समकालीन भारत में शिक्षा UNIT 3 SEMESTER 1 THEORY NOTES शिक्षा और मानव विकास Education DU. SOL.DU NEP COURSES

समकालीन भारत में शिक्षा UNIT 3 SAMESTER 1 THEORY NOTES शिक्षा और मानव विकास Education DU. SOL.DU NEP COURSES


शिक्षा समाज और सभ्यता के विकास की आधारशिला है। कार्ल रोजर्स ने कहा है, "केवल वही व्यक्ति शिक्षित है जो सीखना और बदलना सीखता है।" शिक्षा न केवल व्यक्तिगत क्षमताओं को विकसित करती है, बल्कि विश्वास, मूल्य और विचारधारा का निर्माण कर समाज में सम्मानजनक जीवन जीने में मदद करती है। यह अपराध, गरीबी कम करने और आर्थिक स्थिरता लाने में सहायक होती है। महिलाओं और लड़कियों की शिक्षा का प्रभाव दीर्घकालिक और व्यापक है। यूनिसेफ के अनुसार, किसी भी लड़की को शिक्षा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। शिक्षित महिलाएँ परिवारों में बेहतर स्वास्थ्य, कम मृत्यु दर और बच्चों की शिक्षा पर अधिक ध्यान देती हैं। यह आर्थिक विकास को गति देने और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में सहायक है।लड़कियों की शिक्षा से अगली पीढ़ी को बेहतर अवसर, स्वास्थ्य और समृद्धि मिलती है। यह एक सशक्त समाज और मजबूत परिवारों का निर्माण करती है, जिससे समग्र विकास सुनिश्चित होता है।

मानव विकास: उद्देश्य और महत्व

मानव विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जो लोगों की क्षमता, विकल्पों और जीवन स्तर को सुधारने पर केंद्रित है। यह केवल आर्थिक वृद्धि तक सीमित नहीं है, बल्कि जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और शारीरिक पहलुओं का भी समावेश करता है।

पॉल स्ट्रीट की मानव विकास के पक्ष में तर्क:-

  • लक्ष्य: मानव विकास का उद्देश्य लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार और उनकी पसंद को बढ़ावा देना है।
  • उत्पादकता: शिक्षित और स्वस्थ श्रमिक समाज की सबसे बड़ी संपत्ति होते हैं।
  • जनसंख्या नियंत्रण: बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करते हैं।
  • सतत विकास: गरीबी में कमी से पर्यावरणीय समस्याएँ जैसे वनों की कटाई और मिट्टी क्षरण कम होते हैं।
  • सामाजिक स्थिरता: गरीबी में कमी और बेहतर जीवन स्तर सामाजिक स्थिरता को प्रोत्साहित करते हैं।
  • राजनीतिक स्थिरता: बेहतर जीवन यापन से राजनीतिक अशांति कम होती है।


मानव विकास रिपोर्ट और सूचकांक :-

1990 में प्रो. अमर्त्य सेन और महबूब अल हक ने मानव विकास सूचकांक (HDI) का विचार प्रस्तुत किया। इसे संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) हर साल मानव विकास रिपोर्ट (HDR) के रूप में प्रकाशित करता है।

1. HDI के घटक

  • स्वास्थ्य: जीवन प्रत्याशा।
  • शिक्षा: साक्षरता दर और नामांकन अनुपात।
  • आय: प्रति व्यक्ति आय (PPP)।

2. अन्य सूचकांक

  • मानव गरीबी सूचकांक (HPI-1): विकासशील देशों के लिए।
  • लिंग-संबंधित विकास सूचकांक (GDI): पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानताओं को दर्शाने के लिए।
  • लिंग सशक्तिकरण माप (GEM): निर्णय लेने और आर्थिक भागीदारी में महिलाओं की स्थिति।

3. भारत और मानव विकास

  • भारत में मानव विकास की स्थिति 2018 में 0.647 के HDI (मानव विकास सूचकांक) के साथ मध्यम स्तर पर थी। हालांकि, भारत को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे कम साक्षरता दर, स्वास्थ्य सेवाओं में असमानता, गरीबी, बेरोजगारी और लिंग आधारित भेदभाव। इन समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य पर अधिक निवेश करना, लिंग असमानता को कम करना और गरीबी उन्मूलन को प्राथमिकता देना आवश्यक है। यह न केवल मानव विकास को तेज़ी से आगे बढ़ाने में मदद करेगा, बल्कि समाज में समानता और समृद्धि को भी बढ़ावा देगा।

4. लैंगिक असमानता और मानव विकास

  • लैंगिक असमानता मानव विकास के लिए एक गंभीर बाधा है, जो लड़कियों और लड़कों के बीच भेदभाव, समाजीकरण और सांस्कृतिक धारणाओं से उत्पन्न होती है। इसका प्रभाव महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक अवसरों में सीमित कर देता है, जिससे समाज और देश की प्रगति धीमी हो जाती है। इस समस्या के समाधान के लिए महिलाओं की शिक्षा और रोजगार में भागीदारी बढ़ाना, धर्म और संस्कृति में महिलाओं के प्रति भेदभाव समाप्त करना, और लैंगिक असमानता के खिलाफ जागरूकता व सशक्तिकरण कार्यक्रम चलाना जरूरी है। यह प्रयास मानव विकास में तेजी लाने और एक समान समाज की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होंगे।


समाज में लिंग संकेतकों की स्थिति

  • लिंगानुपात: प्रत्येक 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या को दर्शाता है, जो आदर्श रूप से बराबर होना चाहिए। हालांकि, भारत में लिंगानुपात चिंताजनक रूप से कम है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, बालिका भ्रूण हत्या और महिलाओं की उच्च मृत्यु दर के कारण भारत में लगभग 50 मिलियन लड़कियाँ गायब हैं। इसके अलावा, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में भी लिंगानुपात में अंतर है, जहां शहरी क्षेत्रों में यह गिरावट अधिक देखने को मिलती है। यह असमानता समाज में लैंगिक भेदभाव की गहरी जड़ें और सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
  • शिक्षा: महिलाओं के आत्मसम्मान, स्वास्थ्य और आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालांकि, शिक्षा के क्षेत्र में भारत में लिंग आधारित असमानता अभी भी एक बड़ी चुनौती है। 2000 के आंकड़ों के अनुसार, पुरुषों की साक्षरता दर 69% है, जबकि महिलाओं की केवल 46.4% थी। इसके अतिरिक्त, लगभग 245 मिलियन महिलाएँ पढ़ने-लिखने में असमर्थ हैं, और विभिन्न स्तरों पर लड़कियों की ड्रॉपआउट दर उच्च बनी हुई है। यह असमानता महिलाओं को शिक्षा और अवसरों से वंचित कर समाज की प्रगति में बाधा उत्पन्न करती है।
  • स्वास्थ्य: हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, लेकिन भारत में महिलाओं और लड़कियों को स्वास्थ्य के क्षेत्र में गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लड़कियाँ पोषण की कमी, एनीमिया और कम वजन जैसी समस्याओं से अधिक प्रभावित होती हैं। औसतन, महिलाओं का दैनिक पोषण केवल 1400 कैलोरी है, जबकि उन्हें 2200 कैलोरी की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, बाल विवाह और प्रारंभिक गर्भावस्था के कारण महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति और अधिक खराब हो जाती है। यह समस्या विशेष रूप से बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में अधिक प्रचलित है। इन स्थितियों को सुधारने के लिए पोषण, स्वास्थ्य सेवाओं और जागरूकता कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है।
  • कार्यबल में भागीदारी: समाज में महिलाओं और पुरुषों की शक्ति, धन और प्रतिष्ठा को दर्शाती है। हालांकि, भारत में महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी घटती जा रही है। इसके साथ ही, पुरुषों और महिलाओं की आय में बड़ा अंतर है, जिससे आर्थिक असमानता बनी रहती है। संपत्ति पर महिलाओं का सीमित नियंत्रण भी उनकी आर्थिक स्वतंत्रता को बाधित करता है। इन समस्याओं को हल करने के लिए कार्यस्थलों पर समानता सुनिश्चित करना, महिलाओं को अधिक अवसर प्रदान करना, और उनकी आय और संपत्ति अधिकारों को बढ़ावा देना आवश्यक है।
  • अत्याचार और अपराध: महिलाओं के खिलाफ समाज की गंभीर चुनौतियाँ हैं, जिनमें कन्या भ्रूण हत्या, बाल यौन शोषण, दहेज हत्या, एसिड अटैक, मानव तस्करी और घरेलू हिंसा जैसे प्रमुख अपराध शामिल हैं। ये अपराध न केवल महिलाओं के जीवन और अधिकारों को प्रभावित करते हैं, बल्कि सभ्य समाज के मानदंडों को भी चुनौती देते हैं। महिलाओं के प्रति इन अपराधों को रोकने और एक सुरक्षित वातावरण बनाने के लिए कड़े कानूनों के साथ-साथ समाज में जागरूकता और समानता की दिशा में प्रयास करना अत्यंत आवश्यक है।


कक्षा में लैंगिक भेदभाव 

  • कक्षा में लैंगिक भेदभाव शिक्षा प्रणाली में एक गंभीर चुनौती है, जहाँ शिक्षक, पाठ्यक्रम और स्कूल असमानता को बढ़ावा देते हैं। अक्सर शिक्षक बालकों को अधिक सराहना और सहायता प्रदान करते हैं, जबकि बालिकाओं की जरूरतों को नजरअंदाज किया जाता है। यह भेदभाव बच्चों के सीखने और विकास में बाधा डालता है और समाज की प्रगति को धीमा करता है, क्योंकि यह आधी आबादी को अवसरों से वंचित करता है।
  • लैंगिक समानता केवल मानव अधिकार नहीं, बल्कि मानव विकास और आर्थिक वृद्धि के लिए केंद्रीय भूमिका निभाती है। यह पुरुषों और महिलाओं दोनों को दमन और रूढ़ियों से मुक्त करती है। शिक्षा प्रणाली में लैंगिक संवेदनशीलता और ज्ञान लाना आवश्यक है, जहाँ शिक्षक सामाजिक परिवर्तन और लैंगिक समानता के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
  • समुदाय, परिवार और सामाजिक संरचनाओं में पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग भूमिकाएँ लैंगिक असमानता को बढ़ाती हैं। सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने और सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य को पूरा करने के लिए लड़कियों और लड़कों दोनों को समान अवसर प्रदान करना जरूरी है। यह केवल समाज के लिए नहीं, बल्कि मानवता के समग्र विकास के लिए भी अनिवार्य है।


शिक्षा के विभिन्न स्तरों को प्रभावित करने वाले कारक

1. प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा (ECCE)

  • प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा (ECCE) 6 से 8 वर्ष की आयु के बच्चों के मस्तिष्क और व्यक्तित्व विकास की नींव रखती है। इस अवधि में प्रभावी शिक्षा का अभाव बच्चों के विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
  •  हाशिए पर रहने वाले बच्चों को शिक्षा का लाभ नहीं मिल पाता है, जबकि संरचित स्कूलों में खेल और रचनात्मक गतिविधियों की कमी बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को बाधित करती है। इसके अलावा, व्यावसायीकरण और अनुचित शिक्षण प्रथाएँ बच्चों की रचनात्मकता और विकास को सीमित करती हैं। 
  • इन समस्याओं के समाधान के लिए गुणवत्तापूर्ण ECCE कार्यक्रम लागू करना, RTE अधिनियम के तहत 3-6 वर्ष के बच्चों को शामिल करना, और बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम व दिशानिर्देश तैयार करना आवश्यक है। इससे बच्चों के बौद्धिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास को बढ़ावा मिलेगा।

2. प्राथमिक शिक्षा (6-14 वर्ष)

  • प्राथमिक शिक्षा बच्चों के बुनियादी कौशल, रचनात्मकता और समझ के विकास का महत्वपूर्ण चरण है। हालांकि, इस स्तर पर कई समस्याएँ मौजूद हैं। स्कूलों की दूरियाँ, स्वच्छता और पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी बालिकाओं के स्कूल जाने में एक बड़ी बाधा है।
  •  इसके अलावा, वर्तमान पाठ्यक्रम परिणाम-उन्मुख और रट्टा आधारित है, जिससे अवधारणात्मक ज्ञान का अभाव रहता है। बच्चों को रुचि और योजना बनाने की स्वायत्तता नहीं मिलती, जिससे उनकी रचनात्मकता बाधित होती है।
  • इन समस्याओं को दूर करने के लिए प्रक्रिया-उन्मुख पाठ्यक्रम लागू करना और व्यावहारिक जीवन कौशल को प्रोत्साहित करना आवश्यक है। इससे बच्चों के समग्र विकास को बढ़ावा मिलेगा और शिक्षा अधिक प्रभावी और उपयोगी बनेगी।

3. माध्यमिक विद्यालय

  • माध्यमिक विद्यालय का स्तर बच्चों के लिए पहचान बनाने और तार्किक सोच विकसित करने का समय होता है। हालांकि, इस स्तर पर बोर्ड परीक्षा का अत्यधिक दबाव और सह-पाठ्यचर्या गतिविधियों की अनदेखी बच्चों की शिक्षा को सीमित कर देती है। 
  • गणित और अंग्रेज़ी जैसे विषयों में अधिक विफलता, और व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की खराब गुणवत्ता भी बड़ी चुनौतियाँ हैं। इन समस्याओं को हल करने के लिए बेहतर पाठ्यक्रम तैयार करना, गुणवत्तापूर्ण व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करना, और पास-फेल नीति की समीक्षा आवश्यक है।

4. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय

  • यह स्तर छात्रों के भविष्य निर्धारण और पाठ्यक्रम चयन का समय होता है। हालांकि, इस स्तर पर शैक्षणिक विषयों को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि व्यावसायिक विषयों की अनदेखी होती है। 
  • साथ ही, प्रोजेक्ट और प्रैक्टिकल कार्यों के लिए समय की कमी छात्रों के व्यावहारिक कौशल को प्रभावित करती है। इन समस्याओं का समाधान व्यावसायिक और शैक्षणिक विषयों में संतुलन लाकर और प्रोजेक्ट व प्रैक्टिकल कार्यों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर किया जा सकता है।

5. उच्च शिक्षा

  • स्वतंत्रता के बाद से भारत में विश्वविद्यालयों की संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन उच्च शिक्षा के स्तर पर कई समस्याएँ बनी हुई हैं। नामांकन दर में क्षेत्रीय और सामाजिक असमानता प्रमुख चुनौतियाँ हैं।
  •  इसके अलावा, शिक्षा की गुणवत्ता का अभाव और शिक्षकों का सतत व्यावसायिक विकास न होना समस्या को और जटिल बनाता है। निजीकरण के कारण शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आई है, और मांग-आपूर्ति के बीच बड़ा अंतर है।
  • इन समस्याओं का समाधान समावेशी नीतियों, शिक्षकों के व्यावसायिक विकास, और गुणवत्ता सुनिश्चित करने वाले सख्त मानकों के माध्यम से किया जा सकता है।


शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE), 2009

शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009, भारत सरकार का एक ऐतिहासिक कदम है, जो 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है। यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 21A के तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाता है। इसे 1 अप्रैल 2010 से पूरे देश में लागू किया गया।

1. मुख्य विशेषताएँ:-

  • शिक्षा का अधिकार: 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाएगी। यह प्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार है।
  • सामाजिक समावेशन: निजी स्कूलों में वंचित वर्गों (SC/ST, सामाजिक रूप से पिछड़ा वर्ग, दिव्यांग) के लिए 25% आरक्षण। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार, सभी स्कूल (सरकारी और निजी) को यह सुनिश्चित करना होगा।
  • गैर-भर्ती बच्चों का प्रावधान: आयु-उपयुक्त कक्षा में दाखिला। विशेष प्रशिक्षण के माध्यम से बच्चों को अन्य छात्रों के बराबर लाने की व्यवस्था।
  • कैपिटेशन शुल्क और स्क्रीनिंग पर रोक: कोई भी स्कूल प्रवेश के लिए डोनेशन या कैपिटेशन फीस नहीं ले सकता। स्क्रीनिंग प्रक्रिया (इंटरव्यू, टेस्ट) का उपयोग नहीं किया जाएगा।
  • शिक्षकों के लिए मानदंड: प्राथमिक स्तर पर हर 60 छात्रों के लिए दो प्रशिक्षित शिक्षक। शिक्षकों को 5 वर्षों के भीतर प्रासंगिक योग्यता प्राप्त करनी होगी, अन्यथा उनकी नौकरी समाप्त हो जाएगी।
  • शारीरिक और मानसिक सजा पर रोक: बच्चों को भय, आघात, और चिंता से मुक्त रखने के लिए बाल-सुलभ शिक्षा। शारीरिक और मानसिक दंड पूरी तरह प्रतिबंधित।
  • स्कूलों के बुनियादी ढाँचे में सुधार: बुनियादी सुविधाओं जैसे शौचालय, पेयजल, पुस्तकालय, और खेल मैदान को अनिवार्य बनाया गया। तीन वर्षों के भीतर आवश्यक सुधार न होने पर स्कूल की मान्यता रद्द कर दी जाएगी।
  • सामुदायिक भागीदारी: स्कूल प्रबंधन समितियों (SMC) का गठन, जिसमें स्थानीय अधिकारी, शिक्षक, और अभिभावक शामिल होंगे। 50% सदस्य महिलाएँ और वंचित वर्गों के अभिभावक होंगे।
  • शिक्षकों के गैर-शैक्षणिक कार्यों पर रोक: जनगणना, चुनाव, और आपदा राहत जैसे कार्यों के अलावा शिक्षकों को अन्य किसी कार्य में शामिल नहीं किया जाएगा।
  • विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का समावेश: दिव्यांग बच्चों के लिए बाधा रहित और समावेशी शिक्षा।

2. समागम शिक्षा अभियान (Samagra Shiksha Abhiyan)

शिक्षा के अधिकार अधिनियम को प्रभावी बनाने के लिए सरकार ने समग्र शिक्षा अभियान के तहत तीन योजनाओं को एकीकृत किया:-

  • 1. सर्व शिक्षा अभियान (SSA): प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए।
  • 2. राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA): माध्यमिक शिक्षा के विस्तार के लिए।
  • 3. शिक्षक शिक्षा पर केंद्र प्रायोजित योजना (CSSTE): शिक्षकों के प्रशिक्षण और विकास के लिए।


शिक्षा का अधिकार (आर.टी.ई) अधिनियम की आवश्यकता

1. महत्त्व

  • शिक्षा व्यक्ति को सोचने, प्रश्न करने और जिज्ञासा को संतुष्ट करने का अवसर देती है।
  • यह व्यावहारिक और तार्किक निर्णय लेने की क्षमता विकसित करती है।
  • शिक्षा के अभाव में व्यक्ति दूसरों पर निर्भर रहता है, विशेषकर जीवन और वित्तीय मामलों में।

2. कारण

  • देश की बड़ी आबादी शिक्षा से वंचित है।
  • सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बाधाएँ शिक्षा तक पहुँचने में रुकावट बनती हैं।
  • स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव (पानी, सफाई, स्वास्थ्य देखभाल, उचित भवन)।
  • निजी स्कूलों की उच्च फीस और दान के कारण शिक्षा पहुँच से बाहर है।
  • लैंगिक असमानता, विशेषकर पितृसत्तात्मक समाज में।
  • माता-पिता बालिकाओं को दूर के स्कूलों में भेजने से डरते हैं।
  • बालिकाओं को शिक्षित करना बोझ समझा जाता है।
  • कई स्कूल सत्र के दौरान प्रवेश देने से इनकार करते हैं।

3. आर.टी.ई. अधिनियम के लाभ

  • शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाकर इसे सभी के लिए अनिवार्य किया गया।
  • सरकार और स्थानीय अधिकारियों को स्कूल उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी दी गई।
  • शिक्षकों, पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण के मानकों को तय करने की योजना।
  • अगले पाँच वर्षों में दस लाख से अधिक नए शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य।
  • शैक्षिक और सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद।
  • सभी बच्चों तक शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करना।




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