भारत का इतिहास 1200-1550 UNIT 4 CHAPTER 7 SEMESTER 3 THEORY NOTES सूफी सिलसिला, भक्ति आंदोलन, सिद्धांत और व्यवहार HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakनवंबर 25, 2024
सूफीवाद (Sufism)
सूफीवाद इस्लाम धर्म का एक रहस्यवादी आंदोलन है, जो सांसारिक सुखों से दूर रहकर, ईश्वर भक्ति और मानव सेवा पर जोर देता है। इसमें फकीरी, जिक्र (ईश्वर का स्मरण), फना (निर्वाण), और सफा (शुद्धता) मुख्य विशेषताएँ हैं।
भारत में सूफीवाद का आगमन
12वीं शताब्दी: शेख मुइनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में चिश्ती सिलसिले की शुरुआत की। यह शीघ्र ही एक प्रभावशाली संस्था बन गई, जिसने राज्य और आम जनता दोनों को प्रभावित किया।
सूफी सिलसिले
भारत में सूफी सिलसिलों का बड़ा महत्व रहा है, जिनमें चिश्ती, सुहरावर्दी, शत्तारी और कादिरी सिलसिले प्रमुख हैं।
चिश्ती सिलसिले के लोकप्रिय संतों में शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, शेख फरीदुद्दीन गंजशकर और शेख निजामुद्दीन औलिया शामिल हैं। यह सिलसिला दिल्ली को अपना प्रमुख केंद्र बनाकर प्रसिद्ध हुआ।
सुहरावर्दी सिलसिले के प्रमुख संत शेख बहाउद्दीन जकरिया मुल्तानी थे, जिनका प्रभाव मुख्यतः पंजाब और सिंध क्षेत्रों में देखा गया।
शत्तारी और कादिरी सिलसिले 14वीं-15वीं शताब्दी के दौरान लोकप्रिय हुए। इन सिलसिलों के संत सैयद मुहम्मद गौस ने महत्वपूर्ण ग्रंथ "अमृत कुंड" का फारसी में अनुवाद किया, जिससे सूफी विचारधारा का प्रचार-प्रसार हुआ।
सूफी खानकाहें और सांस्कृतिक समन्वय
सूफी खानकाहें विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के आदान-प्रदान का केंद्र बनीं। सूफी संतों का स्थानीय संतों, खासकर नाथ और सिद्ध योगियों, से संपर्क हुआ। सूफी संगीत और साहित्य ने हिंदवी भाषा को प्रोत्साहित किया।
अमीर खुसरो का योगदान: अमीर खुसरो ने दरबारी और देशी संगीत को मिलाकर हिंदुस्तानी संगीत की नींव रखी। उनकी कव्वालियों और रचनाओं ने भारतीय संगीत और साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला।
सूफी प्रेम और साहित्य:सूफियों ने हिंदवी भाषा में प्रेमाख्यान लिखे। भारतीय छंदों का उपयोग करके सरल और लोकप्रिय साहित्य का सृजन हुआ। सूफीवाद ने भक्ति, मानवता और सांस्कृतिक समन्वय को बढ़ावा दिया, जो आज भी भारतीय समाज में गहराई से समाहित है।
सूफी खानकाहों
सूफी खानकाहें और दरगाहें सांस्कृतिक समागम और वैचारिक समन्वय के केंद्र थीं। सोलहवीं सदी में मुगलों ने आगरा को राजधानी बनाया, और अकबर के समय चिश्ती सिलसिले की लोकप्रियता बढ़ी। व्रज क्षेत्र वैष्णव भक्तिमत का केंद्र बना, जहां सूफी और वैष्णव परंपराओं में संगीत और सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ। दोनों परंपराओं में डफ, ढोलक जैसे वाद्य यंत्र और ताली की थाप समान रूप से उपयोग होती थी।
सत्रहवीं सदी में शाहजहाँ के समय राजधानी शाहजहाँनाबाद (पुरानी दिल्ली) स्थानांतरित हुई, और उर्स का महत्त्व बढ़ा। उर्स के साथ सांस्कृतिक और संगीत समारोह भी जुड़े। अठारहवीं सदी में खानकाहों में ऐसे आयोजनों का विशेष स्थान था। इन स्थानों पर विकसित समन्वित सांस्कृतिक परंपराएँ आज भी महत्त्वपूर्ण हैं।
भक्ति आंदोलन
भूमिका
भक्ति आंदोलन 7वीं-15वीं शताब्दी के बीच भारत में एक प्रमुख धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। यह उस समय की सामाजिक असमानता, जातिवाद, और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ उठी एक सशक्त प्रतिक्रिया थी। इसने धर्म को आडंबर और कर्मकांड से मुक्त करके भक्तिभाव और समर्पण पर आधारित किया।
भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि
बौद्ध धर्म का पतन: हर्षवर्धन के बाद बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होने लगा।
