प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 7 CHAPTER 8 SEMESTER 3 THEORY NOTES तिरुवल्लुवर-नैतिक जीवन और राजनीति POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES

 
प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 7 CHAPTER 8 SEMESTER 3 THEORY NOTES तिरुवल्लुवर-नैतिक जीवन और राजनीति POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES


परिचय

तिरुवल्लुवर, एक महान तमिल संत और विचारक, ने अपने कार्यों में जीवन के हर पहलू के लिए मार्गदर्शन प्रदान किया। उनकी शिक्षाएँ बुद्धिमत्ता, परिश्रम, और नैतिकता पर आधारित हैं। वह उत्कृष्ट संगति, ज्ञान, और दृढ़ इच्छाशक्ति को समृद्धि और सफलता का आधार मानते हैं। उन्होंने श्रम, स्वास्थ्य, और संयम का महत्व बताया और सुस्ती व जुआ जैसी बुराइयों से बचने की सलाह दी। तिरुवल्लुवर एक सहकारी और नैतिक समाज की कल्पना करते हैं, जहाँ प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग को प्राथमिकता दी जाती है। उनकी अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका सीमित है, और समाज के कल्याण पर विशेष बल दिया गया है।


तिरुवल्लुवर का समय और अवधि

  • तिरुवल्लुवर का समय: तिरुवल्लुवर का जीवनकाल तीसरी से पहली शताब्दी ईसा पूर्व के बीच माना जाता है। हालांकि उनकी सटीक आयु का निर्धारण करना कठिन है।
  • समकालीन राजवंश और संबंध: तिरुवल्लुवर के समय चेरा, चोल, और पांड्य राजवंश तमिलनाडु में शासन कर रहे थे। उस युग में मिस्र, ग्रीस, रोम, बर्मा, मलेशिया और चीन जैसे देशों के साथ राजनयिक संबंध स्थापित थे। दक्षिण में सीलोन (श्रीलंका) से लेकर उत्तर में हिमालय तक तमिल संस्कृति और प्रभाव फैला हुआ था।
  • तिरुवल्लुवर के काल पर बहस: तमिल विद्वानों के बीच तिरुवल्लुवर के काल को लेकर मतभेद हैं। साहित्यिक और ऐतिहासिक साक्ष्य निर्णायक नहीं हैं, हालांकि इनसे यह संकेत मिलता है कि वे संगम काल से पहले के समय में रहे होंगे।
  • संगम साहित्य में तिरुवल्लुवर: संगम साहित्य में तिरुवल्लुवर का उल्लेख "दिव्य कवि" के रूप में मिलता है, जो यह संकेत देता है कि वे दूसरी शताब्दी ईस्वी से पहले के कवि थे।
  • साहित्यिक संदर्भ: संगम कालीन महाकाव्य सिलप्पथिकारम और मणिमेकलाई तिरुवल्लुवर के समय का महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं। इन ग्रंथों के रचयिता इलंगो आदिगल (सिलप्पथिकारम) और सथनार (मणिमेकलाई) उनके समकालीन माने जाते हैं। मणिमेकलाई में तिरुक्कुरल की प्रशंसा करते हुए तिरुवल्लुवर को "पॉय्यिल पुलावन" (असत्य से मुक्त कवि) कहा गया है। सिलप्पथिकारम में तिरुक्कुरल के कई श्लोकों का श्रद्धापूर्वक उल्लेख किया गया है।
  • ऐतिहासिक संदर्भ: मणिमेकलाई में गजबाहु नामक राजा का उल्लेख मिलता है, जो दूसरी शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं। इस ऐतिहासिक संदर्भ से यह संकेत मिलता है कि तिरुक्कुरल और तिरुवल्लुवर का समय दूसरी शताब्दी ईस्वी से पहले का है।


तिरुवल्लुवर और तिरुक्कुरल का महत्त्व

  • तिरुवल्लुवर का ऐतिहासिक संदर्भ: तिरुवल्लुवर के समय संगम साहित्य में तमिल व्याकरण और साहित्यिक परंपरा का समृद्ध विकास हो चुका था। अगाथियाम और थोल्काप्पियम जैसे ग्रंथ पहले से ही तमिल भाषा और साहित्य के लिए आधार प्रदान कर चुके थे। तिरुवल्लुवर ने इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपनी रचनाओं के माध्यम से तमिल साहित्य को एक नई ऊंचाई प्रदान की।
  • धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण: तिरुवल्लुवर ने बौद्ध धर्म, जैन धर्म, और वैदिक ब्राह्मणवाद के सर्वोत्तम पहलुओं को तमिल मूल्य प्रणाली में सम्मिलित किया। उन्होंने इन सिद्धांतों को संरक्षित, संहिताबद्ध, और विस्तारित करते हुए सार्वभौमिक सत्यों का प्रचार किया। उनकी सोच में लौकिक और अनंत का सामंजस्य था, जिसमें सभी धर्मों के बुनियादी सत्य एक साथ समाहित थे।
  • सामाजिक समानता और प्रेम का संदेश: तिरुवल्लुवर ने सामाजिक समानता और कर्म पर आधारित मूल्य प्रणाली को प्रमुखता दी। उनका प्रसिद्ध कथन, "जन्म से सभी पुरुष समान हैं; यह उनके कर्मों में भिन्नता है जो उनके मूल्य को अलग करता है," सामाजिक समानता और नैतिकता का सटीक उदाहरण है। तिरुवल्लुवर ने प्रेम को मानवीय अभिव्यक्ति का उच्चतम रूप माना और इसे जीवन का सर्वोच्च गुण बताया। उनके अनुसार, प्रेम का कार्य निष्कपट होना चाहिए और इसे तत्काल संतोष या प्रतिदान की आशा से प्रेरित नहीं होना चाहिए।
  • धर्मों का सामंजस्य: तिरुवल्लुवर ने विभिन्न धर्मों के सर्वोत्तम पहलुओं को एक साथ लाकर नैतिकता और आध्यात्मिकता का एक ऐसा रूप प्रस्तुत किया, जो किसी भी धर्म के सिद्धांतों के विपरीत नहीं था। उनके इस अद्वितीय दृष्टिकोण के कारण विभिन्न धर्मों के अनुयायी उन्हें अपना मानने लगे।
  • तिरुक्कुरल का महत्व: तिरुक्कुरल न केवल तमिल साहित्य का एक महान ग्रंथ है, बल्कि यह नैतिकता, सामाजिक समानता, और जीवन के सारभूत मूल्यों का प्रतिपादन करता है। इसकी कविताएं मानवता, प्रेम, और सामाजिक जिम्मेदारी की उत्कृष्ट मिसाल हैं। वल्लुवर की रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं और दुनिया भर में नैतिकता और मानवता का संदेश फैलाती हैं।


तिरुक्कुरल : तमिल साहित्य का सर्वाधिक अनूदित ग्रंथ

  • वैश्विक अनुवाद: तिरुक्कुरल, तिरुवल्लुवर की रचना, तमिल साहित्य का सबसे अधिक अनूदित ग्रंथ है। इसे 82 भाषाओं में अनुवादित किया गया है, जिनमें संस्कृत, हिंदी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, और चीनी प्रमुख हैं।
  • यूरोपीय विद्वानों की प्रशंसा:

1. डॉ. ग्राउल: तिरुक्कुरल से प्रेरित होकर तमिल सीखी और इसका अनुवाद 1854 में जर्मन और 1856 में लैटिन में किया।

2. एम. एरियल: इसे "मानव विचार की उच्चतम अभिव्यक्ति" कहा।

3. डॉ. जी.यू. पोप: 1886 में अंग्रेजी अनुवाद किया और इसे शेक्सपियर व मनु जैसे लेखकों के समकक्ष बताया।

  • भारतीय परंपराओं पर प्रभाव: तिरुक्कुरल ने भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों जैसे दया, क्षमा, और विनम्रता को स्थापित किया।
  • वैश्विक प्रभाव: तिरुक्कुरल ने नैतिकता और मानवता का संदेश देते हुए तमिल वेद के रूप में मान्यता प्राप्त की है। यह जाति, धर्म और संस्कृति से परे, संपूर्ण मानवता को संबोधित करता है।
  • बौद्धिक प्रभाव: पिछले 2,000 वर्षों से यह तमिल संस्कृति और साहित्य का आधार बना हुआ है और आज भी प्रासंगिक है।


 तिरुवल्लुवर का व्यक्तित्व 

  • व्यक्तित्व और पृष्ठभूमि: तिरुवल्लुवर का जीवन इतिहास में स्पष्ट रूप से दर्ज नहीं है, लेकिन उनकी छवि परंपराओं और उनकी रचनाओं के माध्यम से निर्मित हुई है। वे एक बुनकर के रूप में जाने जाते हैं और "वल्लुवर" शब्द उनके समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है। "तिरु" शब्द उनके पवित्र और आदरणीय व्यक्तित्व को इंगित करता है। उन्हें नयनार, पोय्यिरपुलावर, और पेरुनावलर जैसे सम्मानजनक नामों से भी पुकारा गया है।
  • तिरुक्कुरल की रचना और संरचना: तिरुवल्लुवर की महान कृति तिरुक्कुरल नैतिकता, राजनीति, और अर्थव्यवस्था पर आधारित 1330 दोहों (कुरल) का संग्रह है। इसे तीन मुख्य भागों में विभाजित किया गया है:

1. अराम (धर्म) – नैतिकता और सदाचार पर आधारित।

2. पोरुट (अर्थ) – राजनीति और सामाजिक व्यवस्था से संबंधित।

3. इंपम (काम/प्रेम) – प्रेम और व्यक्तिगत जीवन पर केंद्रित।

इन तीनों भागों में कुल 133 अध्याय हैं, जिनमें से 57 अध्याय राजनीति और सामाजिक व्यवस्था (पोरुटपाल) पर चर्चा करते हैं। इसमें राजा, राज्य, और प्रशासन के सिद्धांतों पर विशेष जोर दिया गया है।

  • व्यक्तित्व के दर्शन: तिरुवल्लुवर के व्यक्तित्व में उनकी गहरी नैतिकता और सामाजिक चेतना झलकती है। उनकी रचनाओं से पता चलता है कि वे एक दार्शनिक, समाज सुधारक, और मानवतावादी थे। उन्होंने न केवल धर्म और नैतिकता की चर्चा की, बल्कि राजनीति और अर्थव्यवस्था के व्यावहारिक पहलुओं पर भी प्रकाश डाला। उनके विचार सार्वभौमिक थे, जो सभी जातियों, धर्मों, और समुदायों के लिए उपयुक्त थे।
  • तिरुवल्लुवर की पवित्रता और प्रभाव: तिरुवल्लुवर को देवतुल्य मानते हुए, तमिल साहित्य और संस्कृति में विशेष स्थान दिया गया है। उनके विचार आज भी मानवता के लिए प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। उनका काम, तिरुक्कुरल, तमिल साहित्य का ऐसा ग्रंथ है जो नैतिकता और सामाजिक न्याय का शाश्वत प्रतीक है।


 तिरुवल्लुवर की शिक्षाओं का परिचय 

तिरुवल्लुवर, तमिल साहित्य के महान दार्शनिक और कवि, व्यावहारिक और नैतिक ज्ञान पर जोर देते थे। उनकी शिक्षाएँ मानव अनुभव और जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करती हैं। उन्होंने किसी भी बेकार ज्ञान को खारिज किया, जो जीवन और सीखने से असंबंधित हो।

तिरुकुरल, उनकी काव्यात्मक कृति, तीन प्रमुख भागों में विभाजित है:

1. अरटू पाल (कर्तव्य)

2.पोरुट पाल (धन)

3. कामथु पाल (प्रेम)

तिरुवल्लुवर का दृष्टिकोण संस्कृत धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष से अलग था। उन्होंने "मोक्ष" पर चर्चा न करते हुए, सामाजिक और व्यक्तिगत नैतिकता पर अधिक जोर दिया। उनके "अराम" (नैतिकता) का विचार सार्वभौमिक है और सभी वर्गों और व्यक्तियों के लिए समान रूप से प्रासंगिक है।

तिरुवल्लुवर की शिक्षाएँ दायित्वों, दयालुता, और नैतिक व्यवहार पर आधारित थीं, जो परिवार, समाज, और राज्य के प्रति व्यक्ति की जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करती हैं।

