राजनीतिक सिद्धांत का परिचय UNIT - 2 SEMESTER -1 स्वतंत्रता, समानता, न्याय और अधिकार की अवधारणाएँ Political DU. SOL.DU NEP COURSES

 

राजनीतिक सिद्धांत का परिचय UNIT - 2  SEMESTER -1 स्वतंत्रता, समानता, न्याय और अधिकार की अवधारणाएँ  Political DU. SOL.DU NEP COURSES


राजनीति विज्ञान बहुत बड़ा विषय है। इसमें सिर्फ राजनीतिक सिद्धांतों की बात नहीं होती, बल्कि देश, राज्य या समाज में लोगों को मिलने वाली सुविधाओं और सेवाओं के बारे में भी बताया जाता है। नागरिकता का मतलब है कि किसी देश के व्यक्ति को कुछ अधिकार और सुरक्षा मिलती है। संविधान में कई अधिकारों की जानकारी दी गई है। अलग-अलग विचारकों ने समानता और न्याय के बारे में अपनी राय दी है। राजनीति विज्ञान में विकास और लोगों के भले के लिए काम करने वाले राज्य का महत्व है। इस इकाई में नागरिकता, अधिकार, शक्ति, लोकतंत्र, विकास और समाज में बदलाव से जुड़े सिद्धांतों का अध्ययन किया जा रहा है।

स्वतंत्रता आधुनिक लोकतांत्रिक समाज का एक प्रमुख आधार है। यह हर व्यक्ति के लिए अलग मायने रखती है – धार्मिक दृष्टिकोण में यह मोक्ष से जुड़ी है, तो साम्राज्यवाद से मुक्त होने के लिए यह स्वराज का प्रतीक है।


 स्वतंत्रता 


‘स्वतंत्रता’ का अंग्रेजी शब्द ‘लिबर्टी’ लैटिन शब्द ‘लिबर’ से आया है, जिसका अर्थ है – सभी बंधनों से मुक्ति। परंतु इसका वास्तविक अर्थ मनमानी करना नहीं है, बल्कि अपने अधिकारों का उपयोग इस तरह करना है कि दूसरों के अधिकारों और समाज के नियमों का भी सम्मान हो।

प्रमुख परिभाषाएँ:-

  • मानवाधिकार घोषणा पत्र (1789): "स्वतंत्रता वह शक्ति है जो दूसरों को नुकसान पहुंचाए बिना किसी कार्य को करने का अधिकार देती है।"
  • जॉन स्टुअर्ट मिल: "व्यक्तिगत जीवन में कार्य करने का अधिकार।"
  • महात्मा गांधी: "स्वतंत्रता का अर्थ नियंत्रण का अभाव नहीं, बल्कि व्यक्तित्व के विकास का अवसर है।"


स्वतंत्रता की विशेषताएँ:-

  • अनुचित प्रतिबंधों का अभाव: समाज में आवश्यक विकास के लिए अनावश्यक प्रतिबंध नहीं होने चाहिए।
  • पूर्ण स्वतंत्रता संभव नहीं: सभी के हित में किसी को असीमित स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती।
  • स्वतंत्रता और कानून का संतुलन: समाज कल्याण हेतु बने कानून स्वतंत्रता का पोषण करते हैं।
  • विभिन्न रूप: स्वतंत्रता के कई रूप होते हैं, जैसे – नागरिक, राजनीतिक, और आर्थिक।
  • कर्तव्य और उत्तरदायित्व: स्वतंत्रता को सार्थक बनाने के लिए समाज के नियमों का पालन और सामूहिक जिम्मेदारी आवश्यक है।


1. स्वतंत्रता के प्रकार

स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकारों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:-

  • प्राकृतिक स्वतंत्रता: यह स्वतंत्रता व्यक्ति को जन्म से प्रकृति से प्राप्त होती है। रूसो के अनुसार, मनुष्य जन्म से स्वतंत्र होता है, लेकिन समाज और कानून उसे सीमित कर देते हैं।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता: यह स्वतंत्रता उन कार्यों पर आधारित है जिनका असर केवल व्यक्ति पर होता है। मिल के अनुसार, व्यक्ति अपने शरीर और मस्तिष्क का संप्रभु है।
  • राजनीतिक स्वतंत्रता: यह अपने राज्य के कार्यों में स्वतंत्र रूप से भाग लेने की क्षमता है। इसमें मतदान का अधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार, और सरकार की आलोचना करने का अधिकार शामिल हैं।
  • आर्थिक स्वतंत्रता: लास्की के अनुसार, यह स्वतंत्रता जीविका कमाने की सुरक्षा और सुविधा का अधिकार देती है, ताकि व्यक्ति बेरोजगारी और आर्थिक संकट के भय से मुक्त रहे।
  • राष्ट्रीय स्वतंत्रता: यह विचार एक राष्ट्र को स्वतंत्र राज्य बनाने का अधिकार देता है ताकि वह किसी अन्य राज्य के अधीन न रहे। यह भाषा, धर्म, संस्कृति और ऐतिहासिक परंपराओं पर आधारित है।
  • नैतिक स्वतंत्रता: यह व्यक्ति की मानसिक स्थिति को संदर्भित करती है जिसमें वह लोभ और लालच से मुक्त होकर जीवन जीने योग्य होता है। इसे विवेकपूर्ण इच्छा की स्वतंत्रता कहा जाता है।
  • धार्मिक स्वतंत्रता: यह राज्य को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने और नागरिकों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की स्वतंत्रता है।
  • नागरिक स्वतंत्रता: यह स्वतंत्रता नागरिकों को कानून के तहत दी जाती है, जिसमें जीवन, संपत्ति, परिवार, विचार, और भाषा की स्वतंत्रता शामिल है।


2. स्वतंत्रता के संरक्षण के विविध उपाय

स्वतंत्रता को संरक्षित रखने के लिए निम्नलिखित उपाय आवश्यक माने गए हैं:-

  • आदर्श कानून: स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए राज्य को ऐसे आदर्श कानून बनाने चाहिए, जो व्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तित्व के विकास को प्रोत्साहन दें।
  • विशेषाधिकारों का अंत: समाज में विशेषाधिकारों का अंत आवश्यक है, ताकि हर वर्ग समान स्वतंत्रता का लाभ उठा सके।
  • शक्ति का विकेंद्रीकरण: सत्ता के विकेंद्रीकरण से निरंकुशता का खतरा कम होता है। शक्ति का केंद्र और राज्यों के बीच उचित बंटवारा, और स्थानीय स्वशासन का प्रोत्साहन, स्वतंत्रता की सुरक्षा में सहायक होता है।
  • आर्थिक सुरक्षा और विषमता का अंत: आर्थिक सुरक्षा स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण है। बेरोजगारी, गरीबी, और आर्थिक विषमता को दूर करके ही राजनीतिक स्वतंत्रता का वास्तविक लाभ मिल सकता है।
  • संगठित राजनीतिक दल: संगठित और अनुशासित राजनीतिक दल सरकार को नियंत्रित करते हैं और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं।
  • लोकतांत्रिक शासन: लोकतंत्र में सत्ता जनता में निहित होती है, इसलिए नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं हो सकता।
  • मूल अधिकार: मूल अधिकार स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं। विभिन्न लोकतांत्रिक देशों के संविधानों में नागरिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए इन्हें शामिल किया गया है।
  • स्वतंत्र न्यायालय: न्यायालयों की स्वतंत्रता से नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रहते हैं। न्यायालय में निष्पक्षता और स्वतंत्रता से ही यह संभव होता है।
  • सतत जागरूकता: स्वतंत्रता की रक्षा के लिए नागरिकों का अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना आवश्यक है। किसी भी अतिक्रमण का जागरूकता से विरोध होना चाहिए।
  • स्वतंत्र प्रेस: स्वतंत्र प्रेस प्रशासन को मर्यादित रखता है और नागरिक चेतना का विकास करता है, जिससे स्वतंत्रता सुरक्षित रहती है।


