भारत का इतिहास 1200-1550 UNIT 2 CHAPTER 3 SEMESTER 3 THEORY NOTES राजनैतिक सत्ता की अभिव्यक्ति : स्मारक और अनुष्ठान HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत का इतिहास 1200-1550 UNIT 2 CHAPTER 3 SEMESTER 3 THEORY NOTES राजनैतिक सत्ता की अभिव्यक्ति : स्मारक और अनुष्ठान HISTORY DU. SOL.DU NEP COURSES


दिल्ली सल्तनत (1206-1526) तीन शताब्दियों से अधिक समय तक भारत के बड़े हिस्से पर शासन करने वाली एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति थी। सुल्तानों ने एक कुशल प्रशासनिक प्रणाली स्थापित की, जिससे राजस्व बढ़ा और उनका शासन मज़बूत हुआ। तुर्क, फारसी, अफगान और अन्य जातियों के लोग इस राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा बने। सल्तनत की शक्ति का प्रदर्शन वास्तुकला, शाही समारोहों, सिक्कों, और दरबारी इतिहास जैसे माध्यमों से किया गया। इस्लामिक और फारसी परंपराओं का प्रभाव सत्ता के प्रतीकों और प्रथाओं में स्पष्ट था। हालांकि, प्रशासन में शरीयत का पालन हमेशा प्राथमिक नहीं था। सल्तानों ने मस्जिदों, मदरसों और मीनारों का निर्माण करवाकर धार्मिक कर्तव्यों को निभाया। उनकी वास्तुकला और दरबारी रीति-रिवाज सत्ता और सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक बन गए। आगे के अध्ययन में इन पहलुओं और उनके राजनीतिक महत्व को विस्तार से देखा जाएगा।


 कलात्मक राजनीतिक प्राधिकरण : स्मारक  

स्मारकीय वास्तुकला सुल्तानों की राजनीतिक शक्ति और वैभव की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। दिल्ली के मस्जिदों, मकबरों, किलों और महलों जैसे स्मारक उनकी शक्ति और संसाधनों पर पकड़ को दर्शाते हैं। ये निर्माण नई तकनीकों, डिज़ाइनों और सजावटी शैली अपनाने में उनकी सफलता का प्रतीक हैं। 

1. सल्तनत की राजधानियाँ

दिल्ली के सुल्तानों ने कई राजधानी शहरों का निर्माण किया, जैसे किला राय पिथौरा, सिरी, तुगलकाबाद, आदिलाबाद, जहाँपनाह और फिरोजाबाद। पानी की कमी, सुरक्षा चिंताएँ और राजनीतिक चुनौतियाँ राजधानी स्थानांतरित करने के प्रमुख कारण थे। हर नई राजधानी सुल्तान की शक्ति और महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक थी। सुनील कुमार के अनुसार, बार-बार स्थानांतरण न केवल सुल्तानों की आकांक्षाओं को दर्शाता है, बल्कि राजनीतिक परिस्थितियों और शासन की नाजुकता का भी संकेत देता है। सत्ता परिवर्तन और नई व्यवस्थाओं की जरूरत ने इन निर्माणों को आवश्यक बनाया। नई राजधानियाँ सुल्तानों की भव्यता और शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बनीं।


2. मस्जिद-ए जामी, कुतुब परिसर का निर्माण

मस्जिद-ए-जामी, जिसे कुतुब मस्जिद कहा जाता है, सुल्तानों द्वारा विजय के तुरंत बाद बनाई जाने वाली सामूहिक मस्जिदों में से एक थी। ऐबक (1206-10) ने 1192-93 में पृथ्वी राज चौहान के गढ़ पर विजय के बाद इसकी नींव रखी। यह मस्जिद पुराने मंदिरों को तोड़कर उनके अवशेषों का उपयोग करके बनाई गई, जिससे यह विजय और शक्ति का प्रतीक बनी। इसे सुन्नी इस्लाम की रूढ़िवादिता व्यक्त करने और सुल्तानों के धार्मिक और राजनीतिक अधिकार को दर्शाने के लिए डिज़ाइन किया गया था। मस्जिद-ए-जामी, दिहली-ए-कुहना (पुरानी दिल्ली) में स्थित, सल्तनत के अधिकार का प्रमुख केंद्र बनी। बाद में, विभिन्न सुल्तानों ने इसे विस्तार दिया, जिससे इसकी महत्ता और बढ़ गई।


3. ऐबक और इल्तुतमिश के अधीन मस्जिद का निर्माण

  • ऐबक (1206-10): ऐबक ने कुतुब मस्जिद की नींव रखी। यह एक साधारण आयताकार संरचना थी जिसमें आंगन और पश्चिम की ओर किबला दीवार थी। मस्जिद में पत्थर की छतें और शंक्वाकार गुम्बद थे। उन्होंने मीनार (कुतुब मीनार) की नींव भी रखी, जो विजय और धार्मिक शक्ति का प्रतीक बनी। मीनार को घुरिद शैली में बनाया गया, और इसकी सतहों पर कुरान की आयतें और विजय की घोषणाएँ उकेरी गईं।
  • इल्तुतमिश (1210-36): इल्तुतमिश ने मस्जिद का विस्तार किया और मीनार को पूरा किया। उन्होंने मस्जिद में पूर्वी, उत्तरी और दक्षिणी उपनिवेश जोड़े और तीन अतिरिक्त मेहराब बनाए। उनकी डिजाइन में सुलेख पैनलों की कुफिक और तुघरा शैली का उपयोग किया गया।
  • प्रमुख जोड़: ऐबक ने मस्जिद स्क्रीन के सामने एक गुप्त काल के लौह स्तंभ को स्थापित किया, जो पूर्ववर्ती राजाओं की शक्ति को प्रतीकात्मक रूप से अपना बनाने की परंपरा का हिस्सा था।


4 'अला' अल-दीन खिलजी के तहत विस्तार

  • मस्जिद का विस्तार: 'अला' अल-दीन खिलजी (1296-1316) ने कुतुब मस्जिद का आकार दोगुना किया और 1311 में 'अलाई दरवाजा' नामक एक भव्य दक्षिणी प्रवेश द्वार जोड़ा। यह प्रवेश द्वार लाल बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर से बना था, जिसमें अरबी पैटर्न और नस्खी शिलालेखों के ऊर्ध्वाधर बैंड थे।
  • मदरसा और अन्य निर्माण: उन्होंने परिसर में 'एल' आकार का मदरसा और एक नई मीनार बनाने का प्रयास किया, जिसे पूरा नहीं किया जा सका। उनका विस्तार मस्जिद को अधिक विशाल और प्रभावशाली बनाने के लिए था।
  • राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व: कुतुब मस्जिद सल्तनत के राजनीतिक अधिकार और इस्लामी केंद्र के रूप में काम करती थी। यह सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का स्थल भी थी, जहाँ शुक्रवार के प्रवचन और सामाजिक कोड तय किए जाते थे।
  • स्थायी प्रभाव: मीनार का गोलाकार और बांसुरीनुमा डिज़ाइन सल्तनत और बाद के काल की वास्तुकला में दोहराया गया। कुतुब स्थल दिल्ली सुल्तानों की शक्ति और अधिकार का एक प्रमुख प्रतीक बन गया।



पवित्र स्थान का पुनर्लेखन : मंदिर का अपवित्रीकरण और प्राधिकरण की अभिव्यक्ति

कुतुब मस्जिद और अन्य 'विजय मस्जिदें' (1192-1220) इस्लामी शक्ति और अधिकार का प्रतीक थीं। कुतुब मस्जिद के निर्माण में 27 हिंदू और जैन मंदिरों के मलबे का उपयोग किया गया, जो इसके स्तंभों और शिलालेखों में दिखता है। इसी तरह, अजमेर की अढ़ाई दिन का झोंपड़ा, खाटू की शाही मस्जिद, और कामन की तुगरिल मस्जिद भी मंदिर सामग्री के पुनः उपयोग का उदाहरण हैं।

यह प्रक्रिया इस्लामिक विजय और "इस्लाम की ताकत" दिखाने के लिए थी। पंद्रहवीं शताब्दी में भी, मंदिर सामग्री का उपयोग मस्जिद निर्माण का हिस्सा बना रहा। यह केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक शक्ति का भी प्रदर्शन था।

1. इस्लामी प्रतीकवाद

इस्लामी मूर्तिभंजन पूरी तरह से विनाश पर आधारित नहीं था, बल्कि यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान और वास्तुकला के नए रूपों के निर्माण का प्रतीक था।

  • मूर्ति भंजन की अवधारणा: यह कुरान पर नहीं, बल्कि हदीस पर आधारित था, लेकिन इसका पालन क्षेत्रीय और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहा। कई बार मूर्तियों को नष्ट करने की बजाय केवल विरूपित किया गया।
  • मंदिरों का पुनः उपयोग: मंदिर, जो राजनीतिक और सामाजिक शक्ति के केंद्र थे, विजय के बाद पहले शिकार बनते थे। मंदिरों की सामग्री का उपयोग मस्जिदों के निर्माण में किया गया, जैसे कुतुब मस्जिद के खंभों और सजावटी तत्त्वों में।
  • चुनिंदा पुनः उपयोग: कई हिंदू प्रतीक जैसे कीर्तिमुख, कमल, कलश, और कृष्ण जन्म के दृश्य मस्जिद की संरचनाओं में संरक्षित रहे। यह दिखाता है कि मूर्तिभंजन यादृच्छिक नहीं था।
  • सांस्कृतिक संवाद: इस प्रक्रिया में भारतीय और इस्लामी स्थापत्य शैलियों का मेल हुआ। उदाहरण के लिए, घुरिद मस्जिदों में भारतीय रूपांकनों (जैसे गरुड़ और कमल स्क्रॉल) का उपयोग किया गया।
  • इस प्रकार, इस्लामी प्रतीकवाद केवल विनाश नहीं, बल्कि एक परिवर्तनकारी प्रक्रिया थी, जिसने भारतीय वास्तुकला को नई दिशा दी और सांस्कृतिक समृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया।


2. एक सांस्कृतिक संवाद या व्यवधान?

  • अजमेर की अढ़ाई दिन का झोंपड़ा मस्जिद और दिल्ली के कुतुब परिसर भारतीय और इस्लामी स्थापत्य परंपराओं के बीच एक सांस्कृतिक संवाद को दर्शाते हैं।
  • अजमेर में नवाचार: मस्जिद के स्तंभ और छत लूटे गए मंदिरों की सामग्री और स्थानीय कारीगरों की रचनात्मकता का मेल हैं। कारीगरों ने नए डिज़ाइन बनाए, जैसे दो परतों वाले स्तंभ, जो ऊँचाई और हवादारता का एहसास देते हैं।
  • कुतुब परिसर का संवाद: यह इस्लामी स्थापत्य और स्वदेशी मूर्तिकला के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का उदाहरण है। मंदिर की सामग्री का पुनः उपयोग यादृच्छिक नहीं था, बल्कि यह एक नए रूप को बनाने का प्रयास था।
  • मूर्तिभंजन का पुनर्पाठ: मंदिरों का विनाश केवल शक्ति का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि नई सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के लिए एक मंच भी था।
  • अजमेर और कुतुब परिसर इस बात का प्रमाण हैं कि इस्लामिक और भारतीय स्थापत्य परंपराओं का मेल एक सांस्कृतिक संवाद था, जिसने नई वास्तुशिल्प शैलियों को जन्म दिया। हालाँकि, यह मंदिर विनाश के राजनीतिक संदेश को पूरी तरह से नकारता नहीं है।


फिरोज शाह तुगलक और कदम शरीफ का तीर्थ : प्राधिकरण और धर्म की अभिव्यक्ति

दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में फिरोज शाह तुगलक (1351-1388) ने न केवल शहरों, मस्जिदों और मदरसों का निर्माण किया, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक संरचनाओं के माध्यम से अपनी सत्ता और धर्मपरायणता को भी प्रकट किया। उनका सबसे अनूठा कार्य कदम शरीफ (पवित्र चरण) का तीर्थ था, जिसे 1374-76 में पैगंबर मुहम्मद के अवशेषों को समर्पित किया गया।

  • कदम शरीफ का महत्व: फिरोज शाह ने इस परिसर में अपने बेटे फतेह खान की कब्र और पैगंबर के पदचिह्नों को एक साथ रखा, जिसे "कदम शरीफ का तीर्थ" कहा गया। तीर्थ में एक मदरसा, मस्जिद, दरगाह, और मकबरा था, जो दीवार से घिरा हुआ था। पैगंबर के पदचिह्न वाली पत्थर की पटिया मक्का से लाई गई थी, जो सुल्तान के धार्मिक और राजनीतिक प्रभाव को मजबूत करती थी।
  • सुल्तान की धर्मपरायणता: फिरोज शाह तुगलक ने खुद को एक धर्मपरायण मुस्लिम शासक के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने इस्लाम के प्रचार को अपने शासकीय कर्तव्यों का हिस्सा माना। उन्होंने मस्जिदों, मदरसों, खानकाहों, और सरायों को संरक्षण देकर इस्लामिक आदर्शों को बढ़ावा दिया। उनके शिलालेख उनकी व्यक्तिगत धर्मपरायणता और धार्मिक कर्तव्यों को दर्शाते हैं। कदम शरीफ के निर्माण को उन्होंने अपना परम पवित्र कार्य माना।
  • तीर्थ का महत्व: यह तीर्थ उनके शासनकाल में एक पूजनीय स्थान बन गया और वर्षों तक तीर्थस्थल के रूप में सम्मानित रहा। इसने सुल्तान की शाही शक्ति और दैवीय कानून के बीच संबंध को रेखांकित किया। राजकुमार की कब्र और पैगंबर के पदचिह्नों का एक साथ होना सत्ता और धर्म के विलय का प्रतीक था।



 कुतुब मस्जिद :  "इस्लाम की ताकत" या कई अर्थ? 

कुतुब मस्जिद, जिसे "कुव्वत-अल-इस्लाम" (इस्लाम की ताकत) कहा जाता है, को व्यापक रूप से मुस्लिम शासन की शुरुआत और "विजय मस्जिद" के रूप में देखा गया है। मंदिर के अवशेषों से बनी यह मस्जिद दिल्ली सल्तनत की प्रकृति को दर्शाती है। हालांकि, सुनील कुमार के अनुसार, मध्यकाल में मस्जिद के अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग अर्थ थे, जो समय के साथ बदले। आज इसे मुख्यतः "इस्लाम की ताकत" के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, लेकिन इसके बहुस्तरीय इतिहास और विविध दृष्टिकोणों को फिर से समझने की आवश्यकता है।

1. मध्यकालीन भारत का राजनीतिक संदर्भ

मध्यकालीन भारत का राजनीतिक ढांचा जटिल और बहुआयामी था। इसे अक्सर एक सजातीय मुस्लिम अभिजात्य वर्ग और हिंदू प्रजा के बीच संघर्ष के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह दृष्टिकोण सीमित है।

  • सत्ता का विकेंद्रीकरण: सुल्तानों की शक्ति असीमित नहीं थी, और सत्ता के कई केंद्र थे, जैसे कुतुब मस्जिद और अन्य वास्तु संरचनाएं, जो विभिन्न शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती थीं।
  • समाज की विविधता: सत्तारूढ़ वर्ग के भीतर असमानता और प्रतिस्पर्धा थी। हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच केवल संघर्ष नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध भी थे।
  • बरनी का पूर्वाग्रह: इतिहासकार बरनी ने निम्न जातियों और गैर-मुस्लिमों के उच्च पदों पर आने का विरोध किया, जो उनके वर्गीय पूर्वाग्रह को दिखाता है।


2. कुतुब मस्जिद और मुस्लिम समाज: प्रतीक और धारणाएं

कुतुब मस्जिद, दिल्ली सल्तनत के प्रारंभिक काल की एक महत्वपूर्ण वास्तुकला, मुस्लिम शासकों और समुदायों के लिए अलग-अलग प्रतीकों का प्रतिनिधित्व करती थी। यह केवल एक धार्मिक स्थल नहीं थी, बल्कि शक्ति, एकता, और वैधता का भी बयान थी।

  • सुल्तानों के लिए मस्जिद का महत्व: सुल्तानों ने कुतुब मस्जिद का उपयोग अपने इस्लामी शासन और मुस्लिम समुदाय पर नैतिक नेतृत्व स्थापित करने के लिए किया। मस्जिद एक ऐसा स्थल थी जहां अलग-अलग गुटों और विचारधाराओं वाले मुसलमानों को एक छतरी के नीचे लाने का प्रयास किया गया। शिलालेख और वास्तुकला सुल्तानों की वैधता और उनके शासन के धार्मिक आधार को मजबूत करते थे।
  • मुस्लिम समुदाय के लिए मस्जिद का महत्व: मस्जिद मुस्लिम समुदाय की सुरक्षा और एकता का प्रतीक थी। मस्जिद पर शिलालेख काफिरों (गैर-मुसलमानों) को संबोधित करते थे, जबकि प्रार्थना के स्थान पर आस्थावानों के लिए संदेश होते थे। दिल्ली को इस्लाम का गुंबद (कुब्बत अल-इस्लाम) कहा गया, लेकिन यह एकरूपता से दूर था।
  • मस्जिद पर विवाद और विभाजन: नूर तुर्क जैसे सूफी संतों ने मस्जिद पर हमला किया, इसे "उलेमा" के बाहरी आडंबर का प्रतीक मानते हुए आलोचना की। सूफी और उलेमा दोनों मुस्लिम समुदाय के प्रभावशाली सदस्य थे। सुल्तानों ने मस्जिदों और मदरसों का निर्माण करके उलेमा का समर्थन पाने की कोशिश की, जिससे सूफियों और उलेमा के बीच टकराव भी बढ़ा।
  • सूफी संतों की व्याख्या: सूफियों के अनुसार, मस्जिद पवित्र थी क्योंकि यह धर्मपरायण और पवित्र पुरुषों के कदमों से धन्य हुई थी। औलिया के समय में यह विचार भी सामने आया कि मस्जिद की पवित्रता उसकी वास्तुकला या शिलालेखों से नहीं, बल्कि वहाँ आए संतों और उनके आशीर्वाद से थी।
  • मस्जिद का विस्तार और महत्व: अलाउद्दीन खिलजी के कल में मस्जिद को ऊँचा और अधिक भव्य बनाया गया, इसकी तुलना जेरूसलम की डोम ऑफ द रॉक मस्जिद और मक्का मस्जिद से की गई। मस्जिद सुल्तानों के लिए धार्मिक और राजनीतिक वैधता का केंद्र बनी रही।


3. मस्जिद और हिंदू

  • मंदिरों का विनाश और उसका प्रभाव: मध्यकालीन भारत में मंदिरों का विनाश न केवल धार्मिक स्थलों को हटाने का कार्य था, बल्कि यह शक्ति और सामाजिक अधिकार के प्रतीकों पर प्रहार भी था। कुतुब मस्जिद इसका एक उदाहरण है, जो हिंदू और जैन मंदिरों के स्थान पर बनाई गई थी। मंदिर उस समय शक्ति और सामाजिक अधिकार के केंद्र माने जाते थे। उनका विनाश युद्ध और प्रभुत्व स्थापित करने की प्रक्रिया का हिस्सा था। इससे शासन की नई पद्धतियां उभरकर सामने आईं और समाज में शक्ति के वितरण में बड़ा बदलाव हुआ।
  • शिलालेख और कारीगरों का योगदान: मीनार पर देवनागरी में मिले शिलालेख, जैसे "मलिकदीन का स्तंभ" और "श्री सुल्तान अलावदी विजयस्तंभ," इस बात का प्रमाण हैं कि हिंदू शिल्पकारों और कारीगरों ने उसके निर्माण और मरम्मत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नाना और साल्हा जैसे कारीगरों ने मीनार की मरम्मत में योगदान देकर सांस्कृतिक समायोजन और संपर्क को दर्शाया। यह शिलालेख और कारीगरों का योगदान विभिन्न सभ्यताओं के बीच आपसी सहयोग और प्रभाव को उजागर करता है।
  • विनाश के साथ सह-अस्तित्व: मध्यकालीन काल में विजय और विनाश के बावजूद "जसरथ का बगीचा" और "हौज ए-रानी" जैसे स्थलों का सुरक्षित रहना सांस्कृतिक सहिष्णुता और सह-अस्तित्व का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि शक्ति प्रदर्शन और प्रभुत्व स्थापित करने के बीच भी विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं को सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया।
  • सांस्कृतिक समायोजन और संकरता: सांस्कृतिक समायोजन और संकरता का एक उत्कृष्ट उदाहरण घुरिद सुल्तान के सिक्कों पर संस्कृत में उनका नाम और देवी लक्ष्मी की छवि का अंकित होना है। इसी तरह, "श्रीमद हमीरा" जैसे संकर शीर्षक भारतीय और इस्लामी परंपराओं के अद्भुत सम्मिलन को दर्शाते हैं। ये उदाहरण इस बात को स्पष्ट करते हैं कि उस समय का शासन केवल प्रभुत्व तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें सांस्कृतिक एकीकरण और विभिन्न परंपराओं के समायोजन की संकर प्रकृति भी निहित थी।
  • इतिहास का बहुस्तरीय दृष्टिकोण: कुतुब मस्जिद केवल "इस्लाम की ताकत" का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक और राजनीतिक मिश्रण का एक महत्वपूर्ण उदाहरण भी है। यह धार्मिक विजय के साथ-साथ सह-अस्तित्व और समायोजन की कहानी को भी दर्शाती है, जिसमें विभिन्न परंपराओं और समाजों के संपर्क और तालमेल की झलक मिलती है। यह इतिहास को एक बहुस्तरीय दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।


4. लोकप्रिय धारणा में मस्जिद

  • कुतुब मस्जिद का महत्त्व समय के साथ बदलता गया। तुगलकों के दौरान नई मस्जिदों के निर्माण से इसका राजनीतिक महत्त्व कम हुआ, लेकिन सूफी प्रभाव बढ़ा। मस्जिद के पास स्थित कुतुब अल-दीन बख्तियार काकी की दरगाह, शेख निजाम अल-दीन औलिया के गुरु के रूप में, 14वीं शताब्दी में लोकप्रिय हो गई। बाद में मुगलों ने भी इसे सम्मानित किया।
  • सैय्यद अहमद खान (1846) ने अपनी पुस्तक असर-अल-सनदीद में उल्लेख किया कि मीनार को "कुतुब साहिब की लठ" कहा जाता था, और मस्जिद का नाम "कुव्वत अल-इस्लाम" था। हालांकि, यह नाम शिलालेखों में नहीं मिलता और मौखिक परंपरा का हिस्सा था।
  • सुनील कुमार के अनुसार, मीनार का नाम काकी के सम्मान में रखा गया था, लेकिन समय के साथ इसे सैन्य कमांडर कुतुब अल-दीन ऐबक से जोड़ा गया। "कुव्वत अल-इस्लाम" मस्जिद को इस्लाम की शक्ति और विजय का प्रतीक माना गया, क्योंकि यह हिंदू और जैन मंदिरों के पुनः उपयोग से बनी थी।


  प्राधिकरण के लिए विवादित दावे  

सल्तनत काल के ऐतिहासिक ग्रंथ एक स्थिर और एकीकृत शासक वर्ग की छवि प्रस्तुत करते हैं, लेकिन वास्तविकता में यह एकता नाजुक थी। कुतुब मस्जिद जैसे स्मारक बदलते समय और संदर्भ के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्राप्त करते रहे। जातीय विविधता और धार्मिक जटिलताओं के कारण सत्ता के लिए लगातार प्रतिस्पर्धी दावे होते रहे, जो सल्तनत की राजनीतिक अस्थिरता को उजागर करते हैं।

1. बहा अल-दीन तुगरिल की वास्तुकला

बहा अल-दीन तुगरिल, जिसे घुरिद सेनापति मुइज अल-दीन मुहम्मद बिन घुर द्वारा बयाना का इक्ता (1195-1210) दिया गया था, ने अपने क्षेत्र में ऐबक के समान स्वतंत्र रूप से सत्ता का दावा किया। तुगरिल ने सुल्तानकोट में एक नई राजधानी और किले का निर्माण करके अपनी स्थिति मजबूत की। उन्होंने ऐबक के प्रतिद्वंद्वी के रूप में खुद को स्थापित किया और अपनी वास्तुकला के माध्यम से अपनी वीरता और सत्ता का प्रदर्शन किया।


महत्त्वपूर्ण निर्माण:

  • चौरासी खंबा मस्जिद (1204), कामन: मस्जिद के मुख्य प्रवेश द्वार पर तुगरिल का शिलालेख पाया गया है, जिसमें उन्होंने खुद को "पद्शाह" और "सुल्तान" घोषित किया। यह शिलालेख ऐबक के बयानों से अधिक महत्त्वपूर्ण दावे को दर्शाता है।
  • उखा मंदिर मस्जिद, बयाना: हिंदू मंदिर को मस्जिद में परिवर्तित किया गया, जो तुगरिल की विजेता छवि को प्रदर्शित करता है।
  • ईदगाह, बयाना: क्षेत्र में इस्लामी पहचान को स्थापित करने के लिए प्रार्थना स्थल का निर्माण।
  • राजनीतिक संदर्भ: तुगरिल के निर्माण कार्य ऐबक के समान शक्तिशाली होने के दावों को दर्शाते हैं। उनका यह प्रयास दिखाता है कि प्रारंभिक सल्तनत एक एकीकृत इकाई नहीं थी, बल्कि विभिन्न शक्तिशाली व्यक्तियों के बीच सत्ता संघर्ष का केंद्र थी।


सुल्तान और सूफी

  • 12वीं शताब्दी में सूफी शेखों और इस्लामी रियासतों का प्रभाव साथ-साथ बढ़ा। चिश्ती और सुहरावर्दी जैसे सूफी सिलसिलों ने समाज में गहरी पैठ बनाई, जिससे सुल्तानों के सत्ता क्षेत्र पर उनका प्रभाव पड़ा। सुल्तानों और शेखों के बीच सहयोग और संघर्ष दोनों देखे गए, क्योंकि उनके प्रभाव क्षेत्र अक्सर टकराते थे।
  • सूफी ग्रंथ और दरबारी इतिहास, दोनों ही सुल्तानों और शेखों की प्रशंसा करते हुए समान भाषा और रूपकों का उपयोग करते थे। जैसे अमीर खुसरो ने निजाम अल-दीन औलिया को "शेखों का सुल्तान" कहा, और बरनी ने सुल्तान नासिर-अल-दीन महमूद को "औलिया के गुणों" का प्रतीक बताया।
  • अला-उद-दीन खिलजी (1296-1316) और शेख निजाम अल-दीन औलिया समकालीन थे। दोनों के अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र थे—सुल्तान दिल्ली और सिरी पर शासन करते थे, जबकि शेख घियासपुर में धर्मशाला से धार्मिक प्रभाव रखते थे। शेख का दरबार, सुल्तानों की तरह, दर्शनों, उपकार और जनसमूह को आकर्षित करने का केंद्र था।
  • सुल्तान लौकिक (राजनीतिक) अधिकार और शेख पवित्र (धार्मिक) अधिकार का दावा करते थे। चौदहवीं शताब्दी में यह कहा जाने लगा कि दिल्ली में "दो सुल्तान" थे—एक सुल्तान और एक शेख। अमीर खुसरो, बरनी, और अमीर हसन सिज्जी के लेखन में यह संघर्ष दर्ज है।


3. कुतुब मस्जिद के शिलालेख और "अला" अल-दीन खिलजी के अधिकार के दावे

"अला" अल-दीन खिलजी ने कुतुब मस्जिद का विस्तार करते हुए इसे अपनी राजनीतिक और धार्मिक वैधता का प्रतीक बनाया। उनके शासनकाल में अलाई दरवाजा और नई मीनार की नींव रखी गई। साथ ही, मस्जिद के शिलालेखों ने उनके नैतिक और धार्मिक अधिकार को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • शिलालेखों की सामग्री: अलाई दरवाजा के मेहराबों और खंभों पर कुरान की आयतें, पैगंबर की परंपराएँ, और सुल्तान की प्रशंसा लिखी गई। शिलालेख सुल्तान को "मुस्लिम कानून का संरक्षक" और "पूजा स्थलों का मजबूत रक्षक" घोषित करते हैं। उन्होंने खुद को सिकंदर अल-सानी (दूसरे सिकंदर) और धार्मिक कानून के पुनरुत्थानकर्ता के रूप में प्रस्तुत किया।
  • इल्तुतमिश से भिन्नता: इल्तुतमिश ने शरीयत के पालन की जिम्मेदारी "उलेमा" पर छोड़ी, लेकिन "अला" अल-दीन ने इसे अपने अधिकार का हिस्सा माना। खिलजी ने मस्जिदों और मदरसों के निर्माण को अपने धर्मपरायण शासन का प्रमाण बताया।
  • नैतिक और धार्मिक दावे: शिलालेखों में खिलजी ने तर्क दिया कि उनकी पवित्र छवि और धर्मपरायणता उन्हें शरीयत में हस्तक्षेप और मुस्लिम कानून को लागू करने का अधिकार देती है। उन्हें मूसा और सोलोमन जैसे भविष्यद्वक्ताओं के गुणों का प्रतीक और इस्लामी परंपराओं के विजेता के रूप में चित्रित किया गया।
  • मस्जिद का उद्देश्य: मस्जिद केवल सुल्तान के घमंड का प्रतीक नहीं, बल्कि धार्मिक शिक्षा और सामाजिक अनुशासन का केंद्र थी। इसे शरीयत को पुनर्जीवित और मजबूत करने के उद्देश्य से निर्मित बताया गया।


4. अमीर खुसरो और "अला" अल-दीन खिलजी के अधिकार के दावे

  • अमीर खुसरो और "अला" अल-दीन खिलजी के अधिकार के दावों में खुसरो की कविताओं और शिलालेखों ने सुल्तान की छवि को ईश्वर द्वारा चुने गए प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया। खुसरो ने सुल्तान को शरीयत के पुनर्जीवितकर्ता, मूसा और सोलोमन जैसे इस्लामी भविष्यवक्ताओं के गुणों से युक्त, और नए युग का सिकंदर बताया। उन्होंने सुल्तान को संत, विजेता, और न्यायप्रिय शासक के रूप में चित्रित किया, जिनका ईश्वर से विशेष संबंध था। इस प्रकार, मस्जिद और खुसरो, अपने-अपने स्थानों से, सुल्तान के नैतिक अधिकार को स्थापित करने के समान दावे कर रहे थे।


5. बरनी और "अला" अल-दीन खिलजी के अधिकार पर पुनर्विचार

  • बरनी ने "अला" अल-दीन खिलजी के नैतिक और धार्मिक अधिकार के दावों को चुनौती दी। उनके अनुसार, सुल्तान अधार्मिक था, शरीयत की अवहेलना करता था, और इस्लाम की मूल शिक्षाओं से अज्ञान था। बरनी ने सुल्तान को एक ऐसा शासक बताया जो धार्मिक उपदेशों का मज़ाक उड़ाता था, जिससे दिल्ली के नागरिकों को धार्मिक और नैतिक पतन का सामना करना पड़ा। बरनी ने सुल्तान के बजाय शेख निजाम अल-दीन औलिया को वास्तविक धार्मिक और नैतिक नेता माना, जिन्होंने दिल्ली के निवासियों की रक्षा और मार्गदर्शन किया। उनके अनुसार, शेख की प्रार्थनाओं ने मंगोल आक्रमण को रोकने और शहर में स्थिरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बरनी ने सुल्तान और शेख के बीच ईश्वर के साथ संबंध की अवधारणा को पलटते हुए, शेख को 'वास्तविक सुल्तान' के रूप में चित्रित किया।
  • हालाँकि, यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अमीर खुसरो ने शेख का सम्मान किया, लेकिन उनके लिए दोनों सुल्तान – खुसरो के विचार में "अला" अल-दीन और शेख – अपने-अपने क्षेत्रों में समान रूप से महत्वपूर्ण थे। इस प्रकार, बरनी का दृष्टिकोण मस्जिद के शिलालेखों और अमीर खुसरो की प्रशंसा से एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जो सुल्तान की नैतिकता और धार्मिकता के दावों को खारिज करता है।


6. अमीर हसन सिज्जी और शेख निजाम अल-दीन का सत्ता पर दावा

  • शेख का आध्यात्मिक अधिकार और सुल्तान से तुलना: अमीर हसन सिज्जी ने शेख निजाम अल-दीन औलिया को "शेखों का सुल्तान," "विश्व का नेत्र," और "मुसलमानों का भगवान" बताया। शेख के दरबार में दरबारी रस्मों का पालन होता था, और वे दिलों और दिमागों पर राज करते थे। सिज्जी के अनुसार, दिल्ली के असली सुल्तान वही थे, क्योंकि उनके पास नैतिक अधिकार और ज्ञान था।
  • सुल्तान "अला" अल-दीन खिलजी की उपेक्षा: "फवाद अल-फुअद" में "अला" अल-दीन खिलजी का उल्लेख नहीं किया गया, जबकि पूर्व के सुल्तानों का उल्लेख मिलता है। पाठ शरीयत के सतही ज्ञान और "उलेमा" की कर्मकांडी प्रवृत्तियों की आलोचना करता है। शेख ने मस्जिदों और स्कूलों के निर्माण को तुच्छ बताया और आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता पर जोर दिया।
  • शेख की आध्यात्मिकता बनाम सुल्तान की शरीयत: "अला" अल-दीन ने अपने शिलालेखों में मस्जिदों को पवित्रता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। शेख का दृष्टिकोण यह था कि असली पवित्रता संतों के चरणों और उनके उपदेशों में है, न कि मस्जिदों में। शेख ने सामुदायिक प्रार्थना और व्यक्तिगत आध्यात्मिक अनुभव को प्राथमिकता दी।
  • सुल्तान और शेख के दावे में टकराव: सुल्तान और शेख दोनों मुस्लिम समुदाय के संरक्षक और मार्गदर्शक होने का दावा कर रहे थे। दोनों इस्लाम के वैकल्पिक संस्करणों का प्रतिनिधित्व करते थे:

1. सुल्तान शरीयत और संरचनात्मक इस्लाम का प्रतीक।

2. शेख सूफी रहस्यमयता और व्यक्तिगत आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व करते थे।

  • सत्ता में दरार और समग्र दृष्टिकोण: सुल्तान-सूफी टकराव सल्तनत में सत्ता के भीतर गहरे विचारधारात्मक मतभेद को दर्शाता है। हालाँकि, कुमार के अनुसार, इसे केवल द्विआधारी विरोध के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। सूफी और "उलेमा" के विचार विभिन्न रूपों में प्रकट हुए, जिनमें अन्य प्रतिस्पर्धी प्रणालियाँ भी थीं।




राजनीतिक प्राधिकरण को व्यक्त करना : अनुष्ठान

 वैधता के पारंपरिक रूप 

दिल्ली के सुल्तानों ने अपने शासन को वैध बनाने के लिए धार्मिक, सांस्कृतिक और खलीफा सत्ता के प्रतीकात्मक जुड़ाव का उपयोग किया।

1.धार्मिक और ऐतिहासिक संदर्भ:

  • सुल्तानों को धार्मिक और ऐतिहासिक वैधता प्रदान करने के लिए उन्हें "इस्लाम के राजा," "शरीयत के रक्षक," और "विश्वास की रक्षा करने वाला" जैसे उपाधियों से नवाजा गया। यह वैधता उन्हें धार्मिक और ऐतिहासिक संदर्भों से जोड़कर सुदृढ़ की गई। ऐतिहासिक ग्रंथों में सुल्तानों को न केवल इस्लामी पैगंबरों और सूफियों जैसे पवित्र पुरुषों से जोड़ा गया, बल्कि पूर्व-इस्लामिक फारसी शासकों की परंपरा से भी संबंध स्थापित किया गया। अमीर खुसरो ने "अला-उद-दीन खिलजी" को "युग का खलीफा" कहकर उन्हें धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व का प्रतीक बनाया। यह जुड़ाव सुल्तानों को एक विशेष धार्मिक और ऐतिहासिक अधिकार प्रदान करता था, जो उनकी सत्ता को वैध और प्रभावी बनाता था।


2.शीर्षक और प्रतीक:

  • सुल्तानों ने अपनी सत्ता को वैधता प्रदान करने के लिए शीर्षकों और प्रतीकों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया। फारसी और अरबी उपाधियों जैसे "शहंशाह," "अमीर," और "यामिन अल-दावला" ने उन्हें शक्ति और शासन के प्रतीक के रूप में स्थापित किया। खलीफा से प्रेरित उपाधियों, जैसे 'अल-सुल्तान जिल-अल्लाह फ़िश्ल-अर्द' (ईश्वर की छाया पृथ्वी पर), ने उनकी धार्मिक और राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ किया। कुतुब अल-दीन मुबारक शाह खिलजी ने खुद को "खलीफुल्ला" (अल्लाह का उत्तराधिकारी) घोषित कर खलीफा से सीधा संबंध स्थापित किया। सिक्कों पर खलीफा अल-मुस्तानसिर और अल-मुस्तसिम का नाम अंकित कर इल्तुतमिश और अन्य सुल्तानों ने खलीफा की वैचारिक वैधता को आगे बढ़ाया। ये शीर्षक और प्रतीक सुल्तानों की सत्ता को धार्मिक और ऐतिहासिक संदर्भ में वैधता प्रदान करने के साधन थे।


3. दरबारी अनुष्ठान:

  • दरबारी अनुष्ठानों ने सुल्तानों की शक्ति और वैधता को प्रदर्शित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बलबन ने फारसी परंपराओं से प्रेरित सिजदा (साष्टांग दंडवत) और पा-इ बुसी (जमीन चूमने) जैसे अनुष्ठानों को दरबार में लागू किया, जिससे सुल्तानों को देवतुल्य सम्मान प्राप्त हुआ। शुक्रवार के उपदेश (खुतबा) में सुल्तानों का नाम सामूहिक रूप से पढ़ा जाना, उनकी धार्मिक और राजनीतिक श्रेष्ठता का प्रतीक था। राजसी प्रतीकों जैसे ताज, सिंहासन, तलवार, तीर, और रंगीन छत्र का उपयोग उनके अधिकार और करिश्मे को व्यक्त करने के साधन थे। इन अनुष्ठानों और प्रतीकों ने सुल्तानों की सत्ता को धार्मिक और सांस्कृतिक वैधता प्रदान की।


4. खलीफा से वैधता:

  • सुल्तानों ने अपनी वैधता को मजबूत करने के लिए खलीफा से आधिकारिक मान्यता प्राप्त की। खलीफा द्वारा दिए गए मंशूरा (जनादेश) और खलीफा बागे (वस्त्र) ने सुल्तानों के शासन को धार्मिक और राजनीतिक अधिकार प्रदान किया। इल्तुतमिश, मोहम्मद बिन तुगलक, और फिरोज शाह तुगलक जैसे सुल्तानों ने इसे स्वीकार कर अपनी सत्ता को वैधता और प्रतिष्ठा दी, जिससे उनके शासन को मजबूती मिली। खलीफा से जुड़ाव ने सुल्तानों के अधिकार को एक वैश्विक इस्लामी परिप्रेक्ष्य में स्थापित किया।


विचलन

  • प्रमुख सांस्कृतिक संहिता और बदलाव: दरबारी समारोहों और अनुष्ठानों की प्रमुख सांस्कृतिक संहिता फारसी-इस्लामी थी, जो इस्लामी आस्था और निरंकुश राजशाही के मानदंडों पर आधारित थी। हालांकि, समय के साथ ये रस्में और प्रथाएँ बदल गईं, जैसा कि राजधानियों के स्थानांतरण और सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग की संरचना में बदलाव से देखा गया। हर नई राजनीतिक व्यवस्था अपने साथ नए रीति-रिवाज और परंपराएँ लेकर आई, जिससे दरबारी अनुष्ठानों पर प्रभाव पड़ा।
  • खिलजी उत्तराधिकार प्रकरण: जलाल अल-दीन खिलजी की हत्या के बाद उनकी विधवा मलिका-ए-जहाँ ने अपने छोटे बेटे को सिंहासन पर बिठाकर स्वयं को उसका प्रतिनिधि घोषित किया। इसने बड़े बेटे अर्कली खान के दावों को खारिज कर दिया, जो अधिक योग्य था। यह परंपरा खिलजी उत्तराधिकार के मानदंड से अलग थी, जिसमें छोटे भाई को प्राथमिकता दी जाती थी। "अला" अल-दीन खिलजी ने इस प्रथा को चुनौती दी और सत्ता पर कब्जा कर लिया। बरनी जैसे इतिहासकार इसे मलिका-ए-जहाँ की विफलता और अक्षमता का परिणाम मानते हैं, लेकिन स्थानीय उत्तराधिकार प्रथाओं को समझने में असमर्थ रहे। उनका दृष्टिकोण फारसी कुलीन मानदंडों तक सीमित था, जो सल्तनत की नई सत्तारूढ़ परंपराओं को समझने में बाधक था।
  • तुगलक जुलूस और घशिया प्रथा: तुगलक वंश में घशिया (सोने की काठी का आवरण) को शाही जुलूस में एक औपचारिक प्रतीक के रूप में ले जाया जाता था। इब्न बतूता ने मोहम्मद बिन तुगलक के समय इस रस्म का वर्णन किया। यह प्रथा तुर्को-स्टेपी परंपराओं से उत्पन्न हुई थी और फारसी-इस्लामी मानदंडों से भिन्न थी हालाँकि, फारसी इतिहासकारों जैसे बरनी और सरहिंदी ने इन रस्मों का उल्लेख नहीं किया, क्योंकि वे सल्तनत को एक समरूप मुस्लिम राज्य के रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति रखते थे। उनके दृष्टिकोण में गैर-इस्लामिक या गैर-फारसी परंपराओं के लिए कोई स्थान नहीं था।
  • सल्तनत की बदलती प्रकृति: सल्तनत एक स्थिर इकाई नहीं थी; यह एक निरंतर विकसित होने वाली व्यवस्था थी। इसने फारसी-इस्लामी परंपराओं के साथ-साथ स्थानीय और सीमांत सांस्कृतिक तत्वों को आत्मसात किया। यह बदलाव सल्तनत की लचीलेपन और विविधता को दर्शाता है, जो विभिन्न राजनीतिक और सांस्कृतिक अनिवार्यताओं के साथ समायोजित होती रही।



संक्षिप्त निष्कर्ष

दिल्ली सल्तनत का शासन एक केंद्रीय इस्लामिक राज्य की अवधारणा से अधिक जटिल और नाजुक था। सुल्तानों की सत्ता को लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ा और यह कई परस्पर विरोधी तत्वों से प्रभावित थी।कुतुब कॉम्प्लेक्स और अन्य स्मारक "इस्लाम की ताकत" के प्रतीक बने, लेकिन उनके अर्थ समय और संदर्भ के साथ बदलते रहे।सुल्तानों का अधिकार कभी भी अखंड नहीं था; यह विभिन्न जातीय, धार्मिक और सामाजिक समूहों से बातचीत और संघर्ष का परिणाम था। दरबारी रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक तत्वों ने फारसी-इस्लामी परंपराओं से विचलन दिखाया। आधुनिक शोध इस धारणा को खारिज करते हैं कि सल्तनत केवल एक सजातीय और केंद्रीयवादी इस्लामी राज्य था। यह एक बहुस्तरीय और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध सत्ता संरचना थी।












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