इस इकाई में राजनीतिक सिद्धांतों की विभिन्न विचारधाराओं का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इसमें परंपरागत, आधुनिक और समकालीन सिद्धांतों के साथ वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण का महत्व समझाया गया है। इकाई में व्यवहारवाद की सीमाएं और उत्तर-व्यवहारवाद की महत्ता का अध्ययन किया गया है। राजनीति में अन्य सामाजिक विज्ञानों का योगदान, कानूनी दृष्टिकोण और हरित आंदोलन की भूमिका का भी विवेचन किया गया है। अंततः, डेनियल बेल के "विचारधारा के अंत" के सिद्धांत पर भी चर्चा की गई है, जो इस इकाई का समापन करता है।
राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ एवं विशेषताएं
राजनीतिक सिद्धांत का स्वरूप एवं अर्थ
राजनीतिक सिद्धांत में दो शब्द शामिल हैं: "राजनीति" और "सिद्धांत"। राजनीति का अध्ययन विभिन्न राजनीतिक संरचनाओं, संबंधों, राज्य, सरकार, शासन और इनके आपसी संबंधों पर केंद्रित होता है। सिद्धांत, ग्रीक शब्द "थ्योरिया" से आया है, जिसका अर्थ होता है किसी घटना या वस्तु की समझ विकसित करना। इस प्रकार, राजनीतिक सिद्धांत से तात्पर्य है राजनीति से संबंधित व्यवस्थित ज्ञान का समुच्चय। इसे राजनीतिक विचारों और आदर्शों का एक संग्रह माना जा सकता है।
1. राजनीतिक सिद्धांत के तीन प्रकार के कथन
- अनुभवमूलक कथन (Empirical Statement): ये हमारे अनुभव और निरीक्षण पर आधारित होते हैं।
- तार्किक कथन (Logical Statement): ये तर्क और गणना पर आधारित होते हैं, जैसे "दो और दो चार होते हैं।"
- मूल्यपरक कथन (Evaluative Statement): ये व्यक्तिगत और सामूहिक मान्यताओं पर आधारित होते हैं, जैसे "उचित-अनुचित" या "सुंदर-कुरूप।"
2. राजनीतिक सिद्धांत के तीन मुख्य तत्व
- अवलोकन: राजनीतिक विचारों की पुष्टि के लिए तथ्यों और घटनाओं का संकलन।
- व्याख्या: एकत्रित सामग्री का विश्लेषण और कारण-परिणाम संबंध का निर्धारण।
- मूल्यांकन: घटना की सार्थकता का आकलन, जो व्यक्ति के मूल्यों पर आधारित होता है।
3. राजनीतिक सिद्धांत का महत्व
राजनीतिक सिद्धांत राजनीतिक संस्थाओं और उनके कार्यों को समझने में मदद करता है और समाज को उन्नति के लिए नई दिशाएँ प्रदान करता है। यह राजनीति के अन्य दो महत्वपूर्ण हिस्सों - राजनीति विज्ञान और राजनीति दर्शन - के बीच सामंजस्य स्थापित करता है, जो राजनीति सिद्धांत को संपूर्ण और प्रासंगिक बनाता है।
राजनीति सिद्धांत की परंपरा
राजनीति सिद्धांत का इतिहास प्राचीन काल से ही शुरू होता है, जहाँ प्लेटो और अरस्तू जैसे दार्शनिकों ने समाज और राज्य के संबंधों पर विचार किया। इसके तीन प्रमुख कार्य हैं:
- वर्णन - जिसमें राजनीति विज्ञान के अंतर्गत राजनीतिक प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
- समालोचना - जिसमें राजनीति दर्शन के अंतर्गत समाज और शासन की कमियों का विश्लेषण किया जाता है।
- पुनर्निर्माण - जिसमें नए समाज की रूपरेखा और सिद्धांत प्रस्तावित किए जाते हैं।
राजनीति सिद्धांत की प्रकृति
राजनीति सिद्धांत का इतिहास 2360 वर्षों से भी पुराना है। इसका विकास समय और युग के साथ होता आया है, और इस पर प्लेटो, अरस्तू, रूसो, मार्क्स, गांधी जैसे विविध क्षेत्रों से जुड़े महान विचारकों का प्रभाव है। इस लंबे विकास के दौरान राजनीति सिद्धांत के तीन मुख्य प्रकार विकसित हुए हैं।
क. परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत
इसे आदर्शात्मक राजनीतिक सिद्धांत भी कहा जाता है, जो आदर्श व्यवस्था की कल्पना करता है। उदाहरण के लिए, प्लेटो ने "दार्शनिक राजा" की अवधारणा प्रस्तुत की थी। परंपरागत सिद्धांत मुख्य रूप से वैचारिक होते हैं और ठोस तथ्यों से ज्यादा आदर्शों पर आधारित होते हैं।
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएं:-
- वर्णनात्मक अध्ययन: इस सिद्धांत में केवल राजनीतिक संस्थाओं और समस्याओं का वर्णन किया गया, लेकिन समस्याओं का समाधान नहीं दिया गया। यह मुख्यतः एक विश्लेषणात्मक से अधिक वर्णनात्मक दृष्टिकोण था।
- समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना: परंपरागत सिद्धांतकार अपने समय की प्रमुख समस्याओं को हल करने का प्रयास करते थे। जैसे, प्लेटो ने राजनीतिक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए दार्शनिक राजा की संकल्पना दी, और मैकियावली ने इतालवी राज्यों की एकता के लिए सत्ता की राजनीति का समर्थन किया।
- दर्शन, धर्म और नैतिकता का प्रभाव: परंपरागत सिद्धांत धर्म और नैतिकता से बहुत प्रभावित रहे हैं। मध्यकालीन यूरोपीय विचारकों के लिए धर्म और राजनीति का घनिष्ठ संबंध था, जैसे कि थॉमस एक्विनास का धर्म को राज्य से ऊपर रखना।
- कानूनी और औपचारिक संस्थाओं का अध्ययन: परंपरागत सिद्धांत मुख्यतः औपचारिक संस्थाओं और कानूनी ढांचे पर केंद्रित थे। लास्की और मुनरो जैसे विचारकों ने औपचारिक राजनीतिक संरचनाओं का अध्ययन किया।
