दिल्ली सल्तनत की स्थापना ने उत्तरी भारत की राजनीतिक संरचना को बदलने के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण बदलाव किए। कर संग्रह, व्यापार, शिल्प उत्पादन और शहरीकरण में वृद्धि हुई। इतिहासकार डी.डी. कोसंबी इसे भारतीय सामंतवाद का विस्तार मानते हैं, जबकि मोहम्मद हबीब इसे 'शहरी क्रांति' कहते हैं, जो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक बदलाव लेकर आई। दिल्ली इस्लामी दुनिया के प्रमुख शहरों में से एक बनकर उभरा, जहाँ सुल्तानों ने महलों, बागों और नई राजधानियों का निर्माण किया। शहरीकरण ने कस्बों की संख्या, शिल्प उत्पादन और वाणिज्य को बढ़ावा दिया, जिससे दिल्ली एक बहु-आयामी सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र बन गई।
दिल्ली सुल्तानों के अधीन कृषि उत्पादन
भारत में कृषि हमेशा से एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि रही है। दिल्ली सल्तनत के दौरान, प्रचुर मात्रा में भूमि उपलब्ध थी, और कृषि व्यापक पैमाने पर की जाती थी। इस अवधि में किसानों ने खरीफ और रबी मौसमों के आधार पर विभिन्न प्रकार की फसलें उगाईं, जो कृषि उत्पादन का मुख्य आधार थीं। सल्तनत के शासन में कृषि उत्पादन की महत्ता स्पष्ट थी, क्योंकि यह न केवल आर्थिक समृद्धि का स्रोत था, बल्कि कर संग्रह और ग्रामीण जीवन का प्रमुख आधार भी था।
1. फसलों का वर्गीकरण और उत्पादन
गौरी की विजय और दिल्ली सल्तनत की स्थापना ने भारत की राजनीतिक और आर्थिक संरचना में बड़े बदलाव किए। कर संग्रह, सिक्के प्रणाली, व्यापार और शहरीकरण से जुड़े सुधारों ने आर्थिक परिवर्तन लाए। शहरी केंद्रों में शिल्पकारों और व्यापार के विस्तार से सामाजिक बदलाव स्पष्ट हुए। इतिहासकारों में मतभेद हैं कि ये बदलाव कितने गहरे थे। मोहम्मद हबीब इसे 'शहरी क्रांति' मानते हैं, जिसमें कस्बों, शिल्प उत्पादन, और वाणिज्य का तेज विकास शामिल था। दिल्ली इस्लामिक दुनिया के सबसे बड़े शहरों में से एक बन गया, जिसमें सुल्तानों द्वारा कई शहरों और राजधानियों का निर्माण किया गया, जैसे कुतुब दिल्ली, सिरी, तुगलकाबाद और फिरोजाबाद। यह शहरीकरण सल्तनत की महत्वपूर्ण विशेषता थी।
- दिल्ली सल्तनत के दौरान कृषि उत्पादन में दोहरी फसल प्रणाली अपनाई गई थी, जिसमें एक ही भूमि पर खरीफ और रबी दोनों फसलें उगाई जाती थीं।
- इब्न बतूता ने उल्लेख किया है कि खरीफ फसलों में कुजरू, कल, बाजरा, सावन, मूंग, लोबिया, मोठ जैसी दालें, तिल, गन्ना और चावल शामिल थे। चावल को साल में तीन बार बोने का भी जिक्र मिलता है। रबी फसलों में गेहूँ, जौ, चना और मसूर प्रमुख थीं।
- अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में कृषि को और विस्तार मिला। मिंट मास्टर ठाकुर फेरू ने 25 प्रमुख फसलों की सूची दी, जिनमें गेहूँ, जौ, धान, बाजरा, गन्ना, कपास, तिलहन, अलसी और मौसमी फसलें शामिल थीं। ये विविध फसलें सल्तनत के कृषि उत्पादन का मुख्य आधार थीं और अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करती थीं।
2.फलों का उत्पादन और खेती का प्रोत्साहन
दिल्ली सल्तनत के दौरान फलों की खेती भी प्रचलित थी, जिनमें आम और अंगूर प्रमुख थे। मुहम्मद बिन तुगलक ने अंगूर की खेती को प्रोत्साहित किया और किसानों को इसके लिए प्रेरित किया। इसके बाद, फिरोज शाह तुगलक ने फलों की खेती को और अधिक बढ़ावा दिया। उन्होंने अंगूर की सात किस्मों को उगाने के लिए दिल्ली के आसपास 1,200 बागों की स्थापना की। यह पहल न केवल कृषि विविधता को दर्शाती है, बल्कि शाही संरक्षण के तहत बागवानी को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण भी है।
3. सिंचाई के साधन और नहर प्रणाली
दिल्ली सल्तनत के दौरान सिंचाई के लिए कुएँ और नहरें प्रमुख स्रोत थे। मुहम्मद बिन तुगलक ने किसानों को कुएँ खोदने के लिए ऋण प्रदान किया, जिससे सिंचाई के साधन विकसित हुए। गयासुद्दीन तुगलक और फिरोज शाह तुगलक ने नहर निर्माण पर विशेष ध्यान दिया। फिरोज शाह ने यमुना नदी से रजब-वाह और उलुगखानी नामक नहरों का निर्माण कर उन्हें हिसार तक पहुँचाया। उन्होंने काली नदी, सतलुज और घग्घर से भी नहरें कटवाकर सिंचाई को व्यवस्थित किया। इस नहर प्रणाली ने कृषि उत्पादन को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
4. मवेशी और परिवहन
दिल्ली सल्तनत के दौरान बंजर भूमि और जंगलों की प्रचुरता के कारण मवेशियों के लिए पर्याप्त चारागाह उपलब्ध थे। मवेशियों ने कृषि और परिवहन में अहम भूमिका निभाई। बैलगाड़ियों का उपयोग अनाज और अन्य वस्तुओं के परिवहन के लिए किया जाता था। मवेशियों की बड़ी संख्या ने न केवल कृषि उत्पादन में सहायता की, बल्कि परिवहन प्रणाली को भी मजबूत किया।
A . दिल्ली सुल्तानों की कृषि नीतियाँ
1. खराज और मावस का वर्गीकरण
- खराज: खराज उन क्षेत्रों को कहा जाता था, जहाँ से सुल्तान के खजाने के लिए नियमित राजस्व एकत्र किया जाता था।
- मावस: मावस वे क्षेत्र थे, जिन्होंने खराज का भुगतान करने से इनकार कर दिया था।ऐसे क्षेत्रों पर नियंत्रण के लिए लूट और कर वसूली के अभियान चलाए जाते थे।
2. अलाउद्दीन खिलजी की कृषि नीतियाँ
- भूमि माप और राजस्व प्रणाली: अलाउद्दीन खिलजी ने भूमि की माप (जमीन का आकलन) की प्रणाली शुरू की।प्रति बिस्वा उपज को आधार मानकर उत्पादकता का आकलन किया गया। राज्य का हिस्सा भूमि की उपज का 50% तय किया गया।
- करों का निर्धारण: खराज (भूमि कर), घरई (हाउस टैक्स), और चराई (चराई कर) लगाए गए। दोआब क्षेत्र को खालिसा में शामिल कर, यहाँ से प्राप्त कर का उपयोग सैनिकों के नकद वेतन के लिए किया गया।
3. गयासुद्दीन तुगलक की नीतियाँ
- रियायतें और सुधार: गयासुद्दीन तुगलक ने फसल बंटवारे की प्रणाली लागू की, जिससे किसानों को राहत मिली।खुतों और मुकद्दमों को खेती और मवेशियों पर करों से छूट दी गई। बोई गई भूमि पर अतिरिक्त उपकर हटा दिए गए, जिससे किसानों का आर्थिक बोझ कम हुआ।
4. मुहम्मद बिन तुगलक की नीतियाँ
- सख्त कर प्रणाली: सुल्तान ने खराज, घरई, चराई जैसे प्रमुख करों का सख्ती से मूल्यांकन और संग्रह किया।किसानों पर अतिरिक्त कर (अबवाब) लगाए गए।
- कृषि विद्रोह: दोआब क्षेत्र और अन्य हिस्सों में कठोर कराधान के कारण कृषि विद्रोह हुए।खेती का संकुचन हुआ, और भू-राजस्व में गिरावट आई।
- किसानों के लिए ऋण योजना: संकट से उबरने के लिए किसानों को सोनधार (कर्ज) दिया गया।दीवान-ए-अमीर-कोही नामक विभाग स्थापित किया गया, जिसका उद्देश्य खेती का विस्तार और फसल उत्पादन में सुधार करना था। ये उपाय अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाए।
5. फिरोज शाह तुगलक की नीतियाँ
- रियायतें और करों में सुधार: फिरोज शाह ने कठोर कर प्रणाली को समाप्त किया।घरई और चराई करों को हटा दिया गया।किसानों पर जजिया लगाया गया।
- सिंचाई परियोजनाएँ और कर: नहर परियोजनाओं से प्रभावित गाँवों पर हक-ए-शरब (पानी का कर) लगाया गया। सिंचाई और जल प्रबंधन के लिए नई नहरें बनाई गईं।
B. दिल्ली सुल्तानों के अधीन ग्रामीण अभिजात वर्ग
दिल्ली सल्तनत के शासनकाल में ग्रामीण अभिजात वर्ग की संरचना समय के साथ बदलती रही। आरंभिक सुल्तानों ने रईस, राणा, और उनके सैन्य कमांडरों को रावत कहा, जो पुराने सामंती पदानुक्रम के हिस्से थे। इन रईसों और राणाओं से कर वसूलने की अपेक्षा की जाती थी, और उन पर नजराना लगाने की परंपरा थी।
1. ग्रामीण सामाजिक ढांचा
- किसान और भूमि: खेती व्यक्तिगत किसानों द्वारा की जाती थी।भूमि का आकार छोटे भूखंडों (बलहारों द्वारा) से लेकर बड़े जोतों (खुतों या मुखियाओं द्वारा) तक भिन्न था।
- भूस्वामी बिचौलिये: खुत्स, मुकद्दम, और चौधरी कृषि और आर्थिक संबंधों में बिचौलियों की भूमिका निभाते थे।वे कर वसूलते और राज्य के लिए राजस्व का प्रबंध करते थे।
2. प्रमुख नीतिगत बदलाव
- अलाउद्दीन खिलजी: बिचौलियों (खुत्स, मुकद्दम) के विशेषाधिकार समाप्त किए।उन्हें करों का भुगतान करने के लिए बाध्य किया और कर संग्रह राज्य के अधिकारियों को सौंप दिया।खुत्स और मुकद्दमों द्वारा वसूले जाने वाले खोती शुल्क (उपज का ग्यारहवां हिस्सा) को समाप्त कर दिया।
- गियासुद्दीन तुगलक: खुत्स और मुकद्दमों को किसानों पर अतिरिक्त कर लगाने से रोका।उन्हें अपनी खेती और मवेशियों पर कर चुकाने से छूट दी।इन उपायों से बिचौलियों की शक्ति में वृद्धि हुई।
- मुहम्मद बिन तुगलक: कराधान की एक सख्त प्रणाली लागू की।करों में वृद्धि ने दोआब क्षेत्र में दीर्घकालिक कृषि विद्रोह को जन्म दिया।
- फिरोज शाह तुगलक: खुत्स पर दबाव काफी कम कर दिया गया।जमींदार शब्द पूरे श्रेष्ठ वर्ग के लिए एक सामान्य पद के रूप में इस्तेमाल होने लगा।
दिल्ली सल्तनत के अधीन प्रौद्योगिकी का विकास
दिल्ली सल्तनत के काल में विभिन्न क्षेत्रों में तकनीकी प्रगति ने आर्थिक और सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। कृषि, कपड़ा, भवन निर्माण, कागज निर्माण और सैन्य तकनीक में महत्वपूर्ण नवाचार हुए, जो भारत में कारीगरों, व्यापारियों, और श्रमिकों की दक्षता और नई तकनीकों की शुरुआत का परिणाम थे।
1. कृषि प्रौद्योगिकी
- सिंचाई तकनीक: 'साकिया' या फारसी पहिया का उपयोग, जो बैलों द्वारा संचालित था, ने पंजाब और यूपी में सिंचाई को क्रांतिकारी बना दिया।अरघट्टा (जल उठाने का उपकरण), जो बाद में पशु शक्ति और गियर तंत्र से जुड़ा, सिंचाई के लिए प्रभावी साबित हुआ।
- फसल उत्पादन: नई सिंचाई तकनीकों से कृषि उपज और नकदी फसलों (जैसे रेशम) के उत्पादन में वृद्धि हुई।
2. कपड़ा और रेशम उद्योग: चरखा और कपास कार्डर धनुष जैसे उपकरणों ने कपड़ा उत्पादन को बढ़ावा दिया।नील और अन्य रंगाई तकनीकों में सुधार से वस्त्र उत्पादन में गुणवत्ता बढ़ी। रेशम उत्पादन ने रेशमी कपड़ों की बुनाई में तेजी लाई।
3. भवन निर्माण और सामग्री: पक्की ईंटें, मलबे, और चूने व जिप्सम के उपयोग ने निर्माण तकनीकों को उन्नत किया।चूना गारा ईंटों को रासायनिक रूप से जोड़ने में सहायक था, जबकि जिप्सम गारा तेजी से सख्त होता था।इन तकनीकों ने दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में बड़े और परिष्कृत जल-कार्य और भवनों का निर्माण संभव बनाया।
4. कागज निर्माण: 13वीं शताब्दी में तुर्कों ने कागज निर्माण की कला को भारत में परिचित कराया। अमीर खुसरो ने इसका उल्लेख किया है।कागज ने ज्ञान के प्रसार और शिक्षा को बढ़ावा दिया।
5. सैन्य और नेविगेशन तकनीक: चुंबकीय कम्पास का उपयोग नेविगेशन में मददगार साबित हुआ, जिससे विदेशी वाणिज्य में वृद्धि हुई। पानी पर तैरती चुंबकीय सुई के उपयोग ने जहाजों को खुले समुद्र में जाने में सहायता दी।
दिल्ली सुल्तानों के अधीन शहरीकरण : प्रक्रियाएं और प्रभाव
दिल्ली सल्तनत के शासनकाल में शहरीकरण एक प्रमुख सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का प्रतीक था। यह प्रक्रिया कारीगरों, व्यापारियों, नई तकनीकों, प्रशासनिक सुधारों, और सांस्कृतिक केंद्रों के विकास से प्रेरित थी।
शहरीकरण के प्रमुख कारण और कारक:-
- 1. कारीगरों और तकनीकों का योगदान: मोहम्मद हबीब के अनुसार, मुसलमानों के साथ विदेशी कारीगर भारत आए, जिन्होंने स्थानीय कारीगरों के साथ मिलकर नए शिल्प विकसित किए।कागज, कपड़ा, और भवन निर्माण में तकनीकी नवाचारों ने शहरी अर्थव्यवस्था को विस्तार दिया।अमीर खुसरो और इरफान हबीब के अनुसार, शाही संरक्षकता और नई प्रौद्योगिकियों ने उत्पादन में वृद्धि की।
- 2. इक्ता प्रणाली और प्रशासनिक केंद्र: इक्ता प्रणाली ने प्रमुख शहरों को ग्रामीण अधिशेष का केंद्र बना दिया। पड़ोसी गांवों से जुड़े कस्बे प्रशासनिक और आर्थिक केंद्रों के रूप में उभरे।
- 3.सूफी संस्थाएं और खानकाह: खानकाहों (सूफी धर्मशालाओं) ने धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में कार्य किया।यात्रियों और गरीबों के लिए खानकाह में भोजन और आश्रय उपलब्ध कराया गया।खानकाहों ने पुराने शहरों के पुनर्निर्माण और नए शहरों के विकास में मदद की।
- 4. सराय और थाने: सराय (शाही महल या धनी व्यक्तियों द्वारा निर्मित आवास) व्यापारियों और यात्रियों के लिए सुविधाजनक स्थान थे। थाने (पुलिस चौकियां) शहरीकरण के लिए उत्प्रेरक बने।बरनी के अनुसार, थानों ने परगना मुख्यालय के रूप में विकसित होकर महत्वपूर्ण टाउनशिप का रूप लिया।
- 5.बाजार और व्यापार: दिल्ली इस्लामिक दुनिया के सबसे बड़े शहरों में से एक के रूप में उभरा। मिन्हाज-ए-सिराज ने बाजार-ए-बाजार और लखनौती के बाजार-ए-बुजुर्ग जैसे बाजारों का उल्लेख किया।विदेशी व्यापारियों ने भारतीय बाजारों में वस्त्र, मसाले, और दास जैसे उत्पादों का व्यापार किया।व्यापार ने उत्पादन के विविधीकरण को बढ़ावा दिया और भारतीय शिल्प को समृद्ध किया।
- 6.शाही संरक्षकता और कारखाने: सुल्तानों और रईसों ने कुशल कारीगरों को आकर्षित करने के लिए कारखाने स्थापित किए। मुहम्मद बिन तुगलक के शाही कारखाने में 4,000 रेशम श्रमिक कार्यरत थे।
- 7. दिल्ली और अन्य प्रमुख शहरों का विकास: दिल्ली, लाहौर, उच्छ, और मुल्तान जैसे शहर अंतरराष्ट्रीय व्यापार और सांस्कृतिक केंद्र बन गए। नई मस्जिदों और बस्तियों के निर्माण ने प्राचीन शहरों का विस्तार किया।
शहर और सामाजिक गतिशीलता: दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत:-
दिल्ली सल्तनत के दौरान शहरीकरण और सामाजिक गतिशीलता का आपस में गहरा संबंध था। कारीगरों, श्रमिकों, व्यापारियों, और शासकीय संस्थानों ने शहरी केंद्रों के विकास और समाज के विभिन्न वर्गों के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- 1. कारीगर और खरकानों का योगदान: फिरोज शाह तुगलक के काल में सुनार, मणि तराशने वाले, इत्र बनाने वाले, हथियार और कवच बनाने वाले कारीगरों की बड़ी संख्या थी। खरकानों (शाही कार्यशालाओं) में प्रशिक्षित गुलामों ने उच्च पदों को प्राप्त किया और राजनीति में सक्रिय भाग लिया।इन कार्यशालाओं ने न केवल उत्पादन बढ़ाया बल्कि कारीगरों और श्रमिकों को सामाजिक रूप से ऊपर उठने का अवसर भी दिया।
- 2.शिक्षा और सांस्कृतिक संस्थान: मदरसा-ए-नासिरी और मदरसा-ए-फिरोज शाही जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में समाज के विभिन्न वर्गों के छात्रों को प्रवेश मिला, जिससे सामाजिक गतिशीलता बढ़ी।सूफी खानकाहों और चिश्ती संतों ने विभिन्न वर्गों के शिष्यों को शिक्षित किया, जिससे समाज के निचले स्तरों से लोग ऊपर उठ सके।
- 3. प्रशासन और सामाजिक समूहों का विकास: अलाउद्दीन खिलजी और बलबन जैसे सुल्तानों ने अफगान, जैन, खत्री, कंबोज और कलाल (शराब बनाने वाले) जैसे सामाजिक समूहों को प्रशासनिक और शाही कार्यों में शामिल किया।कंबोज, जो पंजाब के समृद्ध किसान थे, इस्लाम धर्म अपनाने के बाद शाही दरबार में प्रभावशाली बन गए।श्रमिक वर्ग, जैसे कहार, घोड़ों की देखभाल करने वाले, और तंबू खड़ा करने वाले श्रमिक भी शहरी अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बने।
- 4. व्यापार और बाजार: व्यापारी वर्ग, विशेष रूप से मुस्लिम व्यापारियों, ने विदेशी व्यापार और वस्त्र उद्योग में प्रमुख भूमिका निभाई।शाही संरक्षण और नए बाजारों ने कारीगरों को उनकी कला और शिल्प के लिए अवसर प्रदान किए। मुहम्मद बिन तुगलक के शाही कारखानों में 4,000 रेशम श्रमिक कार्यरत थे, जो सामाजिक गतिशीलता का प्रतीक था।
- 5. दक्षिण भारत और विजयनगर का प्रभाव: विजयनगर में शिल्पकार और व्यापारी नई अखिल क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हुए।मुद्रा प्रवाह ने कारीगरों को संसाधनों और बाजारों तक पहुंचने में मदद की।दक्षिण के मंदिर नगरों और प्रशासनिक केंद्रों ने भौगोलिक और सामाजिक गतिशीलता को प्रोत्साहित किया।
बाजार और बाजार विनियम
दिल्ली सल्तनत के दौरान बाजार व्यवस्था और विनियमों में अलाउद्दीन खिलजी के सुधारों ने आर्थिक इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। उनके प्रयासों का मुख्य उद्देश्य बाजारों पर नियंत्रण स्थापित करना, वस्तुओं की कीमतों को स्थिर करना और सैनिकों के लिए दैनिक उपयोग की वस्तुओं को सुलभ बनाना था।
1. प्रमुख बाजार और उनका कार्य
- सेरा-ए-अदल: कपड़े और फलों जैसे सामानों की बिक्री के लिए विशेष बाजार।
- बाजार-ए-आम: गुलामों, घोड़ों और अन्य जानवरों की बिक्री के लिए नखा (विशेष बाजार)।
- बाजार-ए-चहरसू: चार दिशाओं में फैली सड़कों के साथ एक वर्ग के चारों ओर स्थित बाजार।
2.बाजार विनियम और उनके उद्देश्य
- कीमतों का नियंत्रण: अनाज, कपड़े, घोड़ों, और दासों सहित सभी वस्तुओं की कीमतें नियंत्रित की गईं। सैनिकों के वेतन की क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को कम रखा गया।
- अनाज मंडी: दो प्रकार के व्यापारी शामिल थे: स्थायी दुकानदार (खुदरा विक्रेता) और यात्रा करने वाले कारवां। कारवां को शहनाह (बाजार अधीक्षक) के साथ पंजीकरण कराना अनिवार्य था।
- व्यापारी पंजीकरण: दिल्ली के व्यापारियों को दीवान-ए-रियासत में पंजीकरण कराना और निश्चित कीमतों पर सामान बेचना अनिवार्य था।
3. प्रशासन और निगरानी
- शहनाह (बाजार अधीक्षक): मलिक काबुल को शहनाह के रूप में नियुक्त किया गया। उन्होंने काला बाजारी और अन्य अनियमितताओं को रोकने का कार्य किया।
- बरीद-ए-मंडी: माल की गुणवत्ता सुनिश्चित करने और गुप्त जानकारी एकत्र करने के लिए जिम्मेदार।
- गुप्तचर और कर्मचारी: एक विस्तृत और कुशल कर्मचारियों का नेटवर्क स्थापित किया गया।
4. प्रभाव और लाभ
- आम लोगों को लाभ: कीमतों की स्थिरता से आम जनता को वस्तुएं सस्ती दरों पर उपलब्ध हुईं।
- व्यापारी समुदाय पर प्रभाव: व्यापारियों को उनके अतिरिक्त लाभ से वंचित कर दिया गया, जिससे वे इन विनियमों से असंतुष्ट थे।
- सैनिकों की भलाई: कीमतों में नियंत्रण के कारण सैनिकों के वेतन की क्रय शक्ति में वृद्धि हुई।
A. दिल्ली सुल्तानों के अधीन धन अर्थव्यवस्था
दिल्ली सल्तनत के शासनकाल में धन अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सिक्कों के प्रचलन, मुद्रीकरण और विदेशी व्यापार के माध्यम से यह व्यवस्था तेजी से विकसित हुई।
1. मुद्रा प्रणाली और सिक्कों का विकास
- प्रमुख सिक्के: चाँदी का टंका (169.8 ग्रेन) पहली बार इल्तुतमिश द्वारा ढाला गया। सोने के टंकों का उपयोग उच्च मूल्य के लेन-देन और शाही उपहारों में होता था।तांबे और बिलोन के सिक्के आम उपयोग में थे।
- मुद्राओं के प्रकार: दैनिक वस्तुओं की खरीद और मजदूरी के भुगतान में प्रयुक्त।शशगनी, याकगनी, दुगनी, और दुआज़देहगनी जैसे सिक्कों का प्रचलन बढ़ा। फिरोज शाह तुगलक ने निमजीतल (आधा जीतल) और डांग-ए-जीतल (एक चौथाई जीतल) पेश किए।
2. अलाउद्दीन खिलजी और मुद्रीकरण:
- मुद्रीकरण में वृद्धि: राज्य करों का नकद में संग्रह। सैनिकों और प्रशासनिक पदाधिकारियों को नकद भुगतान। बाजार लेन-देन में धन का उपयोग।
- सोने और चाँदी का अनुपात: सोने और चाँदी के सिक्कों का अनुपात 1:10 रखा गया।
3. मुहम्मद बिन तुगलक और मुद्रा प्रयोग:
- सांकेतिक मुद्रा: 144 ग्रेन का नया चाँदी का सिक्का "अदली" पेश किया।तांबे की सांकेतिक मुद्रा जारी की, लेकिन यह प्रयोग असफल रहा। बरनी के अनुसार, सांकेतिक मुद्रा की विफलता के कारण हर घर टकसाल बन गया।
- नए सिक्कों का प्रचलन: बिष्टगानी, हस्तगनी, और शशगनी जैसे सिक्कों का प्रचलन।
4. विदेशी व्यापार और बुलियन:
- धातु की आपूर्ति: सोने और चाँदी के घरेलू निष्कर्षण का अभाव।मध्य एशिया, ईरान, लेवांत, और यूरोप से बुलियन का आयात।
- दक्षिण भारत से सोने का आगमन: सैन्य अभियानों के माध्यम से सोने को दिल्ली लाया गया।
5. आर्थिक प्रभाव:
- मुद्रा के प्रचलन ने व्यापार को बढ़ावा दिया।विदेशी व्यापार से बुलियन का प्रवाह सुनिश्चित हुआ। बाजार और श्रम के लिए नकद लेन-देन ने सल्तनत की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया।
विजयनगर शासकों के अधीन मुद्रीकरण
विजयनगर साम्राज्य में मुद्रा का महत्व और उपयोग तेजी से बढ़ा। साम्राज्यवादी केंद्र और क्षेत्रीय शासक, दोनों अपनी मुद्राओं का खनन करते थे। कर और शुल्क का भुगतान वस्तुओं की बजाय सिक्कों में किया जाने लगा। इस काल में धन को तरल रूप में रखना अधिक प्रचलित था, जो दक्षिण भारतीय राजनीतिक और आर्थिक संरचना में महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देता है।
1. मुद्रीकरण के प्रमुख कारण और विशेषताएं :
मुद्रीकरण का विकास आर्थिक और राजनीतिक कारकों से प्रेरित था। आंतरिक और अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य का विस्तार, मंदिर शहरों और व्यापारिक केंद्रों का विकास, स्थायी सेना का निर्माण, और सैनिकों को नकद भुगतान की व्यवस्था ने मुद्रा की मांग को बढ़ाया। इसके साथ ही शिल्प उत्पादन और व्यापार में वृद्धि ने भी मुद्रा प्रणाली को प्रोत्साहित किया। मुद्रा प्रणाली का प्रारंभ दक्कन के चालुक्य शासन (10वीं शताब्दी) में हुआ। विजयनगर साम्राज्य ने "मासा" (0.856 ग्राम) को सिक्कों के वजन मानक के रूप में अपनाया। यह प्रणाली न केवल व्यापार और शिल्प को संगठित करने में सहायक थी, बल्कि आर्थिक और प्रशासनिक स्थिरता का आधार भी बनी।
2. सिक्कों के प्रकार और उपयोग :
दिल्ली सल्तनत में सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्कों का प्रचलन था। सोने के सिक्कों को "मान," "वराह," और "गद्याना" कहा जाता था। इनका वजन 4 मासा (3.4 ग्राम) था और वे 89% शुद्धता के साथ बनाए जाते थे। इनके भिन्नात्मक रूपों में आधा, चौथाई, दसवां (फनम), और बीसवां भाग शामिल थे। इनका उपयोग महंगे और सस्ते दोनों प्रकार के सामान खरीदने में किया जाता था।चाँदी और ताँबे के सिक्के भी प्रचलित थे। चाँदी का सिक्का "तारा" (2.5 रत्ती) फनम के छोटे बदलाव के लिए उपयोगी था। ताँबे का सिक्का "चीतल" था, जिसका वजन 4 मासा था। ये सिक्के छोटे लेन-देन और सामान्य उपयोग के लिए बनाए गए थे। सिक्कों की यह विविधता सल्तनत की आर्थिक स्थिरता और व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा देने में सहायक थी।
3. सिक्कों की पहचान, डिजाइन और उपयोग:
दिल्ली सल्तनत के सिक्कों की पहचान और डिजाइन विशेष रूप से आकर्षक थीं। सिक्कों के अग्रभाग पर हिंदू देवताओं या देवताओं की जोड़ी की छवि अंकित होती थी, जबकि पीछे की ओर शासक का नाम और शीर्षक देवनागरी लिपि में संस्कृत में लिखा होता था।मुद्राओं का उपयोग मुख्य रूप से सोने के सिक्कों पर आधारित था, जिसमें चाँदी और ताँबे के सिक्कों का पूरक उपयोग किया जाता था। सोने के सिक्कों का उपयोग आयातित वस्त्र, लक्जरी सामान, और खाद्य पदार्थों की खरीद जैसे महंगे लेन-देन के लिए किया जाता था। यह प्रणाली व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा देने और अर्थव्यवस्था को स्थिर करने में सहायक थी।
दिल्ली सल्तनत और विजयनगर साम्राज्य में व्यापार का विकास
1.दिल्ली सल्तनत के दौरान व्यापार
दिल्ली सल्तनत के दौरान व्यापारिक गतिविधियाँ भूमि और समुद्री मार्गों पर आधारित थीं।
- भूमि मार्गों से व्यापार: सल्तनत में कस्बों और शहरों का विकास, जैसे हांसी और सिरसुती, प्रमुख व्यापारिक केंद्र बन गए। मुल्तान-Delhi मार्ग और मुल्तान-क्वेटा मार्ग ने भारत को मध्य एशिया, अफगानिस्तान, और फारस से जोड़ा। गाँवों को इन मार्गों से लाभ हुआ, जहाँ वे चारा और पानी बेचकर व्यापारिक कारवाँ का समर्थन करते थे।
- व्यापारी और व्यापारिक वर्ग: अमीर खुसरो ने व्यापारियों को विभिन्न वर्गों में बाँटा, जैसे बाजारी (व्यापारी), सर्राफ (मनी चेंजर), बक्कल (अनाज व्यापारी), और जार-गर (सुनार)। मुल्तानी व्यापारी वाणिज्य और सूदखोरी में सक्रिय थे। दलाल (डलास) खरीदार और विक्रेता के बीच मध्यस्थ थे, जबकि साह दौलताबाद के हिंदू व्यापारी थे।
- समुद्री व्यापार: पश्चिमी तट (सिंध से मालाबार) फारस की खाड़ी, लाल सागर, और पूर्वी अफ्रीका से जुड़ा था, जबकि पूर्वी तट (बंगाल से कोरोमंडल) दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन से व्यापार करता था। प्रमुख निर्यात में सूती वस्त्र, मसाले, चावल, नील, और हाथी दाँत शामिल थे, जबकि आयातित वस्तुओं में चीनी रेशम, अरबी घोड़े, फारसी रत्न, और सीरियाई काँच शामिल थे।
- महत्त्वपूर्ण बंदरगाह: सिंध में लाहरी बंदर और गुजरात में खंभात (कैम्बे) प्रमुख बंदरगाह थे। खंभात अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का एक बड़ा केंद्र बन गया। इस व्यापारिक नेटवर्क ने सल्तनत की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया।
2. विजयनगर साम्राज्य में व्यापार
- व्यापार और शहरीकरण: विजयनगर साम्राज्य, जिसे "विजय का नगर" कहा गया, दक्षिण भारत में व्यापार और शहरीकरण का प्रतीक था। विजयनगर और उसके प्रमुख बंदरगाह पुलिकट से दक्षिण-पूर्व एशिया, मलक्का, और सुमात्रा को कपड़ा और अन्य वस्तुओं का निर्यात किया जाता था।
- निर्यात और आयात: विजयनगर साम्राज्य से निर्यात में सूती वस्त्र, ताँबा, रंग, और गुलाब जल शामिल थे। आयात में चीनी जंक जहाजों से लाए गए चीनी सामान और मुसलमानों द्वारा विभिन्न उत्पाद शामिल थे।
- व्यापारी संगठन: स्वदेशी व्यापारी चेट्टी जाति के लोग थे, जो व्यापार में सक्रिय थे। विदेशी व्यापारियों में अरब, फारसी, और खुरासानी व्यापारी प्रमुख थे। यह व्यापारिक गतिविधियाँ विजयनगर साम्राज्य की आर्थिक समृद्धि का आधार बनीं।
3. मुख्य वस्तुएँ और व्यापारिक मार्ग
दिल्ली सल्तनत
- मुख्य वस्तुएँ : युद्ध-घोड़े, सागौन की लकड़ी, चावल, और सूती वस्त्र।
व्यापारिक मार्ग :-
- थल मार्ग: मुल्तान-क्वेटा मार्ग, जो भारत को मध्य एशिया और फारस से जोड़ता था।
- समुद्री मार्ग: फारस की खाड़ी और लाल सागर के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार।
विजयनगर साम्राज्य
- मुख्य वस्तुएँ : कपड़ा, ताँबा, सिंदूर, और गुलाब जल।
व्यापारिक मार्ग:
- अंतर्देशीय मार्ग: अयोध्या से काँची, तिरुपति और चंद्रगिरि होते हुए विजयनगर तक। दोनों साम्राज्यों में थल और समुद्री मार्गों ने व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा देकर अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया।