घुरिद शासकों की विजय और दिल्ली सल्तनत की स्थापना (1192-1526) भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसने इस्लामी शासन की नींव रखी। 13वीं शताब्दी में फारसी भाषा के बढ़ते उपयोग ने ऐतिहासिक स्रोतों की विविधता और संख्या को बढ़ाया। इस काल के इतिहासकारों ने तवारीख, सूफी साहित्य और मालफुजात जैसे ग्रंथों से सुल्तान, दरबार और समाज की विस्तृत जानकारी प्राप्त की। इसके विपरीत, 7वीं-12वीं शताब्दियों के इतिहास के लिए पुरातात्त्विक स्रोतों और साहित्यिक परंपराओं का सहारा लिया गया। इसके अलावा, दक्षिण भारत के आंध्र क्षेत्र में काकतियों के पत्थर के शिलालेख विशिष्ट समय और स्थान की घटनाओं को समझने में मदद करते हैं। इस प्रकार, विभिन्न स्रोतों ने भारतीय इतिहास के विभिन्न पहलुओं को पुनर्निर्मित करने में योगदान दिया।
फारसी तवारीख परंपरा
- फारसी और अरबी दुनिया में इतिहासलेखन की दो प्रमुख शैलियाँ थीं। पहली, अरब परंपरा, जो स्थानीय क्षेत्र, जलवायु, वनस्पति, जीव, और समाज का विस्तृत विवरण देती है। इसे लोकतांत्रिक जीवनी कहा जा सकता है।
- दूसरी, फारसी तवारीख परंपरा, फारसी सल्तनतों और दरबारों के उदय के साथ लोकप्रिय हुई। यह शैली शासकों और उनके दरबार पर केंद्रित है, जहाँ शासक को दिव्य माना जाता था। इस शैली में आम जनता की अनदेखी कर, शासकों और उनकी उपलब्धियों को महत्त्व दिया गया।
- भारत में, फारसी तवारीख परंपरा 12वीं शताब्दी में घुरिद विजय के बाद आई। 1206 से 15वीं शताब्दी तक इस्लामिक दुनिया की तवारीख शैली का अनुसरण करते हुए यह परंपरा राज्य, दरबार, युद्ध, और शासन से संबंधित घटनाओं का कालक्रम प्रस्तुत करती है।
- हालाँकि ये तवारीख आम लोगों की संस्कृति पर कम ध्यान देती हैं, लेकिन उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ शासकों और प्रशासनिक संस्थानों के ऐतिहासिक अध्ययन के लिए अमूल्य स्रोत हैं। ये समकालीन घटनाओं के गवाहों द्वारा लिखी गईं, जो इतिहास का विश्लेषण और पुनर्निर्माण करने में सहायक हैं।
फारसी तवारीख परंपरा की श्रेणियाँ
पीटर हार्डी (1961) ने भारत में 13वीं से 15वीं शताब्दी के बीच लिखे गए फारसी इतिहास को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया है। ये इस्लामिक दुनिया में पहले से प्रचलित औपचारिक लेखन शैलियों पर आधारित थीं:-
- सामान्य या सार्वभौमिक इतिहास: आदम या पैगंबर मोहम्मद से शुरू होकर विभिन्न राजवंशों और मुस्लिम समुदायों का इतिहास, जो लेखकों के समय पर समाप्त होता है।
- मनाकिब या फजाइल: यह संरक्षक शासकों के जीवन और उपलब्धियों का प्रशंसा-प्रधान वर्णन है।
- उपदेशात्मक इतिहास: "मिरर ऑफ प्रिंसेस" साहित्य का हिस्सा, जिसमें शासकों को नैतिक और प्रशासनिक मार्गदर्शन प्रदान किया जाता है।
- कलात्मक इतिहास: अलंकृत और छंदबद्ध शैली में लिखा गया इतिहास, जो साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
मुस्लिम इतिहासलेखन
- मुस्लिम इतिहासलेखन में विभिन्न शैलियों और विषयों का अतिच्छादन पाया जाता है, जो इसे विशिष्ट लेकिन बहुआयामी बनाता है। 12वीं-13वीं शताब्दी में, फख-ए मुदब्बीर की रचना शाजारा-ए अनसब-ए मुबारक शाही (1208) मुस्लिम इतिहासलेखन की उस समय की स्थिति का प्रतीक है। यह वंशावली आधारित, उपदेशात्मक और सार्वभौमिक इतिहास का एक मिश्रण है।
- मुदब्बीर ने इसे कुतुब अल-दीन ऐबक को समर्पित किया, जिसमें ऐबक के लिए नैतिक शिक्षाएँ और स्तवन शामिल हैं। यह घुरिद विजय और ऐबक के शासनकाल के शुरुआती विवरण देता है। इसी शैली में उनकी दूसरी रचना अदब अल-हर्ब वा अल-शुजा (युद्ध और बहादुरी का शिष्टाचार), इल्तुतमिश को समर्पित है, जो उपदेशात्मक इतिहास का उदाहरण है। इन कार्यों ने मुस्लिम इतिहासलेखन की बहुआयामी और समृद्ध परंपरा को विकसित किया।
1. मुस्लिम दुनिया का सामान्य या सार्वभौमिक इतिहास
A. मिन्हाज अल-सिराज जुज्जानीः तबकात-ए नसीरी (1259-60)
मिन्हाज अल-सिराज जुज्जानी द्वारा लिखित तबकात-ए नसीरी (1259-60) सुल्तान नासिर अल-दीन महमूद (1246-66) को समर्पित एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ है। यह सल्तनत काल के प्रारंभिक इतिहास का प्रमुख स्रोत है। जुज्जानी, घुरिद, सिंध के कुबाचा और सुल्तान इल्तुतमिश के अधीन काजी थे और बाद में सुल्तान नासिर अल-दीन के प्रमुख काजी बने।
- ग्रंथ की संरचना:- इसे 23 तबकात (वर्ग) में विभाजित किया गया है। यह पैगंबर, खलीफाओं, उमय्यद, अब्बासिड, गजनवीद, घुरिड और मुइजी सुल्तानों तक की कहानी बताता है। हर तबका में शासकों के कार्यों का विवरण और उनके दरबार के प्रमुख व्यक्तियों की सूची दी गई है।
- विशेषताएँ:- जुज्जानी ने मुइजी दास (घूरी के दास) और शम्सी दास (इल्तुतमिश के दास) का अलग-अलग उल्लेख किया है। उन्होंने सुल्तान नासिर अल-दीन महमूद को प्रमुख नायक के रूप में प्रस्तुत किया है।
- सीमाएँ:- यह केवल घटनाओं और शासकों पर केंद्रित है, गहराई से कारण-विश्लेषण नहीं करता। इतिहास में घटनाओं की पुनरावृत्ति और तारीखों में असंगतियाँ हैं। यह मानवीय या दैवीय इच्छा के रूप में घटनाओं की व्याख्या करता है, जो आलोचनात्मक दृष्टिकोण की कमी को दर्शाता है।
पीटर हार्डी के अनुसार, यह काम फारसी परंपराओं से प्रभावित था और आलोचनात्मक अरबी इतिहासलेखन में गिरावट को दर्शाता है।
B. याह्या इब्न अहमद सरहिंदी : तारीख-ए मुबारक शाही
याह्या इब्न अहमद सरहिंदी द्वारा लिखित तारीख-ए मुबारक शाही (1428-34) एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जो सैय्यद शासकों के दरबार में सुल्तान मुबारक शाह सैय्यद (1421-1434) को समर्पित था।
- मुख्य विशेषताएँ:- यह ग्रंथ उत्तर भारत के विजेता मुइज अल-दीन घुर से शुरू होकर दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों के शासन, युद्धों, नियुक्तियों और विद्रोहों का वर्णन करता है। इसकी शैली जुज्जानी, बरनी और अमीर खुसरो की कृतियों से प्रेरित है।
- सीमाएँ: घटनाओं का केवल वर्णन किया गया है, उनके कारणों का विश्लेषण नहीं है। ईश्वर ही सत्य जानता है जैसे वाक्यों का बार-बार उपयोग होता है। यह गद्य और पद्य में नैतिक शिक्षाएँ शामिल करता है, लेकिन विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण की कमी है। मोहम्मद बिन तुगलक के पतन के कुछ कारणों का उल्लेख छोड़कर, यह युद्धों और विद्रोहों का केवल सतही विवरण है।
1. पीटर हार्डी (1961) इसे अरबी इतिहासलेखन की परंपरा का अनुकरण मानते हैं।
2. हरबंस मुखिया (1976) ने इसे युद्धों और राजनीतिक घटनाओं का सरल वर्णन बताया।
C. मुहम्मद बिहमद खानी: तारीख-ए-मुहम्मदी (1439)
मुहम्मद बिहमद खानी की तारीख-ए-मुहम्मदी जुज्जानी की तबकात-ए नसीरी से प्रेरित एक ऐतिहासिक रचना है।
- मुख्य विशेषताएँ: इसमें तैमूर और कालपी के शासकों के संघर्षों का विवरण दिया गया है। बिहमद खानी के पिता कालपी के शासकों के अधीन कार्यरत थे, जिससे यह रचना क्षेत्रीय इतिहास पर केंद्रित है।
- सीमाएँ: घटनाओं के कारणों की व्याख्या नहीं की गई है। स्रोतों का कोई आलोचनात्मक विश्लेषण नहीं किया गया है। चमत्कारी और ईश्वरीय इच्छा जैसे तत्त्वों का उपयोग किया गया है। इतिहास को केवल घटनाओं के क्रमिक उत्तराधिकार के रूप में देखा गया है।
2. मनाकिब या फजैल प्रकार का इतिहास
A. शम्स अल-दीन सिराज अफीफ: तवारीख-ए फिरोज शाही (1398-99)
शम्स अल-दीन सिराज अफीफ द्वारा लिखित तवारीख-ए फिरोज शाही सुल्तान फिरोज शाह तुगलक (1351-88) को समर्पित एक ऐतिहासिक ग्रंथ है। यह फिरोज शाह के शासनकाल के प्रशासन और लोक कल्याणकारी कार्यों को गहराई से समझने के लिए एक मूल्यवान स्रोत है।
- मुख्य विशेषताएँ:- ग्रंथ 18 मुकद्दमों (वर्गों) और 5 किस्मों (भागों) में विभाजित है, हालांकि केवल 14 मुकद्दम और 4 किस्म पूरी हुई हैं। प्रारंभिक भाग पैगंबर, सूफियों और सुल्तान की प्रशंसा को समर्पित है। इसमें सुल्तान की लोक कल्याणकारी योजनाओं, प्रशासनिक सुधारों और भवन निर्माण का विस्तृत विवरण है। यह सल्तनत के कुल राजस्व के आंकड़े देने वाला पहला ग्रंथ है। फिरोज शाह द्वारा राजधानी में घड़ियाल वाली घड़ी लगाना और अशोक स्तंभों को फिरोजाबाद में स्थानांतरित करना जैसी घटनाओं का वर्णन है। सेना में भ्रष्टाचार और शिथिल अनुशासन का उल्लेख करता है।
- सीमाएँ: लेखक सुल्तान की अत्यधिक प्रशंसा करता है और उसके शासन को स्वर्ण युग के रूप में चित्रित करता है। घटनाओं के कारणों का विश्लेषण और आलोचनात्मक दृष्टिकोण का अभाव है। लेखन में अरब इतिहासलेखन की हदीस आलोचना पद्धति का पालन नहीं किया गया।
- विशेषज्ञों की राय: पीटर हार्डी (1961) के अनुसार, अफीफ ने फिरोज शाह के शासनकाल को आदर्शीकृत रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन उनके स्रोत "विश्वसनीय पत्रकारों" से अधिक नहीं हैं।
B. अज्ञात लेखक: सीरत-ए फिरोज शाही (1370)
सीरत-ए फिरोज शाही एक अज्ञात लेखक द्वारा लिखित ग्रंथ है, जो फिरोज शाह तुगलक (1351-1388) के शासनकाल की घटनाओं को चार खंडों में प्रस्तुत करता है। यह उनके राज्यारोहण से थट्टा अभियान तक की घटनाओं, निर्माण कार्यों, खगोलीय वेधशालाओं, और युद्ध उपकरणों पर केंद्रित है।
- मुख्य विशेषताएँ: फिरोज शाह को एक आदर्श शासक और सुन्नी धर्मशास्त्रियों व चिश्ती रहस्यवादियों के संरक्षक के रूप में चित्रित किया गया है। यह प्रशस्ति-प्रधान ग्रंथ है, जिसमें आलोचनात्मक दृष्टिकोण का अभाव है।
- विशेषज्ञों की राय: पीटर हार्डी ने इसे "पवित्र प्रशस्ति-रचना" का रूप बताते हुए फिरोज शाह को आदर्श सुल्तान के रूप में चित्रित करने पर जोर दिया है।
3. उपदेशात्मक इतिहास
उपदेशात्मक इतिहास और ज़िया-उद-दीन बरनी की तारीख-ए फिरोज़ शाही
ज़िया-उद-दीन बरनी (1285–1357) मध्यकालीन भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार थे। उनकी कृति तारीख-ए फिरोज़ शाही दिल्ली सल्तनत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। यह कृति केवल ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन नहीं करती, बल्कि इसे उपदेशात्मक और नैतिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है।
बरनी का जीवन और इतिहासलेखन
- पारिवारिक पृष्ठभूमि: बरनी का परिवार सुल्तानों के अधीन उच्च पदों पर कार्यरत था।
- दरबारी अनुभव: वह मोहम्मद बिन तुगलक के दरबार में थे, लेकिन फिरोज शाह तुगलक के शासन में निष्कासित कर दिए गए। उनके जीवन के उतार-चढ़ाव और दरबारी अनुभव उनके लेखन में स्पष्ट झलकते हैं।
1. तारीख-ए फिरोज़ शाही: सुल्तान बलबन (1266–87) से फिरोज शाह तुगलक (1351–88) तक आठ सुल्तानों के शासन का विस्तृत विवरण।
2. फतवा-ए-जहांदारी: शासन के लिए नैतिक और व्यावहारिक सलाह।
तारीख-ए फिरोज शाही की विशेषताएं
- उपदेशात्मक दृष्टिकोण: बरनी का इतिहास इस्लामिक नैतिकता और धार्मिक सिद्धांतों पर आधारित है। उनके लिए इतिहास का उद्देश्य सीख और चेतावनी देना था। वह इसे धार्मिक साहित्य की तरह देखते थे, जिसे ईश्वर के इरादों को समझने के लिए पढ़ा जाना चाहिए।
- दिल्ली सल्तनत की नीतियां: बरनी ने अलाउद्दीन खिलजी की आर्थिक और सैन्य सुधारों की सराहना की, लेकिन शरीयत कानून की अवहेलना पर टिप्पणी की। मोहम्मद बिन तुगलक की नीतियों की आलोचना करते हुए, उन्होंने उनके "गैर-परंपरागत विचारों" और "निम्न वर्ग के लोगों" को दरबार में स्थान देने को संकट का कारण बताया। बलबन के सख्त शासन और उच्च कुल के लोगों को नियुक्त करने की नीति को सराहा।
- आलोचना और प्रशंसा का संतुलन: बरनी ने तुगलक शासन के असफल प्रयोगों पर प्रकाश डाला। उनके दो संस्करणों में मोहम्मद बिन तुगलक की छवि में बड़ा अंतर है। पहले संस्करण में वह सुल्तान की बौद्धिक संस्कृति की प्रशंसा करते हैं, जबकि दूसरे में उनकी विफलताओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
- आर्थिक और प्रशासनिक दृष्टि: बरनी ने अलाउद्दीन खिलजी के बाजार सुधारों और भू-राजस्व प्रणाली का विस्तृत विवरण दिया। उनकी रचनाओं में दिल्ली सल्तनत की आर्थिक नीतियों और सामाजिक संरचना का गहन अध्ययन मिलता है।
- धार्मिक और नैतिक संदर्भ: उनके अनुसार, "ईश्वर की इच्छा" इतिहास के पीछे की सबसे बड़ी शक्ति है। वह मानते थे कि इतिहास का ज्ञान मुसलमानों को पैगंबर और उनके साथियों के जीवन से शिक्षा लेने में मदद करता है।
बरनी की आलोचना और उनके विचारों का प्रभाव
- इतिहासकार पीटर हार्डी का कहना है कि बरनी का इतिहास धार्मिक दर्शन का हिस्सा है। वह इसे ऐतिहासिक सत्य से अधिक धार्मिक नैतिकता के प्रचार का माध्यम मानते हैं। इरफान हबीब इसे दिल्ली सल्तनत के इतिहास का एक सटीक स्रोत मानते हैं।
- बरनी ने "उच्च" और "निम्न" वर्गों के बीच एक स्पष्ट भेद किया, जिससे उनकी वर्गीय पूर्वाग्रह झलकती है। उनका मानना था कि सुल्तानों को उच्च कुलीन वर्ग से चुनना चाहिए, अन्यथा शासन में संकट बढ़ेगा।
बरनी का योगदान और प्रासंगिकता
- बरनी ने इतिहास को मिरर ऑफ प्रिंसेस शैली में लिखा, जो शासकों के लिए मार्गदर्शन का काम करता था। उनकी कृतियां, विशेष रूप से तारीख-ए फिरोज शाही, आज भी दिल्ली सल्तनत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक इतिहास के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
- बरनी का दृष्टिकोण, जिसमें उन्होंने इतिहास को धार्मिक, नैतिक और व्यावहारिक सीखने का साधन माना, उन्हें मध्यकालीन भारतीय इतिहासलेखन में अद्वितीय बनाता है। उनकी कृतियां आज भी इतिहास और धार्मिक विचारधारा के बीच के संबंधों को समझने के लिए एक मूल्यवान मार्गदर्शिका हैं।
4. इतिहासलेखन का कलात्मक रूप
कलात्मक इतिहासलेखन एक ऐसी शैली है जिसमें ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन साहित्यिक और सौंदर्यपूर्ण ढंग से किया जाता है। यह शैली केवल घटनाओं के विवरण तक सीमित नहीं होती, बल्कि कविताओं, तुकांत गद्य, और अलंकृत भाषा के माध्यम से एक नाटकीय और आकर्षक प्रस्तुति देती है।
हसन निजामी और ताज अल-मआथिर
हसन निजामी की कृति ताज अल-मआथिर (1206–1217/1228) ग़ोरी शासकों और उनके विजयों के प्रारंभिक विवरण का संग्रह है। यह कार्य अपने साहित्यिक और अलंकारिक गुणों के लिए प्रसिद्ध है। इसमें लेखक ने तुकांत गद्य (राइम्ड प्रोज़) का प्रयोग किया है, जिससे यह एक ऐतिहासिक कृति होने के साथ-साथ साहित्यिक उपलब्धि भी बन जाती है।
अमीर खुसरो और उनका ऐतिहासिक साहित्य
अमीर खुसरो (1253-1325) अपनी कविताओं और गद्य के माध्यम से इतिहासलेखन में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे 1298 से दिल्ली सल्तनत के दरबारी कवि रहे और फारसी और हिंदवी भाषाओं में अपनी लेखनी से इतिहास को एक कलात्मक और साहित्यिक रूप दिया। उनकी ऐतिहासिक कृतियां राजवंशों के उत्थान और पतन का सजीव चित्रण करती हैं।
उनकी प्रमुख रचनाएं :-
- किरन अल-सदैन (1289): यह मसनवी शैली की कविता है, जिसमें बुगरा खान और सुल्तान कैकुबाद के बीच अवध में हुई मुलाकात का वर्णन है। कविता में दिल्ली की भव्यता, उसके लोगों, इमारतों और मंगोलों की आदतों का चित्रण मिलता है। किरन अल-सदैन को खुसरो की उत्कृष्ट कृति माना जाता है।
- मिफ्ताह अल-फुतुह (1291): यह सुल्तान जलाल अल-दीन खलजी की विजयगाथाओं का वर्णन करती है। हालांकि, यह एक प्रशस्तिपत्र जैसी है और किरन अल-सदैन की तुलना में कम प्रभावशाली है।
- दुवाल रानी खिज खान (1316/1320): यह एक दुखद प्रेम कहानी है, जो सुल्तान अला अल-दीन खिलजी के पुत्र खिज खान और नाहरवाला के राजा करण की बेटी दुवल रानी के इर्द-गिर्द घूमती है। साथ ही, यह महल की साजिशों और राजकुमारों के जीवन का जीवंत चित्रण भी प्रस्तुत करती है।
- नूह सिफिर (1318): यह नौ अध्यायों में विभाजित है और सुल्तान कुतुब अल-दीन मुबारक शाह खलजी की उपलब्धियों का वर्णन करती है। इसमें भारत की वनस्पतियों, जीव-जंतुओं, विज्ञान, संगीत और शतरंज जैसे क्षेत्रों में योगदान की प्रशंसा की गई है।
- तुगलकनामा (1320): यह तुगलक वंश के उदय और उसके शासनकाल का विवरण देती है।
- गद्य रचना: खजाइन अल-फुतुह (1311): खुसरो की गद्य रचना खजाइन अल-फुतुह सुल्तान अला अल-दीन खिलजी के शासनकाल और उनके विजय अभियानों का विवरण देती है। यह गद्य ऐतिहासिक तथ्यों को प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करता है।
ऐतिहासिक लेखन की विशेषता
- अमीर खुसरो की कविताएं ऐतिहासिक घटनाओं को काव्यात्मक कल्पना में ढालती हैं। उनके कार्य महज ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं बल्कि साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर हैं, जिनमें दिल्ली की सजीवता, राजदरबार का वैभव और भारत की विविधता का जिक्र मिलता है। उनके लेखन से यह समझा जा सकता है कि वे इतिहास को केवल घटनाओं का संग्रह नहीं मानते थे, बल्कि उसे एक कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते थे।
तुगलकनामा
तुगलकनामा गियास अल-दीन तुगलक के खुसरो खान को हराकर सत्ता संभालने की घटनाओं का वर्णन करती है। इसमें खलजी वंश के पतन और तुगलक वंश के उदय का कालानुक्रमिक विवरण मिलता है। हिंदुओं और खोखरों द्वारा तुगलक को समर्थन तथा मुसलमानों द्वारा खुसरो खान के प्रयासों का उल्लेख है।
- शैली: यह अमीर खुसरो की अन्य रचनाओं से भिन्न है, क्योंकि इसमें अलंकारिक भाषा का उपयोग नहीं है। इसे विशुद्ध ऐतिहासिक और तथ्यात्मक कृति माना जाता है।
- खजाइन अल-फुतुह से तुलना: खजाइन अल-फुतुह अला अल-दीन खिलजी के अभियानों पर आधारित गद्य रचना है, जिसमें दरबारी अलंकरण प्रमुख है। इसके विपरीत, तुगलकनामा कम अलंकृत और अधिक तथ्यपरक है।
- आलोचना और प्रभाव: मुखिया (1976) के अनुसार, खुसरो नायकों की प्रशंसा करते हुए अप्रिय घटनाओं से बचते हैं। उनका लेखन साहित्यिक प्रभाव पर केंद्रित था, लेकिन उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों को काव्यात्मक बिंबों से जीवंत बना दिया। यह कृति साहित्य और इतिहास दोनों के लिए महत्वपूर्ण है।
इसामी और फुतुह अल-सलातिन (1349-50)
इसामी मध्यकालीन भारत के एक प्रमुख कवि और इतिहासकार थे। उन्होंने अपनी रचना फुतुह अल-सलातिन के माध्यम से भारतीय इतिहास को काव्यात्मक स्वरूप में प्रस्तुत किया। यह फारसी साहित्य की एक महत्वपूर्ण मसनवी है, जिसमें लगभग 12,000 छंद शामिल हैं।
फुतुह अल-सलातिन की विशेषताएं:
- शैली और प्रेरणा: यह मसनवी शैली में लिखी गई है और इसे फारसी साहित्य की महान कृति शाहनामा के बाद सबसे लोकप्रिय कविताओं में माना जाता है। इस रचना में इतिहास और साहित्य का संयोजन है, लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों के साथ काव्यात्मक कल्पना भी की गई है।
- कंटेंट और उद्देश्य: इसामी ने दिल्ली सल्तनत के कई शासकों के शासनकाल का वर्णन किया है।उन्होंने विशेष रूप से अलाउद्दीन खिलजी की प्रशंसा की, जिन्हें उन्होंने हिंदू राजकुमारों का महान विजेता कहा। इसके विपरीत, उन्होंने मोहम्मद बिन तुगलक के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाया, उनके शासन और नीतियों की कड़ी आलोचना की।
- कालक्रम की समस्या: इसामी का इतिहास कालक्रम की दृष्टि से कमजोर है।गलत तिथियों और घटनाओं के विवरण के कारण उनके लेखन की सटीकता पर सवाल उठाए गए हैं।
- दैवीय इच्छा का उल्लेख: उनकी रचना में "दैवीय इच्छा" को परिवर्तन और घटनाओं के पीछे की शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह दर्शाता है कि वे ऐतिहासिक घटनाओं को धार्मिक और दैवीय दृष्टिकोण से देखना पसंद करते थे।
निष्कर्ष:-
फारसी इतिहास लेखन मुख्य रूप से दरबार और सैन्य शिविरों पर केंद्रित है, जिसमें आम जनता और विद्रोहों का निष्पक्ष मूल्यांकन दुर्लभ है। अधिकांश इतिहासकार विद्रोहों को पाप समझते हैं, सिवाय इसामी के, जिन्होंने मोहम्मद बिन तुगलक के शासन के विद्रोहों को सही ठहराया। इन लेखनों में शासकों को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया है, और घटनाओं को ईश्वर की इच्छा के रूप में देखा गया है। 15वीं-16वीं शताब्दी में इस परंपरा में बदलाव आया, जब दैवीय भाग्यवाद की जगह मानवीय दक्षता को महत्व दिया जाने लगा। इसामी, बरनी, और ख्वाजा निजाम अल-दीन अहमद जैसे लेखकों की कृतियों में यह बदलाव साफ दिखाई देता है। दैवीय और मानवीय शक्तियों के बीच संतुलन बनाने का यह प्रयास हिंद-फारसी इतिहास लेखन के विकास को दर्शाता है।
मालफुजात और प्रेमाख्यान
1. मालफुजात
मालफुजात फारसी साहित्य की एक विशिष्ट विधा है, जिसमें सूफी संतों के प्रवचनों और वार्तालापों का संकलन शामिल होता है। इन ग्रंथों को सूफी शिक्षाओं और रहस्यमय ज्ञान का महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। मालफुजात केवल धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों को भी उजागर करते हैं।
मालफुजात का स्वरूप और महत्व
- सूफी शिक्षाओं का संग्रह: मालफुजात में सूफी संतों के प्रवचन, शिक्षाएं, और उनके शिष्यों के साथ वार्तालाप का संग्रह होता है। ये ग्रंथ सूफी नैतिकता, आचरण, और आध्यात्मिक साधना के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
- आम जनता और दरबार से अलग दृष्टिकोण: मालफुजात ग्रंथ आम लोगों के जीवन, उनके रीति-रिवाज, और विश्वासों पर प्रकाश डालते हैं। ये ग्रंथ दरबार के इतिहासकारों द्वारा अनदेखे पहलुओं को सामने लाते हैं।
- सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास: सूफी संतों के साथ आम जनता की बातचीत से उस समय के समाज और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को समझा जा सकता है। यह श्रोताओं की वेशभूषा, आदतों, और दैनिक जीवन का दस्तावेज प्रस्तुत करता है।
- प्रामाणिकता और शैली: प्रारंभिक मालफुजात मौखिक शिक्षाओं पर आधारित थे। इनमें प्रश्न-उत्तर, विस्मयादिबोधक अभिव्यक्तियां, और कविता उद्धरण शामिल थे। बाद के मालफुजात साहित्यिक रूप से परिष्कृत हो गए, लेकिन मौखिक शैली और प्रामाणिकता की हानि हुई।
अब हम कुछ उदाहरण देंगे:-
1. फवाद अल-फवाद (मोरल्स ऑफ द हार्ट, 1307-22) शेख निजाम अल-दीन औलिया (मृत्यु 1325), चिश्तिया सिलसिला के महान सूफी संत, की शिक्षाओं का संकलन है। इसे उनके शिष्य और कवि अमीर हसन सिज्जी (मृत्यु 1336) ने लिखा, जो उनके मौखिक उपदेशों को एक संगठित पाठ में बदलने वाले पहले व्यक्ति थे। पहले चिश्ती संतों, जैसे मुइन अल-दीन चिश्ती, कुतुब अल-दीन बख्तियार काकी और फरीद अल-दीन गंज-ए शक्कर, मौखिक शिक्षाओं पर जोर देते थे। हालांकि, सिज्जी ने इन शिक्षाओं को संवादात्मक शैली में प्रस्तुत कर इसे अधिक अंतरंग और जीवंत बना दिया, जिससे यह पाठक को संत की सभाओं का अनुभव कराने में सक्षम हुआ। यह काम अपने समय में बहुत लोकप्रिय था और सूफी साहित्य में एक मूल्यवान योगदान माना जाता है।
2. खैर अल-मजलिस (द बेस्ट ऑफ एसेंबली, 1350): शेख नासिर अल-दीन चिराग-ए-दिहली का यह मालफुज 1356 में संकलित हुआ। वे निजाम अल-दीन औलिया के उत्तराधिकारी थे, और यह पाठ "फवाद" के आधिकारिक मॉडल का अनुसरण करता है।
3. शेख बुरहान अल-दीन गरीब का मालफुज (1338): मोहम्मद बिन तुगलक द्वारा राजधानी को दक्कन स्थानांतरित करने के बाद, शेख बुरहान अल-दीन गरीब की शिक्षाओं को उनके शिष्यों, विशेष रूप से रुकन अल-दीन कशानी और परिवार द्वारा खुल्दाबाद में चार मालफुजत के रूप में संकलित किया गया। वे भी निजाम अल-दीन औलिया के शिष्य थे।
4. अन्य मालफुजत: निजाम अल-दीन औलिया के अन्य शिष्यों ने "दुर्र-ए निजामी" और "किवाम अल-अकैद" जैसे कुछ मालफुजत संकलित किए, लेकिन उनकी लोकप्रियता और प्रभाव "फवाद" जैसा नहीं हुआ।
5. जवामी अल-कलीम (1422): गुलबर्गा के शेख बंदेनवाज गेसुदेराज का मालफुज।
6. सुरूर अल-सुदूर (1350): शेख हामिद अल-दीन नागौरी (मृत्यु 1276) का यह मालफुज फरीद अल-दीन महमूद महम द्वारा संकलित किया गया।
सूफी ग्रंथों जैसे फवाद और खैर-अल मजलिस में गुरु को "सुल्तान अल-मशैख वा अल-अरिफिन" (शेखों और धर्मपरायणों का सुल्तान) के रूप में प्रस्तुत किया गया, जो दिल्ली के सुल्तान का आध्यात्मिक समकक्ष थे। इन ग्रंथों में गुरु को ईश्वर के करिश्माई और पवित्र मित्र के रूप में दिखाया गया है, जबकि तवारीख में शासक को भव्य ऐतिहासिक पराकाष्ठा के रूप में चित्रित किया गया। हालांकि, मालफुजात में रहस्यमय, प्रशस्ति, और उपदेशात्मक तत्त्वों का समावेश किया गया है। इन ग्रंथों में अक्सर मौखिक परंपरा का अभाव दिखता है, और कई हिस्सों में मनगढ़ंत तत्त्व शामिल हैं, जो पहले संतों के चमत्कारों पर आधारित होते हैं।
2. प्रेमाख्यान
प्रेमाख्यान तैमूर के आक्रमण (1399) के बाद 15वीं शताब्दी में उभरी एक नई साहित्यिक शैली है, जो उत्तरी भारत की स्थानीय हिन्द-मुस्लिम रियासतों में विकसित हुई। इन दरबारों में मुस्लिम सूफी कवियों को संरक्षण मिला, जिन्होंने स्थानीय भाषाओं में सूफी रोमांस लिखा। यह शैली फारसी-अरबी परंपराओं से प्रेरित थी, लेकिन स्थानीय लोक कथाओं और संस्कृत-फारसी शैलियों का सम्मिलन कर नई रचनात्मकता प्रस्तुत करती थी।
- भाषा और स्वरूप: ये कृतियाँ पूर्वी अवधी या हिंदवी में रची गईं और फारसी-अरबी लिपि में लिखी गईं। फारसी मसनवी से प्रेरित तुकबंदी और दोहों का प्रयोग होता, लेकिन कथा प्रस्तुति स्थानीय स्वदेशी शैली की थी। इसे संगीतमय रूप में सुनाया और प्रस्तुत किया जाता।
- विषय और महत्व: इनका मुख्य विषय सूफी दर्शन की परमात्मा के प्रति प्रेम की अवधारणा था। प्रेमाख्यान ने लोककथाओं को ईश्वर के प्रति रहस्यमय तड़प की अलंकारिक अभिव्यक्ति के लिए अपनाया। इन कविताओं ने हिंदवी भाषा को साहित्यिक स्तर तक उठाया और दिल्ली, जौनपुर और बिहार में लोकप्रिय हुईं।
- संस्कृति और प्रभाव: विद्वानों के अनुसार, यह शैली भारतीय इस्लाम के स्थानीयकरण और हिंदुस्तानी समाज व इस्लामी संस्कृति के फ्यूजन का उदाहरण है। इन कृतियों ने फारसी-अरबी सूफी प्रभाव को तोड़ते हुए सूफी विचारों को जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत किया। यह शैली भारतीय समाज की सांस्कृतिक संश्लेषण की प्रक्रिया का प्रतीक बन गई।
चंदायन
- चंदायन (1379): मौलाना दाउद द्वारा रचित यह सूफी प्रेमाख्यान का सबसे पुराना काम है, जो फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल में रायबरेली के पास डलमऊ में लिखा गया। यह क्षेत्रीय अहीर लोककथाओं से प्रेरित है और फारसी तुकांत दोहे (मसनवी) के रूप में रचा गया है। इसमें सूफी दर्शन की "फना" अवधारणा का उपयोग किया गया है, जो ईश्वर, सूफी और संसार के बीच संबंधों को दर्शाती है। यह हिंदुई (हिंदवी) भाषा में है, लेकिन फारसी-अरबी लिपि में लिखा गया है।
- मृगावत (1503): कुतुबन द्वारा लिखित यह रचना जौनपुर के शर्की शासक हुसैन शाह को समर्पित है। इसमें चंद्रगिरि के राजकुमार और कंचनपुर की राजकुमारी मृगावती के बीच प्रेम कहानी का वर्णन है। यह कहानी अरब नाइट्स की कहानियों की याद दिलाती है और इसमें ट्रांस-कल्चरल इस्लामिक और भारतीय तत्वों का सम्मिलन है।
- पद्मावत (1540): मलिक मोहम्मद जायसी की यह कृति सिंहलदीप की राजकुमारी पद्मावती और चित्तौड़ के राजा रतनसेन की प्रेमकथा है। यह भी सूफी दर्शन और प्रेम की अवधारणाओं से प्रेरित है।
- साहित्यिक विश्लेषण: चंदायन, मृगावत, और पद्मावत सूफी मसनवी परंपरा के साथ स्वदेशी और इस्लामी तत्वों का मिश्रण हैं। इनकी संरचनात्मक समानता फारसी मसनवी की शैली में है, जिसमें प्रस्तावना स्तुति खंड के रूप में प्रस्तुत होती है। हालांकि यह रचनाएँ फारसी-अरबी लिपि में हैं, इनमें फारसी शब्दों का कम और भारतीय शैली का अधिक उपयोग हुआ है। हिंदू शब्दावली के माध्यम से इस्लामी अवधारणाओं को व्यक्त करने से यह साहित्यिक परंपरा आम जनता से गहराई से जुड़ गई।
कुछ अन्य उदाहरण हैं:-
नारायण दास द्वारा चितई-चरिता (1520), मध्य प्रदेश के सारंगपुर में लिखी गई थी। मीर मंझन शतारी ने 1540 ई. में मधुमालती लिखी। बाद की कृति चित्रावली (1613) की रचना उस्मान गाजीपुरी ने की।
निष्कर्ष:-
सूफी मालफुजात जैसे साहित्यिक स्रोत आम जनमानस के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को समझने में मददगार हैं। ये स्रोत इस्लाम के स्थानीयकरण, ग्रामीण जीवन, छोटे कस्बों, स्थानीय वास्तुकला और 14वीं-15वीं शताब्दी के सरदारों की शक्ति संरचना को उजागर करते हैं। साथ ही, वे मुगल साम्राज्य के उदय से पूर्व के क्षेत्रीय सत्ता विन्यास का भी मूल्यांकन करते हैं। ये कविताएँ न केवल लोक जीवन बल्कि उस दौर की सामाजिक और राजनीतिक गतिशीलता का भी चित्रण करती हैं। अब, इन साहित्यिक स्रोतों से आगे बढ़कर, पुरातात्विक स्रोतों का अध्ययन इतिहास को और समृद्ध कर सकता है।
शिलालेख और क्षेत्रीय पहचान
1. ऐतिहासिक स्रोत के रूप में शिलालेख:
- शिलालेख अतीत के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। ये अभिलेख हमें लोगों के वास्तविक कार्यों और सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक गतिविधियों की जानकारी देते हैं, जबकि साहित्यिक स्रोत अक्सर आदर्शों और शाही दृष्टिकोण पर केंद्रित होते हैं।
- काकतीय काल (1175-1325) में आंध्र क्षेत्र के पत्थर के शिलालेख व्यक्तियों द्वारा मंदिरों और देवताओं को दिए गए धार्मिक दान का विवरण प्रदान करते हैं। ये शिलालेख दाताओं की सामाजिक स्थिति, परिवार, व्यवसाय, और दान की प्रकृति के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं।
2. शिलालेखों का महत्त्व :
- शिलालेख स्थान और समय के विशिष्ट होते हैं, जो साहित्यिक स्रोतों की कालातीत प्रकृति से भिन्न हैं।
- ये केवल राजाओं और ब्राह्मणों तक सीमित नहीं होते, बल्कि व्यापारियों, चरवाहों, और अन्य सामाजिक समूहों को भी दर्शाते हैं।
- इनमें गोत्र और व्यावसायिक स्थिति का उल्लेख अधिक होता है, जाति पर कम जोर दिया जाता है।
- शिलालेख पुरातात्विक कलाकृतियों की तरह भौगोलिक और कालानुक्रमिक विश्लेषण के लिए उपयुक्त हैं।
3. काकतीय शिलालेख और क्षेत्रीय पहचान:
- काकतीय शासकों के काल में, शिलालेखों ने कृषि प्रसार, मंदिर पंथ, और व्यावसायिक गतिविधियों में वृद्धि के साक्ष्य प्रस्तुत किए। टैलबोट के अनुसार, इन शिलालेखों ने राज्य निर्माण की प्रक्रियाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
4. क्षेत्रीय भाषाओं का उदय:
- जैसे-जैसे क्षेत्रीय समाज अधिक परिपक्व हुआ, तेलुगु ने संस्कृत का स्थान ले लिया। तेलुगु शिलालेखों का बढ़ता उपयोग क्षेत्रीय सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान के उदय का प्रतीक है। यह प्रक्रिया क्षेत्रीय भाषाओं के उत्थान और संस्कृत कॉस्मोपोलिस के पतन का हिस्सा थी।
निष्कर्ष:
शिलालेख न केवल एक क्षेत्रीय भाषा की स्वीकृति को दर्शाते हैं, बल्कि राज्य निर्माण और क्षेत्रीय पहचान को भी मजबूत करते हैं। आंध्र में तेलुगु का उदय और शिलालेखों में इसका उपयोग इस क्षेत्र के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास को परिभाषित करता है।