- यूरोपीय केंद्रित दृष्टिकोण: परंपरागत सिद्धांत मुख्य रूप से यूरोप की राजनीति और समाज पर केंद्रित थे, जबकि एशिया और अफ्रीका जैसे गैर-पश्चिमी देशों पर कम ध्यान दिया गया।
- दर्शन, इतिहास और अध्यात्म से संबंध: इन सिद्धांतों में राजनीति को स्वायत्त विषय नहीं माना गया बल्कि यह दर्शन और अध्यात्म से जुड़ा हुआ था।
- तर्क एवं निगमनात्मक आधार: परंपरागत सिद्धांत तर्क पर आधारित थे, लेकिन इनका वास्तविकता से सीमित संबंध था। इनके निष्कर्ष गणितीय या तकनीकी पद्धतियों पर आधारित नहीं थे।
- अधिअनुशासनात्मक दृष्टिकोण: प्लेटो, अरस्तू, रूसो, और मार्क्स जैसे विचारकों का चिंतन सामाजिक विषयों तक सीमित नहीं रहा। इन विचारकों के समय में राजनीति एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित नहीं हुई थी।
ख. आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ
आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत, राजनीति विज्ञान के अध्ययन को वैज्ञानिक और तथ्य-आधारित दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है। इसका आधार अवलोकन योग्य तथ्यों, परिमाणन, और सटीक जांच-पड़ताल पर है। आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत के विकास में कई धाराओं का योगदान है, जैसे कि संरचनावाद, वैज्ञानिक सकारात्मकवाद, अनुभववाद, व्यवहारवाद, उत्तर-व्यवहारवाद, और यहां तक कि मार्क्सवाद। इसके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं:
- अध्ययन मुक्तता: आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत ने परंपरागत सीमाओं को छोड़ दिया है और अन्य विषयों जैसे समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, और मनोविज्ञान से भी तथ्यों को एकत्रित कर रहा है। यह व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर राजनीतिक प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है।
- वैज्ञानिकता: आधुनिक राजनीतिशास्त्री अपने अध्ययन को वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ बनाने की ओर बढ़े हैं। वे घटनाओं का मूल्यांकन विज्ञान की कसौटी पर करते हैं और नए अध्ययन उपकरणों और तकनीकों का उपयोग करते हैं।
- मूल्यविहीनता: आधुनिक राजनीतिक अध्ययन को मूल्यविहीन (value-neutral) माना जाता है, क्योंकि यह नैतिकता, स्वतंत्रता जैसे मानव मूल्यों को शामिल किए बिना निष्पक्ष रूप से तथ्यों का अध्ययन करता है।
- यथार्थवादी और व्यवहारपरक दृष्टिकोण: आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत आदर्शवादी नहीं है बल्कि यथार्थवादी और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाता है। यह वास्तविक शक्ति संरचनाओं, राजनीतिक प्रक्रियाओं, और राजनीतिक व्यवहार पर केंद्रित होता है, जैसे कि राजनीतिक दल, दबाव समूह, और मतदान व्यवहार का विश्लेषण।
- अनुभवात्मकता और व्यवहारवाद: यह सिद्धांत अनुभवात्मक और व्यवहारवादी दृष्टिकोण अपनाता है, जिससे राजनीति विज्ञान को दर्शन, इतिहास, और कानून से अलग एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया गया है।
- शोध और सिद्धांत में घनिष्ठ संबंध: आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत शोध और सिद्धांत के बीच गहरे संबंध पर बल देता है। कठोर शोध प्रक्रियाओं के आधार पर सिद्धांत का निर्माण और विकास किया जाता है।
- अंतर-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण: यह सिद्धांत समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, और अर्थशास्त्र जैसे अन्य सामाजिक विज्ञानों के उपकरणों और सिद्धांतों को अपनाता है, जिससे राजनीतिक समाजशास्त्र और राजनीतिक मनोविज्ञान जैसी नई शाखाओं का विकास हुआ है।
- स्वायत्तता और विकास: आधुनिक राजनीति विज्ञान अपने अनुशासन को स्वतंत्र विषय के रूप में स्थापित करने पर जोर देता है। इसके अनुसंधान, निष्कर्ष और प्रक्रियाएं अब अधिक व्यवस्थित और वैज्ञानिक बन रही हैं।
- मौलिक समाज विज्ञान के रूप में विकास: यह एक मौलिक समाज विज्ञान के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहता है, ताकि अन्य विषयों को दिशा-निर्देश दे सके और उनमें विशेषज्ञता हासिल कर सके।
- समकालीन समस्याओं का समाधान: उत्तर-व्यवहारवाद के दौर में, राजनीति विज्ञान ने समकालीन वैश्विक मुद्दों जैसे परमाणु युद्ध, मानव मूल्यों की रक्षा, स्वतंत्रता, और राष्ट्रवाद से संबंधित समस्याओं के समाधान की दिशा में योगदान दिया है।
ग. समकालीन राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ और भूमिका