1. पोरुट पाल: राजनीति और समाज पर तिरुवल्लुवर के विचार

  • राजनीति और नैतिकता का संबंध: तिरुवल्लुवर की दूसरी पुस्तक पोरुट पाल राजनीति और समाज की संरचना पर केंद्रित है। इसमें राजा के नैतिक आचरण पर विशेष बल दिया गया है। राज्य के छह प्रमुख घटकों का उल्लेख किया गया है, और राजा से अपेक्षा की जाती है कि वह निष्पक्ष और न्यायप्रिय हो। राजशाही के तीन प्रमुख विकार—दुख, घमंड, और कामुकता—को त्यागने की सलाह दी गई है। तिरुवल्लुवर के अनुसार, अर्थ (धन) और धर्म एक-दूसरे के पूरक हैं, और उनका संयोजन समाज की प्रगति का आधार है।
  • राजा और समाज का संबंध: तिरुक्कुरल में राजा को दिव्य अधिकार के बिना, एक नैतिक शासक के रूप में देखा गया है, जिससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह पुण्य का पालन करे और बुराई से बचे। राजा को प्रजा के नैतिक मूल्यों और आदर्शों का प्रतीक माना गया है। इस भाग में शासक और नागरिक के बीच पारस्परिक संबंधों, नागरिकों के आत्म-सम्मान, सच्चाई, और चरित्र पर विस्तृत चर्चा की गई है।
  • व्यक्ति से समाज तक की यात्रा: पोरुट पाल में तिरुवल्लुवर ने व्यक्ति के आंतरिक विकास और सार्वजनिक जीवन में उसकी भूमिका को जोड़ा है। उनके अनुसार, वही व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में भूमिका निभाने योग्य है, जिसने अपने नैतिक और आध्यात्मिक विकास को सिद्ध किया हो।
  • अराम और सामाजिक व्यवस्था: 'अराम' का अर्थ तिरुवल्लुवर के संदर्भ में केवल धर्म नहीं है, बल्कि यह सामाजिक व्यवस्था और अनुशासन का प्रतीक है। तिरुवल्लुवर के अनुसार, जहाँ व्यवस्था और अनुशासन होंगे, वहीं शांति और प्रगति संभव है। उन्होंने इसे मानव सभ्यता की आधारशिला बताया है।
  • परिवार और प्रेम का महत्व: तिरुवल्लुवर के अनुसार, परिवार समाज की आधारभूत इकाई है। प्रेम को उन्होंने सभी अच्छे और रचनात्मक कार्यों का प्रेरक तत्व माना है। उनके विचारों में धर्म का सामाजिक-राजनीतिक महत्व है और यह जाति, बलिदान, और धार्मिक अनुष्ठानों से परे है।
  • तिरुक्कुरल का अनूठा दृष्टिकोण: तिरुक्कुरल में राजा को मार्गदर्शन देने वाले अध्याय सीमित हैं, लेकिन आम नागरिकों और समाज की नैतिकता पर विशेष ध्यान दिया गया है। यह ग्रंथ धर्म और राजनीति को समाज के हित के लिए जोड़ता है और प्रेम व अनुशासन को सामाजिक प्रगति के मुख्य आधार के रूप में प्रस्तुत करता है।

2. राजनीति और राज्य पर तिरुवल्लुवर के विचार

  • राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप: तिरुवल्लुवर की शासन व्यवस्था राजसत्ता पर आधारित है, जहाँ राजा को न्याय और नैतिकता के नियमों का पालन करना चाहिए। उनकी राजनीतिक दृष्टि संशयवाद से मुक्त है और एक आदर्श स्थिति का वर्णन करती है, जहाँ धर्मी राजा का शासन व्याप्त हो। यह व्यवस्था व्यावहारिक नैतिकता का उदाहरण प्रस्तुत करती है।
  • राजा और राज्य का संबंध: तिरुवल्लुवर के अनुसार, राजा राज्य का केंद्र है और समाज का मूल विचार परिवार है। राजा को अपनी प्रजा पर पिता के समान दयालु और मार्गदर्शक के रूप में चित्रित किया गया है। स्वतंत्रता को अराम (नैतिकता) की सीमाओं के भीतर व्यवहार के रूप में परिभाषित किया गया है, और इसे नैतिक दायित्वों के निर्वहन के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
  • समाज और परिवार का महत्व: तिरुवल्लुवर का समाज आश्रम व्यवस्था पर आधारित नहीं है, बल्कि परिवार को समाज की बुनियादी इकाई के रूप में सशक्त करने पर केंद्रित है। उनके विचार गृहस्थ जीवन को प्राथमिकता देते हैं और वे संन्यास को अस्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का स्वेच्छा से पालन करना चाहिए।
  • समाज में समानता और कर्म का महत्व: तिरुक्कुरल के अनुसार, समाज में व्यक्ति का मूल्यांकन जन्म या भाग्य के आधार पर नहीं, बल्कि उसके कर्म और योगदान के आधार पर होना चाहिए। यह दृष्टिकोण भारत के ऐतिहासिक संदर्भ में क्रांतिकारी था।
  • आदर्श राजनीति और समाज की दृष्टि: तिरुवल्लुवर की राजनीति एक स्वावलंबी और जैविक समाज पर आधारित है, जहाँ सभी लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए नैतिकता और समानता को प्राथमिकता देते हैं। उनकी विचारधारा में परिवार और समाज के बीच एक गहरा संबंध स्थापित किया गया है, जो शांति और प्रगति का आधार है।

