भारतीय संविधान अपनी अनूठी विशेषताओं के कारण अन्य देशों के संविधानों से अलग है। यह सबसे लंबा और विस्तृत संविधान है, जो भारत की विविधता और जटिलता का समाधान प्रदान करता है। संविधान ने संघीय ढांचे की व्यवस्था की है, जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों के साथ पंचायत और नगरपालिकाओं का तीसरा स्तर जोड़ा गया। संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण तीन सूचियों—संघ, राज्य और समवर्ती सूची—के माध्यम से किया गया है। साथ ही, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिकाएँ और दायित्व स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं, जो संघीय व्यवस्था को मजबूत करते हैं।
शक्ति का विभाजन और विकेंद्रीकरण
- विकेंद्रीकरण शिक्षा की गुणवत्ता और सेवाओं को बेहतर बनाने का तरीका है। इसमें स्थानीय लोगों को योजनाएँ बनाने और फैसले लेने की शक्ति दी जाती है। इसका उद्देश्य जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) और कार्यक्रम क्रियान्वयन (1992) में केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों को स्पष्ट किया गया। 1976 में संविधान संशोधन के जरिए शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल किया गया, जिससे केंद्र और राज्य सरकारें दोनों शिक्षा की जिम्मेदारी साझा करती हैं।
केंद्र सरकार की जिम्मेदारियाँ
- शिक्षा के राष्ट्रीय और एकीकृत स्वरूप को बनाए रखना।
- देश की शैक्षिक जरूरतों का अध्ययन करना।
- शोध और उन्नत शिक्षा के लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
- मानव संसाधन का विकास करना।
- शिक्षा के अंतरराष्ट्रीय मानकों पर ध्यान देना।
- सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा देना।
- पूरे देश में शिक्षा में उत्कृष्टता सुनिश्चित करना।
1. संघ की वैधानिक शक्तियाँ
भारत में संघीय प्रणाली के तहत केंद्र और राज्यों के बीच वैधानिक शक्तियों का विभाजन किया गया है। यह विभाजन संविधान की 7वीं अनुसूची (अनुच्छेद 246) में निर्धारित है।
वैधानिक शक्तियों का विभाजन क्यों आवश्यक है?
1. विधायी शक्तियों का सीमांकन: इससे कार्यपालिका की शक्तियों को परिभाषित करना आसान होता है।
2. विषयों की स्पष्टता: जिन विषयों पर कानून बनाए जा सकते हैं, उन्हें अलग-अलग सूची में स्पष्ट रूप से विभाजित किया गया है।
3. अनुच्छेद 246: विधायी शक्तियों का विभाजन
- खंड (1): संसद को संघ सूची (Union List) के विषयों पर अकेले कानून बनाने का अधिकार है।
- खंड (2): समवर्ती सूची (Concurrent List) पर संसद और राज्य विधानमंडल दोनों कानून बना सकते हैं।
- खंड (3): राज्य सूची (State List) के विषयों पर केवल राज्य विधानमंडल को कानून बनाने का अधिकार है।
- खंड (4): राज्यक्षेत्र के उन हिस्सों (जैसे केंद्रशासित प्रदेश) पर, जो किसी राज्य का हिस्सा नहीं हैं, संसद को अधिकार है कि वह किसी भी विषय पर कानून बनाए।
1. संघ सूची (Union List):-
इसमें 100 विषय हैं, जिनमें से 6 विषय शिक्षा से संबंधित हैं। इन विषयों पर संसद का अनन्य अधिकार है।
शिक्षा संबंधी प्रविष्टियाँ:
- प्रविष्टि 13: अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और समझौतों में भाग लेना और उनके फैसलों को लागू करना।
- प्रविष्टि 62: राष्ट्रीय महत्व के पुस्तकालय, संग्रहालय, और ऐतिहासिक स्मारक जैसे विक्टोरिया मेमोरियल, भारतीय युद्ध स्मारक।
- प्रविष्टि 63: राष्ट्रीय महत्व के विश्वविद्यालय जैसे काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय।
