मोहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली सल्तनत को संगठित रखने और दक्षिण में अपने साम्राज्य को मजबूत करने के लिए अनेक प्रयास किए। मोहम्मद बिन तुगलक ने देवगिरी को दूसरी राजधानी बनाया, लेकिन विद्रोहों और असफल नीतियों के कारण दक्षिण में न केवल उनकी योजनाएं विफल रहीं, बल्कि विजयनगर और बहमनी जैसे नए राज्यों का उदय भी हुआ।
विजयनगर की भौगोलिक परिस्थिति और इतिहास
विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 में हरीहर और बुक्का नामक भाइयों ने की थी। यह साम्राज्य दक्षिण भारत में पूर्वी और पश्चिमी घाट के बीच फैला था। प्रारंभ में हरीहर ने शासन संभाला, और उनके बाद उनके भाई बुक्का ने 1377 तक विजयनगर की राजनीति को दिशा दी।
- संघर्ष और भू-स्थान: विजयनगर और बहमनी सल्तनत के बीच संघर्ष का प्रमुख कारण कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच की उपजाऊ भूमि थी। यह क्षेत्र खेती के लिए बेहद उपयुक्त था। प्रोफेसर गुरती वेंकट राव के अनुसार, इन टकरावों के पीछे मुख्य वजह आर्थिक लाभ था।
- देवराय द्वितीय का शासनकाल: देवराय द्वितीय (संगम वंश के सबसे महान शासक) के समय विजयनगर साम्राज्य की सीमाएँ केरल तक फैल गईं। उनके शासनकाल को विजयनगर के विकास और स्थायित्व के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है।
- कृष्णदेव राय का स्वर्णकाल: विजयनगर के सबसे प्रसिद्ध शासक कृष्णदेव राय (1509-1529) ने साम्राज्य को नई ऊंचाइयों पर पहुँचाया।
1. उन्होंने बीजापुर, गुलबर्गा, बीदर और उड़ीसा के शासकों को हराकर साम्राज्य का विस्तार किया।
2. 1518 में उड़ीसा के गजपति शासक को पराजित कर सन्धि के माध्यम से खोई हुई भूमि वापस प्राप्त की।
3. कृष्णदेव राय केवल एक योद्धा ही नहीं, बल्कि एक विद्वान, साहित्यप्रेमी और धार्मिक सहिष्णु शासक भी थे।
- कला, साहित्य और प्रशासन: कृष्णदेव राय ने कला और साहित्य को प्रोत्साहन दिया। उनके शासनकाल में विजयनगर का साम्राज्य गौरव के शिखर पर था। उनकी मृत्यु के बाद साम्राज्य को गंभीर क्षति हुई।
विजयनगर- बहमनी संघर्ष
विजयनगर और बहमनी राज्यों के बीच का संघर्ष मुख्यतः रायचूर दोआब (कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का उपजाऊ क्षेत्र) पर नियंत्रण के लिए हुआ। इस संघर्ष का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक और आर्थिक लाभ प्राप्त करना था।
संघर्ष का प्रारंभ और युद्ध
- रायचूर दोआब पर अधिकार: दोनों राज्यों की सेनाएँ लगातार इस क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए लड़ती रहीं। यह क्षेत्र कभी विजयनगर तो कभी बहमनी के अधीन हुआ। 1366 में कोटलाम का युद्ध हुआ, जिसमें भयानक नरसंहार हुआ। इसके बाद दोनों पक्षों ने निर्णय लिया कि सैनिक निर्दोष जनता को हानि नहीं पहुँचाएँगे, लेकिन इस निर्णय का पूरी तरह पालन नहीं हुआ।
- 1398 का भयंकर युद्ध: हरीहर द्वितीय ने आठ हजार घुड़सवार और नौ लाख पैदल सैनिकों के साथ रायचूर पर आक्रमण किया। 1399 में कृष्णा नदी के किनारे युद्ध हुआ, जिसमें बहमनी सेना ने काजी सिराजुद्दीन की कूटनीति के कारण विजय प्राप्त की। विजयनगर की अपार संपत्ति बहमनी के हाथ लग गई।
- तालीकोट का युद्ध (1565): विजयनगर के राजा सदाशिव राय के मंत्री राम राय के नेतृत्व में विशाल सेना तैयार की गई, जिसमें 80,000 घुड़सवार, 9 लाख पैदल सैनिक, 2,000 हाथी और तोपखाना शामिल था।
1. बीजापुर, अहमदनगर, बीदर और गोलकुंडा के राज्यों ने गठबंधन बनाकर विजयनगर पर आक्रमण किया।
2. युद्ध की शुरुआत में विजयनगर का पलड़ा भारी था, लेकिन गठबंधन के तोपखाने के कारण विजयनगर की हार हो गई।