3. राजा की भूमिका, गुण और न्याय पर तिरुवल्लुवर के विचार

  • राजा की भूमिका और दायित्व: तिरुवल्लुवर के अनुसार, राजा राज्य का केंद्र है और उसके पास धन सृजन, संरक्षण और उचित वितरण की जिम्मेदारी होती है। राजा को प्रजा, सेना, भोजन, मंत्री, सहयोगी, और किले जैसे साधनों से सुसज्जित होना चाहिए। राजा को न केवल प्रशासनिक बल्कि नैतिक जिम्मेदारियां भी निभानी चाहिए। वह प्रजा के लिए पिता समान होता है, जो समाज में न्याय और संतुलन बनाए रखता है।
  • राजा के गुण: तिरुवल्लुवर ने एक आदर्श राजा में साहस, उदारता, ज्ञान, परिश्रम, और सीखने की ललक जैसे गुणों की अपेक्षा की है। राजा को विनम्र, न्यायप्रिय, और आत्म-नियंत्रित होना चाहिए। उसे प्रजा के हित में निर्णय लेते समय निष्पक्षता और करुणा का पालन करना चाहिए।
  • न्याय और दंड का महत्व: तिरुवल्लुवर न्याय को शासन का मुख्य आधार मानते हैं। उनका कहना है कि राजा को निष्पक्ष जाँच और उचित दंड की प्रक्रिया सुनिश्चित करनी चाहिए। दुष्टों को दंड देना राजा का कर्तव्य है, लेकिन यह दंड न्यायपूर्ण होना चाहिए। तिरुवल्लुवर ने राजा को प्रजा की रक्षा करने और अत्याचार से बचने की सलाह दी है। उनका मानना है कि अन्याय से न केवल प्रजा दुखी होती है, बल्कि राज्य भी नष्ट हो जाता है।
  • राजा की नैतिकता और प्रजा के प्रति दायित्व: राजा को आत्म-अनुशासन का पालन करते हुए उच्च नैतिक मानदंड स्थापित करने चाहिए। तिरुवल्लुवर के अनुसार, राजा को दुष्टों की संगति से बचना चाहिए और बुद्धिमानों की संगति करनी चाहिए। प्रजा के प्रति राजा का व्यवहार दयालु और न्यायसंगत होना चाहिए। वह अत्यधिक भूख, महामारी, और हिंसा से प्रजा को मुक्त रखने का प्रयास करें।
  • प्रजा और राजा का संबंध: तिरुवल्लुवर ने जनता को राज्य का एक महत्वपूर्ण घटक माना है। उन्होंने कहा कि राजा को प्रजा की इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए। जनता का सम्मान और उनकी भलाई पर ध्यान देना राजा का प्राथमिक दायित्व है। तिरुक्कुरल में कहा गया है कि राजा का राजदंड तभी प्रभावी होता है जब वह सदाचार और नैतिकता के साथ प्रयोग किया जाए।
  • अत्याचार और अन्याय के परिणाम: तिरुवल्लुवर ने अत्याचारी राजा की कड़ी आलोचना की है। उनका मानना है कि अन्याय करने वाला राजा अपनी प्रजा और राज्य दोनों को खो देता है। उनके अनुसार, राजा की अनुचितता से प्राकृतिक आपदाएँ तक हो सकती हैं, जैसे वर्षा का रुकना और फसलों की विफलता।
  • आदर्श राजा की विशेषताएँ: तिरुवल्लुवर का आदर्श राजा शिक्षित, दृढ़, और कुशल प्रबंधक होता है। उसे राज्य के संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करना चाहिए और प्रजा की समस्याओं को हल करने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। राजा को न्याय और दया के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए।
  • उपसंहार: तिरुवल्लुवर ने एक आदर्श राजतंत्र की परिकल्पना की है, जहाँ राजा कानून और नैतिकता के पालन के साथ प्रजा की भलाई सुनिश्चित करता है। उनका मानना है कि एक सफल शासन प्रजा की भलाई, न्याय और नैतिकता पर आधारित होना चाहिए। तिरुक्कुरल में राजा को "समाज का योजनाकार" और "सद्गुण का संरक्षक" बताया गया है।

