहीन था इसका कारण कृषि में सीमित अतिरिक्त उत्पादन था, और काष्ठ-आधारित हल के प्रयोग के कारण कृषि पूरी तरह से विकसित नहीं हो सकी थी।


उत्तर-वैदिक समाज: वर्ण व्यवस्था और सामाजिक वर्गों का विकास

उत्तर-वैदिक काल में समाज में चार वर्णों का विभाजन स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र। जहाँ ऋग्वेद में आर्य और अनार्य के बीच भेद करने के लिए वर्ण का उपयोग सीमित था, वहीं उत्तर-वैदिक काल में यह व्यवस्था अधिक संगठित और सख्त हो गई। इस समाज में ब्राह्मण सर्वोच्च स्थान पर थे, जबकि शूद्रों को सबसे निम्न स्थान दिया गया था।

1. ब्राह्मणों का प्रभुत्व और पुरोहित वर्ग का उदय

  • ब्राह्मणों की सत्ता: ब्राह्मण न केवल धार्मिक बल्कि आर्थिक रूप से भी प्रभावी हो गए। उन्होंने यज्ञ और अनुष्ठानों का तंत्र विकसित किया, जिससे वे वैश्यों और शूद्रों पर नियंत्रण बनाए रखते थे। इन अनुष्ठानों के बदले उन्हें राजसूय, अश्वमेध, और वाजपेय जैसे अनुष्ठानों से स्वर्ण, गाएँ, घोड़े, वस्त्र, और अनाज मिलते थे।
  • क्षत्रियों के साथ संघर्ष: ब्राह्मणों की सर्वोच्च धार्मिक स्थिति ने राजन्य वर्ग (क्षत्रियों) के साथ संघर्ष उत्पन्न किया। अथर्ववेद में क्षत्रियों को ब्राह्मणों की संपत्ति को क्षति पहुँचाने से मना किया गया है। अंततः शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण ने ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच एकता की आवश्यकता पर बल दिया, ताकि वे वैश्य समुदाय पर नियंत्रण बनाए रख सकें।

2. वैश्य और शूद्र वर्ग

  • वैश्य: वैश्य मुख्य उत्पादक वर्ग थे, जो कृषि, पशुपालन, और व्यापार में संलग्न थे। कृषि में प्रगति के साथ उनका योगदान बढ़ा, और उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर कर (दशमांश) वसूला जाता था।
  • शूद्र: शूद्रों की स्थिति सबसे निम्न थी। वे वैश्यों के सहायक और ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के सेवक माने जाते थे। ऐतरेय ब्राह्मण में उन्हें "दूसरों की मर्जी के अनुसार काम करने के लिए अभिशप्त" कहा गया है, जो उनकी दयनीय स्थिति को दर्शाता है।

3. सामाजिक और आर्थिक संघर्ष

  • ब्राह्मण-क्षत्रिय एकता: वर्ग संघर्ष के संकेत मिलते हैं, विशेषकर कृषक समुदाय से कर वसूली और यज्ञों में पशुओं की बलि के कारण। शतपथ ब्राह्मण में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच एकता पर बल दिया गया, ताकि कृषक समुदाय का नियंत्रण बना रहे।
  • क्षत्रिय-वैश्य संघर्ष: समाज में आर्थिक लाभ के लिए क्षत्रियों और वैश्यों के बीच संघर्ष होता था। क्षत्रियों को वैश्य समुदाय पर निर्भर रहना पड़ता था, जिससे दोनों वर्गों के बीच तनाव उत्पन्न हुआ।
  • उत्तर-वैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था ने धीरे-धीरे जटिलता और कठोरता प्राप्त की, जिससे वर्गीय भेदभाव और सामाजिक नियंत्रण का आधार तैयार हुआ।


उत्तर-वैदिक धर्म: यज्ञों का विस्तार और देवताओं का परिवर्तन

उत्तर-वैदिक काल में धार्मिक परंपराओं में कई महत्वपूर्ण बदलाव हुए। ऋग्वेद के युग में जहां प्रमुख देवता इंद्र और अग्नि थे, वहीं उत्तर-वैदिक काल में इनकी महिमा घट गई और नए देवताओं का उदय हुआ।

1. मुख्य धार्मिक परिवर्तन

  • यज्ञों का विस्तार: इस काल में जटिल यज्ञों का प्रचलन बढ़ गया। यज्ञ, समाज और धर्म का केंद्र बन गए और इन्हें सार्वजनिक तथा निजी स्तर पर किया जाने लगा। इन यज्ञों में पशु-बलि दी जाती थी, जिससे पशुधन का अत्यधिक क्षय होता था।
  • प्रजापति का उदय: प्रजापति को स्रष्टा और ब्रह्मांड का निर्माणकर्ता माना गया। इस काल में प्रजापति को सर्वोच्च देवता के रूप में स्थापित किया गया।