समकालीन राजनीतिक सिद्धांत ने व्यवहारवाद और उत्तर-व्यवहारवाद के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को आगे बढ़ाते हुए राजनीतिक घटनाओं को यथार्थवादी, नैतिक, और तर्कसंगत दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया। इस सिद्धांत के अंतर्गत राजनीति विज्ञान को एक बहुआयामी और समावेशी रूप देने का प्रयास हुआ, जिसमें नैतिकता, तर्क, और अनुभवजन्य अध्ययन का समन्वय किया गया। समकालीन राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-
- ऐतिहासिक दृष्टिकोण का समावेश: समकालीन राजनीतिक सिद्धांत ने राजनीतिक विचारों के इतिहास पर ध्यान देते हुए भविष्य की संभावनाओं का विश्लेषण किया है। इसे राजनीतिक अवधारणाओं की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से जोड़कर देखा गया है।
- राजनीतिक अवधारणाओं का विश्लेषण: इस सिद्धांत के अंतर्गत सम्प्रभुता, लोकतंत्र, और न्याय जैसी अवधारणाओं के अर्थ और वर्गीकरण का विश्लेषण किया गया है। इसका उद्देश्य इन अवधारणाओं का व्यवस्थित और गहन अध्ययन करना है।
- नैतिकता और मूल्यों पर ध्यान: समकालीन राजनीतिक सिद्धांत में नैतिकता और राजनीतिक मूल्यों का पुनर्विचार और पुनर्निर्माण शामिल है, जो राजनीति को केवल विज्ञान नहीं बल्कि मानवता से जोड़ता है।
- विशिष्ट राजनीतिक विषयों पर पुनः चर्चा: इस सिद्धांत में विशिष्ट राजनीतिक और सैद्धांतिक प्रश्नों जैसे- अधिकार, सत्ता, न्याय, और समानता पर विस्तृत चर्चा की गई है।
- विचारधारा से मुक्त दृष्टिकोण: समकालीन सिद्धांत में विचारधाराओं का निषेध किया गया है क्योंकि वे पूर्वाग्रह को जन्म देती हैं। इसमें राजनीतिक मुद्दों पर बिना किसी पूर्वाग्रह के खुलकर विचार-विमर्श किया गया है।
- अवलोकन और अनुभवजन्य सामान्यीकरण: समकालीन राजनीतिक सिद्धांत, अवलोकन के आधार पर अवधारणाओं का निर्माण और अनुभवजन्य तथ्यों के आधार पर सामान्यीकरण को प्रोत्साहित करता है। इसमें वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग किया गया है।
डेविड हैल्ड के अनुसार समकालीन राजनीतिक सिद्धांत की भूमिकाएँ :
- दर्शन और आदर्शों का अध्ययन: यह सिद्धांत राजनीतिक दर्शन से संबंधित अवधारणाओं और आदर्शों का गहन अध्ययन करता है।
- इंद्रिय जन्य अनुभव और विश्लेषण का समन्वय: इसमें राजनीतिक समस्याओं को समझने और उनका विश्लेषण करने के लिए तर्क और अनुभव दोनों का समन्वय होता है।
- वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं का आकलन: समकालीन सिद्धांत राजनीतिक स्थिति का मूल्यांकन करता है कि वह 'कहां है' और उसे 'कहां होना चाहिए'।
- राजनीतिक सिद्धांत और इतिहास का संलयन: यह सिद्धांत राजनीति के ऐतिहासिक तत्वों को वर्तमान राजनीतिक सिद्धांत से जोड़ने का प्रयास करता है।
वैज्ञानिक राजनीतिक दृष्टिकोण
वैज्ञानिक राजनीतिक दृष्टिकोण का संबंध राजनीति विज्ञान में अध्ययन की वैज्ञानिक विधियों और प्रक्रियाओं से है। राजनीति विज्ञान में व्यवस्थित ज्ञान, निरीक्षण, परीक्षण, और नियम निर्माण की परंपरा अरस्तू से शुरू हुई, जिसे ‘प्रथम राजनीति वैज्ञानिक’ कहा जाता है। 17वीं शताब्दी में लियोनार्डो, गैलीलियो, और न्यूटन के विज्ञान संबंधी योगदान का असर राजनीति के अध्ययन पर पड़ा, जिसे हाब्स और अन्य विचारकों में देखा जा सकता है। इस दृष्टिकोण ने राजनीतिक सिद्धांत को एक वैज्ञानिक आधार पर विकसित करने की प्रेरणा दी।
वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धांत की अवधारणा
आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत में वैज्ञानिकता का समावेश किया गया है। आर्नल्ड ब्रख्ट के अनुसार, "वैज्ञानिक सिद्धांत ऐसी प्रस्तावनाओं का समूह है जो विषय वस्तु के संबंध में सत्यापन योग्य होते हैं।" ब्रख्ट और अन्य विचारकों का मानना है कि विज्ञान ऐसा विश्वसनीय ज्ञान है जिसे एक व्यक्ति दूसरे को समझा सकता है और जो निरीक्षण पर आधारित होता है। हालाँकि, इसे अंतिम सत्य नहीं माना जाता क्योंकि नए तथ्यों के साथ इसमें बदलाव संभव है।
वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएं :-
- अनुभवजन्य सत्यापन: ऐसे तथ्यों का अध्ययन किया जाता है जो इंद्रियों से प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किए जा सकें।
- विधि और प्रविधियाँ: इसमें अध्ययन के लिए मान्य और वैज्ञानिक प्रविधियों का उपयोग होता है।
- मूल्यनिरपेक्षता: अध्ययनकर्ता व्यक्तिगत मूल्यों से परे रहकर निष्पक्षता बनाए रखता है।
- प्राक्कल्पना का निर्माण: शोधकर्ता अध्ययन के प्रारंभ में एक वैचारिक रूपरेखा या प्राक्कल्पना तैयार करता है।
- निष्कर्ष और सामान्यीकरण: शोध के निष्कर्षों को क्रमबद्ध करके सिद्धांत का स्वरूप प्रदान किया जाता है।
- पुनः सत्यापन: सिद्धांतों को वैज्ञानिक पद्धतियों से बार-बार सत्यापित किया जा सकता है।
सिद्धांत निर्माण की प्रक्रिया
सिद्धांत निर्माण की प्रक्रिया को चार चरणों में बांटा जा सकता है:-
- प्राक्कल्पना का निर्माण: यह अध्ययन का आरंभिक चरण है, जहाँ एक अनुमान या प्राक्कल्पना बनाई जाती है। यह अध्ययनकर्ता के लिए मार्गदर्शक का कार्य करता है।