4. राज्य के प्रशासक और उनके गुण पर तिरुवल्लुवर के विचार

  • राजा के सहयोगियों का महत्व: राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए राजा को सलाहकारों, सैनिकों, राजदूतों और अन्य अधिकारियों की आवश्यकता होती है। तिरुवल्लुवर ने इन पदाधिकारियों के गुण, दायित्व और चयन प्रक्रिया पर विशेष ध्यान दिया है। उनके अनुसार, कुशल प्रशासन के लिए योग्य और विश्वसनीय अधिकारियों का चयन और उनके साथ उचित व्यवहार आवश्यक है।
  • मंत्रियों की भूमिका और गुण: तिरुवल्लुवर मंत्रियों को राजा की "आँखें" मानते हैं। उनके अनुसार, मंत्री ज्ञानी, व्यावहारिक, ध्यान केंद्रित करने वाले, और विश्वासघात से मुक्त होने चाहिए। वे केवल राजा की "हाँ में हाँ" मिलाने वाले नहीं, बल्कि निष्पक्ष और साहसी आलोचक होने चाहिए। मंत्रियों को साधनों और उद्देश्यों के चयन में कुशल होना चाहिए और राज्य की नीतियों के क्रियान्वयन में दक्षता दिखानी चाहिए।
  • राजदूतों के गुण: तिरुवल्लुवर ने राजदूतों के लिए मित्रता, रचनात्मकता, निष्ठा, बुद्धिमत्ता, और दूरदर्शिता जैसे गुण अनिवार्य बताए हैं। उन्होंने कहा कि राजदूत को सौहार्दपूर्ण और निर्भीक होकर संवाद करना चाहिए। चाहे जान का संकट हो, राजदूत को यह दिखाना चाहिए कि उसका राजा धर्मी है।
  • गुप्तचरों का महत्व: तिरुवल्लुवर ने गुप्तचरों को प्रशासन की "आँखें" माना है। उनका काम राजा के सहयोगियों, रिश्तेदारों, और विरोधियों पर नज़र रखना है। गुप्तचर निर्भीक, भरोसेमंद, और अपने काम में माहिर होने चाहिए। तिरुवल्लुवर ने गुप्तचरों के दावों की पुष्टि के लिए दूसरे स्रोतों से जाँच कराने की सिफारिश की है और उनकी पहचान गुप्त रखने का सुझाव दिया है।
  • दरबारियों के गुण: दरबारी राजा के करीब होते हैं, लेकिन तिरुवल्लुवर ने उन्हें राजा से बहुत निकट या बहुत दूर रहने से मना किया है। उन्हें राजा के रहस्यों का सम्मान करना चाहिए और न्यायालय की ऊर्जा को समझते हुए व्यावहारिक सलाह देनी चाहिए।
  • मंत्रालय का महत्व: मंत्रालय राज्य का एक महत्वपूर्ण घटक है। मंत्री राजा की नीतियों को लागू करने, संसाधनों के प्रबंधन, और समस्याओं के समाधान में सहायता करते हैं। मंत्रियों को कानून की गहरी समझ और नैतिक रूप से ईमानदार होना चाहिए। तिरुवल्लुवर के अनुसार, एक बुरा मंत्री राज्य के लिए 70 करोड़ दुश्मनों से अधिक हानिकारक हो सकता है।
  • साधन और साध्य का महत्व: तिरुवल्लुवर ने साधनों की शुद्धता और उद्देश्यों की स्पष्टता पर जोर दिया है। मंत्रियों को हर परिस्थिति में तार्किक और व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करने चाहिए। उनके विचार में, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नैतिकता और कुशलता का पालन आवश्यक है।
  • उपसंहार: तिरुवल्लुवर के अनुसार, राज्य के सफल संचालन के लिए राजा और उसके अधिकारियों का कुशल, नैतिक, और विवेकपूर्ण होना आवश्यक है। मंत्रियों, राजदूतों, और गुप्तचरों का चयन और कार्य निष्पादन राज्य की प्रगति और स्थायित्व के लिए अनिवार्य है। उनकी नीतियाँ आधुनिक प्रशासन के लिए भी प्रेरणास्रोत हैं।