2. अन्य देवताओं का उदय

  • रुद्र: रुद्र, जो पहले पशुओं के देवता थे, अब एक प्रमुख देवता के रूप में उभरे।
  • विष्णु: विष्णु, जो प्रारंभ में यायावर देवता माने जाते थे, उत्तर-वैदिक काल में संरक्षक और परिरक्षक के रूप में स्थापित हो गए।
  • वर्ण आधारित देवता: कुछ देवताओं का संबंध विशेष वर्णों से जोड़ा गया, जैसे मरुत को कृषकों का देवता और पूषन को शूद्रों का देवता माना गया।


धार्मिक प्रथाओं का विरोध और उपनिषदों का उदय

  • यज्ञों का प्रतिवाद : यज्ञों में पशु-बलि के कारण समाज में विरोध की भावना उत्पन्न हुई। उपनिषदों में इस प्रथा का विरोध मिलता है। उपनिषदों ने ध्यान, ज्ञान और आत्मा के सिद्धांतों का प्रचार किया, जिससे कर्मकांड आधारित यज्ञों का महत्व कम होने लगा।



  दक्षिण भारत की महापाषाणकालीन संस्कृतियाँ  


दक्षिण भारत और दक्कन में 1000 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी तक की अवधि को महापाषाणकालीन संस्कृति का काल माना जाता है। इस संस्कृति का मुख्य ध्यान महापाषाण काल और उसके समकालीन अधिवास स्थलों के सांस्कृतिक अवशेषों पर होता है।

मेगालिथ 

"मेगालिथ" शब्द "मेगास" (महान) और "लिथोस" (पाषाण) से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है "महान पाषाण"। महापाषाण बड़े पत्थरों से निर्मित स्मारकों का सूचक है, लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि सभी बड़े पत्थरों से बने स्मारक महापाषाण संस्कृति के अंतर्गत नहीं आते। यह शब्द उन संरचनाओं या स्मारकों के लिए विशेष रूप से उपयोग होता है, जो बड़े पत्थरों से बने होते हैं और समाधि, स्मारक, या अनुष्ठान से जुड़े होते हैं। सामान्यतः महापाषाण स्थलों को आवासीय क्षेत्रों से दूर, कब्रिस्तान में पाया जाता है, जहाँ समाधियाँ और अन्य अनुष्ठानिक संरचनाएँ होती हैं।


महापाषाणकालीन संस्कृति का कालक्रम

प्रारंभ में विद्वानों जैसे एम.एच. कृष्णा, आर.एस. पंचमुखी, और जी.एस. धुर्ये ने महापाषाणकालीन संस्कृति को अत्यंत प्राचीन माना, लेकिन उनका तिथि निर्धारण निश्चित पुरातात्त्विक साक्ष्यों पर आधारित नहीं था। आर.ई.एम. व्हीलर ने ब्रह्मगिरि में खुदाइयों के आधार पर महापाषाण संस्कृति का काल ईसा पूर्व तीसरी सदी से पहली सदी ईस्वी तक माना। हालांकि, बाद में इस काल को सीमित माना गया, और वर्तमान शोध दर्शाते हैं कि महापाषाण संस्कृति का काल और अधिक विस्तृत था।

  • महापाषाण संस्कृति का संभावित काल: ईसा पूर्व 1000 से 100 ईस्वी तक माना गया है, हालांकि यह संस्कृति मुख्य रूप से 600 ईसा पूर्व से 100 ईस्वी के बीच अपने चरम पर थी।
  • बी.के. थापर, नागराज राव और एस.बी. देव ने अलग-अलग स्थलों से प्राप्त तिथियों के आधार पर महापाषाण संस्कृति की अवधि को ईसा पूर्व 200 से लेकर ईस्वी पहली सदी तक माना।
  • महापाषाणकालीन समाधि स्मारक केवल भारत तक सीमित नहीं थे, बल्कि इंग्लैंड, फ्रांस, ईरान, और सेइस्तान जैसे देशों में भी इस समय के आसपास मृतकों के लिए स्मारक बनाए गए थे, जिनकी संरचनाएँ अलग-अलग थीं।


महापाषाण संस्कृतियों का विस्तार

भारत में महापाषाण संस्कृतियों का मुख्य केंद्र दक्कन, विशेष रूप से गोदावरी नदी का दक्षिणी भाग था। हालांकि, कुछ समान महापाषाणकालीन संरचनाएँ पश्चिम भारत, मध्य भारत और उत्तर भारत के अन्य स्थानों से भी प्राप्त हुई हैं। उदाहरण स्वरूप:

  1. बिहार में सरायकेला,
  2. उत्तर प्रदेश में आगरा जिले के पास खेड़ा,
  3. मध्य प्रदेश के चंदा और बांदरा जिले,
  4. राजस्थान में देवसा (जयपुर से 32 मील पूर्व)
  5. उत्तर भारत में अल्मोड़ा जिले का देवधूरा