3. स्वतंत्रता की उदारवादी संकल्पना

उदारवादी विचारधारा में स्वतंत्रता के कई आयामों का विश्लेषण किया गया है, जिसमें नकारात्मक और सकारात्मक स्वतंत्रता प्रमुख हैं। उदारवादी मान्यता के अनुसार, व्यक्ति का स्वतंत्र होना उसके अधिकारों और स्वायत्तता को सुरक्षित रखना है। इस विचारधारा के कुछ प्रमुख विचारकों के दृष्टिकोण निम्नलिखित हैं:-
  • आइजिया बर्लिन: बर्लिन ने स्वतंत्रता को "नकारात्मक स्वतंत्रता" के रूप में परिभाषित किया, जिसका अर्थ है किसी व्यक्ति को उसकी मर्जी के अनुसार कार्य करने से रोका न जाए। उनके अनुसार, राज्य का काम केवल इस स्वतंत्रता की रक्षा करना है, न कि किसी प्रकार की "सकारात्मक स्वतंत्रता" देने का प्रयास करना। बर्लिन के अनुसार, किसी की व्यक्तिगत क्षमताओं और अक्षमताओं में राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
  • मिल्टन फ्रीडमैन: फ्रीडमैन ने स्वतंत्रता को पूंजीवादी व्यवस्था से जोड़ा। उनके अनुसार, आर्थिक स्वतंत्रता, जो निजी उद्यम और बाजार की स्वतंत्रता पर आधारित है, राजनीतिक स्वतंत्रता का आधार है। वे मानते हैं कि सरकार का काम कानून व्यवस्था बनाए रखना है, न कि अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करना। कल्याणकारी योजनाओं और मूल्य नियंत्रण को वे स्वतंत्रता का हनन मानते हैं।

  • एफ.ए. हेयक: हेयक ने स्वतंत्रता को "व्यक्तिगत स्वतंत्रता" का नाम दिया, जो किसी भी बाहरी नियंत्रण से मुक्त हो। उन्होंने इसे तीन प्रकारों से अलग किया:

1. राजनीतिक स्वतंत्रता: जिसमें व्यक्ति को अपनी सरकार और प्रशासन में भाग लेने का अधिकार हो।

2. आंतरिक स्वतंत्रता: जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छाओं का नियंत्रित कर कार्य कर सके।

3. शक्ति रूपी स्वतंत्रता: जिसमें व्यक्ति अपनी अभिलाषाओं को पूरा कर सके और अपनी पसंद का रास्ता चुन सके।

स्वतंत्रता की मार्क्सवादी संकल्पना

मार्क्सवादी दृष्टिकोण में स्वतंत्रता का अर्थ सामूहिक और सामाजिक विकास है, न कि केवल व्यक्तिगत संतोष। इसके प्रमुख विचार हैं:

  • अकेलेपन का विरोध: स्वतंत्रता समाज से जुड़कर मिलती है, अकेले नहीं। समाज से कटा व्यक्ति स्वतंत्रता का आनंद नहीं ले सकता।
  • विवशता और स्वतंत्रता का अंतर: फ्रेडरिक एंगेल्स ने बताया कि विवशता प्राकृतिक नियमों से बंधे रहने में है, जबकि स्वतंत्रता का अर्थ है इन नियमों का ज्ञान लेकर उन्हें अपने उद्देश्यों के लिए उपयोग करना।
  • अलगाव से मुक्ति: मार्क्स के अनुसार, पूंजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति अपने काम, समाज और स्वयं से कट जाता है। सामूहिक स्वामित्व और सहकारी समाज से यह अलगाव समाप्त किया जा सकता है।

समकालीन अलगाववादी विचार

  • एरिक फ्राम: फ्राम का मानना था कि पूंजीवाद व्यक्ति को रचनात्मकता और समाज से दूर करता है। इसका समाधान समाज से स्वस्थ संबंध जोड़ना है।
  • हर्बर्ट मार्क्यूजे: मार्क्यूजे के अनुसार, पूंजीवाद ने तुच्छ भौतिक इच्छाओं में व्यक्ति को उलझा दिया है, जिससे सृजनात्मक स्वतंत्रता कुंठित हुई है।
  • युर्गेन हैबरमास: हैबरमास का मानना था कि पूंजीवाद ने व्यक्ति को समाज के असली लक्ष्यों से दूर किया है। तर्कशीलता को पुनः जागृत करना जरूरी है।


4. सकारात्मक और नकारात्मक स्वतंत्रता 

  • नकारात्मक स्वतंत्रता: इसका अर्थ है बंधनों का अभाव, यानी व्यक्ति को उन कार्यों में स्वतंत्रता मिलनी चाहिए जिनमें बाहरी हस्तक्षेप न हो। इसका मानना है कि व्यक्ति स्वयं अपने हित को सबसे बेहतर समझता है। इसे हॉब्स, लास्क, मांटेस्क्यू, बेंथम, स्पेन्सर जैसे विचारकों ने समर्थन दिया है।
  • सकारात्मक स्वतंत्रता: इसका अर्थ है अधिकार और नियंत्रण का होना, जिससे व्यक्ति अपने जीवन के बारे में निर्णय ले सके। इसका मानना है कि व्यक्ति को अपने विकास के लिए आवश्यक साधनों का अवसर मिलना चाहिए। इस विचारधारा का समर्थन रूसो, हेगेल, कांट और मार्क्स जैसे विचारकों ने किया है।

विचारक:-

  • हॉब्स: स्वतंत्रता को कानून द्वारा सीमित मानते हैं; जहां कानून नहीं होता वहां स्वतंत्रता होती है।
  • बेंथम: स्वतंत्रता का संतुलन समाज की भलाई के लिए आवश्यक मानते हैं।
  • पॉपर और हेयक: स्वतंत्रता का अर्थ बंधनों का अभाव मानते हैं और इसे अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं।
  • विकासशील देशों के लिए: केवल नकारात्मक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है, क्योंकि गरीबी और असमानता को दूर करने के लिए सकारात्मक स्वतंत्रता आवश्यक है। सकारात्मक स्वतंत्रता का मतलब है कि समाज में कमजोर वर्गों को आर्थिक और सामाजिक अवसर मिले ताकि वे अपने जीवन को सुधार सकें।