5. तिरुवल्लुवर और युद्ध की अवधारणा

  • युद्ध की आवश्यकता: तिरुवल्लुवर ने युद्ध को अपराध रोकने और राज्य की रक्षा का आवश्यक माध्यम माना। उन्होंने शासकों के लिए किलेबंदी को सर्वोत्तम सुरक्षा उपाय बताया, जिसमें मजबूत दीवारें, पहाड़ियाँ, जंगल, और भोजन का भंडार शामिल हों। उनके अनुसार, सेना संगठित, जुझारू, साहसी और भ्रष्टाचार से मुक्त होनी चाहिए। सैनिकों में साहस सर्वोच्च गुण है, और विपरीत परिस्थितियों में बहादुरी दिखाना पौरुष का प्रतीक है।
  • सैन्य रणनीति और समय का चयन: तिरुवल्लुवर ने युद्ध में सही समय और स्थान के चयन को महत्वपूर्ण माना। उनका कहना था कि शत्रु को उसके क्षेत्र में हराना कठिन होता है। उन्होंने आत्ममूल्यांकन, शत्रु की ताकत और सहयोगियों की स्थिति का मूल्यांकन करने के बाद सटीक योजना बनाने की आवश्यकता बताई। शक्तिशाली शत्रुओं से बचने और कमजोर शत्रुओं के साथ कूटनीति अपनाने की सलाह दी।
  • शत्रु का चयन और संघर्ष की तैयारी: उन्होंने शत्रु के चयन में सावधानी बरतने और निर्णायक कार्रवाई को जरूरी बताया। उनका मानना था कि अजेय शत्रुओं से बचना चाहिए और अकेले लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए। यदि संभव हो, तो शत्रु को मित्र में बदलना बेहतर है। कठिन समय में सभी संभावनाओं को खुले रखने पर उन्होंने जोर दिया।
  • युद्ध और शांति का दृष्टिकोण: तिरुवल्लुवर ने युद्ध को अंतिम विकल्प बताया और शांति को प्राथमिकता दी। उनके अनुसार, आदर्श शासक वह है जो शत्रु को मित्र बना सके। युद्ध को टालने के प्रयास उनके शांति-प्रिय और व्यावहारिक दृष्टिकोण को दर्शाते हैं।
  • कूटनीति और राजदूत की भूमिका: कूटनीति में उन्होंने राजदूत की भूमिका को अहम बताया। राजदूत को मित्रता, राजनीति का ज्ञान, और संवाद कौशल में दक्ष होना चाहिए। उसका कर्तव्य राजा के हितों की रक्षा करना है, चाहे इसके लिए उसे अपने प्राण भी क्यों न त्यागने पड़ें।
  • युद्ध में नैतिकता: तिरुवल्लुवर ने युद्ध में नैतिकता पर भी जोर दिया। उन्होंने शासकों को अन्याय और अनैतिक तरीकों से बचने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि युद्ध में विजय केवल तभी सार्थक है जब वह न्यायपूर्ण हो।

6. किले और किलेबंदी का महत्व

  • तिरुवल्लुवर ने तिरुक्कुरल में किलों को राज्य की सुरक्षा का आधार बताया। किले मजबूत, अभेद्य, और ऊँचाई में अधिक होने चाहिए। इसमें हथियार, भोजन, और आपातकालीन साधनों का पर्याप्त भंडार होना चाहिए। किले के स्थान का चयन रणनीतिक होना चाहिए, जिसमें पहाड़ियाँ, जंगल, और खुला क्षेत्र शामिल हों।
  • सेना को भ्रष्टाचार-मुक्त, संगठित, और साहसी होना चाहिए। सैनिकों को शत्रु के हमले का मजबूती से विरोध करना चाहिए। किला न केवल रक्षा का साधन है बल्कि राज्य की स्थिरता और आत्मनिर्भरता का प्रतीक भी है।
  • तिरुवल्लुवर के अनुसार, मजबूत किले और एक संगठित सेना किसी भी राज्य की सुरक्षा के लिए अनिवार्य हैं।