- तथ्यों का निरीक्षण और संकलन: अध्ययनकर्ता प्राक्कल्पना की पुष्टि के लिए तथ्यों का संकलन करता है। अवलोकन निष्पक्षता से किया जाता है ताकि तथ्यों की सटीकता बनी रहे।
- वर्गीकरण और सारणीकरण: संकलित तथ्यों का वर्गीकरण और सारणीकरण किया जाता है ताकि डेटा को सरलता से व्यवस्थित किया जा सके।
दार्शनिक राजनीतिक दृष्टिकोण
दार्शनिक राजनीतिक सिद्धांत को कल्पनात्मक, आदर्शात्मक, आध्यात्मिक, मूल्यपरक, और मानकात्मक सिद्धांत के रूप में जाना जाता है। यह सिद्धांत राजनीति का सबसे प्राचीन और गहरा दृष्टिकोण है, जिसकी जड़ें प्लेटो, रूसो, काण्ट, हीगल, ग्रीन और हेराल्ड लास्की जैसे विचारकों तक जाती हैं। इसका उद्देश्य सत्य की खोज करना और समाज, राज्य, और मानव के राजनीतिक जीवन के उद्देश्य को समझना है।
दर्शनशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र
प्राचीन काल में व्यवस्थित चिंतन के सभी रूप दर्शन में समाहित थे। दर्शन के अंतर्गत जीवन, सृष्टि, सत्य, आत्मा, और मानव अस्तित्व के उद्देश्यों की पड़ताल की जाती है। इसका अध्ययन इतना व्यापक है कि यह किसी विशेष वस्तु तक सीमित न रहकर समस्त ब्रह्मांड और उसमें निहित सत्ताओं की व्याख्या करता है। दर्शन को दो अर्थों में समझा जा सकता है:
- अध्यात्म दर्शन: सृष्टि, आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, और सत्य पर ध्यान केंद्रित करता है।
- आधुनिक दर्शन: मानव अस्तित्व, समाज, और उनके अंतर्संबंधों का व्यवस्थित दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
दार्शनिक राजनीतिक सिद्धांत की अवधारणा
दार्शनिक राजनीतिक सिद्धांत मूल्यों, आदर्शों, और सत्य पर आधारित चिंतन है। प्लेटो, हीगल, मार्क्स और गांधी जैसे महान दार्शनिकों ने इस दृष्टिकोण को अपनाया। यह दृष्टिकोण राजनीतिक जीवन में नैतिकता, सिद्धांतों और शाश्वत सत्यों की आवश्यकता पर बल देता है।
दार्शनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएं
- मूल्यों और लक्ष्यों की प्रधानता: दार्शनिक सिद्धांत का संबंध इस बात से है कि चीजें कैसी होनी चाहिए। यह नैतिक निर्णयों पर जोर देता है, यह मानकर कि व्यक्ति स्वभावतः भला है और अच्छे कार्य करना चाहता है।
- सुधार पर बल: दार्शनिक सिद्धांत मानव समाज में शांति, समन्वय, और सहयोग को बढ़ावा देने पर जोर देता है। यह स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, और न्याय जैसे मूल्यों का महत्व बताता है।
- नीतिशास्त्र और दर्शन के निकट: दार्शनिक सिद्धांत राजनीति को नीतिशास्त्र और दर्शन के समीप लाता है, ताकि सामाजिक समस्याओं का आदर्श समाधान खोजा जा सके। जैसे कि प्लेटो का दार्शनिक शासक का सिद्धांत आदर्श राज्य की परिकल्पना प्रस्तुत करता है।
- तार्किक और निगमनात्मक पद्धति: दार्शनिक सिद्धांत तर्क और निगमनात्मक निष्कर्षों पर आधारित होता है। यह तथ्य और व्यवहार से भिन्न होकर बौद्धिक पक्षों पर अधिक जोर देता है।
दार्शनिक राजनीतिक सिद्धांत की उपयोगिता:-
- मूल्यों का प्रतिपादन: यह सिद्धांत राजनीति के उद्देश्यों और मूल्यों की खोज करता है, जिससे राजनीति क्रियाओं को सही दिशा में आगे बढ़ाया जा सके।
- राजनीतिक मूल्यों और नैतिकता का ज्ञान: यह सिद्धांत राजनीतिक संस्थाओं, आदर्शों, और मानव स्वभाव का गहरा अध्ययन करता है।
- सामाजिक समस्याओं का समाधान: दार्शनिक सिद्धांत राजनीति के ज्ञान को विस्तृत परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है, जिससे स्वतंत्रता, समानता, और न्याय जैसे अवधारणाओं को सही अर्थ दिया जा सके।
- आदर्श राज्य की परिकल्पना: यह सिद्धांत आदर्श राज्य और समाज के निर्माण के लिए आवश्यक तत्वों पर बल देता है, जैसे कि गांधी का रामराज्य या प्लेटो का आदर्श राज्य।
दार्शनिक राजनीतिक सिद्धांत की सीमाएं :-
- कल्पनाशील और व्यक्तिनिष्ठ: यह सिद्धांत कल्पनाओं और व्यक्तिगत विचारों पर आधारित होता है, जिससे यह वास्तविकता से दूर हो सकता है।
- आदर्शवादिता: इस सिद्धांत में ‘कैसे होना चाहिए’ (ought) पर अधिक बल दिया जाता है, जो व्यावहारिक रूप से अनुकरणीय नहीं होता।
- वास्तविकता से दूरी: दार्शनिक सिद्धांतों में आदर्शवादी और व्यक्तिनिष्ठ दृष्टिकोण होने के कारण वे वास्तविक राजनीतिक समस्याओं का व्यावहारिक समाधान नहीं प्रस्तुत कर पाते हैं।
- सत्यापन की कठिनाई: इसके निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ सत्यापन की कसौटी पर खरे नहीं उतरते और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इन्हें परखा नहीं जा सकता।
कानूनी-संस्थागत दृष्टिकोण
कानूनी (Legal) और संस्थागत (Institutional) दृष्टिकोण राजनीतिक अध्ययन के दो अलग-अलग उपागम हैं, लेकिन प्रायः इनका उपयोग एक साथ किया गया है। दोनों उपागम राजनीतिक व्यवस्था को कानूनी संस्थाओं, संरचनाओं और विधियों के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं।
क. कानूनी दृष्टिकोण
कानूनी दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति को संविधान, विधि और कानूनी संहिताओं के रूप में देखा जाता है। इसके माध्यम से राज्य, संप्रभुता, सरकार, न्याय, अधिकार, आदि का अध्ययन कानूनी प्रावधानों के आधार पर किया जाता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, कोई भी राजनीतिक संस्था या घटना कानूनी परिप्रेक्ष्य में समझी जा सकती है।
कानूनी दृष्टिकोण की विशेषताएं:-
- औपचारिकता: यह दृष्टिकोण औपचारिक कानूनी ढाँचों पर जोर देता है।
- इतिहास और परंपरा: कई विचारकों ने इस दृष्टिकोण को ऐतिहासिक दृष्टिकोण का एक भाग माना है।
- कानूनी आधार पर राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन: इस दृष्टिकोण के अंतर्गत राज्य, कानून, संप्रभुता, और अंतर्राष्ट्रीय कानून का अध्ययन किया जाता है।
ख. संस्थागत दृष्टिकोण
संस्थागत दृष्टिकोण के अनुसार राजनीतिक अध्ययन का केंद्र बिंदु राजनीतिक संस्थाएँ होती हैं, जैसे कि सरकार, संसद, न्यायालय आदि। यह दृष्टिकोण राजनीतिक जीवन और सरकारी संस्थाओं के औपचारिक पक्षों का अध्ययन करता है।
संस्थागत दृष्टिकोण की विशेषताएं:-
- संस्थाओं पर ध्यान केंद्रित: इस दृष्टिकोण में संविधान, सरकार, संसद, न्यायालय, और स्थानीय संस्थाओं जैसी संस्थाओं का अध्ययन शामिल होता है।
- औपचारिक संरचना: संस्थागत दृष्टिकोण संस्थाओं की संरचना, कार्यप्रणाली और उनके अधिकारों का विश्लेषण करता है।
- यथार्थवादी: यह दृष्टिकोण यथार्थवादी होने के साथ-साथ औपचारिकता पर भी बल देता है, जिसमें संस्थाओं के संगठनों और प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
ग. कानूनी-संस्थागत दृष्टिकोण
कानूनी और संस्थागत दृष्टिकोण एक-दूसरे के पूरक हैं। इस दृष्टिकोण में कानूनी ढाँचे के साथ-साथ संस्थाओं के औपचारिक और संरचनात्मक स्वरूप का अध्ययन शामिल होता है। अधिकतर सरकारी और अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन इसी दृष्टिकोण पर आधारित होते हैं।
कानूनी-संस्थागत दृष्टिकोण की सीमाएँ:-
- ऊपरी दृष्टिकोण: कानूनी और संस्थागत दृष्टिकोण राजनीतिक जीवन के सतही या औपचारिक पहलुओं तक सीमित रहते हैं और राजनीतिक वास्तविकताओं की गहराई तक नहीं जाते।
- प्रथम और द्वितीय महायुद्ध में असफलता: दोनों महायुद्धों में संस्थाएँ और कानूनी प्रावधान कई बार असफल हुए, जिससे इस दृष्टिकोण की सीमाओं का पता चला।
- प्राकृतिक राजनीति की अवहेलना: यह दृष्टिकोण राजनीति की वास्तविक संरचनाओं, शक्ति-संबंधों, और व्यक्तिगत-समूह संबंधों को नजरअंदाज करता है।
- अन्यायपूर्ण व्यवस्था: उपनिवेशवाद के समय थोपे गए कानूनी-संस्थागत ढाँचे कई देशों में अस्थिरता का कारण बने, जिससे कानूनी-संस्थागत दृष्टिकोण की व्यावहारिकता पर प्रश्नचिह्न लग गया।
व्यवहारवादी दृष्टिकोण
आधुनिक राजनीति विज्ञान में व्यवहारवाद एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण बन गया है, जिसने राजनीतिक अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक और व्यवस्थित बनाने का प्रयास किया। इस दृष्टिकोण का विकास द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ, जब राजनीतिक अध्ययन में व्यवहार और तथ्य-आधारित दृष्टिकोण पर जोर दिया गया।
1. व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान का प्रारंभ
- व्यवहारवादी दृष्टिकोण की नींव चार्ल्स ई. मरियम ने रखी, जिन्होंने सर्वप्रथम राजनीतिक शोध में 'राजनीतिक व्यवहार' को शामिल करने पर जोर दिया। इसके बाद ऑर्थर बेंटले ने समूह और प्रक्रिया की संकल्पनाओं के माध्यम से इस दृष्टिकोण को एक मजबूत आधार प्रदान किया। इस दृष्टिकोण का विस्तार अमेरिका के कई विद्वानों द्वारा किया गया, जिन्होंने इसे आंदोलन का रूप दे दिया।
2. व्यवहारवाद के उदय के कारण
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, राजनीति विज्ञान में परंपरागत दृष्टिकोणों की सीमाओं के कारण व्यवहारवादी दृष्टिकोण का उदय हुआ। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- परंपरागत दृष्टिकोण से असंतोष: बदलती परिस्थितियों में परंपरागत दृष्टिकोण को अप्रासंगिक माना गया।
- वैज्ञानिक विश्लेषण की जरूरत: नई राजनीतिक चुनौतियों का व्यवस्थित और वैज्ञानिक विश्लेषण करने की आवश्यकता थी।
- अन्य सामाजिक विज्ञानों से पिछड़ना: राजनीति विज्ञान के लिए अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ तालमेल जरूरी हो गया।
- यथार्थवादी दृष्टिकोण की मांग: युद्ध के बाद की परिस्थितियों ने अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण की आवश्यकता उत्पन्न की।
3. व्यवहारवाद का अर्थ व परिभाषा
- व्यवहारवाद को एक दृष्टिकोण और अध्ययन के विशिष्ट उपागम के रूप में देखा जाता है। यह राजनीतिक घटनाओं को अनुभवजन्य (empirical) तथ्यों और वैज्ञानिक विधियों के आधार पर समझने की एक पद्धति है।
- डेविड टू मैन के अनुसार, व्यवहारवाद का उद्देश्य राजनीतिक घटनाओं को मनुष्यों के व्यवहार के आधार पर समझना है। इसी तरह डेविड ईस्टन के अनुसार, यह दृष्टिकोण राजनीतिक प्रणाली के विभिन्न घटकों का अनुभवजन्य अध्ययन है।
4. व्यवहारवाद के उद्देश्य
व्यवहारवाद के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं:-
- राजनीतिक घटनाओं का स्पष्ट और तथ्य-आधारित विश्लेषण।
- सैद्धांतिक ढांचे का विकास: व्यवहार आधारित सिद्धांतों को विकसित करना।
- व्यक्ति को अध्ययन की मूल इकाई बनाना: व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार पर अधिक जोर।
- अनुभवजन्य शोध: सभी प्रस्थापनाओं का तथ्य-आधारित मूल्यांकन।
5. व्यवहारवाद की राजनीति विज्ञान को देन
व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान को कई महत्वपूर्ण योगदान दिए, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं:-
- वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा: इसने शोध में वैज्ञानिक तकनीकों और परिष्कृत विधियों का प्रचलन किया।
- अंतर-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण: इसने अन्य सामाजिक विज्ञानों से ज्ञान लेकर उन्हें राजनीति में लागू किया।
- नवीन शब्दावली: व्यवहारवादी दृष्टिकोण ने नई राजनीतिक शब्दावली विकसित की।
6. व्यवहारवाद की सीमाएँ और आलोचना
व्यवहारवाद की सीमाएँ और इसके विरोध में दिए गए तर्क निम्नलिखित हैं:
- मूल्य-निरपेक्षता की सीमा: अनुसंधान विषय का चयन और अध्ययनकर्ता के मूल्यों से प्रभावित होता है, जो मूल्य-निरपेक्षता के सिद्धांत के विपरीत है।
- कल्पनालोक में पहुंचने का खतरा: व्यवहारवादी वैज्ञानिक अक्सर राजनीति के यथार्थ से कट जाते हैं और सैद्धांतिक आदर्शों में खो जाते हैं।
- समाज-विज्ञान के विषयों में वैज्ञानिक पद्धति का सीमित प्रयोग: सजीव मानव व्यवहार का विश्लेषण करते समय भौतिक विज्ञानों जैसी वैज्ञानिक पद्धतियाँ अपनाना व्यवहारिक नहीं होता।
7. डेविड ईस्टन की व्यवहारवादी आलोचना
डेविड ईस्टन, आधुनिक राजनीति विज्ञान के एक प्रतिष्ठित विद्वान, ने 1960 के दशक में व्यवहारवाद की सीमाओं और समस्याओं की आलोचना की। ईस्टन का मानना था कि व्यवहारवाद के अत्यधिक तकनीकी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण, राजनीतिक विज्ञान अपने सामाजिक और मानवीय उद्देश्यों से भटक गया है।
व्यवहारवाद की मूल विशेषताएं और आलोचना
व्यवहारवाद, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के समय में राजनीति के वैज्ञानिक अध्ययन की ओर एक क्रांति के रूप में उभरा। इसने राजनीति के अध्ययन में अनुभवजन्य (empirical) और निष्पक्षता (objectivity) पर जोर दिया, जिससे परंपरागत मान्यताओं को पीछे छोड़ दिया गया। इसका उद्देश्य था राजनीतिक व्यवहार का विश्लेषण वैज्ञानिक तरीकों से करना, तथ्यों को मापना और राजनीतिक जीवन की जटिलताओं को समझना।
हालांकि, ईस्टन ने इसे "समाज से कटा हुआ" पाया और इसकी आलोचना इस आधार पर की:-
- मूल्य-निरपेक्षता की समस्या: ईस्टन का मानना था कि व्यवहारवाद ने नैतिकता और मूल्यों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया। व्यवहारवादियों का दृष्टिकोण राजनीतिक अध्ययन को निष्पक्ष बनाना था, लेकिन ईस्टन के अनुसार, इससे सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी कमजोर हो गई।
- अत्यधिक तकनीकी झुकाव: व्यवहारवादी अध्ययन में तकनीकी और पद्धतियों पर इतना जोर दिया गया कि विषय की वास्तविकता और प्रासंगिकता को नजरअंदाज कर दिया गया। ईस्टन का मानना था कि तकनीकी दक्षता महत्वपूर्ण है, लेकिन विषय की प्रासंगिकता अधिक आवश्यक है।
- आदर्शों की अनदेखी: ईस्टन के अनुसार, राजनीतिक विज्ञान का उद्देश्य न केवल तथ्यों का संग्रहण होना चाहिए, बल्कि उन आदर्शों की भी रक्षा करना चाहिए जो समाज को एक सकारात्मक दिशा में ले जाते हैं।
- मानव व्यवहार का संपूर्ण दृष्टिकोण: ईस्टन ने कहा कि राजनीतिक अध्ययन में मानव व्यवहार को केवल आंकड़ों और तथ्यों से नहीं समझा जा सकता। उन्होंने व्यवहारवाद की आलोचना की कि यह राजनीति के लिए समाजशास्त्र और मनोविज्ञान जैसी अंतर्विषयक दृष्टिकोणों का उपयोग करने में असफल रहा।
- समाज की समस्याओं की अनदेखी: ईस्टन ने व्यवहारवाद की आलोचना करते हुए कहा कि जब समाज वियतनाम युद्ध, नस्लीय विभाजन और अन्य सामाजिक समस्याओं से गुजर रहा था, तब व्यवहारवादी राजनीतिक वैज्ञानिक अपनी शोध तकनीकों में उलझे हुए थे। ईस्टन ने इसे "समाज से कटे हुए एक दृष्टिकोण" के रूप में वर्णित किया।
उत्तर-व्यवहारवाद का परिचय
उत्तर-व्यवहारवाद, व्यवहारवाद का एक सुधारात्मक चरण है, जिसमें राजनीतिक वैज्ञानिकों ने व्यवहारवाद को अपनाया तो है, परंतु उसमें सुधार की आवश्यकता को भी महसूस किया। इसका उद्देश्य सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए राजनीतिक विज्ञान को प्रासंगिक बनाना है। इस आंदोलन ने कर्म और प्रासंगिकता (Action and Relevance) पर जोर दिया, ताकि राजनीति समाज के मौजूदा मुद्दों के समाधान का साधन बन सके।
डेविड ईस्टन का योगदान
1969 में डेविड ईस्टन ने "अमेरिकन पॉलिटिकल साइंस एसोसिएशन" में उत्तर-व्यवहारवाद को एक "सुधार आंदोलन" का नाम दिया। उनका मानना था कि राजनीतिक विज्ञान को केवल तकनीकी और वैज्ञानिक अध्ययन तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसे सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए प्रासंगिक बनाना आवश्यक है। उन्होंने उत्तर-व्यवहारवाद के सात प्रमुख सिद्धांतों को "क्रीडो ऑफ रिलीवेंसेस" के रूप में प्रस्तुत किया।
उत्तर-व्यवहारवाद की विशेषताएं
- प्रासंगिकता पर जोर: उत्तर-व्यवहारवाद में तकनीकी पहलुओं से अधिक विषय-वस्तु को प्राथमिकता दी जाती है ताकि यह समाज की वास्तविक समस्याओं से जुड़ा रह सके।
- मूल्य-निरपेक्षता का विरोध: यह आंदोलन मानवीय मूल्यों और आदर्शों की सुरक्षा का समर्थन करता है और उन्हें शोध का हिस्सा मानता है।
- समाज में बुद्धिजीवियों की भूमिका: उत्तर-व्यवहारवादियों ने राजनीतिक वैज्ञानिकों को याद दिलाया कि समाज में उनकी भूमिका केवल अध्ययन करना नहीं है, बल्कि समस्याओं का समाधान ढूंढना भी है।
- समाज की समस्याओं का समाधान: यह दृष्टिकोण राजनीति को विरोध समाधान की एक प्रक्रिया के रूप में देखता है और सुझाव देता है कि राजनीतिक विज्ञान को इस प्रकार विकसित होना चाहिए कि वह समाज की समस्याओं का समाधान कर सके।
2. उत्तर-व्यवहारवाद का प्रभाव
- उत्तर-व्यवहारवाद ने राजनीतिक विज्ञान को एक नई दिशा दी, जिसमें अध्ययन को अधिक सामाजिक रूप से प्रासंगिक और मानवीय मूल्यों से जुड़ा बनाया गया। इसने राजनीतिक विज्ञान को केवल तकनीकी नज़रिये से परे जाकर एक व्यापक सामाजिक उद्देश्य प्रदान किया, जिससे राजनीतिक वैज्ञानिकों को समाज की वास्तविक समस्याओं के समाधान की ओर प्रेरित किया गया।
राजनीतिक सिद्धांत की प्रासंगिकता
राजनीतिक सिद्धांत की प्रासंगिकता समझने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम इसके विकास को इतिहास के संदर्भ में देखें। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ग्राहम वालस और आर्थर बेंटले ने राजनीति को केवल संस्थाओं के नजरिए से न देखकर मनोविज्ञान और समाजविज्ञान के पहलुओं से जोड़कर देखा। वालस ने राजनीति में मनुष्य के व्यवहार पर जोर दिया, जबकि बेंटले ने समाज में समूहों के व्यवहार के महत्व को समझाया। इन दोनों की दृष्टि ने राजनीतिक अध्ययन में एक नया अनुभवमूलक (Empirical) मोड़ लाया, जिससे शक्ति (Power), सत्ता (Authority), और राजनीतिक विशिष्ट वर्ग (Political Elites) जैसे संकल्पनाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया।
आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएं :-
- सामाजिक संदर्भ का महत्व: आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत में यह माना जाता है कि राजनीतिक संस्थाएं और प्रक्रियाएं सामाजिक संरचनाओं से प्रभावित होती हैं और उन्हें प्रभावित करती हैं। राज्य और व्यक्ति के मध्य अन्य सामाजिक संस्थाओं की भूमिका पर ध्यान देना इस सिद्धांत का हिस्सा है।
- वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग: राजनीतिक व्यवहार के नियमों को समझने के लिए कार्य-कारण (Cause and Effect) और क्रिया-प्रतिक्रिया (Action and Reaction) के परस्पर संबंधों को देखा जाता है, जिससे राजनीति की प्रक्रियाओं का विश्लेषण संभव हो पाता है।
- विश्लेषण और व्याख्या: राजनीतिक सिद्धांत में विश्लेषण और व्याख्या के प्रयास किए जाते हैं, जिसमें प्राक्कल्पना (Hypothesis), डेटा संग्रहण और परीक्षण के माध्यम से राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझा जाता है।
- संविधान के स्थान पर राजनीतिक प्रणाली: संविधान पर केंद्रित अध्ययन की अपेक्षा राजनीतिक प्रणाली को संपूर्णता में देखा जाता है, जिसमें समाज में सहमति, मतभेद, और राजनीतिक संस्कृति जैसे पहलुओं का भी अध्ययन किया जाता है।
- अंतर्विषयक दृष्टिकोण: राजनीति के अध्ययन में समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानवविज्ञान और मनोविज्ञान जैसे अन्य विषयों के योगदान को भी जोड़ा जाता है।
राजनीतिक सिद्धांत की प्रासंगिकता और उपयोगिता
राजनीतिक सिद्धांत केवल एक व्याख्यात्मक साधन ही नहीं, बल्कि उससे कहीं अधिक है। यह उन विचारों का निर्माण और संगठन करता है जिन्हें मनुष्य अपने उद्देश्यों के लिए गढ़ता है। यूजीन जे. महान के अनुसार, एक अच्छे सिद्धांत में सौंदर्य, सरलता, उत्पादकता और संतोषजनक गुण होते हैं। निम्नलिखित तर्कों के माध्यम से राजनीतिक सिद्धांत की प्रासंगिकता की उपयोगिता स्पष्ट की जा सकती है:-
- अनुशासनात्मक एकता: आधुनिक राजनीतिक चिंतन और सिद्धांत राजनीतिक विज्ञान में एकीकरण, सामंजस्य, और वैज्ञानिकता लाते हैं, जो अन्य शोध संभावनाओं को खोलते हैं। यह अनुशासन की प्रगति के लिए आवश्यक है।
- अवधारणात्मक विचारबन्ध: राजनीतिक सिद्धांत तथ्यों के संग्रह और विश्लेषण को प्रेरणा देता है। इसके लचीलेपन से सिद्धांतों को नए तथ्यों और अनुभवों के आधार पर संशोधित किया जा सकता है।
- वैज्ञानिक व्याख्या में सहायक: राजनीतिक सिद्धांत वैज्ञानिक व्याख्या को सरल बनाता है और नए क्षेत्रों में अनुसंधान के द्वार खोलता है। इससे राजनीतिक घटनाओं का पूर्वानुमान और सही निर्णय लेना संभव होता है।
- सभी पक्षों को संतोष और आत्मविश्वास प्रदान करना: एक अच्छा राजनीतिक सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय राजनीति में आत्मविश्वास बढ़ाता है और समाज के विभिन्न पक्षों को संतोष प्रदान करता है।
- वास्तविकता की समझ: सिद्धांत विषय सामग्री में एकरूपता, संगति और सम्बद्धता लाकर अनुशासन के स्तर को ऊंचा करता है, जिससे वास्तविकता को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
- सत्ता की वैधता का उपकरण: सिद्धांत जनता की दृष्टि में शासन प्रणाली और शासकों की वैधता को स्थापित करने में सहायक होते हैं। चाहे वह राष्ट्रवाद हो या समाजवाद, इससे शासन का प्रभाव स्वाभाविक रूप से बढ़ता है।
- समस्याओं का समाधान: सिद्धांत शांति, विकास और अन्य सामाजिक मुद्दों को हल करने में सहायक है। इसके द्वारा मनुष्य विनाशकारी विचारधाराओं का भंडाफोड़ कर सकता है और विश्व में शांति स्थापित कर सकता है।
- मूल्यांकन में सहायक: एक विकसित सिद्धांत वर्तमान घटनाओं का आकलन करने और उद्देश्य प्राप्ति के लिए उपयुक्त राजनीतिक विकल्पों का चुनाव करने में सहायक होता है।
- निर्णय लेने में सहायक: राजनीतिज्ञ, प्रशासक और नागरिक राजनीतिक सिद्धांत के माध्यम से राजनीति के विविध स्वरूपों को समझ सकते हैं और सही निर्णय ले सकते हैं।
- मानव समाज की प्रगति: राजनीतिक सिद्धांत समाज की राजनीतिक, संवैधानिक और वैधानिक प्रगति के लिए आवश्यक होता है। यह अनुभवों का संक्षेपण करके नए तथ्यों और समस्याओं का समाधान प्रदान करता है।
- राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और नैतिक कार्य: सिद्धांत शासन प्रणालियों को वैधता प्रदान करने के साथ ही मनोवैज्ञानिक और नैतिक मार्गदर्शन भी देता है। यह व्यक्ति को नैतिकता और ज्ञान की ओर प्रेरित करता है।
अंतःविषय दृष्टिकोण
अंतःविषयक दृष्टिकोण का अर्थ है किसी विषय का अध्ययन करते समय अन्य सम्बंधित विषयों का सहयोग लेना, जिससे अध्ययन अधिक व्यापक, गहन, और सार्थक बनता है। राजनीति विज्ञान में, यह दृष्टिकोण अन्य सामाजिक विज्ञानों जैसे समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र और इतिहास का सहयोग लेता है। यह दृष्टिकोण राजनीति को समझने के लिए विभिन्न विषयों से मिले निष्कर्षों, सिद्धांतों और मॉडल का उपयोग करता है, जिससे एक समग्र और विस्तृत अध्ययन संभव हो पाता है।
अंतःविषयक दृष्टिकोण के प्रमुख लक्षण
- अन्य सामाजिक विज्ञानों से सहायता प्राप्ति: राजनीति विज्ञान में अन्य सामाजिक विज्ञानों के सिद्धांतों और निष्कर्षों का उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, कई विद्वान राजनीतिक गतिविधियों की तुलना बाजार की गतिविधियों से करते हैं। इससे राजनीतिक नीतियों और कार्यक्रमों के समर्थन या विरोध की संभावनाओं को समझने में सहायता मिलती है।
- अन्य विज्ञानों से अपनी सामग्री का सत्यापन: अंतःविषयक दृष्टिकोण का दूसरा लक्षण यह है कि राजनीति विज्ञान में अन्य सामाजिक विज्ञानों के सिद्धांतों और निष्कर्षों के आधार पर अपने सिद्धांतों का सत्यापन किया जाता है। उदाहरण के लिए, लोकतंत्र के सिद्धांत को समाजविज्ञान में विशिष्टवर्ग (Elite) सिद्धांत के साथ समन्वित करने की कोशिश की गई, ताकि लोकतंत्र का सिद्धांत समाज की वास्तविकता के अनुरूप हो सके।
- अन्य सामाजिक विज्ञानों में योगदान: अंतःविषयक दृष्टिकोण के तहत राजनीति विज्ञान अन्य विषयों से केवल लेता ही नहीं, बल्कि उन्हें कुछ योगदान भी देता है। उदाहरण के लिए, यह पता लगाने का प्रयास किया जाता है कि कौन-सी राजनीतिक व्यवस्था किस प्रकार के आर्थिक विकास या सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए उपयुक्त होगी। इसमें यह विश्लेषण भी शामिल है कि कैसे भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक समूहों में मेलजोल बनाए रखा जा सकता है या सामाजिक तनावों को दूर किया जा सकता है।
राजनीति के अध्ययन में अन्य सामाजिक विज्ञानों का उपयोग
राजनीति विज्ञान का दायरा विस्तृत है, और इसे अन्य सामाजिक विज्ञानों से उपयोगी सामग्री और सिद्धांत लेकर गहराई और व्यापकता दी जा सकती है।