  • इन स्थलों पर बड़े पत्थरों से बनी संरचनाएँ मिली हैं, लेकिन इनकी खुदाई और विश्वसनीय परीक्षण नहीं हुए हैं, जिससे यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि ये दक्कन के महापाषाणों से जुड़े हैं या नहीं।
  • इसके अतिरिक्त, पाकिस्तान में करांची के निकट, हिमालय की तराई में लेह और जम्मू और कश्मीर में बुर्जहोम जैसी जगहों पर भी महापाषाण संरचनाएँ मिली हैं।
  • हालांकि, इन स्मारकों का सबसे बड़ा विस्तार दक्षिण भारत में था, जहाँ यह संस्कृति कम से कम हजार साल तक फैली और विभिन्न प्रकार की महापाषाण संरचनाओं का निर्माण हुआ। इसने एक सामान्य उत्पत्ति वाले आधारभूत महापाषाणकालीन एकता की दिशा में विकसित होकर अपनी विशिष्टता प्राप्त की।


महापाषाणकालीन संस्कृति : दक्षिण भारत की लौह युगीन संस्कृति

दक्षिण भारत में महापाषाणकालीन संस्कृति का काल मुख्य रूप से लौह युग का प्रतीक था। इस काल में लौह धातु का उपयोग बढ़ गया था, जिससे औजारों और उपकरणों में दक्षता और कुशलता में वृद्धि हुई। महापाषाणकालीन कब्रों की खुदाई से लौह वस्तुओं के पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं, विशेष रूप से विदर्भ के जूनापानी से लेकर तमिलनाडु के आदिचनल्लूर तक के स्थलों पर।

प्रमुख विशेषताएँ :-

  • लौह उपकरणों का प्रयोग: महापाषाणकालीन लोग पत्थर के बजाय लोहे का उपयोग करने लगे थे, जिससे कृषि, शिल्प और अन्य कार्यों में दक्षता आई। यह काल एक पूर्ण विकसित लौहयुगीन संस्कृति का प्रतीक बन गया।
  • गृह-योजना में बदलाव: लौह युग के आगमन के साथ सामाजिक जीवन में कई बदलाव आए, जिसमें घर की योजना में बदलाव और मृतकों के संस्कारों में खास बदलाव शामिल हैं। इस काल में विशेष रूप से मृतकों के दफनाने के तरीके में बदलाव हुआ।
  • मृतकों के लिए अलग समाधि स्थल: पहले शवों को घर के पास गड्ढों में दफनाया जाता था, लेकिन लौह युग में शवों को कब्रिस्तानों या समाधि स्थलों में दफनाया जाने लगा। शवों को कुछ समय तक खुले में रखकर अस्थियाँ सहेज ली जाती थीं, जिन्हें सिस्ट (पत्थर के ताबूत) में रखकर जमीन में दबा दिया जाता था।
  • सिस्ट (पत्थर के ताबूत): सिस्ट बड़े आकार के होते थे और इन्हें बनाने के लिए कुशल कारीगरों और राजमिस्त्रियों की आवश्यकता होती थी। ये ताबूत किसी व्यक्ति की मृत्यु से पहले भी तैयार किए जा सकते थे, जैसे मिस्र के तहखानों की तरह, और यह एक समुदायिक प्रक्रिया होती थी।


महापाषाणकालीन संस्कृति: विभिन्न प्रकार की संरचनाएँ और वर्गीकरण

  • चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाएँ : दक्षिण भारत, विशेषकर केरल में, चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाएँ पाई जाती हैं। इन गुफाओं में आयताकार या वर्गाकार खुला कुआँ होता है, जिसमें सीढ़ियाँ होती हैं। चोव्वानूर, कक्कड़, और पोर्कालम जैसे स्थलों पर इन गुफाओं की मौजूदगी देखी गई है। वाई.डी. शर्मा ने इन गुफाओं को चार श्रेणियों में बांटा है: केंद्रीय स्तंभ वाली, बिना केंद्रीय स्तंभ वाली, गहरे मुख वाली, और बहु-प्रकोष्ठीय गुफाएँ।
  • हुङ-स्टोन और हैट-स्टोन : यह चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाओं से सरल रूप में बनी संरचनाएँ हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनमें गुंबद या टोपी के आकार का पत्थर होता है जो भूमिगत गर्त को ढकता है। कुछ स्थानों पर इन स्थानों को सीढ़ियों के साथ बनाया गया था, और ये स्मारक दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट से लेकर तमिलनाडु और कर्नाटका में पाए जाते हैं।
  • दीर्घाश्म, पंक्ति योजना और वीथियाँ : दीर्घाश्म स्तंभ महापाषाण काल के प्रस्तर स्तंभ होते हैं, जो आमतौर पर स्मारक के रूप में खड़े होते हैं। इनकी ऊँचाई 3 से 6 फीट तक हो सकती है। पंक्ति योजना में इन स्तंभों की श्रृंखलाएँ एक दिशा में खड़ी होती हैं। वीथियों में समानांतर पंक्तियाँ होती हैं, जो स्मारक रूप में फैलती हैं।
  • गुंबदनुमा कब्र : यह एक प्रकार की कब्र होती है, जिसमें सीधे खड़े पत्थरों का उपयोग किया जाता है। इन कब्रों को अलग-अलग प्रकार से डिजाइन किया जाता है, जैसे चार खड़े पत्थरों के साथ या यू आकार के छिद्र वाले कब्रों में। इन्हें तमिलनाडु के विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है।
  • स्तूपाकार वृत्त : ये महापाषाणकालीन स्मारक वृत्ताकार होते हैं, जो पत्थरों से घिरे होते हैं। इन स्मारकों में दफनाए गए शवों के साथ भस्म कलश या शव पेटिकाएँ रखी जाती हैं। यह शैली विशेष रूप से तमिलनाडु, कर्नाटका और केरल में पाई जाती है।
  • पत्थर के वृत्त : ये वृत्त महापाषाणकालीन स्मारकों का एक सामान्य प्रारूप हैं, जो पूरे भारत में मिलते हैं। इनमें पत्थर की रोड़ी या छोटे-बड़े शिलाखंडों से बने वृत्त होते हैं। इन स्मारकों के भीतर दफन प्रक्रिया, भस्म कलश या शव पेटिकाओं के साथ होती है, और ये दक्षिण भारत से लेकर नागपुर क्षेत्र तक फैले हुए हैं।
  • गर्त अंत्येष्टियाँ : ये अंत्येष्टियाँ विशेष रूप से मिट्टी से बने गड्ढों में होती हैं, जो प्राकृतिक मिट्टी में खोदी जाती हैं। इनमें दफन सामग्री जैसे कंकाल और फर्नीचर रखे जाते हैं। इन गड्ढों को मिट्टी से भरकर फिर ऊपर स्तूप का ढेर रखा जाता है।
  • कब्रों के टीले : कब्रों के टीले, जिन्हें मिट्टी के टीले भी कहा जाता है, विशेष प्रकार की कब्र होती है जो गोल, आयताकार या अंडाकार हो सकती है। ये टीले कभी पत्थर के वृत्तों से घिरे होते हैं, और कर्नाटका के हासन जिले में ऐसे टीले पाए गए हैं।


महापाषाणकालीन अंत्येष्टियों से प्राप्त कब्र की सामग्रियाँ:

महापाषाणकालीन कब्रों से प्राप्त सामग्रियाँ दक्षिण भारतीय महापाषाण संस्कृति की धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को दर्शाती हैं। इन सामग्रियों से यह स्पष्ट होता है कि समाज मृतकों के परलोक जीवन में विश्वास करता था और उनके लिए जरूरी वस्तुएं परलोक में भेजता था।

कब्र में रखी जाने वाली सामग्री:

  • मृदभांड (मिट्टी के बर्तन): महापाषाण कब्रों में मृदभांड, जो भोजन और पेय की सामग्री के लिए उपयोगी होते थे, पाए जाते हैं। यह मृतकों की दैनिक जीवन की आवश्यकताओं के लिए रखे जाते थे।
  • लोहे के औजार और उपकरण: महापाषाण काल लौह युग से संबंधित था, इसलिए कब्रों में लोहे के औजार, साथ ही पत्थर और ताँबे के औजार मिलते हैं। ये औजार दैनिक जीवन में उपयोगी होते थे और संभवतः मृतकों को उनके परलोक जीवन के लिए भी भेजे गए थे।
  • गहने और आभूषण: कब्रों में पक्की मिट्टी के मनके, अल्पमूल्य पत्थर, सोना, ताँबा और सीप से बने हार, कंगन, कान या नाक के जेवर, बाजूबंद और मुकुट पाए गए हैं। ये गहने समाज की संपन्नता और सांस्कृतिक महत्त्व को दर्शाते हैं।
  • धान और अनाज: कब्रों में धान और अन्य अनाज के अवशेष भी पाए गए हैं, जो इस बात का प्रमाण हैं कि महापाषाणकालीन समाज ने मृतकों के परलोक जीवन के लिए खाद्य सामग्री भी भेजी थी।
  • पशुओं के अवशेष: कब्रों में जानवरों के कंकाल भी पाए गए हैं, जो यह संकेत देते हैं कि मृतकों को उनके पशुओं के साथ परलोक में भेजा जाता था, जिससे मृतकों के साथ उनके प्रिय और आवश्यक जीवनसाथी भी होते थे।


महापाषाणकालीन संस्कृतियों की जीविका पद्धति

महापाषाणकालीन समाज की जीविका पद्धति कृषि, पशुपालन, आखेट और मछली पकड़ने पर आधारित थी, और ये सभी तत्व परस्पर जुड़े हुए थे। इस समय के लोग इन विभिन्न जीवन-निर्वाह पद्धतियों को संतुलित तरीके से अपनाते थे। निम्नलिखित बिंदुओं में इन पद्धतियों का विवरण है:

1. कृषि 

  • महापाषाणकालीन समाज की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि थी। उन्होंने सिंचाई आधारित कृषि अपनाई और टैंक इरिगेशन जैसी उन्नत विधियों का उपयोग किया। विशेष रूप से दक्षिण भारत में टंकी सिंचाई की प्रथा शुरू की गई, जिससे कृषि उत्पादन में सुधार हुआ।
  • महापाषाणकालीन लोग अनावश्यक भूमि पर कब्रें नहीं बनाते थे, बल्कि ढलानों और अनुर्वर भूमि का उपयोग कब्रों के लिए करते थे ताकि उपजाऊ भूमि कृषि के लिए बनी रहे।
  • चावल उनका मुख्य आहार था, जिसे सिंचाई द्वारा उगाया जाता था। संगम साहित्य भी इस बात को प्रमाणित करता है कि चावल उस काल में प्रमुख आहार था। इसके अतिरिक्त, रागी, गेहूँ, बाजरा, और सेम जैसी फसलें भी उगाई जाती थीं।


2. पशुचारिता

  • पशुपालन महापाषाणकालीन समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।
  • महापाषाणकालीन स्थलों से मिले मवेशियों, भेड़, बकरी, कुत्ते, सूअर, घोड़े, भैंस, मुर्गा, और गदहे के अवशेषों से पता चलता है कि पशुचारिता इस समाज में प्रमुख थी।
  • मवेशी मुख्य पालतू पशु थे और उनकी संख्या 60% से अधिक थी, जो यह दर्शाता है कि ढोर पशुचारिता इस समय के प्रमुख व्यवसायों में से था।


3. आखेट और मछली पकड़ना

  • महापाषाणकालीन लोग आखेट और मछली पकड़ने में भी संलग्न थे।
  • आखेट के लिए उन्होंने बाण, बरछे, और भाले जैसे उपकरणों का उपयोग किया। इसके अलावा, पत्थर के गोलों के उपयोग से यह संकेत मिलता है कि वे ढेलवांस का उपयोग शिकार में करते थे।
  • जंगली सूअर और लकड़बग्घे जैसे वन्य प्राणियों के अवशेषों से यह प्रमाणित होता है कि ये प्राणी उनके भोजन का हिस्सा थे।
  • मछली पकड़ने के लिए पुरातात्त्विक स्थलों से पक्की मिट्टी के जाल और बंसी के अवशेष मिले हैं, जो इस बात का संकेत देते हैं कि मछली पकड़ना उनके खाद्य स्रोत का एक हिस्सा था।


महापाषाणकालीन समाज की जीवनशैली और उद्योग

महापाषाणकालीन समाज ने अपनी जीवनशैली, प्रौद्योगिकी, और शिल्पकला में कई महत्त्वपूर्ण विकास किए थे, जो उनके आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं में दिखाई देते हैं। नीचे उनके प्रमुख उद्योगों और शिल्पकलाओं का विवरण दिया गया है:

1. धातुशिल्प

  • महापाषाणकालीन समाज में लोहा, तांबा, सोना, और चांदी जैसी धातुओं का निर्माण और उपयोग था।
  • लोहा उनका प्रमुख धातु था, जिसका प्रयोग कृषि उपकरण (कुठार, फाल, हंसिया, फावड़ा आदि) बनाने में होता था।
  • तांबा का उपयोग मुख्य रूप से बरतन और आभूषण बनाने में किया जाता था।
  • सोना और चांदी का भी आभूषण बनाने में इस्तेमाल हुआ था।
  • ईंधन के रूप में काठ, कोयला, गोबर और धान की भूसी का प्रयोग किया जाता था।
  • महापाषाणकालीन स्थलों पर भट्टियाँ, धातु-शुंडिकाएँ, और तांबा-लोहे के उपकरण मिले हैं, जो उनके धातु-कार्य में कौशल को दर्शाते हैं।


2. काष्ठ शिल्प और बढ़ईगिरी

  • महापाषाणकालीन समाज में लकड़ी का महत्वपूर्ण स्थान था।
  • लकड़ी का उपयोग भवन निर्माण, हल, और अन्य घरेलू उपकरण बनाने में होता था।
  • काष्ठ-आधारित स्थापत्य कला में प्रगति हुई थी, और लकड़ी के खंभे घरों और कुटीरों के निर्माण में उपयोग होते थे।
  • हल का प्रयोग खेती में किया जाता था, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे कृषि में प्रौद्योगिकी के प्रति जागरूक थे।


3. मृत्तिका शिल्प (मृण्पात्र)

  • महापाषाणकालीन समाज में मृण्पात्र निर्माण एक प्रमुख उद्योग था।
  • काले और लाल मृदभांड, पॉलिशदार मृदभांड, और धूसर मृदभांड प्रमुख मृण्पात्र थे।
  • इन मृण्पात्रों का निर्माण चाक पर किया जाता था और विभिन्न आकारों (जैसे कटोरे, थालियाँ, कलश) में बनाए जाते थे।
  • यह संकेत करता है कि कुंभकारी इस समाज का महत्वपूर्ण शिल्प था।


4. मनका निर्माण, चटाई बुनना, पत्थर काटना और अन्य शिल्प

  • महापाषाणकालीन समाज में लोग मनके, आभूषण, चटाई, और पत्थर के उपकरण बनाते थे।
  • गोमेद, कार्मेलियन, कैल्सेडनी, और मूंगा से बने मनके पाए गए हैं, जो महुरझारी और कोडुमनाल जैसे स्थलों से मिले हैं।
  • चटाई बुनना और पत्थर काटने के उपकरण जैसे खरल, चक्की, मूसल भी महापाषाणकालीन समाज में प्रचलित थे।
  • पक्की मिट्टी से बने खिलौने बच्चों के मनोरंजन के लिए उपयोग होते थे।


5. शिलालेख और चित्रण

  • महापाषाणकालीन समाज में चट्टानों पर उत्कीर्णन और चित्रण का भी प्रचलन था।
  • ये चित्रण उनके धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण को दर्शाते थे।
  • रंजक सामग्री का उपयोग इन चित्रणों में किया जाता था, लेकिन इन चित्रणों की तिथि का निर्धारण अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है।



व्यापार और विनिमय नेटवर्क

महापाषाण काल में व्यापार और विनिमय नेटवर्क की सक्रियता का प्रमाण कई पुरातात्त्विक स्थलों से मिलता है, जहाँ से गैर-स्थानीय वस्तुएँ बरामद हुई हैं, जो यह संकेत करती हैं कि उस समय लंबी दूरी तक व्यापारिक गतिविधियाँ होती थीं।

  • व्यापार और विनिमय नेटवर्क: महापाषाणकालीन समाज में कच्ची सामग्रियों और तैयार मालों का आदान-प्रदान आधारित एक जटिल व्यापार नेटवर्क था।
  • तटीय स्थल और व्यापारिक केंद्र: आर.एन. मेहता और के.एम. जार्ज के अनुसार, तटीय स्थल महापाषाणकालीन व्यापार के महत्वपूर्ण केंद्र थे, जहाँ वस्त्र, मृण्पात्र और कांस्य का आदान-प्रदान होता था।
  • समुद्री व्यापार के प्रमाण: ग्रीक-रोमन रचनाओं और तमिल ग्रंथों से यह संकेत मिलता है कि समुद्रवर्ती व्यापार दक्षिण भारत का प्रमुख व्यापारिक स्रोत था, उदाहरण स्वरूप अरिकमेडु में मिले दाँतेदार बरतन।
  • अंतर-क्षेत्रीय और अंतःक्षेत्रीय व्यापार: विद्वानों का मानना है कि तीसरी सदी ईसा पूर्व तक अंतर-क्षेत्रीय और अंतःक्षेत्रीय व्यापारिक नेटवर्क पूरी तरह से विकसित हो चुका था।
  • स्थल और समुद्र मार्ग का संयुक्त नेटवर्क: यह व्यापार नेटवर्क स्थल और समुद्र मार्ग का मिश्रण था, जिसमें विभिन्न समूह लंबी दूरी के व्यापार में संलग्न थे।


महापाषाणकालीन समाज का संगठन और अधिवास पद्धति:

  • सामाजिक संगठन: महापाषाणकालीन समाज में वर्गों और पदों का विभाजन था, जो उनके अंत्येष्टि प्रथाओं में दिखता है।समृद्ध वर्ग की कब्रों में मृत्तिका पात्रों, कांस्य, स्वर्ण, और अन्य धातुओं की वस्तुएं पाई गईं, जबकि साधारण अंत्येष्टियाँ केवल भस्म-कलश और कुछ मृदभांडों तक सीमित थीं।अंत्येष्टि की विविधता यह दर्शाती है कि समाज में व्यक्तिगत हैसियत और पद का महत्व था, और मृत्यु के बाद की संस्कार प्रक्रिया उस हैसियत का प्रतीक होती थी।
  • अधिवास पद्धति: महापाषाणकालीन समाज में गाँवों की संख्या अधिक थी, जिनमें ग्रामीण जीवनशैली प्रचलित थी। हालांकि, वे बड़े नगरों का निर्माण नहीं करते थे, लेकिन वे नगर जीवन के प्रति आकर्षित थे। महापाषाणीय स्मारकों के निर्माण और सिंचाई प्रणालियों के लिए बड़े श्रमिक दलों की आवश्यकता थी। उन्होंने जलस्रोतों और जल संचयन प्रणालियों का भी विकास किया।
  • अधिवासों का विस्तार: हल की सहायता से कृषि में वृद्धि ने अधिवासों में स्थायित्व लाया और उनके आकार और संख्या को बढ़ाया। महापाषाणकालीन लोग नदी घाटियों के पास और प्रमुख जलस्रोतों के आसपास रहते थे, और ऋतु-प्रवास की प्रवृत्ति रखते थे।
  • घर और निर्माण शैली: महापाषाणकालीन घर लकड़ी, फूस, और प्राकृतिक सामग्रियों से बनाए जाते थे। खुदाई से मिले खंभों के सुराखों से यह संकेत मिलता है कि उनके घर लकड़ी के खंभों पर टिके होते थे और छत फूस या सरकंडों से ढकी जाती थी।


महापाषाणकालीन समाज के धार्मिक विश्वास और प्रथाएँ

1. धार्मिक विश्वास

  • मृतकोपासना: महापाषाणकालीन समाज में मृतकों के प्रति गहरी श्रद्धा और धार्मिक विश्वास था, जिसका प्रमाण उनकी समाधि और कब्रों के भव्य निर्माण से मिलता है। ये स्मारक मृतकों के परलोक जीवन के लिए आवश्यक सामग्रियों को दफनाने का प्रतीक थे।
  • जीववाद (Animism): समाज में जीववाद का गहरा प्रभाव था, जिसमें जंगली और पालतू जानवरों की अस्थियाँ कब्रों में दफन की जाती थीं, जो संभवतः मृतकों के लिए बलि के प्रतीक थे। पक्की मिट्टी की बनी जानवरों की मूर्तियाँ भी इस विश्वास को दर्शाती हैं।
  • सामग्री की पवित्रता: कब्र में रखी सामग्री और अनुष्ठानिक वस्तुएँ (जैसे पक्की मिट्टी के बर्तन, धातु के उपकरण, और अलंकरण) परलोक जीवन में उपयोगी मानी जाती थीं। यह संकेत करता है कि मृतकों की जरूरतों का ध्यान रखा जाता था, जो उनकी धार्मिक मान्यताओं का हिस्सा था।

2. धार्मिक प्रथाएँ

  • संगम साहित्य और महापाषाण प्रथाएँ: संगम साहित्य महापाषाणकालीन समाज के धार्मिक विश्वासों और अंत्येष्टि प्रथाओं का वर्णन करता है। यह साहित्य महापाषाणकालीन अनुष्ठानों और प्रथाओं की निरंतरता को दर्शाता है, जिसमें वीरों के स्मारकों को सम्मान देने की परंपरा थी।
  • पशु बलि और प्रतीकात्मक कब्र सामग्री: महापाषाणकालीन प्रथाओं में मृतकों के लिए पशु बलि का महत्व था। संगम साहित्य के अनुसार, कब्रों में पालतू और जंगली जानवरों की अस्थियाँ रखी जाती थीं, जिससे मृतकों के भोजन और अन्य जरूरतों को परलोक में पूरा किया जाता था।
  • धार्मिक प्रतीकों का उपयोग: महापाषाण संस्कृति में धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग किया जाता था, जो मृतकों के प्रति श्रद्धा और परलोक में विश्वास को दर्शाते थे। इन प्रतीकों में धातु के जेवर, मृण्पात्र, और पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ शामिल थीं, जो यह दिखाती हैं कि परलोक में भी मृतकों के जीवन के लिए आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता था।


महापाषाणकालीन समाज का राजनीतिक संगठन

  • सरदार-प्रणाली (Chiefdom): महापाषाण समाज में जनजातीय वंशानुगत समुदाय होते थे, जिनमें सरदार सत्ता के केंद्र होते थे। वे अपने कुल के प्रतिनिधि और सामूहिक संसाधनों के अधिपति थे।कब्रों की संरचना और सामग्री (जैसे धातु के जेवर, मृदभांड) से यह संकेत मिलता है कि दफन व्यक्ति समाज में उच्च पद पर था और प्रतिष्ठित स्थान रखता था।
  • सामाजिक विभाजन और पद-निर्धारण: कब्रों के आकार, सामग्री और निर्माण की जटिलता से यह पता चलता है कि समाज में सामाजिक विभाजन और राजनीतिक पद-निर्धारण था सरदार और उनके उत्तराधिकारी को विशेष दर्जा प्राप्त था, हालांकि पूरी तरह से स्तरीकृत समाज का विकास नहीं हुआ था।
  • सामूहिकता और कार्य-निर्माण: बड़े महापाषाण स्मारकों का निर्माण सामूहिक श्रम का परिणाम था, जिससे जनजातीय समाज की सामूहिकता और नेतृत्व की आवश्यकता स्पष्ट होती है। सरदारों के नेतृत्व में जागीरों का विस्तार हुआ, जो भविष्य में संगम युग के बड़े जागीरों में बदल गए।
  • जागीर और सत्ता संघर्ष: महापाषाण समाज में सरदारों के बीच प्रतिस्पर्धा और सशस्त्र मुठभेड़े होती थीं, जिससे शक्ति-संतुलन और नई जागीरों का निर्माण हुआ। बड़े सरदारों का वर्चस्व और लूट-खसोट से उनका सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभुत्व बढ़ा।
  • वीर-पूजा और समाधि-संस्कृति: समाधिगत स्मारक योद्धाओं और सरदारों की वीरता और संघर्षों को सम्मान देने के लिए बनाए गए थे।यह वीर-पूजा और पूर्वज-पूजा की परंपरा को जन्म देती है, जो संगम साहित्य में वर्णित वीरगाथाओं में भी दिखाई देती है।
  • संगम युग की समकालीनता: महापाषाणकालीन समाज का अंतिम चरण संगम युग में प्रवेश करता है, जहाँ समाज और जागीरों का विकास और अधिक संगठित हुआ। संगम साहित्य में समाज के सामाजिक और राजनीतिक ढांचे का विवरण मिलता है, जिसमें बड़े सरदारों के अधीन छोटे सरदार और योद्धा होते थे, जो जागीरों के विस्तार की दिशा में एक कदम आगे बढ़ते हैं।


महापाषाणकालीन संस्कृति की विरासत

वर्तमान जनजातियों में महापाषाण संस्कृति की जीवित उपस्थिति: महापाषाण संस्कृति के कुछ तत्व आज भी भारत की विभिन्न जनजातियों में देखे जाते हैं। मध्य प्रदेश के बस्तर जिले के मारिया गाँड, उड़ीसा के बॉदोस और गदबास, झारखंड के छोटानागपुर में ओरावं और मुंडा, और असम में खसिस और नागा जैसी जनजातियाँ महापाषाणकालीन प्रथाओं को जीवित रखे हुए हैं। इन जनजातियों के स्मारकों में डोलमेन, पत्थर के वृत्त, और दीर्घाश्म स्तंभ शामिल हैं।

  • उत्तर-पूर्व भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया का प्रभाव: उत्तर-पूर्व भारत की महापाषाण संस्कृति पाश्चात्य प्रभाव की अपेक्षा दक्षिण-पूर्व एशिया से मेल खाती है।
  • नीलगिरि के टोड़ा जनजाति: दक्षिण भारत के नीलगिरि में टोड़ा जनजाति के बीच महापाषाण संस्कृति के अवशेष महत्वपूर्ण हैं। एम.जे. वाल्हाउस ने टोड़ा जनजाति के अंत्येष्टिक प्रचलनों का वर्णन किया है, जो महापाषाण काल की प्रथाओं के जीवित उदाहरण हैं। टोड़ा लोगों के वर्तमान अंत्येष्टिक प्रचलनों में महापाषाणकालीन अंत्येष्टियों के लक्षण, जैसे खाद्य सामग्री, कब्र के सामान, और पत्थर के वृत्त शामिल हैं, जो इस संस्कृति के अस्तित्व को दर्शाते हैं।
  • विलुप्त महापाषाणकालीन निर्माताओं की संभावित प्रथाएँ: टोड़ा जनजाति की अंत्येष्टिक प्रथाएँ दक्षिण भारत के अब विलुप्त महापाषाणकालीन निर्माताओं के जीवन के प्रचलनों को समझने में मदद करती हैं।


महापाषाणकालीन संस्कृति के अध्ययन में सीमाएँ

  • स्रोतों का सीमित स्वरूप: महापाषाण संस्कृति के अधिकांश साक्ष्य कब्रों और समाधियों से प्राप्त होते हैं, जो मुख्य रूप से मृतक संस्कारों और कब्र संरचनाओं से संबंधित हैं।इससे महापाषाण समाज के दैनिक जीवन, आस्थाओं, और सामाजिक ढांचे के बारे में सीमित जानकारी प्राप्त होती है।
  • साहित्यिक स्रोतों की सीमाएँ: महापाषाण काल के बारे में ग्रीक-रोमन लेखकों के वृत्तांत और संगम साहित्य जैसे साहित्यिक स्रोतों का उपयोग किया जाता है, लेकिन ये महापाषाण संस्कृति के अंतिम चरण तक ही सीमित हैं। इस साहित्यिक साक्ष्य से महापाषाण समाज की समग्र समझ में बाधा आती है, क्योंकि यह केवल अंतिम समय को प्रतिबिंबित करता है।
  • आवासीय स्थलों का अभाव: आवासीय स्थलों की कमी महापाषाण संस्कृति के अध्ययन में एक बड़ी बाधा है विशेष रूप से केरल जैसे क्षेत्रों में, आवासीय स्थलों का अभाव यह पता लगाने में कठिनाई उत्पन्न करता है कि लोग कैसे रहते थे और उनकी दैनिक जीवनचर्या कैसी थी।
  • सांस्कृतिक उपलब्धियों पर सामान्यीकरण का अभाव: महापाषाण संस्कृति की सांस्कृतिक उपलब्धियों पर सामान्यीकरण करना जोखिमपूर्ण है, क्योंकि इसके साक्ष्य असंबद्ध और फुटकर हैं। प्राप्त साक्ष्य आंशिक और बिखरे हुए हैं, जो महापाषाण संस्कृति की केवल एक सतही तस्वीर प्रदान करते हैं।
  • समाधि स्थलों की प्रामाणिकता पर प्रश्न: महापाषाण समाधियों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाए गए हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि इन समाधि संरचनाओं का अंतिम उपयोग अंत्येष्टि के लिए हुआ हो सकता है, लेकिन इनका असल उद्देश्य कुछ और हो सकता है। इस दृष्टिकोण की पुष्टि और समझ के लिए अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है।









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