7. तिरुवल्लुवर के अनुसार मित्रता और सहयोगियों का महत्व

  • मित्रता का महत्व: तिरुवल्लुवर ने मित्रता को शत्रुओं के विरुद्ध सबसे प्रभावी शस्त्र बताया। यह कठिन समय में सहायक होती है, सही मार्ग दिखाती है, और बुराई को रोकने में सहयोग करती है। मित्रता राज्य की रक्षा और स्थिरता का आधार भी है।
  • राजा और मित्रता: राजा को अपने शत्रु और मित्र पहचानने में कुशल होना चाहिए। कल्याणकारी शासक, जो करुणा और सही निर्णयों से शांति और उन्नति को बनाए रखता है, सच्ची मित्रता का प्रमाण है।
  • सच्ची मित्रता का परीक्षण: तिरुवल्लुवर ने विपत्ति को सच्ची मित्रता का मापदंड बताया। उनके अनुसार, कठिन समय में ही वास्तविक मित्रों की पहचान होती है।सच्चा मित्र प्रेम और निष्ठा से भरा होता है। यदि सच्चे मित्र न मिलें, तो अकेलापन गलत संगति से बेहतर है।
  • सावधानियाँ: उन्होंने ऐसी मित्रता से बचने की सलाह दी, जो गुप्त प्रेम और सार्वजनिक तुच्छता दिखाए। इस प्रकार की मित्रता व्यक्ति को कठिन समय में नुकसान पहुँचा सकती है।
  • मित्रता का मनोविज्ञान: तिरुवल्लुवर ने मित्रता को मानव संबंधों की एक गहरी सच्चाई के रूप में देखा, जो जीवन की कठिनाइयों को सहने और शांति बनाए रखने में सहायक है।

8. तिरुवल्लुवर के अनुसार अर्थव्यवस्था

  • गरीबी और समृद्धि पर विचार: तिरुवल्लुवर ने अर्थव्यवस्था को समाज की भलाई के लिए महत्वपूर्ण माना है। उन्होंने गरीबी को अभिशाप बताया और इसे दयनीय स्थिति के रूप में प्रस्तुत किया। गरीबी की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि यह व्यक्ति की प्रतिष्ठा और आवाज़ को कमजोर कर देती है। हालांकि, उन्होंने गरीबी से बचने के कोई विशेष उपाय नहीं सुझाए।
  • कृषि का महत्व: तिरुवल्लुवर ने कृषि को अर्थव्यवस्था का मूल आधार माना। उन्होंने किसान को "दुनिया का भोजन प्रदाता" कहा और खेती को आदर्श पेशा बताया। उनके अनुसार, फसल की सिंचाई, निराई और सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने कृषि को समृद्धि का स्रोत माना और इसे समाज के विकास का केंद्र बिंदु बताया।
  • ज्ञान और शिक्षा का मूल्य: तिरुवल्लुवर ने शिक्षा और ज्ञान को धन का सबसे महत्वपूर्ण रूप बताया। उनके अनुसार, ज्ञान कभी घटता नहीं और यह मनुष्य की आंतरिक संपत्ति है। उन्होंने आजीवन सीखने और मानव पूंजी के निर्माण पर जोर दिया। शिक्षा को समाज में योगदान और व्यक्तिगत विकास का साधन माना गया।
  • मानव श्रम और उत्पादकता: तिरुवल्लुवर ने श्रम और उत्पादकता को अर्थव्यवस्था के लिए अनिवार्य बताया। उन्होंने प्रबंधकों को सलाह दी कि वे जानकार, बुद्धिमान, और ईमानदार कर्मचारियों को नियुक्त करें। उन्होंने मेहनत और लगन को समृद्धि का स्रोत बताया और सुस्ती को विनाशकारी कहा।
  • स्वास्थ्य और संयम: तिरुवल्लुवर ने उत्तम स्वास्थ्य को आर्थिक और व्यक्तिगत विकास के लिए महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने संयम और संतुलित जीवनशैली की सलाह दी। शराब और जुए के प्रति उनके विचार नकारात्मक थे, क्योंकि ये व्यक्ति की प्रतिष्ठा और आर्थिक स्थिरता को नुकसान पहुँचाते हैं।
  • सामुदायिक सहयोग और सामाजिक विवेक: तिरुवल्लुवर ने सामुदायिक उन्नति और सहयोग को आर्थिक समृद्धि का आधार माना। उन्होंने समाज में उत्कृष्ट व्यक्तियों की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया और कहा कि समाज उनकी कमी से ढह सकता है।
  • अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका: तिरुवल्लुवर ने आर्थिक मामलों में राज्य की कम-से-कम भागीदारी का समर्थन किया। उन्होंने प्रतिस्पर्धा के बजाय सहयोग को प्राथमिकता दी और अर्थव्यवस्था को सहकारी, अर्ध-समाजवादी राष्ट्रमंडल के रूप में परिभाषित किया।



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