- प्रविष्टि 64: संसद द्वारा राष्ट्रीय महत्व की घोषित वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा संस्थाएँ।
- प्रविष्टि 65: संघ के अधीन तकनीकी, व्यावसायिक और विशेष प्रशिक्षण संस्थाएँ।
- प्रविष्टि 66: उच्च शिक्षा और अनुसंधान संस्थाओं में मानकों का निर्धारण और समन्वय।
2. राज्य सूची (State List):
इसमें 61 विषय हैं, जिनमें से 2 शिक्षा से संबंधित हैं। इन पर केवल राज्य विधानमंडल कानून बना सकता है।
शिक्षा संबंधी प्रविष्टियाँ:
- प्रविष्टि 12: राज्य द्वारा वित्त पोषित संग्रहालय, पुस्तकालय, प्राचीन इमारतें और ऐतिहासिक रिकॉर्ड।
- प्रविष्टि 14: कृषि शिक्षा और अनुसंधान, कीटों और रोगों से संबंधित निवारक उपाय।
3. समवर्ती सूची (Concurrent List):
इसमें 52 विषय हैं, जिनमें 6 विषय शिक्षा से संबंधित हैं। इन पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं, लेकिन विवाद की स्थिति में केंद्र का कानून लागू होगा।
शिक्षा संबंधी प्रविष्टियाँ:
- प्रविष्टि 10: न्याय और न्यासी।
- प्रविष्टि 20: आर्थिक और सामाजिक योजना।
- प्रविष्टि 25: तकनीकी, आयुर्विज्ञान और व्यावसायिक शिक्षा, और विश्वविद्यालय। (1976 में 42वें संविधान संशोधन से यह राज्य सूची से समवर्ती सूची में लाया गया था)
- प्रविष्टि 26: विधि, चिकित्सा और अन्य पेशे।
- प्रविष्टि 28: धर्मार्थ संस्थाएँ और धार्मिक बंदोबस्त।
- प्रविष्टि 39: समाचारपत्र, पुस्तकें और मुद्रणालय।
पंचायती राज व्यवस्था
गाँधी जी की दृष्टि
महात्मा गाँधी ने औद्योगिक विकास मॉडल पर सवाल उठाते हुए मानवता के कल्याण के लिए विकेंद्रीकरण को महत्वपूर्ण बताया। उनका मानना था कि ग्राम आधारित स्वशासन ही सच्चा लोकतंत्र ला सकता है। गाँधी जी का ग्राम स्वराज का विचार था की प्रत्येक गाँव, जिसकी आबादी लगभग 1000 हो, अपनी सरकार के अधीन स्वायत्त होना चाहिए। उन्होंने इसे सच्चे लोकतंत्र का आधार माना।
गाँधी जी के शब्दों में: "सच्चे लोकतंत्र में सबसे गरीब व्यक्ति भी वही शक्ति महसूस करेगा जो सबसे प्रभावशाली व्यक्ति के पास है।"
1. ग्राम स्वराज और पंचायती राज का विकास
बलवंत राय मेहता समिति (1957): इस समिति ने तीन-स्तरीय पंचायती राज की सिफारिश की:
1. ग्राम पंचायत (गाँव स्तर)
2. पंचायती समिति (ब्लॉक स्तर)
3. जिला परिषद (जिला स्तर)
पंचायतों का गठन अप्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से किया जाना प्रस्तावित हुआ।
2. संविधान और पंचायती राज
- अनुच्छेद 40: राज्य पंचायतों को स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में संगठित करने के लिए कदम उठाएगा।
- 1992 में 73वां संविधान संशोधन: पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा मिला। पंचायतों को जिम्मेदारी और शक्तियाँ दी गईं।
3. विषयों का स्थानांतरण (ग्यारहवीं अनुसूची)
- ग्यारहवीं अनुसूची में राज्य सूची के 29 विषय पंचायती राज संस्थाओं को सौंपे गए। ये विषय मुख्यतः स्थानीय विकास और कल्याण से जुड़े हैं।
- शिक्षा से संबंधित विषय:
1. प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल।
2. तकनीकी, प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा।
3. वयस्क शिक्षा और पुस्तकालय।
4. 73वाँ और 74वाँ संवैधानिक संशोधन
भारत में स्थानीय स्वशासन को मजबूत करने के लिए 73वाँ और 74वाँ संवैधानिक संशोधन लागू किए गए।
- 73वाँ संशोधन (1992): ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायती राज प्रणाली।
- 74वाँ संशोधन (1993): शहरी क्षेत्रों में नगरपालिका प्रणाली।
इन संशोधनों ने संविधान में भाग IX (पंचायत) और भाग IXA (नगरपालिका) जोड़े।
मुख्य विशेषताएँ:
1. पंचायत और नगरपालिका को "स्वशासन की संस्थाएँ" कहा गया। इनका उद्देश्य स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र और विकास को बढ़ावा देना है।
2. लोकतांत्रिक प्रणाली की आधारभूत इकाई:
- ग्रामीण क्षेत्रों में: ग्रामसभा।
- शहरी क्षेत्रों में: वार्ड कमिटी।
- सभी वयस्क नागरिक इनका हिस्सा होंगे और मतदाता के रूप में पंजीकृत होंगे।
3. पंचायतों की त्रिस्तरीय प्रणाली (73वाँ संशोधन)
- ग्राम पंचायत (गाँव स्तर)
- मध्यवर्ती पंचायत (ब्लॉक/तालुक स्तर)
- जिला पंचायत (जिला स्तर)
- 20 लाख से कम जनसंख्या वाले राज्यों में मध्यवर्ती पंचायत की आवश्यकता नहीं है।
4. सीटों का आरक्षण (अनुच्छेद 243D)
- अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित।
- महिलाओं के लिए 1/3 सीटों का आरक्षण।
- यह आरक्षण अध्यक्ष पदों पर भी लागू होगा।
5. चुनाव की समयबद्धता
- पंचायत और नगरपालिका का कार्यकाल: 5 वर्ष।
- विघटन की स्थिति में, 6 माह के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य।
6. स्वतंत्र चुनाव आयोग (अनुच्छेद 243K)
- पंचायत और नगरपालिका चुनावों का संचालन करने के लिए राज्य स्तर पर निर्वाचन आयोग।
7. आर्थिक और सामाजिक विकास की योजना
- पंचायतें और नगरपालिकाएँ ग्यारहवीं अनुसूची में वर्णित विषयों के अनुसार स्थानीय विकास योजनाएँ तैयार करेंगी।
- पंचायतों और नगरपालिकाओं के लिए जिला योजना समिति का गठन।
8. वित्तीय प्रावधान (अनुच्छेद 243H और 243I)
- पंचायतों और नगरपालिकाओं के लिए धनराशि:
- राज्य सरकार का बजट आवंटन।
- राजस्व का हिस्सा।
- केंद्र और राज्य सरकार से अनुदान।
- राज्य वित्त आयोग का गठन
- प्रत्येक राज्य में पंचायतों और नगरपालिकाओं को पर्याप्त वित्तीय संसाधन देने के लिए सिद्धांत तय करना।
5. पंचायती राज की तीन स्तरीय प्रणाली
पंचायती राज भारत में स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था है, जिसमें ग्राम से जिला स्तर तक लोकतांत्रिक तरीके से प्रशासन संचालित किया जाता है। इसमें तीन मुख्य स्तर शामिल हैं:
1. जिला पंचायत (जिला स्तर)
- यह पंचायती राज प्रणाली का शीर्ष स्तर है।
- प्रत्येक ब्लॉक पंचायत से 1-3 सदस्य प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं, और ब्लॉक पंचायत के अध्यक्ष पदेन सदस्य होते हैं।
- इसका मुख्य कार्य पूरे जिले के विकास योजनाओं की निगरानी और राज्य व केंद्र सरकार की योजनाओं का क्रियान्वयन करना है।
2. ब्लॉक पंचायत (ब्लॉक/मंडल स्तर):
- यह मध्य स्तर की इकाई है।
- हर ग्राम पंचायत से 1-3 सदस्य प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं, और ग्राम पंचायत के प्रधान इसके पदेन सदस्य होते हैं।
- इसका कार्यक्षेत्र ब्लॉक के भीतर विकास कार्यों की योजना बनाना, उनका क्रियान्वयन करना और ग्राम पंचायतों के कार्यों की निगरानी करना है।
3. ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर)
- यह स्थानीय स्तर की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है।
- ग्राम पंचायत का गठन गाँव के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों से निर्वाचित सदस्यों के समूह से होता है।
- यह ग्रामीण विकास योजनाओं को लागू करने, जनता की समस्याओं का समाधान करने और मनरेगा जैसी योजनाओं का क्रियान्वयन करने का काम करती है।
4. ग्राम सभा (ग्राम पंचायत की आधारशिला)
- ग्राम सभा का सदस्य हर वयस्क नागरिक (18+ उम्र) होता है।
- इसका कार्य ग्राम पंचायत के कार्यों की निगरानी करना, गाँव के कल्याण के लिए निर्णय लेना और पंचायत के योग्य प्रतिनिधियों का चयन करना है।
स्थानीय प्राधिकरण
स्थानीय प्राधिकरण को आरटीई अधिनियम, 2009 के तहत ऐसे निकायों के रूप में परिभाषित किया गया है जो विद्यालयों पर प्रशासनिक नियंत्रण रखते हैं। इनमें नगर निगम, जिला परिषद, नगर पंचायत, पंचायत आदि शामिल हैं।
आरटीई अधिनियम 2009 के तहत स्थानीय प्राधिकरण के कर्तव्य
- निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा: सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों के माध्यम से सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना। स्कूल की अनुपलब्धता में 3 वर्षों के भीतर नया विद्यालय स्थापित करना।
- भेदभाव का निषेध: कमजोर वर्गों और वंचित समूहों के बच्चों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव रोकना।
- बच्चों का रिकॉर्ड रखना: 0 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों का डेटा संकलित करना। बच्चों के नामांकन, उपस्थिति, और शिक्षा पूर्ण होने की निगरानी करना।
- संसाधन उपलब्ध कराना: स्कूल भवन, शिक्षकों, और शैक्षणिक सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
- विशेष प्रशिक्षण: ऐसे बच्चों को प्रशिक्षण देना, जो उपयुक्त आयु वर्ग की कक्षा में प्रवेश पाने में असमर्थ हैं।
- शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करना: शिक्षकों की संख्या, स्कूल भवन, पुस्तकालय, खेलकूद, और पाठ्यक्रम की गुणवत्ता सुनिश्चित करना। प्राथमिक शिक्षा के लिए समयोचित पाठ्यक्रम लागू करना।
- शिक्षकों का प्रशिक्षण और निगरानी: शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना। शिक्षकों की उपस्थिति और कार्य निष्पादन की निगरानी करना।
- हाशिए के समूहों का समावेश: खानाबदोश जनजातियों और वंचित समूहों के बच्चों का स्कूल में नामांकन सुनिश्चित करना।
- स्कूल प्रबंधक समिति का गठन: इसमें स्थानीय प्रतिनिधि, अभिभावक, संरक्षक, और शिक्षक शामिल होते हैं।इसका कार्य पाठ्यक्रम नीति, संसाधन प्रबंधन, स्कूल बजट, और वार्षिक कैलेंडर बनाना है।
- उपस्थिति की निगरानी: बच्चों की नियमित उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए स्वयंसेवक अधिकारी (अभिवाहक सहयोग) नियुक्त करना।
विशेष जिम्मेदारियाँ
- हाशिए पर स्थित बच्चों के लिए विशेष कार्यक्रम चलाना।
- वयस्क साक्षरता और अनौपचारिक शिक्षा के लिए स्कूल भवनों का उपयोग।
- 200 दिनों से कम कक्षा निर्देश न होने की गारंटी देना।
शासन के तीन अंग और शक्तियों का विभाजन और संतुलन
- भारत का शासन तीन प्रमुख अंगों में विभाजित है: कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका। यह विभाजन सरकार की शक्तियों को संतुलित करने और असंवैधानिक कार्यों से बचाने के लिए किया गया है। इसे "त्रिआस पॉलीटिका" या शक्तियों का पृथक्करण कहा जाता है, जिसका विचार 18वीं शताब्दी के दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने दिया था।
- संविधान में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत विभिन्न अनुच्छेदों के माध्यम से सुनिश्चित किया गया है। अनुच्छेद 50[i] न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का निर्देश देता है।
- अनुच्छेद 121[i] और 211[ii] न्यायाधीशों के आचरण पर विधानसभा में चर्चा को निषिद्ध करते हैं, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है।
- अनुच्छेद 122[i]और 212[v] न्यायपालिका और विधायिका के कार्यक्षेत्रों को स्पष्ट रूप से अलग करते हैं। इसके अलावा, अनुच्छेद 361 के तहत, राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने कर्तव्यों के निर्वहन में अदालत के प्रति उत्तरदायी नहीं होते, जो उनके संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा करता है।
विधायिका
विधायिका वह संस्था है जो कानून बनाने, बजट पर नियंत्रण रखने, और कार्यपालिका पर निगरानी रखने के लिए जिम्मेदार होती है। इसे 'राष्ट्र का दर्पण' और 'सार्वजनिक राय का प्रतिबिंब' भी कहा जाता है। भारत में केंद्रीय विधायिका को संसद कहा जाता है, जिसमें लोकसभा (निचला सदन) और राज्यसभा (उच्च सदन) शामिल हैं।
1. विधायिका के मुख्य कार्य
- राज्य की इच्छा को व्यक्त और सुव्यवस्थित करना: लोकतंत्र में 'राज्य की इच्छा' नागरिकों की राय, इच्छाएँ और सार्वजनिक मुद्दों को दर्शाती है। विधायिका इन इच्छाओं को कानून के रूप में लागू करती है।
- कानूनों का निर्माण: विधायिका सरकार का कानून बनाने वाला अंग है। विधेयक पर चर्चा, बहस और संशोधन के बाद उन्हें पारित किया जाता है। वित्तीय विधेयक केवल निचले सदन (लोकसभा) में पेश किए जा सकते हैं।
- बजट पर नियंत्रण: विधायिका के पास देश की वित्तीय प्रणाली पर नियंत्रण है। बजट को मंजूरी देने या किसी माँग में कटौती करने का अधिकार। लोक लेखा समिति (PAC) और प्राक्कलन समिति खर्च की जाँच करती हैं।
- कार्यपालिका पर नियंत्रण: कार्यपालिका सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत के तहत विधायिका को जवाबदेह है।संसद प्रश्न, पूरक प्रश्न, निंदा प्रस्ताव, और अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से कार्यपालिका की निगरानी करती है।
- न्यायिक कार्य: संविधान के उल्लंघन पर राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग। न्यायाधीशों, उपाध्यक्ष, और मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की शक्ति। सदन के सदस्यों के विशेषाधिकारों पर निर्णय।
- चुनावी कार्य: विधायिका के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं। स्पीकर, उपसभापति, और राज्यसभा के उपसभापति का चुनाव।
- संविधान संशोधन: अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन की शक्ति। कुछ संशोधनों के लिए संसद और राज्यों के अनुमोदन की आवश्यकता। संशोधन संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं कर सकते।
- सार्वजनिक राय का दर्पण: विधायिका अधिकारियों पर नजर रखती है और उन्हें जनहित में कार्य करने के लिए बाध्य करती है।
2. सरकार के अंग के रूप में कार्यपालिका के सामान्य कार्य
कार्यपालिका, राज्य का एक प्रमुख अंग है जो शासन के कार्यों को क्रियान्वित करती है। यह आंतरिक प्रशासन से लेकर बाहरी संबंधों और न्यायिक जिम्मेदारियों तक कई कार्यों का निर्वहन करती है।
1. कार्यपालिका का अर्थ और घटक
कार्यपालिका दो प्रकार के अधिकारियों से मिलकर बनी होती है:
- राजनीतिक कार्यपालिका: जैसे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और मंत्रिमंडल।
- स्थायी कार्यपालिका (नौकरशाही): जो किसी भी सरकार के सत्ता में आने के बावजूद कार्यकाल के दौरान पद पर बनी रहती है।
2. राज्य का आंतरिक और बाह्य प्रशासन
A. आंतरिक प्रशासन:
- कानून-व्यवस्था बनाए रखना।
- वित्तीय प्रबंधन और बुनियादी ढाँचे का विकास।
- शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, ग्रामीण विकास और पर्यावरण संरक्षण।
B. बाहरी प्रशासन:
- रक्षा और अंतरराष्ट्रीय संबंधों का प्रबंधन।
- विदेश नीति का संचालन।
3. विधायी कार्य
- कार्यपालिका प्रत्यायोजित विधायी कार्य करती है, जैसे आदेश, नियम, अध्यादेश और अधिनियम तैयार करना।
- राजनीतिक कार्यपालिका विधायिका को प्रभावित करती है, जैसे विधेयकों को सदन में पेश करना।
- संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के विवरण को कार्यपालिका द्वारा पूरा किया जाता है।
4. वित्तीय कार्य
- कर प्रणाली: कार्यपालिका कर लगाती है, वसूलती है, और सरकारी खर्चों का प्रबंधन करती है।
- बजट निर्माण: कार्यपालिका वार्षिक बजट तैयार करती है और सरकारी विभागों का लेखा-जोखा रखती है।
- अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संबंध: यह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसे संस्थानों से वित्तीय सहायता की व्यवस्था करती है।
5. न्यायिक कार्य
- कार्यपालिका कुछ न्यायिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करती है, जैसे:
- दया का परमाधिकार: राष्ट्रपति को दया याचिका पर सजा माफ करने, कम करने, या बदलने का अधिकार है।
- दोषियों को विशेष परिस्थितियों में क्षमा या दंड में परिवर्तन।
3. सरकार के अंग के रूप में न्यायपालिका के सामान्य कार्य
न्यायपालिका शासन का ऐसा अंग है जो कानून की व्याख्या, विवादों का निपटारा और न्याय प्रदान करने के लिए जिम्मेदार है। इसके दायित्व लगातार विस्तृत होते जा रहे हैं, खासकर कार्यपालिका और विधायिका के साथ अतिव्याप्तता के कारण।
1. न्यायपालिका की भूमिका
- मूलभूत कार्य: कानून के अनुसार विवादों का समाधान। निष्पक्ष और समयबद्ध न्याय प्रदान करना।
- विस्तारित भूमिका: नागरिकों और राज्य, संघीय इकाइयों, और विभिन्न सरकारी विभागों के बीच विवादों का निपटारा। अंतरराष्ट्रीय संबंधों और संवैधानिक मामलों में हस्तक्षेप। राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त, स्वतंत्र न्याय प्रणाली का संचालन।
2. न्यायपालिका और उसका क्षेत्राधिकार
- क्षेत्राधिकार का विस्तार: सिविल और आपराधिक मामलों में न्याय। विशेष न्यायाधिकरण (जैसे मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण) और फोरम की स्थापना। समीक्षा और संशोधन के अधिकार।
- संरचना: निचले स्तर पर मैजिस्ट्रेट और जिला न्यायालय। उच्च स्तर पर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय।
- निर्णय का स्वरूप: न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले को "निर्णय," "आदेश," या "अवार्ड" के रूप में जाना जाता है।
3. न्यायपालिका और कानून की व्याख्या
- कानून की अस्पष्टता: जब कानून अस्पष्ट, असंगत, या अस्फुट हो, न्यायपालिका कानून के उद्देश्य और प्रावधानों की व्याख्या करती है।
- शक्तियों का अतिव्यापन: कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका के कार्यों का पूर्ण पृथक्करण व्यावहारिक नहीं है। इन शाखाओं के बीच सहयोग और संघर्ष का संतुलन लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है।
- परस्पर हस्तक्षेप: सरकार के अंग एक-दूसरे के कार्यों में आवश्यकतानुसार हस्तक्षेप कर सकते हैं। यह हस्तक्षेप प्रणाली को संतुलित और जवाबदेह बनाए रखने में मदद करता है।
3. सरकार के अंग के रूप में विधायिका के सामान्य कार्य
विधायिका का मुख्य कार्य कानून और नीतियों का निर्माण करना है। शिक्षा के क्षेत्र में, विधायिका ने कई महत्वपूर्ण कानून बनाए और संशोधन किए हैं, जो शिक्षा प्रणाली को सशक्त और समावेशी बनाने में सहायक हैं।
1. शिक्षा संबंधी कानून और नीतियों का निर्माण
A. अनुच्छेद 21A (शिक्षा का अधिकार):
- 86वें संवैधानिक संशोधन (2002) के तहत यह अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसने 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE):
- इस अधिनियम ने सुनिश्चित किया कि बच्चों को मुफ्त, अनिवार्य और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले।
B. अन्य कानून और संशोधन:
- विधायिका शिक्षा के क्षेत्र में नए कानूनों और मौजूदा कानूनों में संशोधन के माध्यम से सुधार सुनिश्चित करती है।
2. दो सदनों की भूमिका
A. लोकसभा (निचला सदन):
- नीतियों और विधेयकों पर चर्चा।
- शिक्षा संबंधी बजट पारित करना।
B. राज्यसभा (उच्च सदन):
- विधेयकों की समीक्षा और सुझाव।
- शिक्षा से जुड़े कानूनों को पारित करने में योगदान।
- दोनों सदन मिलकर यह सुनिश्चित करते हैं कि नीतियाँ और कानून जनहित में हों और सही तरीके से लागू किए जाएँ।
3. कार्यपालिका और विधायिका का संबंध
A. कानून बनाना : विधायिका कानून बनाती है, और कार्यपालिका उन कानूनों को लागू करती है।
B. कार्यपालिका का संचालन:
- केंद्र स्तर पर प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल।
- राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल।
- प्रशासनिक स्तर पर सिविल सेवक।
- कार्यपालिका का मुख्य कार्य नीतियों और कानूनों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करना है।
4. विधायिका और कार्यपालिका की अन्योन्याश्रितता
- विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के बिना कार्यपालिका अपने कार्यों को संचालित नहीं कर सकती।
- कार्यपालिका नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन और लक्ष्यों की पूर्ति सुनिश्चित करती है।
4. शिक्षा के क्षेत्र में न्यायपालिका की भूमिका
न्यायपालिका शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, विशेष रूप से कानूनों और नियमों के क्रियान्वयन, विवादों के समाधान, और शिक्षा से जुड़े मौलिक अधिकारों की रक्षा में। न्यायपालिका न केवल न्याय सुनिश्चित करती है, बल्कि शिक्षा को अधिक समावेशी और न्यायसंगत बनाने में योगदान करती है।
1. न्यायपालिका का दायित्व
- नियमों का पालन सुनिश्चित करना: न्यायपालिका उन व्यक्तियों और संस्थानों पर कार्रवाई करती है जो शिक्षा से संबंधित कानूनों और नियमों का उल्लंघन करते हैं। यह सभी वर्गों के लिए शिक्षा की समानता सुनिश्चित करती है।
- निष्पक्ष और स्वतंत्र न्याय: न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका से स्वतंत्र रहकर न्याय प्रदान करती है शिक्षा से जुड़े विवादों को समयबद्ध और निष्पक्ष तरीके से सुलझाती है।
2. शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक न्यायिक फैसले
- मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य: शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई।
- उन्नी कृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य: अनुच्छेद 21-A (शिक्षा का अधिकार) को संविधान में शामिल करने का मार्ग प्रशस्त किया।
- टीएमए पाई बनाम कर्नाटक राज्य: अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के अधिकार सुनिश्चित किए।
- पीए इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य: निजी और अल्पसंख्यक स्कूलों के स्वायत्तता अधिकारों को परिभाषित किया।