अर्थ : -

  • नकारात्मक स्वतंत्रता में केवल सीमित अधिकार होते हैं जैसे बोलने की स्वतंत्रता, जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता सामाजिक और आर्थिक न्याय की मांग करती है ताकि हर व्यक्ति को अपने जीवन में वास्तविक स्वतंत्रता का अनुभव हो सके।


5. स्वतंत्रता और अधिकार

  • अब केवल सैद्धांतिक तौर पर स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं किया जाता। अपितु एक लोकतांत्रिक राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह स्वतंत्रता को एक कानूनी एवं मूल अधिकार के रूप में स्वीकार करेगा तथा उसकी सुरक्षा की गारंटी देगा। ऐसा न कर पाने वाले राज्य को अलोकतांत्रिक एवं असफल राज्य की श्रेणी में रखा जाता है।
  • यही कारण है कि भारत के संविधान में निर्माताओं ने विभिन्न स्वतंत्रताओं को अधिकारों की सूची में प्रथम स्थान दिया है। स्वतंत्रता के ये अधिकार कुछ असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर अनुल्लंघनीय हैं। इनकी रक्षा करना राज्य की तीनों संस्थाओं-कार्यपालकिा, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका का प्रधान कर्तव्य है।
  • स्वतंत्रताओं की रक्षा, इस समय किसी राष्ट्र में लोकतंत्र एवं सुचारू शासन की सबसे बड़ी कड़ी चुनौती माना जाता है। रॉबर्ट डॉल ने अपनी लोकतांत्रिक पैमानों की कड़ी में इसे प्रमुख स्थान दिया है। इस प्रकार, स्वच्छंदता तथा अधिकारों का मजबूत संबंध है।



    समानता    


  • समानता का महत्व: समानता की मांग हमेशा से समाज में असमानताओं को खत्म करने की कोशिश रही है। कई ऐतिहासिक क्रांतियों और संविधानों में इसे एक आदर्श माना गया है, जैसे 1776 में अमेरिकी स्वतंत्रता और 1789 में फ्रांसीसी क्रांति। भारतीय संविधान (1950) में भी समानता को एक महत्वपूर्ण लक्ष्य माना गया है।
  • प्राकृतिक और सामाजिक असमानताएं: समानता का मतलब सभी को एक जैसा बनाना नहीं है। कुछ असमानताएं प्राकृतिक होती हैं, जैसे शरीर, रंग, और बुद्धि में अंतर। लेकिन समानता का उद्देश्य इन प्राकृतिक असमानताओं को खत्म करना नहीं है, बल्कि सामाजिक असमानताओं को समाप्त करना है।
  • समानता का सही अर्थ: समानता का मतलब है कि समाज या राज्य में किसी को विशेष सुविधाएं न मिलें। राज्य सभी नागरिकों के प्रति धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव न करे और सबको समान अधिकार व अवसर दे। राज्य की संपदा का उचित वितरण होना चाहिए ताकि सभी वर्गों को समान अवसर मिल सकें।
  • प्रोफेसर लॉस्की का दृष्टिकोण: लॉस्की के अनुसार, समानता का अर्थ है- (1) विशेष सुविधाओं का अभाव और (2) सभी नागरिकों को आत्म-विकास के समान अवसर प्रदान करना।
  • अवसर की समानता: आज के लोकतंत्र में सभी को अपने विकास के लिए पर्याप्त संसाधन देने पर बल दिया जाता है। यह मान्यता है कि समाज के वंचित वर्गों के पक्ष में कुछ भेदभावमूलक नीतियां (जैसे आरक्षण) अपनाई जा सकती हैं, ताकि सभी को समान अवसर मिलें। इसे सकारात्मक समानता कहते हैं, जैसे अमेरिका में 'अफर्मेटिव एक्शन' और भारत में 'आरक्षण'।
  • सकारात्मक समानता की शर्तें: लॉस्की के अनुसार, सकारात्मक समानता के लिए तीन शर्तें हैं—(1) विशेष सुविधाओं का अभाव, (2) सबके लिए समान अवसर, और (3) सबसे पहले प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति।


1. समानता : वर्गीकरण

समानता का सिद्धांत राजनीति विज्ञान का एक प्रमुख विषय है और इसके विभिन्न आयामों का अध्ययन किया जाता है:

  • सामाजिक समानता - सामाजिक भेदभाव और विशेषाधिकारों का उन्मूलन, जिससे जाति, धर्म, लिंग, प्रजाति आदि के आधार पर भेदभाव न हो।
  • नागरिक समानता - विधि के समक्ष सभी नागरिकों की समानता, जिसमें सभी को समान अधिकार और कर्तव्य मिलते हैं।
  • राजनीतिक समानता - सभी नागरिकों को शासन में समान रूप से भाग लेने का अवसर, जिसमें मतदान और चुनाव में भागीदारी का अधिकार शामिल है।
  • आर्थिक समानता - आय में अत्यधिक असमानता का उन्मूलन, ताकि कोई भी आर्थिक संसाधनों का गलत लाभ न उठा सके।
  • प्राकृतिक समानता - सभी मनुष्यों को स्वाभाविक रूप से समान माना जाता है, लेकिन आधुनिक दृष्टिकोण इसे वास्तविक मानता है कि सभी में कुछ प्राकृतिक भिन्नताएं होती हैं।
  • धार्मिक समानता - सभी धर्मों के अनुयायियों को समान समझा जाना और उन्हें अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता।
  • सांस्कृतिक समानता - सभी सांस्कृतिक समूहों को अपनी भाषा, लिपि और परंपराओं के संरक्षण और संवर्धन का समान अवसर मिलना।


2 समानता : विभिन्न दृष्टिकोण

समानता के सिद्धांत पर विभिन्न दृष्टिकोण निम्नलिखित हैं:

  • परंपरागत दृष्टिकोण - इस दृष्टिकोण में समानता को महत्वपूर्ण नहीं माना गया। प्राचीन समाजों में सामाजिक वर्गों के आधार पर असमानता स्वीकृत थी, जैसे यूनान में दासों को अधिकारों से वंचित रखना या भारत में जातिगत भेदभाव।
  • व्यक्तिवादी दृष्टिकोण - समझौतावादी विचारकों जैसे हॉब्स, लॉक और रूसो ने प्राकृतिक समानता का सिद्धांत प्रतिपादित किया। हालांकि, व्यक्तिवादी दृष्टिकोण में समानता की अपेक्षा स्वतंत्रता को अधिक महत्व दिया गया, और आर्थिक समानता को नजरअंदाज किया गया।
  • मार्क्सवादी दृष्टिकोण - मार्क्सवादी दृष्टिकोण आर्थिक समानता को प्राथमिकता देता है। मार्क्स के अनुसार, असली समानता तभी संभव है जब वर्गीय भेद समाप्त हो और सभी को समान सामाजिक-आर्थिक स्थिति मिले। मार्क्सवाद निजी संपत्ति का उन्मूलन और शोषण का अंत चाहता है।
  • समुदायवादी दृष्टिकोण - यह दृष्टिकोण समानता को नैतिक और सामुदायिक मूल्यों के संदर्भ में देखता है। मैकिटाइर, सैंडल और टेलर जैसे विचारक मानते हैं कि समानता का महत्व व्यक्ति की तर्कबुद्धि और समाज में रचे-बसे सांस्कृतिक मूल्यों में है।
  • गांधीवादी दृष्टिकोण - महात्मा गांधी समानता के विभिन्न आयामों के संतुलन पर जोर देते हैं। वे सामाजिक, नागरिक, राजनीतिक, और आर्थिक समानता को महत्वपूर्ण मानते थे। गांधीजी ने अस्पृश्यता का विरोध किया और हरिजन समुदाय को सम्मान दिलाने का प्रयास किया, जिससे सामाजिक समानता को बढ़ावा मिले।


3. समानता और स्वतंत्रता का पारस्परिक संबंध

समानता और स्वतंत्रता के संबंध को लेकर राजनीति विज्ञान में दो प्रमुख दृष्टिकोण हैं:

1. समानता और स्वतंत्रता परस्पर विरोधी हैं: कुछ विचारक, जैसे डी. टाकविले और लॉर्ड एक्टन, मानते हैं कि समानता और स्वतंत्रता एक-दूसरे का विरोध करती हैं। उनके अनुसार:-

  • स्वतंत्रता का अर्थ है बंधनों का अभाव, जबकि समानता स्थापित करने के लिए कुछ बंधन अनिवार्य हैं।
  • यदि सभी को पूर्ण समानता दे दी जाए तो प्राकृतिक असमानताओं के कारण समाज में असमानता बढ़ सकती है, और स्वतंत्रता का अंत हो जाएगा।
  • समानता लागू करने से बुद्धिमान और शक्तिशाली व्यक्तियों का विकास रुक सकता है, जिससे स्वतंत्रता बाधित होती है।

2. समानता और स्वतंत्रता एक-दूसरे की पूरक हैं: आधुनिक दृष्टिकोण में विद्वानों का बड़ा समूह, जैसे रूसो, टॉनी, मैकाइवर और लास्की, समानता और स्वतंत्रता को पूरक मानता है। इनके तर्क हैं:

  • स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का पूर्ण अभाव नहीं है, बल्कि समानता और स्वतंत्रता दोनों के लिए कुछ उचित प्रतिबंध अनिवार्य हैं।
  • समानता का उद्देश्य हर व्यक्ति के विकास हेतु आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराना है, जिससे असमानता और शोषण समाप्त हो सकें।
  • आर्थिक समानता, सभी प्रकार की स्वतंत्रता का आधार है, और आधुनिक लोकतंत्र में समानता और स्वतंत्रता दोनों आवश्यक हैं। फ्रांसीसी क्रांति और भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दोनों का साथ उल्लेख इसी का प्रमाण है।


4. असमानता

1. असमानता का उद्भव: असमानता का उद्भव तकनीकी विकास के साथ हुआ। कार्ल मार्क्स के अनुसार, आदिम साम्यवाद में सब लोग समान थे, लेकिन खेती का विकास होने पर कुछ लोग जमीन के मालिक बन गए और कुछ श्रमिक बन गए, जिससे असमानता की शुरुआत हुई।

2. प्राकृतिक और सामाजिक असमानता:

  • प्राकृतिक असमानता: यह उन असमानताओं को दर्शाती है जो प्रकृति की देन हैं, जैसे आयु, लिंग, रंग, बुद्धि और शारीरिक गठन। इन असमानताओं में बदलाव करना संभव नहीं है।
  • सामाजिक असमानता: यह मानव निर्मित असमानता है और समाज की व्यवस्था से जुड़ी है। इसमें धन-संपत्ति, मान-मर्यादा, ऊंच-नीच आदि शामिल हैं। यह बदलाव योग्य है क्योंकि इसे मनुष्यों ने बनाया है।
  • रूसो का दृष्टिकोण: रूसो ने असमानता पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, असमानता तब शुरू हुई जब किसी ने जमीन को अपना बताया और बाकी लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया।

उदाहरण :-

  • आयु के आधार पर सम्मान देना एक सामाजिक असमानता है, जबकि आयु में अंतर एक प्राकृतिक असमानता है।
  • पुरुष और स्त्री का विभाजन प्राकृतिक असमानता है, लेकिन उनके कार्यों का बंटवारा, जैसे स्त्रियों को घर का काम और पुरुषों को बाहर का काम सौंपना, सामाजिक असमानता है।



  न्याय   


 पश्चिमी और भारतीय परंपरा में न्याय:-

  • पश्चिम में न्याय का अभिप्राय 'न्यायपूर्ण व्यक्ति' या सच्चरित्र मनुष्य से लिया जाता था, जिसमें उन गुणों की खोज की जाती थी जो व्यक्ति को न्याय की ओर प्रेरित करते हैं।
  • भारत में भी व्यक्ति के धर्म और उसके कर्तव्यों पर ध्यान दिया जाता था। यह मान्यता थी कि यदि सभी अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करें तो समाज में स्वाभाविक रूप से न्यायपूर्ण व्यवस्था बनी रहेगी।

पारंपरिक न्याय की अवधारणा:-

  • परंपरागत रूप से न्याय को एक बनी-बनाई व्यवस्था को बनाए रखने का माध्यम माना गया। इसमें साधारणतया प्रचलित मान्यताओं और मूल्यों को ही न्यायपूर्ण समझा जाता था।
  • प्राचीन ग्रीक विचारक सुकरात ने इस प्रश्न पर विचार किया कि "न्याय क्या है?" जिसके उत्तर में कई विचार सामने आए:

परंपरागत दृष्टिकोण: "सच बोलना और अपना ऋण चुकाना न्याय है।"

सोफिस्टों की दृष्टि: "शक्तिशाली का हित साधना ही न्याय है।"

आधुनिक समय में न्याय की अवधारणा:-

  • आज न्याय के दृष्टिकोण का प्रमुख केंद्र व्यक्ति का चरित्र न होकर "सामाजिक न्याय" है। इसका उद्देश्य समाज के वंचित वर्गों की दशा सुधारना और उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अवसर देना है।
  • सामाजिक न्याय समाज की महत्वपूर्ण वस्तुओं जैसे कि वस्तुओं, सेवाओं, अवसरों, लाभों, शक्ति, सम्मान, दायित्वों और बाध्यताओं के उचित वितरण पर पुनर्विचार की मांग करता है।

महत्वपूर्ण विचारधाराएं

  • जॉन रॉल्स: रॉल्स के अनुसार, सभी सामाजिक संस्थाओं में न्याय का पहला स्थान होता है। सामाजिक सहयोग और प्रतिबंध का अनुपालन तभी होता है जब लोग उसे न्यायपूर्ण मानते हैं।
  • प्लेटो और अरस्तू: प्लेटो ने न्याय को सर्वोच्च सद्गुण माना और अरस्तू ने न्याय को व्यक्ति की योग्यता और उनकी भूमिकाओं के अनुसार परिभाषित किया।