3. इस पराजय के पीछे राम राय का अत्यधिक आत्मविश्वास और रणनीतिक गलतियाँ मानी जाती हैं।
- तालीकोट युद्ध का परिणाम: यह युद्ध विजयनगर साम्राज्य के सैनिक गौरव के अंत का प्रतीक था। विजयनगर की राजधानी को लूट लिया गया, और साम्राज्य का राजनीतिक प्रभाव कम हो गया। हालांकि, विजयनगर राज्य एक सदी तक किसी न किसी रूप में बना रहा। अराविदु वंश के काल में राजधानी को पेनुगोंडा स्थानांतरित कर दिया गया।
विजयनगर की शासन व्यवस्था
विजयनगर साम्राज्य की शासन व्यवस्था मध्यकालीन भारतीय राजव्यवस्थाओं का एक संगठित रूप थी। राजा सर्वोच्च शासक था, लेकिन शासन प्रणाली में धर्म, राजनीति और प्रशासन का संतुलन बनाए रखा गया।
- 1. राजा का स्थान और भूमिका: विजयनगर के शासक निरंकुश (absolute) थे, और सभी नागरिक, सैनिक तथा न्यायिक अधिकार उनके हाथों में केंद्रित थे। शासक का प्रशासन धर्म और कुशलता के सिद्धांतों पर आधारित था। कृष्णदेव राय ने अपनी पुस्तक आयुक्त माल्यदा में लिखा कि “राजा को धर्म और कुशल प्रशासन को ध्यान में रखकर राज्य चलाना चाहिए।” हालांकि, शासक धार्मिक रूप से कट्टर नहीं थे और परिस्थितियों के अनुसार प्रशासन में लचीलापन अपनाते थे। उनके निर्णयों को वैधता प्रदान करने के लिए ब्राह्मण पवित्र ग्रंथों की स्वीकृति देते थे, जो राजा के अधिकार और शासन को धार्मिक आधार पर मजबूत बनाती थी।
- 2. केन्द्रीय प्रशासन: विजयनगर साम्राज्य में केंद्रीय प्रशासन का केंद्र राजा था, जिसके पास समस्त राजनीतिक शक्तियाँ निहित थीं। प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए कई विभाग स्थापित किए गए थे। इन विभागों के प्रमुख राजा को दैनिक कार्यों में सहायता करते थे, और उनकी नियुक्ति व पद से हटाने का अधिकार राजा के पास था। अधिकांश विभागाध्यक्ष उच्च वर्गीय जातियों से चुने जाते थे, जो प्रशासनिक व्यवस्था में वर्गीय पूर्वाग्रह को दर्शाता है। विभागीय कामकाज के संचालन के लिए केंद्रीय कार्यालयों में छोटे कर्मचारी भी तैनात किए जाते थे, जो राजा और विभागाध्यक्षों के निर्देशों का पालन करते थे।
- 3. प्रांतीय प्रशासन: विजयनगर साम्राज्य को कई प्रांतों में विभाजित किया गया था। इतिहासकारों के अनुसार, प्रांतों की संख्या पर मतभेद हैं, लेकिन कृष्ण शास्त्री के अनुसार इनकी संख्या 6 थी। प्रत्येक प्रांत का प्रमुख अधिकारी नायक कहलाता था, जो या तो राजा के वंश से या सामंत वर्ग से चुने जाते थे। नायक प्रांत की नागरिक, सैनिक और आर्थिक व्यवस्थाओं के लिए उत्तरदायी होते थे। उन्हें स्थानीय स्तर पर स्वतंत्रता प्राप्त थी, लेकिन उनकी जिम्मेदारी राजा को राजस्व और सैनिक सहायता प्रदान करने की थी। इस प्रकार प्रांतीय प्रशासन ने केंद्रीय और स्थानीय शासन के बीच संतुलन बनाए रखा।
- 4. न्याय व्यवस्था: विजयनगर साम्राज्य में न्याय व्यवस्था प्रभावशाली और सख्त थी। राज्य में नियमित अदालतें स्थापित थीं, जो स्थानीय कानूनों के आधार पर मुकदमों का निपटारा करती थीं। अपराधियों को कठोर दंड दिया जाता था, जिसमें राज्यद्रोह, चोरी, और मिलावट जैसे गंभीर अपराधों के लिए मृत्यु दंड निर्धारित था। इस सख्त न्याय प्रणाली ने साम्राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विजयनगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था
विजयनगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि और व्यापार पर आधारित थी। यह साम्राज्य अपने समय का सबसे समृद्ध और उन्नत क्षेत्र माना जाता था।
- 1. राजस्व प्रणाली: विजयनगर साम्राज्य की राजस्व प्रणाली का मुख्य आधार भूमि कर था, जो राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। भूमि कर की मात्रा को लेकर विभिन्न इतिहासकारों में मतभेद हैं। डॉ. सरन के अनुसार, यह फसल का 1/4 भाग था, जबकि कुछ प्रमाण इसे फसल का 1/2 भाग भी बताते हैं। इसके अलावा, राज्य में अन्य प्रकार के कर भी लगाए जाते थे, जैसे विवाह कर, चुंगी कर (तोल टैक्स), और माल तैयार करने पर कर। यह राजस्व प्रणाली राज्य की आर्थिक संरचना को बनाए रखने में सहायक थी।
- 2. कृषि: विजयनगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी और इसकी उन्नत प्रणाली साम्राज्य की समृद्धि का मुख्य कारण थी। यात्री पायस के अनुसार, यहां की कृषि अत्यधिक विकसित थी। प्रमुख फसलें जैसे चावल, अनाज, भारतीय मकई, जौ, फलियाँ, मूंग, और घोड़ों का दाना उगाई जाती थीं। राजधानी के बाजार हमेशा माल से लदे बैलों और सस्ती वस्तुओं से भरे रहते थे, जो न केवल कृषि उत्पादकता बल्कि व्यापार की उन्नति का भी प्रमाण थे। कृषि की प्रगति और संगठित बाजार व्यवस्था ने विजयनगर को आर्थिक रूप से मजबूत और स्थिर बनाया।
- 3. व्यापार: विजयनगर साम्राज्य का व्यापार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्तारित था, जिसमें चीन, बर्मा, अरब, फारस, अफ्रीका और पुर्तगाल जैसे देशों के साथ संबंध थे। आयातित वस्तुओं में घोड़े, ताँबा, मूंगा, पारा, चीनी, रेशम और मखमल शामिल थे, जबकि निर्यातित वस्तुएँ कपड़ा, चावल, लोहा, शीरा (molasses), और मसाले थीं। साम्राज्य के बंदरगाह व्यापार को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण थे। अब्दुरज्जक ने इन बंदरगाहों की व्यस्तता का वर्णन किया, और बारबोसा (1516) ने विजयनगर को एक सक्रिय व्यापारिक केंद्र के रूप में सराहा। यह अंतरराष्ट्रीय व्यापार साम्राज्य की आर्थिक समृद्धि का एक प्रमुख आधार था।
बहमनी राज्य की स्थापना और पतन
- स्थापना: बहमनी राज्य की स्थापना 1347 ई. में हसन गगु (अलाउद्दीन हसन बहमन शाह) ने की। प्रारंभ में यह राज्य बरार क्षेत्र तक सीमित था, लेकिन बाद में इसकी सीमाएँ उत्तर में मालवा और खानदेश से लेकर दक्षिण में तेलंगाना तक फैल गईं।
- विजयनगर से संघर्ष: रायचूर दोआब के उपजाऊ क्षेत्र को लेकर दोनों के बीच भीषण युद्ध हुए। कोटलम युद्ध के बाद असैनिकों को नुकसान न पहुँचाने का समझौता हुआ।
1. गुजरात: बार-बार आक्रमण किए, लेकिन सफलता नहीं मिली।
2. मालवा: आक्रमण और प्रतिआक्रमण की नीति के बावजूद विजयनगर और गुजरात की मदद से मालवा ने खुद को बचाया।
3. खानदेश: बहमनियों ने इसे कमजोर किया, लेकिन गुजरात ने बचाव किया।
- आंतरिक कमजोरियाँ और पतन: विद्रोहों और कमजोर प्रशासन के चलते 1527 में बहमनी राज्य का पतन हो गया। इसके बाद सूबेदारों ने अपने-अपने क्षेत्रों को स्वतंत्र घोषित कर दिया।
बहमनी राज्य: स्थापना और विकास (1347-1527)
बहमनी राज्य की स्थापना 1347 में हसन गगु द्वारा की गई, जिन्होंने सत्ता संभालने के बाद अबुल मुजफ्फर अलाउद्दीन हसन बहमन शाह की उपाधि धारण की। यह राज्य दक्षिण भारत के राजनीतिक इतिहास में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा। प्रारंभ में यह बरार क्षेत्र तक सीमित था, जिसकी उत्तरी सीमाएँ मालवा और खानदेश तक और दक्षिणी सीमाएँ तेलंगाना तक फैली हुई थीं। बहमनी शासकों का मुख्य उद्देश्य रायचूर दोआब जैसे उपजाऊ क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करना, पड़ोसी राज्यों को अधीन करना और विजयनगर साम्राज्य के विस्तार को रोकना था।
- 1.विजयनगर से संघर्ष: विजयनगर के साथ बहमनियों का संघर्ष लंबे समय तक चला, जिसका मुख्य कारण उपजाऊ रायचूर दोआब पर अधिकार था। इस संघर्ष के दौरान कई भीषण युद्ध हुए, जिनमें कोटलम का युद्ध सबसे भयानक था। इस युद्ध में लाखों लोग मारे गए, और विजेता बहमनियों ने विजयनगर के सैनिकों, असैनिकों और पुजारियों को निर्दयता से मौत के घाट उतार दिया। इस भयावह नरसंहार के बाद दोनों पक्षों ने असैनिकों को नुकसान न पहुँचाने का समझौता किया, लेकिन यह संघर्ष और तनाव अंत तक बना रहा। विजयनगर के साथ यह प्रतिस्पर्धा बहमनी राज्य की नीतियों और अस्तित्व का प्रमुख हिस्सा बनी रही।
- 2. अन्य राज्यों से संबंध: बहमनी राज्य का संघर्ष केवल विजयनगर तक सीमित नहीं था। गुजरात, मालवा, खानदेश, उड़ीसा और गोंडवाना जैसे राज्यों के साथ भी इसका टकराव हुआ। गुजरात के शासकों ने बहमनियों के आक्रमणों का प्रभावी ढंग से मुकाबला किया, लेकिन प्रत्यक्ष हमला नहीं किया। मालवा के शासकों ने आक्रामक नीति अपनाई, जिससे बहमनियों को अधिक लाभ मिला। खानदेश बहमनियों का बार-बार शिकार बना, लेकिन गुजरात ने उसे बचाने में सहायता की। उड़ीसा और गोंडवाना पर बहमनियों ने मुख्यतः क्षेत्रीय विस्तार और कोष बढ़ाने के उद्देश्य से हमले किए।
- 3. आंतरिक स्थिति और पतन: बहमनी राज्य आंतरिक रूप से कमजोर था। राजपरिवार के सदस्यों, अमीरों और जमींदारों के विद्रोहों ने प्रशासन को कमजोर कर दिया। लगातार युद्धों और संघर्षों के कारण राज्य की आर्थिक स्थिति भी खराब हो गई। 1482 में मोहम्मद तृतीय की मृत्यु के बाद बहमनी साम्राज्य का पतन शुरू हुआ। अंततः 1527 में राज्य के 5 सूबेदारों ने अपने-अपने क्षेत्रों को स्वतंत्र घोषित कर दिया, जिससे बहमनी राज्य का अंत हो गया।
बहमनी राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था
1. प्रथम चरण: प्रारंभिक प्रशासनिक ढांचा यह चरण बहमनी सल्तनत के संस्थापक हसन गंगू बहमनी (1347–1358) के शासनकाल से जुड़ा है।
- प्रशासनिक संरचना: बहमनी साम्राज्य को चार प्रांतों (सूबों) में विभाजित किया गया था:
- गुलबर्गा: सैफउद्दीन गोरी।
उद्देश्य: प्रशासनिक कार्यों का विकेंद्रीकरण। जिम्मेदारियों को अधिकारियों में बांटकर सुचारू शासन सुनिश्चित करना।
2. द्वितीय चरण: प्रशासन में सुधार और विस्तार यह चरण मोहम्मद शाह प्रथम (1358–1375) के शासनकाल से संबंधित है।
- प्रमुख सुधार: मोहम्मद शाह एक कुशल योद्धा होने के साथ-साथ प्रशासनिक दक्षता के लिए भी जाने जाते थे। उन्होंने शासन को बेहतर बनाने के लिए कई नए सुधार किए।अधिकारियों की संख्या बढ़ाई गई। प्रशासनिक पदों के नाम और कार्य पुनःनिर्धारित किए गए।
- प्रमुख पद और उनकी भूमिकाएं:
1. वजीर: राज्य के प्रधान मंत्री।
2. कोतवाल: राजधानी के न्याय और सुरक्षा के प्रमुख।
3. नाजिर: शाही खर्चों की देखरेख करने वाला।
- सुधार का उद्देश्य: प्रशासनिक दक्षता बढ़ाना और शासन को व्यवस्थित करना।
3. तृतीय चरण: प्रशासन का परिष्कृत रूप यह चरण मोहम्मद शाह तृतीय (1463–1482) के शासनकाल में देखा गया।
- मुख्य सुधार: प्रांतों (सूबों) की संख्या बढ़ाकर 8 कर दी गई। प्रशासनिक अधिकारियों की शक्तियों को सीमित किया गया ताकि सत्ता का संतुलन बना रहे। “चेक्स एंड बैलेंस” की प्रणाली लागू की गई।
- प्रशासनिक बदलाव: प्रांतों को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटा गया। अधिकारियों पर नियमित निगरानी की गई। नए अधिकारियों की नियुक्ति और उन्हें जवाबदेही का निर्देश दिया गया।
- सुधार का उद्देश्य: अधिकारियों की शक्ति पर नियंत्रण। साम्राज्य में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करना। विद्रोह की संभावनाओं को कम करना।