3. आरटीई अधिनियम (शिक्षा का अधिकार अधिनियम) और न्यायपालिका
- न्यायपालिका ने आरटीई अधिनियम के तहत शिक्षा के अधिकार को लागू करने में बड़ी भूमिका निभाई है।
- स्कूल में प्रवेश से इनकार: न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि स्कूल किसी भी बच्चे को शिक्षा से वंचित नहीं कर सकते।
- आयु सीमा और स्क्रीनिंग टेस्ट: आयु सीमा के आधार पर भेदभाव और प्रवेश के लिए स्क्रीनिंग टेस्ट पर प्रतिबंध।
- धारा 12(1)(सी) का क्रियान्वयन: कमजोर वर्गों और वंचित समूहों के लिए 25% सीट आरक्षण न्यायपालिका ने राज्य सरकारों को निजी स्कूलों को प्रतिपूर्ति में देरी के लिए निर्देश दिए।
- अल्पसंख्यक संस्थानों पर आरटीई अधिनियम की प्रयोज्यता: अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीई अधिनियम के तहत लाने की चर्चा पर निर्णय।
- बुनियादी ढाँचा और सुविधाएँ: स्कूलों में आवश्यक बुनियादी ढाँचे और योग्य शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के आदेश।
4. शिक्षा से जुड़े विवाद और समाधान
- निजी स्कूलों द्वारा फीस और अनुदान: न्यायपालिका ने निजी स्कूलों द्वारा अनावश्यक शुल्क लेने पर सख्त कार्रवाई की।
- पड़ोस के स्कूल की परिभाषा: ‘पड़ोस’ की अस्पष्टता को लेकर स्पष्ट निर्देश।
- शारीरिक दंड और छात्र-शिक्षक अनुपात: इन मुद्दों पर समय-समय पर दिशा-निर्देश।
न्यायिक सक्रियता और शिक्षा में इसका प्रभाव
न्यायिक सक्रियता का उद्देश्य समाज के वंचित और हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए न्याय सुनिश्चित करना है। जनहित याचिकाओं (पीआईएल) के माध्यम से न्यायपालिका ने शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी सक्रियता दिखाते हुए आरटीई (शिक्षा का अधिकार) अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
1. न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका (पीआईएल)
1. पीआईएल का उद्देश्य:
- हाशिए के लोगों के लिए न्याय सुनिश्चित करना।
- राज्य और कार्यपालिका की विफलताओं की पूर्ति।
2. शिक्षा क्षेत्र में न्यायिक सक्रियता के उदाहरण:
- राष्ट्रीय गठबंधन बनाम भारत सरकार (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने आरटीई अधिनियम के कमजोर क्रियान्वयन और स्कूलों से वंचित 3.77 करोड़ बच्चों के मुद्दे पर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से रिपोर्ट मांगी।
- रजनीश कुमार पांडे बनाम भारत संघ (2016): विशेष शिक्षकों की कमी पर उत्तर प्रदेश सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम निर्देश जारी किए।
3. आरटीई अधिनियम और न्यायपालिका की भूमिका
- सुधारात्मक आदेश: न्यायालयों ने आरटीई अधिनियम के तहत शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए सुधारात्मक आदेश दिए हैं।
2. प्रमुख मुद्दे:
- स्कूल में प्रवेश से इनकार।
- कमजोर वर्गों के लिए 25% सीट आरक्षण।
- आवश्यक बुनियादी ढाँचे और शिक्षकों की कमी।
- निजी स्कूलों की शुल्क नीतियों और स्वायत्तता पर निगरानी।
3. न्यायपालिका का योगदान
- आरटीई अधिनियम की कमियों को सुधारने के लिए कदम उठाना।
- सरकारों को जवाबदेह बनाना।
- बच्चों और माता-पिता के अधिकारों को सुनिश्चित करना।
- शिक्षा प्रणाली में न्यायिक सक्रियता का महत्त्व
4. जवाबदेही:
- न्यायपालिका सरकारों और कार्यपालिका को उनकी जिम्मेदारियों के प्रति उत्तरदायी बनाती है।
5. सुधार और कार्यान्वयन:
- शिक्षा से जुड़े कानूनों और नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन में सहयोग।
6. समावेशिता: