दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक व्यवस्था पहले की व्यवस्था से काफी अलग थी, खासकर शासक वर्ग (अमीर) और इक्ता प्रशासन के संदर्भ में। इसमें सुल्तान के बाद कुलीन वर्ग सबसे शक्तिशाली था, जो प्रशासन के बड़े पदों पर काबिज था। इन कुलीनों ने एक मजबूत तुर्क साम्राज्य बनाने में बड़ी भूमिका निभाई और राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल करके दूसरों का शोषण किया।
सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग और सेवा संस्कृति में संक्रमण
सल्तनत काल का इतिहास मुख्य रूप से तुर्की कुलीनता की उपलब्धियों और असफलताओं से जुड़ा हुआ है। यह कुलीन वर्ग कोई एकीकृत समूह नहीं था, बल्कि खितई, कारा खितई, इल्बरी जैसे अलग-अलग तुर्की कबीलों से बना था। इस विषय पर मिन्हाज ए-सिराज जुजानी और जिया अल-दीन बरनी जैसे इतिहासकारों ने अपनी कृतियों में गहन जानकारी दी है।
- तुर्की कुलीनता की स्थापना: तराइन की दूसरी लड़ाई (1192) के बाद, मोहम्मद गोरी के साम्राज्य के विस्तार में उनके तुर्की दासों, विशेष रूप से कुतुबुद्दीन ऐबक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यही तुर्की दास या मामलुक, दिल्ली सल्तनत के शुरुआती शासकों के रूप में उभरे। कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210) और इल्तुतमिश (1210-1236) के शासनकाल में तुर्की कुलीनता का विकास हुआ।
- तुर्की दासों का महत्व: शुरुआती दौर में प्रशासन और सेना के प्रमुख पदों पर तुर्की मूल के बन्दागन (गुलाम) ही नियुक्त थे। यह परंपरा इस्लामी भूमि से ली गई थी, जहां गुलामों को उच्च पद देना सामान्य प्रथा थी।सुल्तान स्वयं भी इस समूह का हिस्सा थे और सत्ता में उनका उदय उनकी योग्यता और राजनीतिक कौशल पर निर्भर करता था। सुल्तान और अमीर एक-दूसरे पर निर्भर थे, जिससे यह व्यवस्था और मजबूत हुई।
- संघर्ष और बदलाव: तुर्की दासों का उदय हमेशा सुगम नहीं था। मोहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद, पुराने घोरियन अमीर (घोर के शासक वर्ग) ने नए तुर्की कुलीनों का विरोध किया। इस संघर्ष ने दिल्ली सल्तनत की प्रारंभिक राजनीति को प्रभावित किया।
- अमीर वर्ग में विविधता: यद्यपि तुर्कों को सुल्तानों का विशेष संरक्षण प्राप्त था, अमीर वर्ग में ताजिक और खिलजी भी शामिल थे। शासक वर्ग की संरचना समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रही।
- इतिहासकार ए.बी.एम. हबीबुल्लाह के अनुसार, 13वीं शताब्दी की भारत-तुर्की गुलाम नौकरशाही एक संयुक्त परिवार की तरह थी। तुर्की कुलीनों ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना, समेकन और विस्तार में निर्णायक भूमिका निभाई, लेकिन आंतरिक संघर्षों और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा ने उनकी ताकत को बार-बार चुनौती दी। यह कहानी हमें सल्तनत काल के शुरुआती दिनों की जटिल राजनीति और तुर्की कुलीनता के अद्वितीय महत्व को समझने में मदद करती है।
लबारि के तहत अभिजात शासक वर्ग का विकास
1. तुर्की दासों का उत्थान और प्रारंभिक संघर्ष: तेरहवीं शताब्दी में तुर्की दासों का उदय न केवल पुराने और नए कुलीनों, बल्कि दासों और मुक्त पुरुषों के बीच संघर्ष की कहानी है। मोहम्मद गोरी के तीन प्रमुख दास—ताज अल-दीन यल्दुज, नासिर-अल-दीन कुबाचा और कुतुबुद्दीन ऐबक—ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- जुज्जानी ने इन्हें बंदागन-ए-खास कहा, जो उनकी क्षमता और गोरी के साथ घनिष्ठ संबंधों को दर्शाता है।
- ऐबक के शासनकाल में, गजनी से संबंध टूटने लगे और कुतबी दास समूह का निर्माण हुआ।
2. इल्तुतमिश का शासनकाल (1210-1236): इल्तुतमिश का शासन तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है:-
- 1210-1220: विरोधियों का दमन।
- 1221-1227: मंगोल आक्रमण से सल्तनत की रक्षा।
- 1228-1236: व्यक्तिगत और वंशवादी अधिकार को मजबूत करना।
- उन्होंने कुतबी दासों और प्रवासी ताजिकों के समर्थन से प्रशासन चलाया। दिल्ली को मंगोल आक्रमण से बचाने के कारण मध्य एशिया के कई ताजिक शरणार्थी दिल्ली आए।
3. चालीसा का गठन : इल्तुतमिश ने वफादार तुर्की दासों का एक विशेष समूह बनाया, जिसे चालीसा या बंदागन-ए-खास कहा गया।यह एक संभ्रांत समूह था, जिसमें प्रमुख सदस्य घियास अल-दीन बलबन और शिर खान शामिल थे। प्रशासन और सेना में तुर्कों का वर्चस्व बना रहा, जबकि ताजिक और स्थानीय हिंदू सरदारों का योगदान सीमित था।
4. इल्तुतमिश की मृत्यु और सत्ता संघर्ष: इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद, तुर्क और गैर-तुर्क समूहों के बीच संघर्ष बढ़ा। रुकन अल-दीन फिरोज शाह (1236) के शासनकाल में ताजिकों का प्रभाव बढ़ा, लेकिन तुर्कों ने रजिया (1236-1240) को सिंहासन पर बैठाकर उनका प्रभुत्व खत्म कर दिया। रजिया और अन्य शासकों के समय, कुलीन वर्ग की शक्ति में वृद्धि हुई, जिससे ताज कमजोर हुआ।
5. बलबन का उदय (1266-1287): घियास अल-दीन बलबन ने तुर्की कुलीनता को नियंत्रित करने और सुल्तान की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने के लिए कड़े कदम उठाए। रक्त और लोहे की नीति अपनाई। राजत्व के दैवीय सिद्धांत पर जोर दिया और कुलीन वर्ग को सत्ता से दूर रखा। उन्होंने तुर्कों की शक्ति को खत्म कर घियासी रईसों का निर्माण किया।
6. नए समूहों का उदय:-
- ताजिक और खिलजी: ताजिकों ने प्रशासन में अहम भूमिका निभाई, जबकि खिलजी समूह सीमांत क्षेत्रों तक सीमित थे।
- मंगोल अप्रवासी: बलबन के समय में इनका प्रभाव बढ़ा।
- हिंदू सरदार: प्रशासन में उनकी भूमिका नगण्य थी।
7. कुलीन वर्ग में बदलाव और खिलजी वंश की स्थापना: बलबन की मृत्यु के बाद तुर्की कुलीनता कमजोर हुई। जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296) ने तुर्की प्रभुत्व को समाप्त कर खिलजी वंश की स्थापना की। उन्होंने वंशानुगत दावे को खारिज कर शासक बनने की नई परंपरा शुरू की।
खिलजी वंश के अधीन शासक अभिजात वर्ग
1. जलालुद्दीन खिलजी का शासन (1290-1296):
- सत्ता का स्थानांतरण: बर्नी ने जलालुद्दीन खिलजी के ताजपोशी को "एक जाति से दूसरी जाति में सत्ता का स्थानांतरण" कहा, जिससे यह गलत धारणा बनी कि खिलजी गैर-तुर्क थे।
- शासन की संरचना: जलालुद्दीन ने अपने परिवार और खलज कबीले के पुरुषों को उच्च पद दिए, जैसे उनके भाई मलिक खामुश और भतीजे अलाउद्दीन खिलजी। उन्होंने पुराने इल्बारी और घियासी रईसों को भी प्रशासन में बनाए रखा, जैसे फख-अल-दीन दिल्ली का कोतवाल रहा। यह संरचना कबीलाई राज्य और रक्त संबंधों पर आधारित थी।
- सुलह की नीति: एस.बी.पी. निगम के अनुसार, जलालुद्दीन ने पुराने तुर्की रईसों के साथ सुलह की नीति अपनाई ताकि अल्पमत में होने के बावजूद अपनी स्थिति मजबूत कर सकें। हालांकि, इस नीति को कमजोरी के रूप में देखा गया, और जलालुद्दीन के खिलाफ विद्रोह हुए।विद्रोहों के दमन में खिलजी और नव-मुस्लिमों की युवा पीढ़ी ने अहम भूमिका निभाई।
- सीमित परिवर्तन: जलालुद्दीन के शासनकाल में कुलीन वर्ग की सामाजिक संरचना में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ। यह इल्बारी व्यवस्था की निरंतरता थी, जिसमें नस्लीय और धार्मिक सीमाएं बरकरार रहीं।
2. अलाउद्दीन खिलजी का शासन (1296-1316):
अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में कुलीन वर्ग की संरचना में बड़ा परिवर्तन हुआ। इसे दो चरणों में देखा जा सकता है:
पहला चरण: व्यक्तिगत सेवा और रक्त संबंधों का महत्व
- पुराने और नए सहयोगियों को पद : तख्तापलट में मदद करने वालों, जैसे उनके रिश्तेदार (अल्मास बेग, सुलेमान शाह) और कड़ा व अवध के सहयोगियों (अला-अल-मुल्क, नुसरत खान) को उच्च पद दिए गए।पुराने इल्बारी रईसों को भी प्रशासन में बनाए रखा, लेकिन उनकी भूमिका सीमित थी।
- प्रशासन का केंद्रीकरण : जलाली रईसों और मंगोलों को हटाकर सत्ता अपने परिजनों और वफादार सहयोगियों तक सीमित कर दी।विरोध को रोकने के लिए कुलीनों की संपत्ति जब्त की, उत्सव और विवाह पर पाबंदी लगाई, और एक मजबूत खुफिया तंत्र स्थापित किया।
दूसरा चरण: नए सामाजिक समूहों का उदय
- भारतीय गुलाम अधिकारी : भारतीय मूल के हिंदू धर्मांतरित और दासों को महत्वपूर्ण पद दिए गए।
- मलिक काफूर, जो गुजरात से पकड़ा गया था, दक्षिण भारत में खिलजी साम्राज्य के विस्तार में मुख्य भूमिका निभाता है।
नई सामाजिक संरचना: अलाई व्यवस्था में अफगान, मंगोल, और भारतीय मुसलमानों का प्रभाव बढ़ा।प्रतिभा और वफादारी के आधार पर नियुक्तियां की गईं, जिससे कुलीन वर्ग का स्वरूप अधिक विविध हो गया।
3. अलाउद्दीन खिलजी के बाद का काल
- मलिक काफूर का प्रभाव: अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद मलिक काफूर ने प्रशासन पर कब्जा कर लिया। उसने विरोधी अलाई रईसों को हटाया और अपने समर्थकों को उच्च पद दिए। प्रशासन में अनुभवहीन दासों का वर्चस्व बढ़ा मुबारक शाह खिलजी (1316-1320) ने पुराने और नए दोनों समूहों को जिम्मेदारियां दीं, लेकिन भारतीय मुसलमानों पर अधिक निर्भर रहे। उनके शासनकाल में नस्लीय संगठन की जगह सामाजिक गतिशीलता का दौर शुरू हुआ।
4. कुलीन वर्ग का विस्तार और सामाजिक गतिशीलता
- विविधता का उदय: अलाउद्दीन के शासनकाल तक तुर्कों और ताजिकों का वर्चस्व कमजोर पड़ने लगा। अब वंचित वर्गों और अन्य पृष्ठभूमि के लोगों को भी अवसर मिलने लगे। अफगानों और नव-मुस्लिमों ने सामाजिक पदानुक्रम में प्रगति की। आई.एच. सिद्दीकी ने इस बदलाव को "सामाजिक गतिशीलता" के रूप में वर्णित किया।
तुगलक वंश के अधीन शासक कुलीनता का विकास
1. गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325):
- सत्तारूढ़ कुलीनता का निर्माण: गयासुद्दीन तुगलक, एक काराउनस तुर्क, ने अलाउद्दीन खिलजी के समय से सेवा की थी। उन्होंने पुराने अलाई रईसों और इल्बारी कुलीनों को सम्मान और इक्ता देकर पुनः संगठित किया। नए कुलीन वर्ग में उत्तर-पश्चिम के सहयोगियों को भी शामिल किया, जैसे बुरहान-अल-दीन और कमाल-अल-दीन।
- सुलह और समावेशिता की नीति: मलिक होशंग जैसे विद्रोही रईसों के साथ भी अच्छा व्यवहार किया। यह संतुलन सुनिश्चित करता था कि शासनकाल में कोई उल्लेखनीय विरोध न हो।
2. मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351):
- नए कुलीन वर्ग का निर्माण: गयासी रईसों को विरासत में लिया, लेकिन नए विदेशी और भारतीय तत्वों को शामिल कर कुलीन वर्ग को विविध बनाया। विदेशी समुदायों जैसे अरब, मंगोल, अफगान, फारसी, और बदख्शाई को "अमीरन-ए-सदा" में नियुक्त किया गया। भारतीय धर्मांतरित और गैर-मुस्लिम भी प्रशासन का हिस्सा बने, जैसे रतन (कायस्थ), किशन, और समारा सिंह।
- सामाजिक विविधता: निम्न जातियों और पिछड़े वर्गों को भी प्रशासन में शामिल किया गया, जैसे अजीज खुमार (शराब बनाने वाला) और पेरा माली (माली)।यह प्रक्रिया बरनी द्वारा आलोचना का विषय बनी, लेकिन यह प्रशासन की समावेशिता का संकेत था।
- कुलीन वर्ग में अस्थिरता: घियासी रईसों के असंतोष और स्थानीय विरोध को संतुलित करने के लिए विदेशी रईसों पर अधिक निर्भरता बढ़ी। विविधता और महत्वाकांक्षा के बढ़ने से कुलीन वर्ग में संघर्ष और सल्तनत की नीतियों में विफलता देखने को मिली।
3. फिरोज शाह तुगलक (1351-1388):
- वंशानुगत कुलीनता का विकास: कुलीन वर्ग को वंशानुगत बनाया गया, जिससे परिवारों को सत्ता में स्थिरता मिली लेकिन नई प्रतिभाओं के लिए अवसर खत्म हुए। उनकी तुष्टीकरण नीति के तहत स्वतंत्र अमीरों (फारसी, अफगान, भारतीय धर्मांतरित) और शाही दासों को बड़ी भूमिकाएं दी गईं।
- शाही दासों की भूमिका: शाही दासों की संख्या 1,80,000 तक पहुंची, जिनमें से 40,000 दरबार का हिस्सा थे। शाही दासों को प्रशासनिक और सैन्य जिम्मेदारियां दी गईं, जिससे वंशानुगत कुलीनता कमजोर हुई।
- प्रशासन में स्थिरता और सीमाएं: उनके शासन में शक्तिशाली समूहों की अनुपस्थिति थी, लेकिन भाई-भतीजावाद और सीमित प्रतिभा के कारण दीर्घकालिक समस्याएं उभरीं।
4. बाद के तुगलक (1388-1414):
- असक्षम उत्तराधिकारी: फिरोज शाह की मृत्यु के बाद, वजीर और राजकुमार मुहम्मद के नेतृत्व में दो गुट बने।इन गुटों ने सल्तनत को कमजोर कर दिया। सामंतों को नियंत्रित करने में असफलता ने केंद्र सरकार को विफल कर दिया।
- विविधता के प्रभाव: कुलीन वर्ग की विषमता ने सत्ता में संतुलन बनाए रखा, लेकिन यह एक संगठित शक्ति बनने में विफल रहा। प्रशासन में भाई-भतीजावाद और दासों की भूमिका ने नई प्रतिभाओं के अवसर समाप्त कर दिए।
5. तुगलक कुलीनता की विशेषताएं और समस्याएं
- विविधता और समावेशिता: घियासी रईस, तुर्की ममलुक, विदेशी अप्रवासी, हिंदू धर्मांतरित और निम्न जाति के लोग कुलीन वर्ग का हिस्सा बने। सामाजिक विविधता ने प्रशासन में नई संभावनाएं खोलीं लेकिन एकजुटता की कमी बनी रही।
- वंशानुगत प्रशासन: वंशानुगत कुलीनता ने भाई-भतीजावाद को बढ़ावा दिया और नई प्रतिभाओं को अवसर नहीं दिए। दासों का बढ़ता प्रभाव वंशानुगत कुलीनता को कमजोर करता गया।
- सल्तनत का पतन: विविधता के बावजूद, प्रशासनिक अस्थिरता, गुटबाजी और महत्वाकांक्षाओं ने तुगलक शासन को कमजोर कर दिया।लोधी वंश के तहत, जनजातीय अवधारणा पर आधारित शक्ति-साझाकरण की नीति अपनाई गई।
सेवा संस्कृति
- प्रो. सुनील कुमार ने दिल्ली सल्तनत की सेवा संस्कृति को 'बंदगी' और 'नौकरी' जैसे दो शब्दों के माध्यम से परिभाषित किया। 'बंदगी' दासता पर आधारित सेवा थी, जिसमें सेवक सुल्तान के प्रति पूर्ण अधीनता में रहते थे, जबकि 'नौकरी' स्वतंत्र और सम्मानित सेवकों की सेवा को संदर्भित करती थी, जो सुल्तान के व्यक्तिगत संबंधों पर निर्भर थी। इस संस्कृति में तुर्की बन्दागन (गुलाम) को राजकुमारों और नेताओं के रूप में प्रशिक्षित किया गया, लेकिन उन्हें स्थायी स्थिति या अधिकार नहीं दिए गए। उनके कार्यकाल और पदस्थापन पूरी तरह सुल्तान की इच्छा पर निर्भर थे।
- मालिक की मृत्यु के बाद सेवक अक्सर अपनी स्थिति खो देते थे, और यदि सुल्तान की कृपा से बाहर हो जाते, तो उन्हें दुर्गम क्षेत्रों में भेजा जाता था। यह प्रणाली सैन्य श्रम बाजार से जुड़ी थी, जहां सेवकों को उनके कौशल और सेवाओं के आधार पर वेतन दिया जाता था। सुनील कुमार ने यह भी बताया कि खिलजी और तुगलक राजाओं ने शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए नियुक्तियों पर ध्यान दिया और सैन्य श्रम में व्यक्तिगत अधीनता को प्राथमिकता दी। यह सेवा संस्कृति आधुनिक नौकरशाही से अलग थी, क्योंकि यह स्थायित्व की बजाय सुल्तान के साथ व्यक्तिगत संबंधों और वफादारी पर आधारित थी।
इक्ता प्रणाली
इक्ता प्रणाली तुर्की शासन की एक प्रमुख राजनीतिक व्यवस्था थी, जो कर वसूली और सैन्य दायित्वों पर आधारित थी। यह अरबी शब्द "कातिया" से निकली है, जिसका अर्थ "भूमि का हिस्सा" है, और इसे अंग्रेजी में "फीफ" (fief) कहा जा सकता है। इक्ता एक प्रादेशिक असाइनमेंट था, जिसे शासकों द्वारा अधिकारियों (मुक्तियों) को सौंपा जाता था। इसका उद्देश्य राजस्व संग्रह और सैन्य प्रशासन को सुचारू बनाना था। मुक्ति केवल भूमि कर (माल) वसूलने के अधिकारी थे, और उनसे उम्मीद की जाती थी कि वे इसे उचित तरीके से वसूल करें। अगर मुक्ति अनुचित व्यवहार करता, तो सुल्तान उसे इक्ता से वंचित कर सकता था। सुल्तान की सीधी देखरेख में रहने वाली भूमि को "खालिसा" कहा जाता था, और इसका राजस्व सीधे शाही खजाने में जमा किया जाता था।
इक्ता प्रणाली की उत्पत्ति और विकास
- इक्ता प्रणाली इस्लाम के शुरुआती दिनों से अस्तित्व में थी और इसका व्यवस्थित विकास अब्बासिद खलीफा के काल में हुआ। मध्य एशिया में बुवैय्यद शासकों के अधीन इसे सैन्य सेवा से जोड़ा गया, जबकि सल्जूक शासकों ने घुड़सवार सैनिकों को इक्ता देने की शुरुआत की। इसमें प्रशासनिक और सैन्य दोनों प्रकार के दायित्व शामिल थे। इक्ता धारक (मुक्ती) कर संग्रहकर्ता, सेना के भुगतानकर्ता, और कमांडर होता था। यह प्रणाली शासक वर्ग की आय और शक्ति का आधार थी, जो सैन्य और प्रशासनिक स्थायित्व बनाए रखने में सहायक थी।
तेरहवीं शताब्दी में भारत में इक्ता प्रणाली का परिचय
- घोरियन विजय और इक्ता का प्रारंभ: गोरी की विजय के बाद, जीत के क्षेत्रों को कमांडरों में बांटा गया, जो लूट से खुद और अपने सैनिकों का भरण-पोषण करते थे। इन क्षेत्रों को बाद में इक्ता कहा गया और इनके प्रबंधनकर्ताओं को मुक्ती या वालि कहा जाता था।
- सल्तनत काल में इक्ता प्रणाली: दिल्ली सल्तनत के शुरुआती समय में, मौद्रिक प्रणाली कमजोर थी। शासकों ने भूमि राजस्व को अधिकारियों का वेतन बनाने के लिए इक्ता प्रणाली का उपयोग किया। इससे सुल्तानों को समाज की अतिरिक्त उपज का बड़ा हिस्सा मिल सका।
- इक्ता धारकों की जिम्मेदारियाँ: मुक्तियों को खराज और अन्य कर वसूलने का अधिकार था। यह कर उनके सैनिकों और प्रशासन के लिए उपयोग होता था, और अधिशेष सुल्तान के खजाने में जाता था। उनके कार्यों में कर संग्रह, प्रशासन और सैन्य संचालन शामिल थे।
इक्ता के प्रकार:
- इक्ता-ए-तामलिक: इसमें भूमि दी जाती थी और प्रशासनिक जिम्मेदारी भी होती थी।
- इक्ता-ए-इस्तिगल: इसमें गुजारे के लिए वजीफा दिया जाता था, लेकिन कोई प्रशासनिक जिम्मेदारी नहीं होती थी।
इक्ता का स्वरूप और महत्त्व:
- सुनील कुमार के अनुसार, इक्ता केवल भूमि का टुकड़ा नहीं था, बल्कि एक बड़ा क्षेत्र होता था, जिसमें कस्बे, किले, बाजार और कृषि भूमि शामिल होती थी। इक्ता का सामरिक और भौगोलिक महत्त्व नियुक्ति का आधार था।
इतिहासकारों का दृष्टिकोण:
- इरफान हबीब: इक्ता प्रणाली के विकास के तीन चरणों का वर्णन किया।
- पीटर जैक्सन: फारसी इतिहासकारों ने प्रांतों के लिए इक्ता शब्द का प्रयोग किया।
- इक्ता प्रणाली न केवल प्रशासनिक व्यवस्था थी, बल्कि यह सुल्तानों के लिए राजस्व, सैन्य संचालन, और दूरस्थ क्षेत्रों को केंद्र से जोड़ने का एक प्रभावी माध्यम भी थी।
इल्तुतमिश के अधीन इक्ता प्रणाली
1. प्रशासनिक संगठन में इक्ता का मुख्य स्थान: 1210 में इल्तुतमिश के राज्याभिषेक के साथ, इक्ता प्रणाली दिल्ली सल्तनत के प्रशासनिक संगठन का प्रमुख हिस्सा बन गई। पूरे सल्तनत क्षेत्र (मुल्तान से लखनौती तक) को बड़े और छोटे इक्ताओं में विभाजित किया गया।
2. इक्ता के दो प्रकार:
- प्रांतीय स्तर का इक्ता: बड़े और महत्वपूर्ण इक्ता प्रांतीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण रईसों को दिए गए। इन्हें प्रशासनिक, वित्तीय, और सैन्य दायित्व निभाने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
- छोटे इक्ता: कुछ गाँवों के छोटे इक्ता आम सैनिकों को वेतन के बदले दिए गए। इन्हें कोई प्रशासनिक या वित्तीय जिम्मेदारी नहीं दी गई।
3. सैनिकों के लिए इक्ता: बरनी के अनुसार, इल्तुतमिश के समय दो हजार इक्तादारों का उल्लेख मिलता है। इन्हें दोआब क्षेत्र में इक्ता सौंपे गए थे। ये इक्ता सुल्तान द्वारा नियंत्रित होते थे, और उनकी ज़िम्मेदारियाँ सीमित थीं।
4. खलीसा भूमि और नियंत्रण: इल्तुतमिश ने खलीसा (सुल्तान की प्रत्यक्ष देखरेख वाली भूमि) का विस्तार किया। तबरहिन्द (भटिंडा) जैसे क्षेत्रों में उसने अपने दासों को खलीसा के प्रशासन के लिए नियुक्त किया। दिल्ली और उसके आसपास के जिलों को भी खलीसा में शामिल किया गया।
5. तुर्कों के लिए इक्ता का आरक्षण: इक्ता केवल तुर्क अधिकारियों को दिया जाता था। इन अधिकारियों को एक इक्ता से दूसरे में स्थानांतरित किया जाता था। हालांकि, सुनील कुमार का मानना है कि इल्तुतमिश के समय सैन्य कमांडरों (बंदगन-ए-खास) को शायद ही कभी स्थानांतरित किया गया। उनके प्रशासनिक अनुभव को प्राथमिकता दी जाती थी।
6. सुरक्षित अभयारण्य और तेरहवीं शताब्दी का परिवर्तन: सैन्य कमांडरों ने संघर्ष के समय इक्ता को अपने सुरक्षित स्थान के रूप में उपयोग किया। हालांकि, तेरहवीं शताब्दी के मध्य से यह प्रवृत्ति बदलने लगी।
बलबन के अधीन इक्ता प्रणाली और इसके विकास
- तेरहवीं शताब्दी के दौरान मुक्ती की स्थिति: तेरहवीं शताब्दी के अधिकांश हिस्से में, मुक्ती (इक्ता धारक) स्थानीय सामंतों या लूट (मवेशियों और गुलामों के रूप में) पर निर्भर थे। ये सामंत बड़े पैमाने पर छापे और लूट के जरिए अपनी शक्ति और संसाधन जुटाते थे। बलबन के समय में, दोआब और कटेहर में तुर्की सैनिकों को दिए गए इक्तारों की शर्तों और कार्यकाल की जांच शुरू की गई।
- बलबन का दृष्टिकोण: बलबन ने इक्ता प्रणाली को सैन्य सेवा के बदले दिया हुआ पुरस्कार माना। जब अनुदेयी (इक्ता धारक) अपनी सैन्य सेवा को पूरा करने में विफल हो गए, तो उन्होंने इक्ता पर अपने वंशानुगत अधिकारों का दावा करना शुरू कर दिया। बलबन ने इन दावों को खारिज कर दिया और कहा कि इक्ता सैन्य सेवा के बदले दिया गया था, न कि वंशानुगत अधिकार के रूप में।
- वंशानुगत अधिकारों का खारिज़: बलबन ने वंशानुगत इक्ता के सिद्धांत को खारिज कर दिया और इसके खिलाफ सख्त कदम उठाए। उन्होंने इक्ता की निगरानी के लिए ख्वाजा को नियुक्त किया, जो इक्ता की आमदनी और खर्च का हिसाब रखने का कार्य करते थे। यह नियुक्ति इक्ता के नियंत्रण में सुधार लाने के लिए थी।
- ख्वाजा की भूमिका: ख्वाजा का कार्य इक्ता के वित्तीय और सैन्य मामलों का संचालन था। वह इक्ता द्वारा जब्त की गई टुकड़ियों का हिसाब रखते थे और खुम्स (भूमि का एक हिस्सा जो सुल्तान को दिया जाता था) के वितरण की देखभाल करते थे। सुनील कुमार के अनुसार, यह कोई नई प्रथा नहीं थी, बल्कि इल्तुतमिश के शासनकाल के दौरान भी ख्वाजा की भूमिका थी।
- इक्ता धारकों और ख्वाजा के बीच मिलीभगत: बलबन के समय में, इक्ता धारक और ख्वाजा के बीच मिलीभगत के उदाहरण भी सामने आए, जो इक्ता प्रणाली के नियंत्रण में समस्याएँ उत्पन्न कर सकते थे।
- तुर्कों के लिए इक्ता का आरक्षण: बलबन के अधीन इक्ता प्राप्तकर्ता मुख्य रूप से तुर्क थे। इन इक्तादारों को इक्ता के रूप में दी गई भूमि के कड़े नियंत्रण और निगरानी के बाद भी, उनके साथ जुड़े विवाद और इक्ता के गलत उपयोग की स्थिति बनी रही।
खलजियों के अधीन बदलाव:
- तेरहवीं शताब्दी के अंत तक मुक्तियों को नागरिक, सैन्य और वित्तीय शक्तियां प्राप्त थीं, लेकिन अलाउद्दीन खिलजी ने इन पर सख्त नियंत्रण स्थापित किया। राजस्व संग्रह की प्रक्रिया को व्यवस्थित करते हुए मुक्तियों को केवल अपने और अपने सैनिकों के लिए निर्धारित आय लेने की अनुमति दी गई, जबकि शेष राजस्व शाही खजाने में जमा करना अनिवार्य था। छोटे इक्तों को समाप्त कर सैनिकों को नकद वेतन देने की व्यवस्था की गई, जिससे केंद्रीय प्रशासन की शक्ति बढ़ी। राजधानी के निकट क्षेत्रों को खालिसा भूमि घोषित कर दिया गया, जिससे इन पर सीधा शाही नियंत्रण स्थापित हुआ। इसके अलावा, दूरस्थ क्षेत्रों में इक्तों को स्थानांतरित कर उन पर भी मजबूत शाही नियंत्रण सुनिश्चित किया गया। इस प्रक्रिया ने इक्ता प्रणाली को केंद्रीकृत और प्रभावी बनाया।