ब्राह्मणों ने समाज में अपना वर्चस्व पुनः स्थापित किया, जिससे निचले वर्गों का जीवन कठिन हो गया।
धार्मिक असमानता: ब्राह्मणों ने शिक्षा और साहित्य पर नियंत्रण कर लिया, जिससे निम्न वर्ग वंचित रह गया। समाज में जाति-आधारित भेदभाव और धार्मिक कर्मकांड बढ़ गए।
इस्लाम का प्रभाव: "परमात्मा एक है" और "सभी मानव समान हैं" जैसी शिक्षाओं ने भक्ति आंदोलन को प्रेरित किया। सूफी परंपराओं का प्रभाव विशेष रूप से देखा गया।
भक्ति आंदोलन के सिद्धांत
भक्तिमार्ग का महत्व: ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, और भक्तिमार्ग के बीच भक्तिमार्ग को सरल और प्रभावी माना गया। भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण ही मोक्ष का मार्ग बताया गया।
सामाजिक समानता: जाति, धर्म और लिंग से परे सभी को समान माना गया। संतों ने भेदभाव का विरोध करते हुए ईश्वर की भक्ति को प्राथमिकता दी।
हिन्दू-मुस्लिम समन्वय: सूफी विचारधारा ने भक्ति आंदोलन को गहराई से प्रभावित किया। "राम और रहीम एक हैं" का संदेश दिया गया।
सादगी और आडंबरहीन भक्ति: भक्ति के लिए धार्मिक कर्मकांड और तीर्थयात्रा आवश्यक नहीं थी। संतों ने ईश्वर के नामजप, कीर्तन, और प्रेम को भक्ति का आधार बनाया।
भक्ति आंदोलन के प्रभाव
धार्मिक कट्टरता और जातिवाद में कमी आई।
समाज में सांस्कृतिक और धार्मिक समन्वय बढ़ा।
भक्त संतों जैसे कबीर, तुलसीदास, मीराबाई, और नामदेव ने सरल भाषा में रचनाएँ कीं, जो जनसामान्य तक पहुँचीं।
यह आंदोलन भारतीय समाज में सामाजिक समानता और भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करने में सफल रहा।
भक्ति आंदोलन के धार्मिक तथा सामाजिक सुधारक
मध्यकालीन भारत के धार्मिक सुधारक तीन श्रेणियों में विभाजित थे।
प्रथम श्रेणी में शंकराचार्य (778-820) और बल्लभाचार्य (1479-1531) जैसे सुधारक शामिल थे, जिन्होंने अद्वैतवाद और वेदों की शिक्षा पर जोर दिया। उन्होंने रीतियों और प्रथाओं का खंडन किया, लेकिन जाति व्यवस्था को बनाए रखा, जिससे उनके विचार केवल उच्च वर्ग तक सीमित रहे।
दूसरी श्रेणी में वे सुधारक थे जिन्होंने धार्मिक और सामाजिक सुधारों पर काम किया। इन्होंने ब्राह्मणों के एकाधिकार का विरोध किया, धर्म को सरल बनाया और भक्ति के मार्ग पर जोर दिया। इन संतों, जैसे ज्ञानेश्वर, नामदेव, रामानंद और चैतन्य, ने जाति-प्रथा का विरोध कर जनता के बीच लोकप्रियता पाई।
तृतीय श्रेणी में कबीर और नानक जैसे सुधारक थे, जिन्होंने जाति-प्रथा की तीव्र आलोचना की और साधारण भाषा में अपने विचार फैलाए। उनके प्रयासों से कबीर पंथ और सिख धर्म जैसे नए धार्मिक आंदोलन सामने आए।
1. वल्लभाचार्य
वल्लभाचार्य (1479-1531) का जन्म बनारस में हुआ और वे वैष्णव धर्म के प्रमुख प्रचारक थे। वे अपनी विद्वता और भावुक शिक्षाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने संस्कृत और ब्रजभाषा में कई ग्रंथ, जैसे वेदान्त सूत्र, सिद्धान्त रहस्य, और सुबोधिनी लिखे। उन्होंने कृष्ण को सर्वोच्च ब्रह्म माना और सच्चे मन से भक्ति द्वारा उसकी प्राप्ति का मार्ग दिखाया। उनकी शिक्षाएँ मुख्यतः धार्मिक क्षेत्र तक सीमित रहीं। उनकी शिक्षाओं के कारण कई लोग उनके अनुयायी बने। उनकी मृत्यु 1531 में हुई।
2. नामदेव
नामदेव भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक थे, जिनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ। उनके जन्म की तिथि विवादित है, परंतु उनकी शिक्षाएँ महत्वपूर्ण थीं। उन्होंने लोगों को पंडितों और पुजारियों के पाखंड से बचने और प्रभु प्रेम को अपनाने की शिक्षा दी। वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे और मानते थे कि मंदिर और मस्जिद की बजाय प्रभु प्रेम ही सही मार्ग है। उन्होंने जातिभेद, तीर्थयात्रा, और उपवास जैसी प्रथाओं का खंडन किया। नामदेव ने हिंदू-मुस्लिम एकता और धार्मिक सहिष्णुता पर जोर दिया। उनके शिष्यों में विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग, यहां तक कि महिलाएं और मुसलमान भी शामिल थे।
3. रामानंद
रामानंद उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन के संस्थापक माने जाते हैं। वे रामानुज के अनुयायी थे और उन्होंने उत्तर भारत में धार्मिक जागृति फैलाई। उनके संदेश रूढ़िवाद, अंधविश्वास, और सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध थे। उन्होंने अपने अनुयायियों में सभी जातियों, धर्मों, और स्त्री-पुरुषों को समान रूप से स्थान दिया। उनके प्रमुख शिष्यों में कबीर, आत्मानंद, रैदास, धन्ना, और पीपा जैसे महान संत शामिल थे। रामानंद ने सामाजिक और धार्मिक सुधार के माध्यम से समता और सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा दिया।
3. कबीर
कबीर भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक थे। उनके जन्म की तिथि को लेकर मतभेद है, पर माना जाता है कि उनका जन्म 1398 या 1440 के आसपास हुआ और निधन 1518 में हुआ। उनका पालन-पोषण नीरू और नीमा नामक जुलाहे परिवार ने बनारस के लहरतारा में किया। कबीर ने कपड़ा बुनने का काम करते हुए गृहस्थ जीवन अपनाया और जीवन की समस्याओं से दूर भागने के बजाय समाज की प्रचलित त्रुटियों और अंधविश्वासों का विरोध किया।
धार्मिक विचार: कबीर ने हिंदू और इस्लाम धर्म दोनों के पाखंड और अंधविश्वासों की आलोचना की। वे मूर्ति पूजा, तीर्थयात्रा, उपवास, और जाति भेद के सख्त विरोधी थे। उनके अनुसार, भगवान केवल एक हैं, जिन्हें विभिन्न नामों—राम, रहीम, हरि, अल्लाह—से पुकारा जाता है। उन्होंने ईश्वर को निराकार माना और प्रेम को भक्ति का सर्वोच्च रूप बताया। उनके अनुसार, भगवान तक पहुँचने के लिए न तो मंदिर, मस्जिद, या तीर्थ की आवश्यकता है और न ही संसार त्यागने की।
सामाजिक सुधार: कबीर ने जाति व्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया और हिंदू-मुसलमानों के बीच धार्मिक सहिष्णुता की वकालत की। उन्होंने घोषणा की, "न मैं हिंदू हूँ, न मुसलमान। मेरे लिए मक्का काशी बन गया है और राम रहीम हो गया है।" उन्होंने गृहस्थ जीवन का समर्थन किया और समाज में रहते हुए ही बदलाव लाने पर जोर दिया।
लोकप्रियता और प्रभाव: कबीर के सरल और सादे धर्म ने निम्न वर्ग के हिंदू-मुसलमानों को गहराई से प्रभावित किया। उनके उपदेश गीतों और दोहों के रूप में थे, जो उन्होंने कपड़ा बुनते समय गाए। उन्होंने समाज में सुधार लाने के लिए अंधविश्वास और पाखंड का विरोध किया, जिससे वे अपने समय में अत्यंत लोकप्रिय और आदरणीय बन गए। उनके विचार उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, और गुजरात के निम्न वर्ग में विशेष रूप से प्रभावशाली रहे।
4. गुरु नानक
गुरु नानक (1469-1538) भक्ति आंदोलन के महान संत और सिख धर्म के प्रवर्तक थे। उनका जन्म 15 अप्रैल 1469 को तलवंडी (अब पाकिस्तान) में हुआ। वे सत्य की खोज में लगे रहते थे और सांसारिक जीवन, नौकरी या व्यापार में उनकी रुचि नहीं थी। लगभग 30 वर्ष की आयु में उन्होंने गृहस्थ जीवन छोड़कर अपने शिष्यों भाई बाला और मर्दाना के साथ भारत के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण किया। 1504 में वे सिक्खों के पहले गुरु बने और 1538 में उनका निधन हुआ।
धार्मिक विचार:गुरु नानक ने ईश्वर की एकता पर बल दिया और उसे निर्गुण और निराकार बताया। उन्होंने कहा कि सभी धर्मों का ईश्वर एक है, चाहे उसे राम, रहीम, हरि या अल्लाह कहा जाए। उनके अनुसार, मनुष्य की आत्मा दिव्य ज्योति का अंश है और इसका उद्देश्य ईश्वर में विलीन होना है। उन्होंने अंधविश्वास, मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा और बाहरी आडंबरों का विरोध किया। गुरु नानक ने भगवान के प्रति प्रेम और पूर्ण समर्पण को मोक्ष का मार्ग बताया।
सामाजिक सुधार: नानक ने जाति-प्रथा का कड़ा विरोध किया और समाज में समानता और सहिष्णुता का संदेश दिया। उन्होंने कहा कि धर्म का असली उद्देश्य सबको बराबर मानना है। उनका मानना था कि संसार से दूर भागने या संन्यास लेने के बजाय जीवन की समस्याओं का सामना करना चाहिए। उन्होंने मध्यम मार्ग का प्रचार किया जिसमें न तो असीम वैराग्य था और न ही इंद्रियों की स्वतंत्रता।
प्रभाव और विरासत: गुरु नानक के सरल और स्पष्ट उपदेशों ने हिंदू और मुस्लिम, विशेष रूप से पंजाब के गरीब किसानों को गहराई से प्रभावित किया। उनके विचारों पर आधारित सिख धर्म एक संगठित धर्म के रूप में विकसित हुआ, जिसमें एक पैगंबर (गुरु नानक), एक पवित्र ग्रंथ (गुरु ग्रंथ साहिब), और एक धार्मिक केंद्र (गुरुद्वारा) स्थापित हुए। गुरु नानक के शांत और विनम्र जीवन ने अनेक लोगों को उनकी ओर आकर्षित किया और वे अपने समय के सबसे आदरणीय संतों में से एक बन गए।
5. चैतन्य (1486-1535)
चैतन्य महाप्रभु ने 15वीं शताब्दी के अंत में एक उच्च ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। उन्हें शिक्षा के साथ दर्शन और विचार-विनिमय का शौक था, लेकिन उनके मन में आध्यात्मिक बेचैनी बनी रही। 23 वर्ष की आयु में, गया में वैष्णव संत ईश्वरपुरी से प्रेरणा लेकर उन्होंने कृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाया। वे संकीर्तन और भगवान की स्तुति में लीन रहने लगे, जिससे अनेक लोग उनके शिष्य बन गए। चैतन्य ने संन्यास लिया और जीवन के अंतिम वर्षों तक भारत में भ्रमण करते हुए कृष्ण-भक्ति का प्रचार किया। उनका निधन 1535 में हुआ।
धार्मिक और आध्यात्मिक विचार: चैतन्य का मुख्य सिद्धांत भक्ति और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण था। उनके अनुसार, ईश्वर सगुण हैं और उनकी सुंदरता और प्रेम कृष्ण में प्रतिबिंबित होती है। वे मानते थे कि राधा और कृष्ण का प्रेम भक्ति का सर्वोच्च प्रतीक है। उन्होंने भक्ति के पाँच चरण बताए: शांति, दास्य, साख्य, वात्सल्य, और माधुर्य, जिनके माध्यम से भक्त भगवान के निकट पहुंच सकता है। उनके विचार सूफी मत की शिक्षाओं से मिलते-जुलते हैं।
सामाजिक सुधार:चैतन्य ने जाति-भेद, धार्मिक कट्टरता, और ब्राह्मणवादी रीति-रिवाजों का विरोध किया। उन्होंने हर जाति, वर्ग, और धर्म के लोगों को शिष्य बनाया, जिनमें मुसलमान भी शामिल थे। वे गरीबों और निम्न जातियों के घर जाकर उनके साथ मेल-जोल करते थे।
समाज पर प्रभाव:चैतन्य का मानना था कि यह संसार भगवान की लीला है और हर व्यक्ति उसमें स्थान पा सकता है। उनके जीवन और शिक्षाओं ने बंगाल और उत्तर भारत में सामाजिक और धार्मिक सुधारों को प्रेरित किया। उन्होंने भक्ति को आध्यात्मिकता और सामाजिक समानता के साधन के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे समाज के सभी वर्गों को जोड़ने में सफलता मिली। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने भक्ति-आंदोलन को नई ऊंचाई तक पहुंचाया।
निष्कर्ष:-
भक्ति आंदोलन ने ईश्वर की एकता, आत्मा-परमात्मा के संबंध, और भक्ति को मुक्ति का मार्ग बताया। संतों ने जाति-धर्म की सीमाओं को तोड़ते हुए सामाजिक सुधार पर बल दिया। कबीर, नानक जैसे संतों ने अंधविश्वास, कट्टरता और पुरोहित वर्ग के शोषण पर प्रहार किया। उन्होंने साधारण भाषा में संदेश देकर क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में योगदान दिया। हालांकि, यह आंदोलन सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को पूरी तरह बदलने में असमर्थ रहा, फिर भी धार्मिक सहिष्णुता और समाज सुधार के लिए इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।