1. न्याय के सिद्धांत का विकास

प्लेटो का न्याय सिद्धांत:

  • प्लेटो ने न्याय को व्यक्ति और समाज दोनों के लिए सर्वोच्च सद्गुण माना।
  • उनकी पुस्तक रिपब्लिक में न्याय को संतुलित मानसिक और सामाजिक व्यवहार बताया गया है। उनके अनुसार, एक न्यायपूर्ण समाज में लोग अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करेंगे। समाज में तीन प्रकार के कार्य हैं—शासन, सुरक्षा, और उत्पादन—और हर व्यक्ति की आत्मा में इन तीन तत्वों का संतुलन न्याय द्वारा होता है।

अरस्तू का न्याय सिद्धांत:

अरस्तू ने न्याय को मानवीय संबंधों के नियमन से जोड़ा और इसे दो भागों में बाँटा:

  • वितरण-न्याय: समाज में धन, पद और सम्मान का वितरण। समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए।
  • प्रतिवर्ती-न्याय: लेन-देन और अपराधों में संतुलन बनाए रखना। अपराध में हानि की क्षतिपूर्ति करना।

अरस्तू का मानना था कि आदर्श राज्य में सद्गुणवान लोगों को ऊंचे पदों का हक होना चाहिए।

हॉब्स और ह्यूम की आधुनिक अवधारणाएं:

  • हॉब्स: न्याय को एक समझौते का परिणाम मानते हैं और कानून को संप्रभु का आदेश।
  • ह्यूम: न्याय को संपत्ति के अधिकारों से जोड़ा, यह मानते हुए कि न्याय और संपत्ति एक-दूसरे पर निर्भर हैं।

उदारवादी दृष्टिकोण (उपयोगितावाद):

  • जॉन स्टुअर्ट मिल: उन्होंने न्याय को नैतिक नियमों के संग्रह के रूप में देखा, जो सामाजिक उपयोगिता से प्रेरित है। उनके अनुसार, अधिकतम सुख के सिद्धांत पर आधारित समाज न्यायपूर्ण होता है।
  • जॉन रॉल्स: उन्होंने न्याय के सिद्धांत को और विकसित करते हुए समाज में अधिकतम सामाजिक सुख के लिए नियम बनाने की बात की।


2. न्याय के विविध आयाम

न्याय के तीन मुख्य आयाम:

  • सामाजिक न्याय: इसका मतलब है कि समाज में हर व्यक्ति की गरिमा का सम्मान हो और किसी भी तरह का भेदभाव न हो। स्त्री-पुरुष, रंग, जाति, धर्म, या क्षेत्र के आधार पर किसी के साथ कोई अन्याय न हो। सभी को समान अवसर मिलें, खासकर कमजोर और गरीब वर्गों को विशेष सहायता और संरक्षण दिया जाए।
  • आर्थिक न्याय: इसका उद्देश्य है कि किसी को भी दूसरों पर आर्थिक नियंत्रण स्थापित करने की शक्ति न मिले हर व्यक्ति को उसकी योग्यता और मेहनत के अनुसार उचित लाभ मिले। बाजार में सभी को अपनी आवश्यकता के अनुसार उचित शर्तों पर वस्तुएं और सेवाएं प्राप्त करने का अधिकार हो।
  • राजनीतिक न्याय: इसका अर्थ है कि सभी को सार्वजनिक नीतियों के निर्माण में भाग लेने का अवसर और अधिकार हो। सत्ता प्राप्ति के अवसर सबके लिए समान हों।

सभी को संगठनों में भाग लेने और अपनी राय व्यक्त करने की स्वतंत्रता हो। इसमें स्वतंत्रता, समानता, और बंधुत्व के आदर्श शामिल होते हैं।


सामाजिक न्याय (डॉ. ओ.पी. गाबा का दृष्टिकोण):

सामाजिक न्याय का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि समाज में मिलने वाले लाभ इने-गिने लोगों तक सीमित न रहें, बल्कि कमजोर और गरीब वर्गों तक भी पहुंचें ताकि वे सम्मानपूर्वक जीवन जी सकें।

संपत्ति और आय का संबंध श्रम और कर्तव्य पालन से होना चाहिए, न कि विशेषाधिकार, परंपरा या उत्तराधिकार से। श्रम से अर्जित संपत्ति ही स्वीकार्य है।

कानूनी औपचारिक न्याय और प्राकृतिक न्याय:

  • कानूनी औपचारिक न्याय: कानून के स्पष्ट नियमों के अनुसार निर्णय लेना। उदाहरण के लिए, अपराधी को सजा देना या संपत्ति विवाद का समाधान करना।
  • प्राकृतिक न्याय: कानून की सीमाओं के बाहर विवेक का उपयोग। इसमें दो सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं—कोई व्यक्ति स्वयं का न्यायाधीश नहीं हो सकता, और दोनों पक्षों की सुनवाई आवश्यक है। भारतीय संविधान में भी इन तत्वों को प्रमुखता दी गई है।

प्रक्रियात्मक न्याय और तात्विक न्याय:

  • प्रक्रियात्मक न्याय: वितरण प्रक्रिया का न्यायपूर्ण होना आवश्यक है, परिणाम पर कम ध्यान दिया जाता है। यह दृष्टिकोण उदारवाद पर आधारित है, जिसमें व्यक्तियों के परस्पर संबंधों का निर्धारण स्वतंत्रता और समानता के आधार पर होता है।
  • तात्विक न्याय: वितरण के परिणाम का न्यायपूर्ण होना प्राथमिकता है। यह समाजवाद के साथ जुड़ा है और समाज की संपदा और लाभों के न्यायपूर्ण वितरण पर बल देता है।


3. न्याय और सामाजिक परिवर्तन

न्याय और सामाजिक असंतोष:

  • डी.डी. रफील के अनुसार, "सामाजिक न्याय" का उपयोग अधिकतर सुधारक करते हैं। वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट लोग इसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं। प्रत्येक युग में न्याय की मांग समाज में सुधार और उचित-अनुचित के निर्धारण से जुड़ी होती है। जब कमजोर लोगों पर अत्याचार होता है, तो न्याय की आवश्यकता महसूस होती है।
  • वर्तमान व्यवस्था के समर्थक और तर्क: कुछ लोग वर्तमान व्यवस्था और असमानताओं को बनाए रखने के लिए तर्क देते हैं, जैसे योग्यता, अनुभव, और परंपरा का आधार। हर्बर्ट स्पेंसर का तर्क था कि समाज के असफल हिस्सों को नष्ट हो जाना चाहिए ताकि समाज का कल्याण हो।

विभिन्न दृष्टिकोण

  • उपाश्रित वर्गीय दृष्टिकोण: ये वे लोग हैं जो सामाजिक पराधीनता और कठिनाइयों के कारण असहाय जीवन जी रहे हैं, जैसे बंधुआ मजदूर, बाल मजदूर, सफाईकर्मी, और भेदभाव का सामना करने वाले लोग।इन वर्गों ने लोकतंत्र के प्रसार के साथ अपने अधिकारों और समान अवसरों की मांग बढ़ाई है।
  • नारीवादी दृष्टिकोण: नारीवादी दृष्टिकोण का सवाल यह है कि क्या विकास से महिलाओं को समान रूप से लाभ मिल रहा है? पुरुष-प्रधान समाज में यह संभव है कि विकास का लाभ पुरुषों को अधिक मिले और महिलाओं की स्थिति में बदलाव न हो। भारतीय समाज में बेटियों को बोझ माना जाता है और उनकी शिक्षा पर कम ध्यान दिया जाता है। न्याय के सिद्धांत में यह देखना जरूरी है कि क्या महिलाओं को शिक्षा और कार्य के समान अवसर मिल रहे हैं।




  अधिकार   


अधिकार मानव जीवन के विकास और व्यक्तित्व के सशक्तिकरण के लिए आवश्यक सामाजिक दावे हैं, जो सभी को समान रूप से उपलब्ध होते हैं। अधिकार किसी विशेष वर्ग या व्यक्ति के लिए सीमित नहीं होते, बल्कि सभी के लिए समान रूप से लागू होते हैं। अधिकार और विशेषाधिकार में अंतर है; विशेषाधिकार कुछ विशेष लोगों को दिए गए लाभ हैं, जबकि अधिकार हर व्यक्ति को समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए आवश्यक माने जाते हैं। आशीर्वादम् के अनुसार, किसी भी अधिकार की वैधता और अर्थ को स्पष्ट करने के लिए तीन मुख्य बिंदुओं का होना आवश्यक है: अधिकार और कर्तव्य का परस्पर संबंध, समाज द्वारा स्वीकृति की अनिवार्यता, और अधिकार का निस्वार्थ स्वरूप।

1. परिभाषा एवं प्रकृति

अधिकार मानव के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक सामाजिक दावे हैं, जो समाज और राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं। विभिन्न विद्वानों ने अधिकार को अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया है। जैसे कि:

  • लॉस्की के अनुसार, अधिकार वे सामाजिक परिस्थितियां हैं जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक हैं।
  • हॉलैंड के अनुसार, अधिकार अन्य व्यक्तियों के कार्यों पर हमारी क्षमता का नाम है।
  • टी. एच. ग्रीन के अनुसार, अधिकार का अर्थ वह शक्ति है, जिसे समाज सामान्य हित के लिए आवश्यक मानता है।
  • श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, अधिकार ऐसी व्यवस्था है जो किसी समुदाय के कानून द्वारा स्वीकृत हो और व्यक्ति के नैतिक कल्याण में सहायक हो।

प्रकृति

अधिकार की प्रकृति के मुख्य तत्व इस प्रकार हैं:

  • सार्वभौमिकता: अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए समान होते हैं। धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर इनमें भेदभाव नहीं किया जा सकता; अन्यथा, वे केवल विशेषाधिकार बन जाते हैं।
  • सामाजिक स्वरूप: अधिकारों का अस्तित्व केवल समाज में संभव है। निर्जन स्थान में अधिकारों का कोई अर्थ नहीं होता। समाज की स्वीकृति इनके अस्तित्व के लिए आवश्यक है।
  • कल्याणकारी स्वरूप: अधिकार केवल उन स्वतंत्रताओं और सुविधाओं को शामिल करते हैं जो व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती हैं। स्वच्छंदताओं को अधिकार नहीं माना जाता।
  • जनहित में प्रयोग: अधिकारों का प्रयोग व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याण के लिए होना चाहिए। जनहित के लिए अधिकारों को सीमित भी किया जा सकता है।
  • राज्य का संरक्षण: अधिकारों की रक्षा का दायित्व राज्य का है, और राज्य इसके संरक्षण के लिए आवश्यक व्यवस्था करता है। बिना राज्य के संरक्षण के, अधिकार केवल दावे रह जाते हैं।


2. अधिकार संबंधी सिद्धांत

अधिकारों के सिद्धांत विभिन्न विचारधाराओं और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विकसित हुए हैं। अधिकारों की मुख्य अवधारणाओं को निम्नलिखित प्रमुख सिद्धांतों में बाँटा जा सकता है:

1. प्राकृतिक अधिकार का सिद्धांत: यह सिद्धांत मानता है कि अधिकार प्राकृतिक रूप से ईश्वर या प्रकृति से प्राप्त होते हैं और राज्य केवल उनके रक्षक की भूमिका निभाता है। जैसे, जीवन, स्वतंत्रता, और संपत्ति के अधिकार। इस सिद्धांत का समर्थन लॉक, रूसो और अमेरिकी स्वतंत्रता घोषणा (1776) में मिलता है।

  • आलोचना: इसमें 'प्रकृति' का अस्पष्ट अर्थ, अधिकारों की विरोधाभासी व्याख्या और राज्य को कृत्रिम मानने जैसी समस्याएं हैं।

2. कानूनी अधिकार का सिद्धांत: इसके अनुसार, अधिकार राज्य की देन हैं और राज्य इन्हें परिभाषित और सीमित कर सकता है। ऑस्टिन और बेंथम जैसे विचारक इस सिद्धांत के समर्थक थे।

  • आलोचना: इस सिद्धांत में राज्य के अधिकारों का निरंकुश विस्तार हो सकता है, जिससे नागरिकों की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।

3. ऐतिहासिक सिद्धांत: अधिकारों का विकास रीति-रिवाजों और परंपराओं से होता है, जो लंबे समय तक चलने के बाद समाज द्वारा मान्य हो जाते हैं।

  • आलोचना: केवल इतिहास और परंपराओं को अधिकारों का स्रोत मानने से सुधार की संभावनाएँ सीमित हो जाती हैं।

4. समाज कल्याणकारी सिद्धांत: यह मान्यता है कि अधिकारों का आधार सामाजिक उपयोगिता है और अधिकारों का उद्देश्य अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख को सुनिश्चित करना है। लॉस्की और बेंथम ने इसे समर्थन दिया है।

  • आलोचना: इसमें 'सामाजिक कल्याण' की अस्पष्टता और व्यक्तिगत अधिकारों पर दबाव की समस्या है।

5. आदर्शवादी सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार, अधिकार व्यक्ति के नैतिक और आत्मिक विकास के लिए आवश्यक होते हैं। ग्रीन, कांट और हीगेल इसके प्रमुख समर्थक थे।

  • आलोचना: 'व्यक्तित्व के पूर्ण विकास' की स्पष्ट परिभाषा का अभाव इस सिद्धांत में कठिनाई उत्पन्न करता है।

6. मार्क्सवादी सिद्धांत: यह सिद्धांत अधिकारों को सामाजिक-आर्थिक न्याय के आधार पर देखता है, जिसमें आर्थिक अधिकारों और कर्तव्यों पर जोर दिया गया है। मार्क्सवाद का उद्देश्य शोषण से मुक्त समाज की स्थापना करना है।

7. लॉस्की का दृष्टिकोण: लॉस्की का विचार था कि उदारवादी और समाजवादी मूल्यों के समन्वय से ही अधिकारों की संकल्पना विकसित हो सकती है। उन्होंने नैतिक आधार, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की सुरक्षा, और अधिकार-कर्तव्य के संबंध पर बल दिया।


3. अधिकारों का वर्गीकरण

अधिकारों को उनकी प्रकृति के आधार पर दो प्रमुख श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

नकारात्मक और सकारात्मक अधिकार

  • नकारात्मक अधिकार: ऐसे अधिकार जो किसी निषेध पर आधारित होते हैं, यानी व्यक्ति से किसी कार्य पर रोक न लगाने की अपेक्षा होती है, जैसे विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
  • सकारात्मक अधिकार: ये अधिकार व्यक्ति को आत्मविकास या कल्याण के लिए राज्य से सहायता प्राप्त करने का दावा देते हैं, जैसे सार्वभौम शिक्षा का अधिकार।


नैतिक और कानूनी अधिकार

  • नैतिक अधिकार: समाज की नैतिकता और परंपराओं पर आधारित होते हैं और कानूनी बल का अभाव होता है, जैसे सम्मान से जीने का अधिकार।
  • कानूनी अधिकार: ये राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकार हैं, जिनकी रक्षा कानून द्वारा की जाती है, जैसे सामाजिक नागरिक अधिकार (जीवन, समानता) और राजनीतिक अधिकार (मताधिकार)।

सामाजिक-नागरिक अधिकार

ये अधिकार राज्य द्वारा सभी निवासियों को प्रदान किए जाते हैं, चाहे वे नागरिक हों या विदेशी।

उद्देश्य: जीवन, संपत्ति और व्यक्तित्व की सुरक्षा तथा आत्म-विकास को सुनिश्चित करना।

मुख्य सामाजिक-नागरिक अधिकार:-

  • जीवन का अधिकार: हर व्यक्ति को अपने जीवन, शरीर और बुद्धि के प्रयोग का अधिकार।
  • समानता का अधिकार: कानून के समक्ष सभी निवासी समान होंगे।
  • स्वतंत्रता का अधिकार: व्यक्ति को अपने तरीके से विकास करने का अधिकार।
  • शिक्षा का अधिकार: राज्य द्वारा सभी को शिक्षा की सुविधा।
  • आजीविका का अधिकार: व्यक्ति को काम करने का और उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकार।
  • परिवार का अधिकार: परिवार का निर्माण और संतान पालन का अधिकार।
  • संपत्ति का अधिकार: संपत्ति अर्जित करने और उसका उपभोग करने का अधिकार, परंतु जनकल्याण हेतु इस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

राजनीतिक अधिकार

नागरिकों को शासन में भाग लेने का अधिकार देते हैं।

मुख्य राजनीतिक अधिकार:

  • मताधिकार: अपने प्रतिनिधि का चुनाव करने का अधिकार।
  • निर्वाचित होने का अधिकार: चुनाव में भाग लेने और निर्वाचित होने का अधिकार।
  • सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार: सरकारी गैर-निर्वाचित पदों को योग्यता के आधार पर प्राप्त करने का अधिकार।
  • शिकायत करने और सम्मति देने का अधिकार: सरकार की आलोचना करने और सुझाव देने का अधिकार।



4. मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा

1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा पारित की, जिसने दुनिया के सभी नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को स्पष्ट रूप से स्थापित किया। इस घोषणा का उद्देश्य हर व्यक्ति को उनके जन्मसिद्ध अधिकारों की पहचान और सुरक्षा देना है। घोषणा में 30 अनुच्छेद शामिल हैं, जो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं। आइए जानते हैं इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ के मुख्य बिंदुओं के बारे में।

  • समानता और स्वतंत्रता (अनुच्छेद 1): सभी मनुष्य जन्म से समान और स्वतंत्र हैं। उनमें विवेक और बुद्धि है, अतः उन्हें एक-दूसरे के साथ भ्रातृभाव से पेश आना चाहिए।
  • भेदभाव से मुक्ति (अनुच्छेद 2): इस घोषणा में वर्णित सभी अधिकारों और स्वतंत्रताओं का हर व्यक्ति हकदार है, चाहे उनकी जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक मत, सामाजिक उत्पत्ति, या अन्य कोई आधार हो।
  • जीवन, स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 3): प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने, स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार है।
  • दासता और गुलामी का निषेध (अनुच्छेद 4): कोई भी व्यक्ति दासता या गुलामी में नहीं रखा जा सकता, और दासता का हर रूप निषिद्ध है।
  • क्रूरता और अमानवीयता का निषेध (अनुच्छेद 5): किसी भी व्यक्ति को क्रूरता, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सजा का शिकार नहीं बनाया जा सकता।
  • कानून के समक्ष मान्यता का अधिकार (अनुच्छेद 6): प्रत्येक व्यक्ति को कानून के अंतर्गत एक व्यक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त करने का अधिकार है।
  • कानूनी समानता (अनुच्छेद 7): सभी लोग कानून के समक्ष समान हैं और समान सुरक्षा के हकदार हैं।
  • न्यायिक संरक्षण (अनुच्छेद 8): प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्रीय न्यायालयों में अपने अधिकारों की रक्षा का अधिकार है।
  • अवैध गिरफ्तारी का निषेध (अनुच्छेद 9): किसी को भी मनमानी गिरफ्तारी, कैद, या निर्वासन का शिकार नहीं होना चाहिए।
  • निष्पक्ष न्यायिक सुनवाई और निर्दोषता का अधिकार (अनुच्छेद 10-11): प्रत्येक व्यक्ति को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है और उसे तब तक निर्दोष माना जाना चाहिए जब तक कि दोषी साबित न हो।
  • गोपनीयता का अधिकार (अनुच्छेद 12): प्रत्येक व्यक्ति की पारिवारिक, सामाजिक और पत्राचार की गोपनीयता का सम्मान होना चाहिए।
  • आवागमन, आश्रय और राष्ट्रीयता का अधिकार (अनुच्छेद 13-15): प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से देश के भीतर आवागमन और देश छोड़ने का अधिकार है, साथ ही, उसे राष्ट्रीयता प्राप्त करने और उसे मनमाने ढंग से खोने से बचने का अधिकार है।
  • विवाह और परिवार का अधिकार (अनुच्छेद 16): सभी वयस्कों को जाति, धर्म, या राष्ट्रीयता के आधार पर किसी भेदभाव के बिना विवाह करने और परिवार स्थापित करने का अधिकार है।
  •  संपत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 17): प्रत्येक व्यक्ति को संपत्ति रखने और उसके संरक्षण का अधिकार है।
  • विचार, अभिव्यक्ति और धर्म की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 18-19): प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से विचार करने, धर्म मानने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है।
  • शांतिपूर्ण सभा का अधिकार (अनुच्छेद 20): हर व्यक्ति को शांतिपूर्ण ढंग से इकट्ठा होने और सभा करने का अधिकार है।
  • प्रशासन में भागीदारी का अधिकार (अनुच्छेद 21): प्रत्येक व्यक्ति को प्रशासन में भाग लेने और सरकार की सेवाओं तक समान पहुंच का अधिकार है।
  • सामाजिक सुरक्षा और श्रम अधिकार (अनुच्छेद 22-23): प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा का अधिकार है, जिसमें काम करने की स्वतंत्रता और कार्यस्थल पर सुरक्षा भी शामिल है।
  • विश्राम, अवकाश और जीवन स्तर का अधिकार (अनुच्छेद 24-25): प्रत्येक व्यक्ति को उचित विश्राम और अवकाश का अधिकार है, साथ ही ऐसा जीवन स्तर भी जो उसके स्वास्थ्य और सुख के लिए पर्याप्त हो।
  • शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 26): हर व्यक्ति को प्राथमिक शिक्षा का अधिकार है, और इसे निशुल्क एवं अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
  •  सांस्कृतिक जीवन और बौद्धिक संपदा का अधिकार (अनुच्छेद 27): हर व्यक्ति को सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने, कला का आनंद लेने और बौद्धिक संपदा का अधिकार है।
  • सामाजिक व्यवस्था और कर्तव्य (अनुच्छेद 28-30): प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में जीवन का अधिकार है, जिसमें मानवाधिकारों का संरक्षण हो। इसके साथ ही, हर व्यक्ति के कुछ कर्तव्य हैं जिनका पालन समाज के प्रति करना आवश्यक है।


राज्य प्रदत्त अधिकार

राज्य प्रदत्त अधिकारों का अर्थ उन अधिकारों से है जो एक राज्य अपने नागरिकों को प्रदान करता है, ताकि उनके व्यक्तित्व और समाज में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सके। ये अधिकार नागरिकों के लिए उनके राज्य में एक विशेष सुरक्षा और समर्थन का माध्यम होते हैं। इन्हें मुख्य रूप से दो हिस्सों में बांटा जा सकता है: मौलिक अधिकार और अन्य कानूनी अधिकार।

1. मौलिक अधिकार

मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं, जो किसी व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक माने जाते हैं। ये अधिकार संविधान में दिए गए हैं और न्यायालय द्वारा संरक्षित होते हैं। भारत में छह प्रमुख मौलिक अधिकार हैं:

  • समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18): इसमें कानून के समक्ष समानता, भेदभाव का उन्मूलन, और अस्पृश्यता की समाप्ति जैसी बातें शामिल हैं।
  • स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22): इसके अंतर्गत अभिव्यक्ति, आवागमन, व्यवसाय, और जीवन का अधिकार आता है।
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24): इसमें मानव व्यापार, बेगार और बच्चों के लिए जोखिम भरे कार्यों पर प्रतिबंध शामिल है।
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28): इसके अंतर्गत सभी को अपनी धार्मिक आस्था और अनुष्ठानों का पालन करने की स्वतंत्रता है।
  • सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (अनुच्छेद 29-30): इसमें अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा और संस्कृति को सुरक्षित रखने और शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार है।
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32): मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है।

2. अन्य कानूनी अधिकार

इनमें वे अधिकार आते हैं, जो संविधान या कानून द्वारा निर्दिष्ट हैं लेकिन मौलिक अधिकारों के अंतर्गत नहीं आते। ये विभिन्न कानूनों, न्यायालयों की व्याख्या, या परंपराओं के आधार पर नागरिकों को दिए जाते हैं।

  • संपत्ति का अधिकार और मतदान का अधिकार जैसे अधिकार कानूनी अधिकार हैं लेकिन मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं हैं।
  • दीवानी अधिकार जैसे विवाह, परिवार, और उत्तराधिकार के मामले व्यक्ति की धार्मिक परंपराओं के अनुसार होते हैं, जैसे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, या पारसी विधि।
  • न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त नए अधिकार जैसे गरिमामय जीवन, स्वच्छ पर्यावरण, और स्वस्थ रहने का अधिकार भी कानूनी अधिकारों में शामिल हैं।
  • नए अधिकारों का सृजन: समय के साथ नागरिकों की मांग पर नए अधिकार दिए जा सकते हैं, जैसे भारत में सूचना का अधिकार (2005)।


5. अधिकार, कर्तव्य और राजनीतिक दायित्व

राजनीति विज्ञान में अधिकार, कर्तव्य और राजनीतिक दायित्व के बीच संबंध स्थापित करना एक महत्वपूर्ण समस्या है। आमतौर पर, अधिकार का मतलब किसी व्यक्ति को किसी कार्य के लिए बाध्य करने की शक्ति से है, जबकि कर्तव्य दूसरों के लिए कुछ करने की जिम्मेदारी होती है। इन्हें एक-दूसरे के पूरक माना गया है। महात्मा गांधी के अनुसार, अधिकार प्राप्ति के लिए कर्तव्य का पालन आवश्यक है।

1. अधिकार और कर्तव्य का संबंध

  • अधिकार और कर्तव्य एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं।
  • एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे का कर्तव्य बनता है।
  • नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा राज्य का कर्तव्य है और नागरिकों का कर्तव्य राज्य के प्रति उनकी जिम्मेदारी।
  • अधिकार और कर्तव्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं; दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर करता है।

2. अधिकार और राजनीतिक दायित्व का संबंध

राजनीति विज्ञान में अधिकार और राजनीतिक दायित्व का संबंध एक बहस का विषय है। अधिकारों का मतलब राज्य से कुछ पाने की मांग है, जबकि राजनीतिक दायित्व का अर्थ है कानून और राज्य के आदेशों का पालन करना। यहां हम चार प्रमुख दृष्टिकोणों पर विचार करेंगे:

  • व्यक्तिवादी दृष्टिकोण: व्यक्तिवादी विचार राज्य की शक्ति को न्यूनतम मानता है। हॉब्स और बेंथम के अनुसार, राज्य तभी अधिकार मांग सकता है, जब वह व्यक्ति की स्वतंत्रता और जीवन की रक्षा करता हो।
  • आदर्शवादी-फासीवादी दृष्टिकोण: इस दृष्टिकोण में राज्य को सर्वोच्च मानते हैं। हेगेल ने राज्य को विवेक का प्रतीक माना। इस विचार के अनुसार, व्यक्ति को अपने अधिकारों के लिए राज्य के प्रति पूरी तरह आत्मसमर्पण करना चाहिए। फासीवादी राज्य इस विचार पर आधारित होते हैं।
  • मार्क्सवादी दृष्टिकोण: मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार, व्यक्ति का दायित्व समाज के प्रति है, न कि राज्य के प्रति। वर्तमान पूंजीवादी राज्य का आधार शोषण पर है, इसलिए कामगारों का दायित्व है कि वे राज्य के विरुद्ध संघर्ष करें।
  • ग्रीन और गांधी का दृष्टिकोण: टी.एच. ग्रीन और महात्मा गांधी ने राज्य को समाज के कल्याण का साधन माना है। उनके अनुसार, यदि राज्य जनहित से भटक जाए, तो व्यक्ति का राजनीतिक दायित्व है कि वह अहिंसक विरोध करे। गांधी जी का सत्याग्रह इसी विचार पर आधारित था।









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